Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. १, अ. १ प्रवीसंभो (अविश्वास)-आस्था जीवन का शिखर है । जीवन के सारे व्यवहार विश्वास के बल पर ही होते हैं । विश्वसनीय बनने के लिए परदुःखकातरता तथा सुरक्षा का आश्वासन व्यक्ति की तरफ से अपेक्षित है। अहिंसा को प्रा-श्वास कहते हैं । विश्वास भी कहते हैं क्योंकि अहिंसा 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' तथा सहजीवन जैसे जीवनदायी कल्याणकारक पवित्र सूत्रों को जीवन में साकार करती है । हिंसा का आधार सहजीवन नहीं, उसका विरोध है । सहअस्तित्व की अस्वीकृति जनसामान्य की दृष्टि में हिंसक को अविश्वसनीय बनाती है।
आस्था वहाँ पनपती है, जहाँ अपेक्षित प्रयोजन के लिए प्रयुक्त साधन से साध्य सिद्ध होता है । हिंसा साध्य-सिद्धि का सार्वकालिक सार्वभौमिक साधन नहीं है। हिंसा में साध्यप्राप्ति का आभास होता है किंतु वह मृगमरीचिका होती है । इसलिए हिंसा अविश्वास है।
___हिंस-विहिंसा-श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, 'हे पार्थ ! अहंकार का त्याग कर, तू निमित्तमात्र है । जिन्हें तू मार रहा है, वे मर चुके हैं, नियति के गर्भ में ।'
आत्मा शाश्वत, अमर, अविनाशी, अछेद्य एवं अभेद्य है। शरीर जड़ है, हिंसा किसकी ? अहिंसा के चिंतकों के सामने यह प्रश्न सदा रहा। हिटलर ने आत्म-अस्तित्व को अस्वीकृति देकर युद्ध की भयानकता को अोझल किया। श्रीकृष्ण ने आत्मस्वीकृति के साथ युद्ध को अनिवार्य बताकर अर्जुन को प्रेरित किया, किंतु श्रमण महर्षियों के सम्मुख युद्धसमर्थन-असमर्थन का प्रश्न न होने पर भी अहिंसा और हिंसा की व्याख्या प्रात्मा की अमरता की स्वीकृति के साथ हिंसा की संगति और हिंसा के निषेध को कैसे स्पष्ट किया जाय, यह प्रश्न था ही।
अहिंसा के परिपालन में श्रमण संस्कृति और उसमें भी जैनधर्म सर्वाधिक अग्रसर रहा। समस्या का समाधान देते हुए प्राचार्य उमास्वाति ने लिखा है 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणम् हिंसा' अर्थात् हिंसा में परप्राणवध से भी महत्त्वपूर्ण प्रमाद है। जैन चिंतकों ने अहिंसा का मूल
आत्मस्वभाव में माना है। प्रात्मा की विभावपरिणति ही हिंसा है । जिस समय चेतन स्वभाव से भ्रष्ट हो जाता है, उसके फलस्वरूप घटने वाली अनेक क्रोधादि क्रियाएँ प्राणातिपातादि १८ पाप घटित होते हैं। अतएव वस्तुतः हिंसा के साथ आत्महिंसा होती ही है । अर्थात् स्व-घाती होकर ही हिंसा की जा सकती है । जब आत्मगुणों का घात होता है, तब ही हिंसा होती है ।
न हिंसा परप्राणवधमात्र है, न परप्राणवध-निवृत्तिमात्र अहिंसा है। अप्रमत्त अवस्था की वह श्रेणी जो वीतरागता में परिणत होती है । द्रव्यहिंसा भी भाव अहिंसा की श्रेणी में आती है, जब कि प्रमत्त उन्मत्त अवस्था में द्रव्यहिंसा न होकर भी भाव हिंसा के कारण हिंसा मान्य होती है। हिंसा में स्वभावच्युति प्रधान है । हिंसक सर्वप्रथम स्वयं के शांत-प्रशांत अप्रमत्त स्वभाव का हनन करता है।
पापकोप-हिंसा का प्रथम नाम है पाप । हिंसा पाप है, क्योंकि उसका आदि, मध्य और अन्त अशुभ है । कर्मशास्त्रानुसार हिंसा औदायिकभाव का फल है । औदायिक भाव पूर्वबद्ध कर्मोदयजन्य है । अर्थात् हिंसक हिंसा तब करता है जब उसके हिंसक संस्कारों का उदय होता है । आवेगमय संस्कारों का उदय कषाय है । कषाय में स्फोटकता है, तूफान है, अतएव उसे कोप भी कहा जाता है। बिना कषाय के हिंसा संभव नहीं है । अतः हिंसा को पापकोप कहा है।
__पापलोभ-हिंसा पापों के प्रति लोभ-आकर्षण–प्रीति बढ़ाने वाली है, अतएव इसका एक नाम पापलोभ है।