Book Title: Agam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नरक-वर्णन]
[२९ तिमिस्सेसु पइभएसु ववगय-गह-चंद-सूर-णक्खत्तजोइसेसु मेय-वसा-मंसपउल-पोच्चड-पूय-हि-रुक्किण्णविलोण-चिक्कण- रसिया वावण्णकुहियचिक्खल्लकद्दमेसु कुकू-लाणल-पलित्तजालमुम्मुर-असिक्खुर करवत्तधारासु णिसिय-विच्छुयडंक-णिवायोवम्म-फरिसइदुस्सहेसु य, अत्ताणा असरणा कडुयदुक्खपरितावणेसु अणुबद्ध-णिरंतर-वेयणेसु जमपुरिस-संकुलेसु ।
२३-पूर्ववणित हिंसाकारी पापीजन यहाँ-मनुष्यभव से आयु की समाप्ति होने पर, मृत्यु को प्राप्त होकर अशुभ कर्मों की बहुलता के कारण शीघ्र ही—सीधे ही-नरकों में उत्पन्न होते हैं।
नरक बहुत विशाल--विस्तृत हैं। उनकी भित्तियाँ वज्रमय हैं। उन भित्तियों में कोई सन्धिछिद्र नहीं है, बाहर निकलने के लिए कोई द्वार नहीं है। वहाँ की भूमि मृदुतारहित-कठोर है, अत्यन्त कठोर है । वह नरक रूपी कारागार विषम है। वहाँ नारकावास अत्यन्त उष्ण एवं तप्त रहते हैं । वे जीव वहाँ दुर्गन्ध–सडांध के कारण सदैव उद्विग्न-घबराए रहते हैं । वहाँ का दृश्य हो अत्यन्त बीभत्स है-वे देखते ही भयंकर प्रतीत होते हैं। वहाँ (किन्हीं स्थानों में जहाँ शीत की प्रधानता है) हिम-पटल के सदृश शीतलता (बनी रहती) है। वे नरक भयंकर हैं, गंभीर एवं रोमांच खड़े कर देने वाले हैं। अरमणीय-घृणास्पद हैं। वे जिसका प्रतीकार न हो सके अर्थात् असाध्य कुष्ठ आदि व्याधियों, रोगों एवं जरा से पीड़ा पहुंचाने वाले हैं। वहाँ सदैव अन्धकार रहने के कारण प्रत्येक वस्तु प्रतीव भयानक लगती है। ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि की ज्योति-प्रक का अभाव है, मेद, वसा-चर्बी, मांस के ढेर होने से वह स्थान अत्यन्त घणास्पद है। पीव और रुधिर के बहने से वहाँ की भूमि गीली और चिकनी रहती है और कीचड़-सी बनी रहती है। (जहाँ उष्णता की प्रधानता है) वहाँ का स्पर्श दहकती हुई करीष की अग्नि या खदिर (खैर) की अग्नि के समान उष्ण तथा तलवार, उस्तरा अथवा करवत की धार के सदृश तीक्ष्ण है। वह स्पर्श बिच्छू के डंक से भी अधिक वेदना उत्पन्न करने वाला अतिशय दुस्सह है । वहाँ के नारक जीव त्राण और शरण से विहीन हैं—न कोई उनकी रक्षा करता है, न उन्हें प्राश्रय देता है । वे नरक कटुक दुःखों के कारण घोर परिणाम उत्पन्न करने वाले हैं। वहाँ लगातार दुःखरूप वेदना चालू ही रहती है-पल भर के लिए भी चैन नहीं मिलता । वहाँ यमपुरुष अर्थात् पन्द्रह प्रकार के परमाधामी देव भरे पड़े हैं। (जो नारकों को भयंकर-भयंकर-यातनाएँ देते हैं जिनका वर्णन आगे किया जाएगा।)
विवेचन–प्रस्तुत पाठ में नरकभूमियों का प्रमुख रूप से वर्णन किया गया है। इस वर्णन से नारक जीवों को होने वाली वेदना-पीड़ा का उल्लेख भी कर दिया गया है। नरकभूमियाँ विस्तृत हैं सो केवल लम्बाई-चौड़ाई की दृष्टि से ही नहीं, किन्तु नारकों के आयुष्य की दृष्टि से भी समझना चाहिए । मनुष्यों की आयु की अपेक्षा नारकों की आयु बहुत लम्बी है वहाँ कम से कम आयु भी दस हजार वर्ष से कम नहीं और अधिक से अधिक तेतीस सागरोपम जितनी है। सागरोपम एक बहुत बड़ी संख्या है, जो प्रचलित गणित की परिधि से बाहर है।
नरकभूमि अत्यन्त कर्कश, कठोर और ऊबड़-खाबड़ है । उस भूमि का स्पर्श ही इतना कष्टकर होता है, मानो हजार बिच्छुओं के डंकों का एक साथ स्पर्श हुआ हो । कहा है
तहाँ भूमि परसत दुख इसो, वीछू सहस डसें तन तिसो।