Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : ७. १, अ. ४ जहाँ के निवासी निर्भय निवास करते हैं ऐसी सागरपर्यन्त पृथ्वी को एकच्छत्र-अखण्ड राज्य करके भोगने पर भी (परिग्रह से तृप्ति नहीं होती)।
(परिग्रह वृक्ष सरीखा है । उस का वर्णन इस प्रकार है-)
कभी और कहीं जिसका अन्त नहीं आता ऐसी अपरिमित एवं अनन्त तृष्णा रूप महती इच्छा ही अक्षय एवं अशुभ फल वाले इस वृक्ष के मूल हैं। लोभ, कलि-कलह-लड़ाई-झगड़ा और क्रोधादि कषाय इसके महास्कन्ध हैं। चिन्ता, मानसिक सन्ताप आदि की अधिकता से अथवा निरन्तर उत्पन्न होने चाली सैकड़ों चिन्ताओं से यह विस्तीर्ण शाखाओं वाला है । ऋद्धि, रस और साता रूप गौरव ही इसके विस्तीर्ण शाखाग्र–शाखाओं के अग्रभाग हैं । निकृति-दूसरों को ठगने के लिए की जाने वाली वंचना-ठगाई या कपट ही इस वृक्ष के त्वचा–छाल, पत्र और पुष्प हैं। इनको यह धारण करने वाला है। काम-भोग ही इस वृक्ष के पुष्प और फल हैं । शारीरिक श्रम, मानसिक खेद और कलह ही इसका कम्पायमान अग्रशिखर-ऊपरी भाग है।
यह परिग्रह (रूप प्रास्रव–अधर्म) राजा-महाराजाओं द्वारा सम्मानित है, बहुत-अधिकांश लोगों का हृदय-वल्लभ--अत्यन्त प्यारा है और मोक्ष के निर्लोभता रूप मार्ग के लिए. अर्गला के समान है, अर्थात् मुक्ति का उपाय निर्लोभता-अकिंचनता-ममत्वहीनता है और परिग्रह उसका बाधक है।
यह अन्तिम अधर्मद्वार है।
विवेचन–चौथे अब्रह्म नामक आस्रवद्वार का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के पश्चात् सूत्रकार ने परिग्रह नामक पाँचवें प्रास्रवद्वार का निरूपण किया है। जैनागामों में प्रास्रवद्वारों का सर्वत्र यही क्रम प्रचलित है । इसी क्रम का यहाँ अनुसरण किया गया है। अब्रह्म के साथ परिग्रह का सम्बन्ध बतलाते हुए श्री अभयदेवसूरि ने अपनी टीका में लिखा है-परिग्रह के होने पर ही अब्रह्म प्रास्रव होता है, अतएव अब्रह्म के अनन्तर परिग्रह का निरूपण किया गया है।'
सूत्रकार ने मूल पाठ में 'परिग्गहो पंचमो' कहकर इसे पाँचवाँ बतलाया है । इसका तात्पर्य इतना ही है कि सूत्रक्रम की अपेक्षा से ही इसे पाँचवाँ कहा है, किसी अन्य अपेक्षा से नहीं ।
सूत्र का प्राशय सुगम है । विस्तृत विवेचन की आवश्यकता नहीं है। भावार्थ इतना ही है कि नाना प्रकार की मणियों, रत्नों, स्वर्ण आदि मूल्यवान् अचेतन वस्तुओं का, हाथी, अश्व, दास-दासियों, नौकर-चाकरों आदि का, रथ-पालकी आदि सवारियों का, नग (पर्वत) नगर आदि से युक्त समुद्रपर्यन्त सम्पूर्ण भरतक्षेत्र का, यहाँ तक कि सम्पूर्ण पृथ्वी के अखण्ड साम्राज्य का उपभोग कर लेने पर भी मनुष्य की तृष्णा शान्त नहीं होती है । 'जहा लाहो तहा लोहो' अर्थात् ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, त्यों-त्यों लोभ अधिकाधिक बढ़ता जाता है । वस्तुत: लाभ लोभ का वर्धक है । अतएव परिग्रह की वृद्धि करके जो सन्तोष प्राप्त करना चाहते हैं, वे आग में घी होम कर उसे बुझाने का प्रयत्न करना चाहते हैं । यदि घृताहुति से अग्नि बुझ नहीं सकती, अधिकाधिक ही प्रज्वलित होती है तो परिग्रह की १. अभय टीका, पृ. ९१ (पूर्वार्ध) २. अभय. टीका, पृ. ९१ (उत्तरार्ध)