Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अ. १ की प्रवृत्ति से भावित होता है । तथा शबलता (मलीनता) से रहित, संक्लेश से रहित, अक्षतनिरतिचार चारित्र की भावना ने युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है-मोक्ष का साधक होता है। द्वितीय भावना : मनःसमिति
११४-बिइयं च मणेण पावएणं पावगं अहम्मियं दारुणं हिस्संसं वह-बंध-परिकिलेसबहुलं भय-मरण-परिकिलेससंकिलिलैंण कयावि मणेण पावएणं पावगं किंचि वि झायव्वं । एवं मणसमिइजोगेण भावियो भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू ।
११४-दूसरी भावना मनःसमिति है । पापमय, अधार्मिक-धर्मविरोधी, दारुण-भयानक, स–निर्दयतापर्ण. वध. बन्ध और परिक्लेश की बहलता वाले, भय, मत्य एवं क्लेश से संक्लिष्टमलीन ऐसे पापयुक्त मन से लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिए । इस प्रकार (के आचरण) से-- मनःसमिति की प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित- वासित होती है तथा निर्मल, संक्लेशरहित, अखण्ड निरतिचार चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता है। तृतीय भावना : वचनसमिति
११५--तइयं च वईए पावियाए पावगं ण किंचि वि भासियव्वं । एवं वइ-समिति-जोगेण भाविनो भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू।
११५–अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना वचनसमिति है। पापमय वाणी से तनिक भी पापयुक्त-सावद्य वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए । इस प्रकार की वाक्समिति (भाषासमिति) के योग से युक्त अन्तरात्मा वाला निर्मल, संक्लेशरहित और अखण्ड चारित्र की भावना वाला अहिंसक साधु सुसाधु होता है—मोक्ष का साधक होता है । चतुर्थ भावना : आहारैषणासमिति
. ११६–चउत्थं प्राहारएसणाय सुद्धं उछं गवेसियव्वं अण्णाए अगढिए अदुढे अदीणे अकलुणे अविसाई अपरितंतजोगी जयण-घडण-करण-चरिय-विणय-गुण-जोग-संपप्रोगजुत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए जुत्ते समुदाणेऊण भिक्खचरियं उंछं घेत्तूण पागनो गुरुजणस्ण पासं गमणागमणाइयारे पडिक्कमणपडिक्कते पालोयणदायणं य दाऊण गुरुजणस्स गुरुसंदिगुस्स वा जहोवएसं णिरइयारं च अप्पमत्तो पुणरवि अणेसणाए पयो पडिक्कमित्ता पसंते प्रासीणसुहणिसण्णे मुहत्तमित्तं च झाणसुहजोगणाणसमायगोवियमणे धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहियमणे सद्धासंवेगणिज्जरमणे पवयणवच्छलभावियमणे उट्ठिऊण य पहहतुढे जहारायणियं णिमंतइत्ता य साहवे भावप्रो य विइण्णे य गुरुजणेणं उपविजें।
___ संपमज्जिऊण ससीसं कायं तहा करयलं, अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अगरहिए अणझोववण्णे प्रणाइले अलुद्धे अणत्तट्ठिए असुरसुरं अचवचवं अदुयमविलंबियं अपरिसाडियं आलोयभायणे जयं पयत्तेण ववगय-संजोग-मणिगालं च विगयधूमं अक्खोवंजणाणुलेवणभूयं संजमजायामायाणिमित्तं संजम