Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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परिग्रह के पाश में देव-मनुष्य भी बंधे हैं]
[१४७ कुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, पवन कुमार, स्तनितकुमार (ये दस प्रकार के भवनवासी देव) तथा प्रणपन्निक, पणपन्निक, ऋषिवादिक, भूतवादिक, क्रन्दित, महाक्रन्दित, कूष्माण्ड और पतंग (ये व्यन्तरनिकाय के अन्तर्गत देव) और (पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, महोरग एवं गन्धर्व, ये महद्धिक व्यन्तर देव) तथा तिर्यक्लोक-मध्यलोक में निवास-विचरण करने वाले पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देव, बृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र और शनैश्चर, राहु, केतु और बुध, अंगारक (तपाये हुए स्वर्ण जैसे वर्ण वाला—मंगल), अन्य जो भा ग्रह ज्योतिष्चक्र में संचार करते हैं, केतु, गति में प्रसन्नता अनुभव करने वाले, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्र देवगण, नाना प्रकार के संस्थान-प्राकार वाले तारागण, स्थिर लेश्या अर्थात् कान्ति वाले अर्थात् मनुष्य क्षेत्र–अढाई द्वीप से बाहर के ज्योतिष्क और मनुष्य क्षेत्र के भीतर संचार करने वाले, जो तिर्यक् लोक के ऊपरी भाग में (समतल भूमि से ७९० योजन से लगा कर ९०० योजन तक की ऊँचाई में) रहने वाले तथा अविश्रान्त-लगातारविना रुके वर्तुलाकार गति करने वाले हैं (ये सभी देव परिग्रह को ग्रहण करते हैं)।
(इनके अतिरिक्त) ऊर्ध्वलोक में निवास करने वाले वैमानिक देव दो प्रकार के हैं कल्पोपपन्न और कल्पातीत । सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, ये उत्तम कल्प-विमानों में वास करने वाले-कल्पोपपन्न हैं। ..
(इनके ऊपर) नौ ग्रैवेयकों और पांच अनुत्तर विमानों में रहने वाले दोनों प्रकार के देव कल्पातीत हैं । ये विमानवासी (वैमानिक) देव महान् ऋद्धि के धारक, श्रेष्ठ सुरवर हैं।
ये (पूर्वोक्त) चारों प्रकारों-निकायों के, अपनी-अपनी परिषद् सहित परिग्रह को ग्रहण करते हैं उसमें मूभिाव रखते हैं । ये सभी देव भवन, हस्ती आदि वाहन, रथ आदि अथवा घूमने के विमान आदि यान, पुष्पक आदि विमान, शय्या, भद्रासन, सिंहासन प्रभृति आसन, विविध प्रकार के वस्त्र एवं उत्तम प्रहरण-शस्त्रास्त्रों को, अनेक प्रकार की मणियों के पंचरंगी दिव्य भाजनों-पात्रों को, विक्रियालब्धि से इच्छानुसार रूप बनाने वाली कामरूपा अप्सराओं के समूह को, द्वीपों, समुद्रों, पूर्व प्रादि दिशाओं, ईशान आदि विदिशाओं, चैत्यों-माणवक आदि या चैत्यस्तूपों, वनखण्डों और पर्वतों को,. ग्रामों और नगरों को, पारामों, उद्यानों-बगीचों और काननों-जंगलों को, कूप, सरोवर, तालाब, वापी-वावड़ी, दीपिका-लम्बी वावड़ी, देवकुल-देवालय, सभा, प्रपा–प्याऊ
और वस्ती को और बहुत-से कीर्तनीय-स्तुतियोग्य धर्मस्थानों को ममत्वपूर्वक स्वीकार करते हैं। इस प्रकार विपुल द्रव्य बाले परिग्रह को ग्रहण करके इन्द्रों सहित देवगण भी न तृप्ति को और न सन्तुष्टि को अनुभव कर पाते हैं, अर्थात् अन्तिम समय तक इन्द्रों और देवों को भी तृप्ति एवं सन्तोष नहीं होता।
ये सब देव अत्यन्त तीव्र लोभ से अभिभूत संज्ञा वाले हैं, अतः वर्षधर पर्वतों (भरतादि क्षेत्रों को विभक्त करने वाले हिमवन्त, महाहिमवन्त आदि), इषुकार (धातकीखण्ड और पुष्करवर द्वीपों को विभक्त करने वाले दक्षिण और उत्तर दिशाओं में लम्बे) पर्वत, वृत्तपर्वत (शब्दापाती
आदि गोलाकार पर्वत), कुण्डल (जम्बूद्वीप से ग्यारहवें कुण्डल नामक द्वीप में मण्डलाकार) पर्वत, रुचकवर (तेरहवें रुचक नामक द्वीप में मण्डलाकार रुचकवर नामक पर्वत), मानुषोत्तर (मनुष्यक्षेत्र की सीमा निर्धारित करने वाला) पर्वत, कालोद धिसमुद्र, लवणसमुद्र, सलिला (गंगा आदि महानदियाँ), ह्रदपति (पभ, महापद्म आदि ह्रद–सरोवर), रतिकर पर्वत (आठवें नन्दीश्वर नामक