Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 8
________________ ॥प्रभाव ॥ शिष्य अपनी भिक्षाके लिये प्रतिदिन फिरता है परन्तु वहां के लोग प्रायः ऐसे हैं कि, जैन साधु कौन ? उनको भिक्षा देनेमें क्या फल ? इस वातको वह कुछ समझते ही नहीं । शिष्यने कई दिनों तक तो ज्यों त्यों चला लिया। परन्तु आखीर जब कोईभी उपाय शरीरनिर्वाहका नहीं दीख पड़ा तो उसने गुरुमहाराजके चरणोंमे निवेदन किया कि-प्रभु ! आप तो मेरु शैलसम गंभीर हैं परन्तु मेरे जैसे निःसत्त्वके निर्वाहयोग्य यह क्षेत्र नहीं है ! ! यहां साधुके व्यवहारको कोई नहीं जानता, शुद्ध आहार सर्वथा नहीं मिलता, और आहार विना शरीर नहीं रहसकता । अब जैसे भापश्रीजीकी आज्ञा । विष्यकी बातको सुनकर गुरुमहाराजने सोचा कि, इस संयमी साधुको अन्य क्षेत्र में लेजानेसे इसका आत्मा स्थिर होजावेगा। __ यह सोचकर जब गुरुमहाराज विहार करनेको तयार हुए तब “सचायमाता" जो कि उन राजपूतोंकी कुलदेवी थी उसने मनमें विचार किया कि, ऐसे तपस्वी, विशुद्धसंयमी, ज्ञानके सागर, मुनिराज मेरी वस्तिमेंसे भूखे चले जावेंगे तो मेरे जैसा अधम आत्मा और किसका होगा ?! लोकोक्ति पतकामा । "अपूज्या यत्र पूज्यन्ते, पूज्यानाञ्च व्यतिक्रमः। भवन्ति तत्र त्रीण्येव, दुर्भिक्षं १ मरणं २ भयम् ३॥ १॥ देवीने आचार्यके पास आकर वहां ठहरनेका आग्रह किया, और कहायहां आपको महान् लाभ होगा. सूरिजीने कहा साधुको सर्वत्र समभाव है तथापि अन्नके विना शरीर, और शरीरके विना धर्म नहीं रहसकता। देवीने कहा-इसप्रकार उपराम होनेकी जरूरत नहीं । आप अपने लन्धिबलसे इस प्रजाको धर्मकी शिक्षा दें, आप चौद पूर्वधर ज्ञानके सागर हैं । इतने दिन तक मुझको आप जैसे सुपात्र मुनियोंके गुणों का परिचय नहींथा, आज आपके सद्गुणोंको जानकर आपके धर्मोपदेशको सुनना चाहती हुँ। देवीकी इस प्रार्थनासे शासनशृङ्गार सूरिजीने देवीको दयाधर्मका महत्व समझाया। देवीको दयाधर्मकी प्राप्ति हुई । भरिहंतदेवके वचनों की उसके मनमें परिपक्क आस्था होगई।

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