Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 05
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 1594
________________ भीमकुमार 1586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भीमकुमार के इह कुणति सज्झा -यमसरिसं सा तओ भणइ // 73 // सन्तीह गिरौ मुनयो, मासचतुष्काच पायन्ति विभो ! तेसिं सिज्झायपरा-ण एस सुव्बइ महुरसद्दो।।७४।। अथ नृपतिसूनुरुचे, हिभे शिखी शेषतमसि मणिदीपः / ज इत्थ वि पुन्नेहि, सुसाहुसंगो महं जाओ / / 7 / / तदहमिदानी रजनी-शेषममीषां समीपमुपगम्य। गमिहिं ति तओ नीओ, सो देवीए मुणीणते / / 76 / / प्रातः सपरिजनाऽहं, मुनीन् प्रणंस्यामि सेति जल्पित्वा / सट्ठाणं संपत्ता, सुमरती कुमरउवएसं॥७७॥ इतरोऽपि गुहाद्वार-प्रत्यासन्नस्थितं ननाम गुरुम्। उक्लद्धधम्मलाहो, उवविसए सुद्धमहिपीढ़े॥७॥ विस्मितहृदयोऽपृच्छत्, भगवन् ! कथमिह सुभीषणे देशे। तुब्भे चिट्ठइ अभया, असहाया निरसणा तिसिया // 7 // एवं कुमारपृष्टो, यावत् प्रतिभणति किश्चन मुनीशः। ता नियइ निवइतणओ, गयणे इंत भुयं एगं / / 8 / / दीर्घतरा गवलरुचिः, साऽवतरन्ती नभोगणाच्छुशुभे। नहलच्छीए वेणि-व्वलंबिरा लडहलावन्ना / / 81 / / तरलतरभीषणाऽऽकृति-रतिकठिना रक्तचन्दनोलिप्ता। भूमीए पडिलम्पा,जमस्स जीह व्व सा सहइ।।२।। अथ विस्मयभयजननी, समागता झगिति तत्प्रदेशे सा। भयरहियाण ताणं, मुणिकुमराणं नियंताणं // 83 // आगम्य तदनु सहसा, क्षितिपतितनयस्य मण्डलाग्रं सा। मुट्ठीइ गहिय सुदिद, वलिया पच्छामुहं झ त्ति / / 4 / / कस्य भुजेयं किं वा, करिष्यतेऽनेन मम कृपाणेन। पिच्छामि सयं गंतुं, इय कुमरो उडिओ संहसा / / 8 / / प्रणिपत्य सूरिचरणे, पञ्चास्य इवातिकौतुकवशेन। उच्छलिउंछेयवरो, आरूढो तीइ बाहाए।।८६|| हरगलगबलसुनीलिम- भुजाधिरूढो व्रजन् गगनमार्गे / कालियपुट्ठाऽऽरूढो विण्हु व्व विरायए कुमरो॥८७।। स्थूरस्थिरभुजफलको-परि स्थितो विपुलगगनजलराशिम्। वणिओ व्व भिन्नपोओ, तरमाणो सहइ निवइसुओ।।५५|| बहुतरतरुवरगिरिगण-गिरिसरितो याति यावदभिपश्यन्। भीमो अइसयभीम, ता पिच्छइ कालियाभवणं / / 86 // तद्गर्भगृहाऽऽसीना, प्रहरणयुक् महिषवाहनाऽऽसीना। तेणं दिट्ठो नररू-डमडिया कालियापडिमा // 60|| तस्याश्वाग्रे ददृशे, स पूर्वकापालिकस्तथा तेन। वामकरण एगो, पुरिसो केसेसु परिगहिओ।।१।। यस्यां किल बाहाया-मागच्छति नृपसुतः समारूढः। सा तस्स दुट्ठजोगि-स्स संतिया दाहिणी वाहा।।१२।। तं केशेषु गृहीत. दृष्ट्वा परिचिन्तितं कुमारेण / किं एस कुपासंडी, काही एयरस पुरिसस्स?॥६३|| तत् प्रच्छन्नो भूत्वा, तावत् पश्यामि चेष्टितममुष्य। पच्छा जं कायव्वं, तं काहं इय विचिंतेउं / / 6 / / तस्थावुत्तीर्य भुजा-निभृतस्तस्यैव योगिनः पश्चात्। अप्पित्तु कुमरखग्ग, सट्टाणं सा भुया लग्गा // 65|| तं नरमथ योग्यूचे, स्मरेष्टदेव कुरुष्व भोः शरणम्। तुह सिरमिमिणा असिणा, जं छित्तुं पूइहं देविं / / 6 / / स प्राह परमकरुणा-रसनीरनिधिर्जिनेश्वरो देवः। सव्वावत्थगएण वि, सरियव्यो मज्झन हु अन्नो // 67|| दृढजिनधर्मधुरीणो, भीमाऽऽख्यो निजसखः कुलस्वामी / केण वि कत्थ विनाओ, कुलिङ्गिणा सो उ मे सरणं / / 18 / / योग्यूचे रे पूर्व,सतव स्वामी भयेन मे नष्टः। अन्नह सिरेण तस्से-वकालियं देविमच्चिंतो // 66 // तद्भावे तत्पूजा, तव शिरसाऽपि हि मयाऽद्य कर्तव्या। ता तुज्झ कह सरणं, सो होही मूढ ! कापुरिसो? / / 100 / / रे रे स तव स्वामी, ममाधुनाऽशंसि कालिकादेव्या। विंझगुहाआसन्ने, पासे किर सेयभिक्खूणं / / 101 / / करवालोऽयं तस्यै-व निशित आनायितो मया पश्य। इमिण चिय तुह सीस, छिजिहिई इण्हि निब्भंतं / / 102 / / उभयाऽऽलापान श्रुत्वा, दध्यौ भीमः सुदुःखसामर्षम्। हा कह पावो वि नडइ, मह मित्तं बुद्धिमयरहरं / / 103 / / हक्कयति स्म ततस्तं. रे योगि ब्रुव ! भवाधुना पुरुषः। गिण्हित्तु तुज्झ मउलिं, मिउलेमि जयस्स वि दुहाई।।१०४।। तं नरमपास्य योगी, कुमारमभिधावितस्ततस्तेन। दारकवाडपहारे-ण पाडिओ से कराउ असी।।१०।। धृत्वा कचेषु भूमौ, निपात्य दत्त्वोरसि क्रम भीमः। जा लुणिही से सीस, ता काली अंतरे होउं / / 106 / / प्रीताऽऽह वार ! मैनं, बधीहि मम वत्सलं छलितलोकम्। जो नरसिरकमलेहिं , करेइ मह पूयमइभत्तो।।१०७।। भो अष्टशतं पूर्ण, मौलीनां मोलिनाऽमुनाऽद्य स्यात्। पायडियनिययरूवा, अहं च एयस्स सिज्झंती॥१०८|| तावत् त्वमसमकरुणा-पण्याऽऽपणआगम क्षितिपतनय। तुह पउरपउरिसेणं, तुट्ठा मग्गसु वरं रुइयं / / 106 / / परहितमतिः स ऊचे, तुष्टा यदि मम ददासि वरमिष्टम्। तो तिगरणपरिसुद्ध, जीववह लहु विवजेहि / / 110 / / तव सुतपःशीलाभ्या, विकलायाः का हि धर्मसंप्राप्तिः / एसेव तुज्झधम्मो, चएसु तसजीववहमेयं / / 111 / / यदिह नाऽऽत्मलाभ, लभते किल पादपो विना मूलम्। तह धम्मो वि जियाणं, न होइ नूणं दयाइ विणा // 112|| मा भद्रे ! स्वस्य पुरो, जीववधमचीकरः कदाचिदपि। तह मा तूससु भवदुह-पयाणसओण मजेण / / 113|| कारुण्यमय सम्यक्, यद्यकरिष्यः पुरा हि जिनधर्मम्। तो नेवं पार्वती, कुदेवजोणीइ देवत्तं / / 114|| तत्त्यज जीववधं त्वं, त्वद्भक्ता अपि भवंतु करुणाऽऽर्द्राः। पूयसु जिणपडिमाओ,धरसु जिणुत्तं च सम्मत्तं // 115 / / जिनमार्गसंस्थिताना, कुरु सान्निध्यं च सर्वकार्येषु / जलहिउँ नरजम्म, तं भद्दे ! लहिसि लहु सिद्धिं / / 116 / / अद्यप्रभृति समस्तान, जीवान्निजजीववद् निरीक्षिष्ये। अहयं ति भणिय काली, सहसेव अदसणं पत्ता / / 117|| अथ मन्त्रिसुतो भीम, प्रणनामाऽऽलिङ्गय सोऽपि तं प्राह। कह मित्त ! मुणतो विह, गओ वसमिमस्स पावस्स // 11 // सचिवतनूजोऽप्यूचे, मित्र ! प्रथमेऽद्य यामिनीयामे। वासगिहे तुह भज्जा, पत्ता अनिएवितं तत्थ // 11 // संभ्रान्तनयनयुगला, साऽपृच्छद्यामिकांस्ततस्तेऽपि / पभणति अहो छलिया, जग्गंतो विहु कहं अम्हे / / 120 / / सर्वत्र मार्गितोऽपि च, यदा न दृष्टोऽसि तदनु भूभर्तुः / कहियं केण वि हरिओ, कुमरो निसि पढमजामम्मि // 121 / / श्रुत्वेदं तय जनको, जननी लोकश्च विलपितुंलग्नः। अह ओयरिउ पत्ते, जंपइ कुलदेवया एवं / / 122 //

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