Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 21
________________ शतक ३:-उद्देशक ?. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. नकाणे कडेला खंखेरी नाखवानां पुद्गलो जूदां जूदां छे तेथी परस्पर विरुद्धता केम न आवे ? समा०-ए बन्ने वातो जूदी जूदी छे माटे कोइ पण समाधान. नातिनी विरुद्धतानो अवकाश नथी. कारण के प्रज्ञापना सूत्रनी टीकामां जे हकीकत कही छे ते, समुद्घात शब्दनुं समर्थन करवा अनाभोगिक (अजाजता नारा) वैक्रियशरीरनामकर्मनां पुद्गलोना निर्जरणने आधीने कही छे. ['अहासुहुमे 'त्ति ] सारवाळां पुद्गलोर्नु [ 'परियाएइ 'त्ति ] ग्रहण करे छे; अर्थात दंडना निसर्ग द्वारा ग्रहण करेल पुद्गलोने सर्व प्रकारे ले छे. ['दोचं पि'त्ति] इच्छेल रूपोने बनाववा सारु बीजी वार पण समुद्घात करे छे. अने, देसी भिति। अनेक रूपोने बनाववा समर्थ छे. ['केवलकप्पं 'ति] केवल–पूरेपूरो, कल्प-पोतानुं कार्य करवाने शक्तिमान: केवलकल्प. अवकल्प-पोतानं कार्य करवाने पूरेपूरो शक्तिमान् ; अथवा केवलकल्प-केवलज्ञाननी जेवो संपूर्ण, अथवा केवलकल्प-संपूर्ण. [ 'आइन्नं'] साह अनेक शब्दो सरखा अर्थवाळा छे अने अहीं 'अत्यंत भरावो' जणाय ते माटे तेनो प्रयोग कर्यो छे. ['अदुत्तरं च णं' ति] आवधं जे कप छे ते, सामर्थ्यना अतिशयर्नु वर्णन छे-सामर्थ्यना गौरवनुं सूचक छे. [ 'विसए 'त्ति ] वैक्रियशक्तिनो विषय छे-बैक्रियशक्तिथी विकुर्वणा-विषय बह वह तो एटलां रूपो बनावी शकाय छे. आटलं कहेवाथी ते देव, एटलां वधां रूपो बनावी शकतो पण होय' एवं जणाय माटे कडे के के. विसयमेत्तेत्ति एटलां वां रूपो करवां ए विषयमात्र छे, अर्थात् एटलां वर्धा रूपो बनी शकतां नथी, पण ते क्रिया विनानु विषयमात्र छे, एम बडए 'त्ति] का छे. [ संपत्तीए'त्ति ] पूर्वे कहेली वातने करवा वडे. ['विकुबिसु वा'] विकुर्वणा करी, विकुर्वे छे अने विकर्वशे. नवरं संखेजा दीव-समुद्दत्ति ] विशेष ए के, संख्येय द्वीप अने संख्येय समुद्रोने. सामानिक देवो करतां लोकपालो वगेरे ओछी ऋद्धिवाळा होय छे माटे तेओनी वैक्रिय करवानी शक्ति पण ओछी होय छे. एथी ज पूर्व प्रमाणे कयुं छे. ["अपुट्ठवागरणं 'ति] जे, पूछ्या सिवाय कहेवामां आवे ते अपृष्टव्याकरण. वैरोचनराज बलि. ८. प्र तएणं से तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे दोघेणं गोय- ८. प्र०—त्यार पछी ते त्रीजा गौतम वायुभूति अनगार, बीजा मेणं अग्गिभइणामेणं अणगारेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरे, गौतम अग्निभूति नामना अनगारनी साथे ज्यां श्रमण भगवंत महावीर जाव-पजुवासमाणे एवं वयासीः-जइ णं भंते ! चमरे असुरिंदे, छे त्यां आव्या; अने त्यां तेओनी पर्युपासना करता आ प्रमाणे बोल्या के:-हे भगवन् ! जो असुरेंद्र, असुरराज चमर एवी मोटी असुरराया एवं महिडीए, जाव-एवतियं च णं पभू वि ऋद्धिवाळो छे अने यावत्-एटलुं विकुर्वण करी शके छे, तो हे पली णं भंते ! वइरोयणिंदे, वइरोयणराया केमहिड्डीए, जाव भगवन् ! वैरोचनेंद्र, वैरोचनराज बैलि, केवी मोटी ऋद्धिवाळो छ, केवइयं च णं पभू विकुवित्तए ? यावत्-ते केटलुं विकुर्वण करवा समर्थ छे ? अशान बहिनिष्काष्य शर, निस्मृज्य इमां क्रियशरीरनामकर्मोनाय समुद्यातवडे समवय "वैक्रियसमदघातगतः पुनर्जीवः प्रदेशान् बहिनिष्काष्य शरीरविष्कम्भ- “वैक्रिय समुद्घातने करतो जीव पुद्गलोने बहार काढी, तेनो पहोळाबाहल्यमानम् , आयामतः संख्येययोजनप्रमाणं दण्डं निःसृजति, निस्सृज्य इमां शरीर प्रमाणे अने लंबाइमा' संख्येय योजनो प्रमाणे दंड रचे छे. अयथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्वच्छातयति, तथा च रचीने वैक्रियशरीरनामकर्मोना स्थूल पुद्गलोनो पूर्व प्रमाणे नाश करे छे. उक्तमः-"वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ, समोहणित्ता संखेज्जाई जोयणाई ते प्रमाणे कयुं छे के:-" वैक्रिय समुद्घातवडे समवहत थाय छे, समवहत दंड निसिरइ, निसिरेत्ता अहाबायरे पुग्गले परिसाडेइः"-(क. आ० पृ० थइने संख्येय योजनो सुधी दंडने रचे छे, रचीने यथावादर पुद्गलोर्नु परि७९३-९४). शाटन करे छे:-(क. आ० पृ. ७९३-९४). उपरोक्त स्थळ जेवू श्रीस्थानांग, अंग विजार्नु (क० आ० पृ. ४६९ नु) “वेउब्वियसमुग्याए” परनुं श्रीअभयदेवसूरिनु अक्षरशः तेवू विवरण ए बीजुं स्थळ छे, तेथी ते माटे पण उक्त समाधान जाणवु:-अनु० १. आ क्रियापदोमां 'विकुर्व' एवो अखंड धातु छे अने ते मात्र आगममां प्रसिद्ध छे. 'विकुर्वणा' वगेरे प्रयोगो, ए धातु होवार्नु पुष्ट प्रमाण छे:--श्रीअभय १. मूलच्छायाः-ततः स तृतीयो गौतमो वायुभूतिरनगारो द्वितीयेन गौतमेन अग्निभूतिनाना अनगारेण सार्थ येनैव श्रमणो भगवान् महावीरः, यावत्पर्युपासीन एवम् अवादीत:-यदि भगवन् ! चमरः असुरेन्द्रः, असुरराज एवंमहर्द्धिकः, यावत्-एतावच प्रभुर्विकुर्वितुम्, बलिर्भगवन् ! वैरोचनेन्द्रः, बैरोचनराजः किंमहर्दिकः, यावत्-कियच प्रभुर्विकुर्वितुम् ?-अनु० १. वायुभूतिः-काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवंत महावीरना त्रीजा गणधर हता. तेओनो जन्म खाति नक्षत्रमां, मगध देशना गोबर गामना विष श्रीवसुभूतिनां पत्नी पृथिवी देवीनी कुखे थयो हतो, अर्थात्-तेओ पहेला तथा बीजा गणधरना सहोदर भाई हता. तेओ वेद संबंधेनी चौदे विद्याना निधान हता, पण 'शुं आ देह ज आत्मा छे ?' एवा संशयालु हता. तेओनो शिष्यगण पांचसे (५००) नो हतो. एक समये तेओ आर्य श्रीसोमिल ब्राह्मणना अपापाना यज्ञस्थळे पोताना भाइओ तथा शिष्यो बगेरे साथे आव्या हता. त्यांथी, पराजित थएला पोताना भाइओने मूकाववा साटोप शिष्यो साथे भनवंत महावीर पासे आव्या; पण अहीं भगवंत द्वारा पोतानो संशय नष्ट थवाथी तेमना शिष्य थया. आ समये तेमनुं वय बेंतालीस (४२) वर्षनें हतुं. त्यार वाद दश (१०) वर्ष छद्मस्थ अने अढार (१८) वर्ष केवळीपणे हता. तेओर्नु पूरूं आयुष्य (४२४१०x१८७०) सित्तेर वर्षर्नु शं. वेओनुं निर्वाण राजगृहमा प्रभुनी हैयातीए थयुं हतुं. आ संबंधेना विशेष ज्ञान माटे ( अभि• रा०पृ० ८१६-८१८.) 'विशेषावश्यक भाष्य' (य. ग्रं० पृ. ७७५-८३४.) 'आवश्यक सूत्र' (आ० स० पृ. २४५-२५७.) अने (भ० खं०-१. पृ. १६ टि. १ लु) वगेरे स्थळो गोषवा; तथा श्रीसमवाय नामना चोथा अंगमा श्रीवायुभूतिनी त्रीजा गणधर तरीकेनी ओळख आ प्रमाणे छे: समणस्स भगवओ महावीरस्स एकारस गणा, एकारस गणहरा होत्था, “श्रमण भगवंत महावीरने अगियार गणो अने अगियार गणधरो हता. तंबहाः-इंदभूई, भग्गिभूई, 'वायुभूई" xx (क. आ० पृ० ३१). जेम केः-इंद्रभूति, अग्निभूति, 'वायुभूति' वगेरे" (क• आ• पृ. ३१.):-अनु. २. नैरोचनेन्द्रः-(बलि)-(वि-विशिष्टम् , रोचनम्-दीपनं येषां ते वैरोचनाः, तेषाम् इन्द्रः.) दाक्षिणाय असुरकुमारो करतां जेओनी कांति अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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