Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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मनुष्यभव के दु:ख ]
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४१ - कुदाल और हल से पृथ्वी का विदारण किया जाना, जल का मथा जाना और निरोध किया जाना, अग्नि तथा वायु का विविध प्रकार के शस्त्रों से घट्टन होना, पारस्परिक आघातों से आहत होना - एक दूसरे की पीड़ा पहुँचाना, मारना, दूसरों के निष्प्रयोजन अथवा प्रयोजन वाले व्यापार से उत्पन्न होने वाली विराधना की व्यथा सहन करना, नौकर-चाकरों तथा गाय-भैंस - बैल आदि पशुओं की दवा और आहार आदि के लिए खोदना, छानना, मोड़ना, सड़ जाना, स्वयं टूट जाना, मसलना - कुचलना, छेदन करना, छीलना, रोमों का उखाड़ना, पत्ते आदि तोड़ना, अग्नि से जलाना, इस प्रकार भवपरम्परा में अनुबद्ध हिंसाकारी पापी जीव भयंकर संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं ।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में उन हिंसक जीवों के दुःख का वर्णन किया गया है जो पहले नरक अतिथि बने, तत्पश्चात् पापकर्मों का फल भोगना शेष रह जाने के कारण तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याय में, फिर विकलेन्द्रिय अवस्था में और फिर एकेन्द्रिय अवस्था में उत्पन्न होते हैं । जब वे पृथ्वीकाय में जन्म लेते हैं तो उन्हें कुदाल, फावड़ा, हल आदि द्वारा विदारण किए जाने का कष्ट भोगना पड़ता है । जलकाय में जन्म लेते हैं तो उनका मथन, विलोड़न आदि किया जाता है । तेजस्काय और वायुकाय में स्वकाय शस्त्रों और परकाय शस्त्रों से विविध प्रकार से घात किया जाता है । वनस्पतिकाय के जीवों की यातनाएँ भी क्या कम हैं ! उन्हें उखाड़ कर फेंक दिया जाता है, पकाया जाता है, कूट-पीसा जाता है, आग में जलाया और जल में गलाया जाता है - सड़ाया जाता है । उनका छेदन-भेदन आदि किया जाता है । फल-फूल - पत्र आदि तोड़े जाते हैं, नोंच लिये जाते हैं । इस प्रकार अनेकानेक प्रकार की यातनाएँ वनस्पतिकाय के जीवों को सहन करनी पड़ती हैं । वनस्पतिकाय के जीवों को वनस्पतिकाय में ही वारंवार जन्म-मरण करते-करते अनन्त काल तक इस प्रकार की वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं । ये समस्त दुःख हिंसा में रति रखने वाले - हिंसा करके प्रसन्न होने वाले प्राणियों को भोगने पड़ते हैं ।
मनुष्यभव के दुःख
४२. जे वि य इह माणुसत्तणं श्रागया कहिं वि णरगा उव्वट्टिया अण्णा ते वियदीसंति पायस विकयविगलरूवा खुज्जा वडभा य वामणा य बहिरा काणा कुटा पंगुला विगला य मूका य मम्मणाय अंधयगा एगचक्खू विणिहयसंचिल्लया' वाहिरोगपीलिय- अप्पाउय सत्थबज्झबाला कुलक्खणउक्कणदेहा दुब्बल-कुसंघयण- कुप्पमाण-कुसंठिया कुरूवा किविणा य होणा होणसत्ता णिच्चं सोक्खपरिवज्जिया असुहदुक्खभागी णरगाओ इहं सावसेसकम्मा उव्वट्टिया समाणा ।
४२ - जो धन्य ( हिंसा का घोर पापकर्म करने वाले) जीव नरक से निकल कर किसी भाँति मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होते हैं, किन्तु जिनके पापकर्म भोगने से शेष रह जाते हैं, वे भी प्रायः विकृत एवं विकल - अपरिपूर्ण रूप - स्वरूप वाले, कुबड़े, टेढे-मेढे शरीर वाले, वामन - बौने, बधिर - बहरे, काने, टोंटे-टूटे हाथ वाले, पंगुल - लँगड़े, अंगहीन, गूगे, मम्मण - अस्पष्ट उच्चारण करने वाले अंधे, खराब एक नेत्र वाले, दोनों खराब प्रांखों वाले या पिशाचग्रस्त, कुष्ठ आदि व्याधियों और ज्वर आदि रोगों से अथवा मानसिक एवं शारीरिक रोगों से पीड़ित, अल्पायुष्क,
१. पाठान्तर - संपिसल्लया ।