Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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उमय-घातक, पाप का परामर्श देने वाले]
[७१ जो वचन परमार्थ के भेदक हों-मुक्तिमार्ग के विरोधी हैं, कपटपूर्वक बोले जाते हैं, जो निर्लज्जतापूर्ण हैं और लोक में गर्हित हैं.-सामान्य जनों द्वारा भी निन्दित हैं, सत्यवादी ऐसे वचनों का भी प्रयोग नहीं करता।
उभय-घातक
५३–अलियाहिसंधि-सण्णिविट्ठा असंतगुणुदीरया य संतगुणणासगा य हिंसाभूप्रोवघाइयं प्रलियं संपउत्ता वयणं सावज्जमकुसलं साहुगरहणिज्ज अहम्मजणणं भणंति, अणभिगय-पुण्णपावा पुणो वि अहिगरण-किरिया-पवत्तगा बहुविहं प्रणत्थं अवमई अप्पणो परस्स य करेंति ।
____५३-जो लोग मिथ्या अभिप्राय-प्राशय में सन्निविष्ट हैं-असत् आशय वाले हैं, जो असत् –अविद्यमान गुणों की उदीरणा करने वाले–जो गुण नहीं हैं उनका होना कहने वाले, विद्यमान गुणों के नाशक-लोपक हैं-दूसरों में मौजूद गुणों को आच्छादित करने वाले हैं, हिंसा करके प्राणियों का उपघात करते हैं, जो असत्य भाषण करने में प्रवृत्त हैं, ऐसे लोग सावद्य-पापमय, अकुशल--अहितकर, सत्-पुरुषों द्वारा गहित और अधर्मजनक वचनों का प्रयोग करते हैं । ऐसे मनुष्य पुण्य और पाप के स्वरूप से अनभिज्ञ होते हैं । वे पुनः अधिकरणों अर्थात् पाप के साधनोंशास्त्रों आदि की क्रिया में शस्त्रनिर्माण आदि पापोत्पादक उपादानों को बनाने, जुटाने, जोड़ने आदि को क्रिया में प्रवृत्ति करने वाले हैं, वे अपना और दूसरों का बहविध-अनेक प्रकार से अनर्थ और विनाश करते हैं।
विवेचन-जिनका आशय ही असत्य से परिपूर्ण होता है, वे अनेकानेक प्रकार से सत्य को ढकने और असत्य को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। वे अपने और अपना जिन पर रागभाव है ऐसे स्नेही जनों में जो गुण नहीं हैं, उनका होना कहते हैं और द्वेष के वशीभूत होकर दूसरे में जो गुण विद्यमान हैं, उनका अभाव प्रकट करने में संकोच नहीं करते । ऐसे लोग हिंसाकारी वचनों का प्रयोग करते भी नहीं हिचकते।
प्रस्तुत पाठ में एक तथ्य यह भी स्पष्ट किया गया है कि मृषावादी असत्य भाषण करके पर का ही अहित, विनाश या अनर्थ नहीं करता किन्तु अपना भी अहित, विनाश और अनर्थ करता है। मृषावाद के पाप के सेवन करने का विचार मन में जब उत्पन्न होता है तभी आत्मा मलीन हो जाता है और पापकर्म का बन्ध करने लगता है । मृषावाद करके, दूसरे को धोखा देकर कदाचित् दूसरे का अहित कर सके अथवा न कर सके, किन्तु पापमय विचार एवं प्राचार से अपना अहित तो निश्चित रूप से कर ही लेता है । अतएव अपने हित की रक्षा के लिए भी मृषावाद का परित्याग आवश्यक है । पाप का परामर्श देने वाले
५४-एमेव जपमाणा महिससूकरे य साहिति घायगाणं, ससयपसयरोहिए य साहिति वागुराणं तित्तिर-वट्टग-लावगे य कविजल-कवोयगे य साहिति साउणीणं, झस-मगर-कच्छभे य साहिति मच्छियाणं, संखंके खुल्लए य साहिति मगराणं, अयगर-गोणसमंडलिदव्वीकरे मउली य साहिति बालवीणं, गोहा-सेहग-सल्लग-सरडगे य साहिति लुद्धगाणं, गयकुलवाणरकुले य साहिति पासियाणं,