Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 02
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Jinagama Prakashan Sabha

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Page 20
________________ श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३.-उद्देशक १. ते स्त्री, जुवान पुरुषने हाथे वळगेली पण जूदी देखाय छे तेम जे रूपो ते देवे विकुर्वेलां छे ते रूपो एक मूळ पुरुष ( रूपोने विकुर्वनार पुरुष ) मां वळगेला पण जूदां देखाय छ; अथवा जेम घणी आराओथी प्रतिबद्ध एवी पैडानी धरी धन-जरा पण पोलाण विनानी-काणां विनानी-जणाय छे तेम (ते देव,) पोताना शरीर साथे प्रतिबद्ध अनेक असुरदेव अने असुरदेवीओ वडे जंबूद्वीपने भरी दे छे." [ वेउब्वियसमुग्धाएणं 'ति] वैक्रिय रूपो करवा माटे एकजातनो प्रयत्न ते वैक्रियसमुद्घात ते बडे [ 'समोहन्नइ 'त्ति] समुपहत थाय छे, अथवा प्रदेशोने फेंके छे. तेनुं ज स्वरूप कहे छेः-[ 'संखेज्जाई' इत्यादि.] जे दंडनी जेवो होय ते ' दंड ' कहेवाय. उंचे, नीचे-लांबो अने शरीरनी जेटली जाडाइवाळो जीवप्रदेशोनो तथा कर्मपुद्गलोनो समूह ते दंड. ते वखते विविध-जूदी जूदी जातिनां-पुद्गलोनू ग्रहण करे छे. ते वातने दर्शावतां कहे छे के, कर्केतन वगेरे रत्नोनां पुद्गलोनुं ग्रहण करे छे. शं०-रत्न वगेरेनां पुद्गलो औदारिक होय छे. अने वैक्रियसमुद्घातमां तो ते ज पुद्गलो काम आवे छे जे पुद्गलो वैक्रिय होय छे. ज्यारे एम छे त्यारे अहीं रत्नादि पुद्गलोनुं ग्रहण शा माटे कर्यु ? समा०-जे पुद्गलो वैक्रियसमुद्घातमां लेवाय छे ते पुद्गलो रत्नो जेवां सारवाळां छे ए वातने जणाववां अहीं रत्न वगेरेनुं ग्रहण कर्यु छे. माटे 'रत्न पुद्गलो'नो अर्थ 'रत्ननी जेवां पुद्गलो' करवो अने एम करवाथी कांइ हरकत नथी. बीजाओ तो कहे छे के,-"ज्यारे वैक्रियसमुद्घात द्वारा औदारिक पुद्गलोनुं ग्रहण थाय छे त्यारे ते औदारिक पुद्गलो पण वैक्रिय पुद्गलो बनी जाय छे." ३. यावत् करणादिदं दृश्यम्:--"वइराणं, वेरुलियाणं, लोहियक्खाणं, मसारगल्लाणं, हंसगब्भाणं, पुलयाणं, सोगंधियाणं, जोतीरसाणं, अंकाणं, अंजणाणं, रयणाणं; जायरूवाणं, अंजणपुलयाणं, फलिहाणं" ति. किम् ? अत आहः-'अहाबायरे'त्ति यथाबादरान् असारान् पुद्गलान् परिशातयति दण्डनिसर्गगृहीतान्, यञ्चोक्तं प्रज्ञापनाटीकायाम्:-"यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्रागबद्धान् शातयति" इति, तत् समुदघातशब्दसमर्थनार्थमनाभोगिकं वैक्रियशरीरकर्मनिर्जरणमाश्रिय इति. 'अहासुहुमे' ति यथासूक्ष्मान् सारान् 'परियाएइ' त्ति पर्यादत्ते-दण्डनिसर्गगृहीतान् सामस्येनादत्ते इत्यर्थः. 'दोचं पि' त्ति द्वितीयमपि वारं समुद्घातं करोति चिकीर्षितरूपनिर्माणार्थम्, ततश्च 'पभुत्ति समर्थः, केवलकप्पं' ति केवलः-परिपूर्णः, कल्पत इति कल्पः-स्वकार्यकरणसामोपेतः, ततः कर्मधारयः, अथवा केवल. कल्पः केवलज्ञानसदृशः परिपूर्णतासाधर्म्यात् , संपूर्णपर्यायो वा केवलशब्द इति. 'आइन्न' इत्यादय एकार्था अत्यन्तव्याप्तिदर्शनायोक्ताः. 'अदत्तरं च णं' ति अथापरं च, इदं च सामर्थ्यातिशयवर्णनम्. 'विसए' त्ति गोचरो वैक्रियकरणशक्तेः, अयं च तत्करणयुक्तोऽपि स्यात्, इत्यत आहः-विसयमेत्ते ति विषय एव विषयमानं क्रियाशन्यम् 'बुइए' ति उक्तम् , एतदेवाहः-संपत्तीए' त्ति यथोक्तार्थसंपादनेन विकस्विस वा विकुर्वितवान् वा; विकुर्वति वा, विकुर्विष्यति वा, 'विकुर्व' इत्ययं धातुः सामयिकोऽस्ति, 'विकुर्वणा' इत्यादिप्रयोगदर्शनाद् इति. 'नवरं संखेज्जा दीव-समुद्द' त्ति लोकपालाद.सामानिकेभ्योऽल्पतरर्द्धिकत्वेनाल्पतरत्वाद् वैक्रियकरणलब्धरिति. 'अपट्टवागरणं' ति अपृष्टे सति प्रतिपादनम्. ३. अहीं यावत्' शब्द मूक्यो छे माटे आ प्रमाणे जाणवु:-'वज्रना, वैडुर्यनां, लोहिताक्षना, मसारगल्लना, हंसगर्भनां, पुलकनां, सौगंधिकना, ज्योतिरसनां, अंकोनां, अंजनोनां, रत्नोनां, जातरूपोना, अंजनपुलकोनां अने स्फटिकोनां. ' एथी शं? तो कहे छे के, ['अहाबायरे'त्ति] दंडना निसर्ग द्वारा लीधेला असार पुद्गलोने खंखेरी नाखे छे. शं०-आ ठेकाणे एम कह्यु छ के, 'दंडना निसर्ग द्वारा लीधेला असार पुद्गलोने खंखेरी नाखे छे' अने प्रज्ञापना सूत्रनी टीकामां कयुं छे के, 'पूर्वे बांधेलां वैक्रियशरीरनामकर्मनां यथास्थूल पुद्गलोने खंखेरी नाखे छे' अर्थात् १. 'वैक्रियसमुद्घात'नी ओळख माटे उपयोगी रीति आ छे:-नैरयिको, देवो, पवन, केटलाक मनुष्यो अने पंचेंद्रिय तिर्यंचो पोताना शरीरने ट्रॅकुं, लावू, जाडु, पातळ, उंचं, नीचं अने सुंदर करवाने जे क्रिया करे छे तेने जैन परिभाषा “विक्रिया' कहे छे, अने ते वडे तैयार थता शरीरने 'वैक्रिय-शरीर' कहे छे. आत्माए पोताना आत्मप्रदेशोने कार्य विशेष माटे शरीरथी बहार प्रसारी पाछां संकोचवां तेनुं नाम ए शैलीए 'समुद्घात' छे. आवा समुद्घातोनी गणना श्रीसमवायांगमां आ प्रमाणे छे: “सत्त समुग्धाया पण्णता, तं जहाः-वेयणासमुग्धाए, कसायसमुग्याए, “समुद्घातो सात कह्या छे, ते आ प्रमाणेः-वेदनासमुद्घात, कषायमारणांतियसमुग्घाए, वेउव्वियसमुग्घाए, तेयससमुग्घाए,आहारअसमुग्याए, समुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात, 'वैक्रियसमुद्घात,' तैजससमुद्घात, केवलिसमुग्धाए:-" (क० आ० पृ० १९). ____ आहारकसमुद्घात अने केवलिसमुद्घात":-(क० आ० पृ. १९). आ सात समुद्घातोमानो चोथो समुद्घात ज्यारे जूना अने स्थूल पुद्गलोवाळा शरीरने, नवां अने सूक्ष्म पुद्गलो युक्त करवू होय त्यारे योजवामां आवे छे. जेमः-पक्षी पोतानी उपर जामेली धुलीने दूर करवा पांखो पहोळी करी धुलीने खंखेरी पाछी संकोचे छ, तेम उक्त आत्माओ पण कहेल कारण माटे आत्मप्रदेशोनो जाडाइ अने पहोळाइमां देह जेवो अने लंबाइमां असंख्येय योजन लंबाणवाळो दण्डाकार दंड रचे छे. आ स्थिति अंतर्मुहूर्त मात्र होय छे, अने तेटला हूंका समयमां पण आत्मा पोताने लागेला पुद्गलोमा इष्टपणे फेरफार करे छे. आ समुद्घातनी उत्पत्ति वैक्रियशरीरनामकर्मथी थाय छे. आ संबंधेना विशेष ज्ञान माटे (भ० ख० १, पृ० २६२ नुं १ अंकवाळु गुजराती टिप्पण गवेषq.) अने तेथी पण वधारे ज्ञानार्थीओए तेमां जणावेलां स्थळो जोवा:-अनु० १. प्र. छायाः-वज्राणाम्, वैडुर्याणाम्, लोहिताक्षाणाम्, मसारगल्लानाम्, हंसगर्भाणाम्, पुलकानाम्, सौगन्धिकानाम्, ज्योतीरसानाम्, अङ्कानाम्, अजनानाम्, रत्नानाम्, जातरूपाणाम्, अञ्जनपुलकानाम्, स्फटिकानाम् इतिः-अनु० १. आ पाठने मळतो पाठ श्रीरायपसेणी-राजप्रश्नीय-नामना बीजा उपांगमा सूर्याभ देवना अधिकारमा (क. आ. पृ० २९ मां) छे. २. श्रीप्रज्ञापना-पनवणाजी-उपांगनो टीका गत पाठ अने तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे:-अनु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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