Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Jain Sahitya Sanshodhak Samiti
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti
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आयारंग-सुतं
४- ३
( १ ) उवेह एवं बहिया य लोग !
से सव्व-लोगंसि जे केइ विन्नू ; अणुवी पास निक्खित्त - दण्डा
जे के सत्ता पलियं चयन्ति । नरा मुय'च्चा धम्मविउ ति अजू
' आरम्भजं दुक्खमिणं ' ति नच्चा एवमाहु सम्मत्तदंसिणो ( २ ) ते सव्वे पावाश्या; दुक्खस्स कुसला परिन्नमुदाहरन्तिः
' इति कम्म परिन्नाय सव्वसो ' । इह आणा - कंखी पण्डिए अनि एगमपाणं सोपेहाए धुणे सरीरगं,
कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं
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जहा जुणाई कट्ठाई हव्ववाहो पत्थर ।
एवमत- समाहिए अनि
विगिञ्च कोहं अविकम्पमाणे
इमं निरुद्धा' उयं संपेहाए,
दुक्खं च जाण अदुवा 'गमिस्तं;
पुढो फासाई च फासए:
लोगं च पास विफन्दमाणं,
( ३ ) जे निव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं अनियाणा ते वियाहिया ।
सम्हा' विज्जो नो पडिसजलेज्जासि-त्ति बेमि ॥
४--४
आवीलए पवीलए निप्पीलए
जहिता पुन्व-संजोगं
( १ )
हिच्चा उवसमं;
तुम्हा अविणे वीरे
सारए समिए सहिए या जए - दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियट्ट - गामीणविगिञ्च मंस - सोणियं ।
(२) एस पुरिसे दविए बीरे आयाणिज्जे बियाहिए,
जे धुणार समस्सय
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[ उद्दे० ३-४
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वसिता बम्भरंसि । तेहि पलिच्छन्नो
आयाण - सोय - गढिए बाले अव्वोच्छिन्न-बन्धणे अणभिक्कन्त- संजोए,

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