Book Title: Adarsha Jivan Vijay Vallabhsuriji Author(s): Krushnalal Varma Publisher: Granthbhandar Mumbai View full book textPage 9
________________ (ख) श्रीआचार्य महाराज श्रीविजयवल्लभ सरिजीका एक छोटासा जीवनचरित्र लिख देनेके लिए कहा । कारण जोधपुरसे निकलनेवाले 'ओसवाल' पत्रके संपादकने, कई बार पंन्यासजी महाराजसे आचार्यश्रीका चरित्र 'ओसवाल । पत्रमें प्रकाशित करानेके लिए लिखकर भेजनेकी, विनती की थी। पंन्यासजी महाराज इतने मीठे बोलनेवाले हैं और लोगोंके दिलोंको इतने अच्छे ढंगसे अपने करनेमें कर लेनेवाले हैं कि, मैं उसको बता नहीं सकता । मेरी इच्छा न होते हुए भी यंत्रचालित फोनोग्राफकी भाँति मैं बोल उठाः-" आप मुझे चरित्र सुनाइए, मैं लिख दूंगा।" ___आचार्यश्रीका चरित्र वैसे ही उत्तम है उस पर पंन्यासजी महाराजकी, वर्णन करनेकी शैली इतनी सुंदर थी कि मेरे हृदयमें आनच्छाकी जगह श्रद्धा उत्पन्न हो गई । जिस समय मैंने यह सुना कि, आपने कैसे मिलके चरबीवाले वस्त्रोंका, अधर्म समझ कर, त्याग किया, कैसे हजारों लाखों कीडोंके संहारसे बनते हुए रेशमके कपड्के व्यवहारको बंद करनेका उपदेश दिया, उपदेश ही नहीं उनका व्यवहार श्रावकोंसे बंद कराया, कैसे आपने गोरवाडकी शिक्षाविहीनविकट भूमिमें, विहार कर अनेक तरहके कष्ट सह, लोगोंके दिलोंमें शिक्षाप्रचार का बीज बोया, शिक्षाप्रचारके लिए लोगोंसे लाखों रुपये इकट्ठे करवाये, कैसे आपने अनेक स्थानोंमें श्रावकोंके आपसी विवाद मिटाये, कैसे आपने जमानेके अनुसार पश्चिमी सभ्यतामें बहकर धर्मसे विमुख बनते हुए युवकोंको धर्ममें स्थिर रखनेके लिए संस्थाएँ स्थापित कराई आदि; तब मेरे हृदयमें भक्तिभाव उत्पन्न हो गये । मैंने छोटासा चरित्र लिख देनेकी बात छोड़ दी और एक बृहद् चरित्र लिखकर प्रकाशित करानेका विचार कर लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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