Book Title: Acharanga Sutram
Author(s): Jain Sahitya Sanshodhak Samiti
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samiti

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Page 24
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra १६ 5 10 15 20 25 80 आयारंग-सुतं ४- ३ ( १ ) उवेह एवं बहिया य लोग ! से सव्व-लोगंसि जे केइ विन्नू ; अणुवी पास निक्खित्त - दण्डा जे के सत्ता पलियं चयन्ति । नरा मुय'च्चा धम्मविउ ति अजू ' आरम्भजं दुक्खमिणं ' ति नच्चा एवमाहु सम्मत्तदंसिणो ( २ ) ते सव्वे पावाश्या; दुक्खस्स कुसला परिन्नमुदाहरन्तिः ' इति कम्म परिन्नाय सव्वसो ' । इह आणा - कंखी पण्डिए अनि एगमपाणं सोपेहाए धुणे सरीरगं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं www.kobatirth.org जहा जुणाई कट्ठाई हव्ववाहो पत्थर । एवमत- समाहिए अनि विगिञ्च कोहं अविकम्पमाणे इमं निरुद्धा' उयं संपेहाए, दुक्खं च जाण अदुवा 'गमिस्तं; पुढो फासाई च फासए: लोगं च पास विफन्दमाणं, ( ३ ) जे निव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं अनियाणा ते वियाहिया । सम्हा' विज्जो नो पडिसजलेज्जासि-त्ति बेमि ॥ ४--४ आवीलए पवीलए निप्पीलए जहिता पुन्व-संजोगं ( १ ) हिच्चा उवसमं; तुम्हा अविणे वीरे सारए समिए सहिए या जए - दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियट्ट - गामीणविगिञ्च मंस - सोणियं । (२) एस पुरिसे दविए बीरे आयाणिज्जे बियाहिए, जे धुणार समस्सय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ उद्दे० ३-४ For Private And Personal Use Only वसिता बम्भरंसि । तेहि पलिच्छन्नो आयाण - सोय - गढिए बाले अव्वोच्छिन्न-बन्धणे अणभिक्कन्त- संजोए,

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