Book Title: Abu Jain Mandiro ke Nirmata Author(s): Lalitvijay Publisher: Atmanand Jain Sabha View full book textPage 7
________________ ॥ अहं ॥ ॥ सहायकका परिचय ॥ " भिन्नमाल" गाम में राजा "भीमसेन" परमार राज्य करता था. उसके उपलदेव (१) आसपाल ( २ ) आसल ( ३ ) यह तीन लडके थे । वढा राजकुमार अपने दो मंत्रियोंको साथ लेकर उत्तर दिशाकी तर्फ चल निकला, उस वक्त दिल्ली में "साधु" नामक नरेश राज्य करता था, 'उपलदेव, उस राजाको मिला और उसको एक नया नगर आवाद करनेकी अपनी इच्छा दर्शाई | दिल्लीपतिके आदेशानुसार उस राजकुमारने ओसिया नामकी नगरी वसाई । राजाकी उसमें सर्व प्रकारसे सहायता, एवं अनुकूलता थी, इस वास्ते इधर उधरके लोग आकर वहां वसने लगे । थोडेही अरसे में वहां ( ४ ) लाख मनुष्योंकी आबादी होगई, जिसने सवालात राजपूत थे । इस अवसर में "आयुपर्वत" पर आचार्यश्री "रत्नप्रभसूरि" जीने ( ५०० ) शिष्यों के साथ चतुर्मास किया । यह रनप्रभरि "पार्श्वनाथ सानी" के सन्तानीय “केशीकुमारनामागणधर " के प्रशिष्य और चउद पूर्वधर- श्रुतकेवली थे, तथा निरन्तर महीने महीने पारणा किया करते थे । चतुर्मास पूर्ण होनेके बाद भाचार्य महाराज जय गुजराती तर्फको बिहार करने लगे तब उनके तप संयमते प्रसन्न होकर भक्तिभावपूर्वक "अंबिका " देवीने प्रार्थना की, कि- पभु | आप यदि मारवाड़ देशमें पिचरें तो अनेरु भव्यात्माओं को सुलभ बोधिता और दयाधर्मकी प्राप्ति होवेगी । इस बात को सुनकर सूरिजी महाराजने अपने ज्ञानमें उपयोग उनको मारवाड़ी तर्फ विहार करनेमें अधिक लाभ गायम हुआ । इस वास्ते उन्होंने (५०० ) शिष्योंको तो गुजराती तर्फ खाना दिया और आपने सिर्फ एस्टी शिष्यको साथ देवर मारवाड़ किया। प्रागानुमान पादविद्वार विचरते हुए आप "ओलिया" ने साये, मामले विस्ट सीन कर पाने मी नपत्या शुरू की ।Page Navigation
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