Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 05
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
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________________ भेसिय 1603 - अभिधान राजेन्द्रः - भाग 5 भोग भेसिय त्रि०(भेषित) भयं प्रापिते, आव०६ अ०। भो अव्य०(भोस्) सम्बोधने, वाचला 'इति भो इति भो त्ति ते : एण-- मण्णरस किचाई करणिजाई पच्चणुभवमाणा विहरइ / '' इत्येतत्कार्यमस्ति / भोशब्दश्चाऽऽमन्त्रणे इति / भो इति भो त्ति ति परस्पराऽऽलापानुकरणम् / भ०३ श०१ उ०। आचा०। आ०चू० / व्य०। सूत्रका ल० दश०। रा०) ध०। उत्त०। ज्ञा०। भोरित्यामन्त्रण इति / आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०प्रश्ने, विषादे च / वाच०। भोअ पुं०(भोग) सर्पफणायाम्, "भोओ फणा फणत्थे।' पाई० ना० 151 गाथा। भाटौ, दे०ना०६ वर्ग 106 गाथा। भोइअ पुं०(भोगिक) ग्रामप्रधाने, "गामणी भोइओ य गामवई।" पाइ० ना० 104 गाथा। देना। भोइ(ण) पुं०(भोगिन्) भोग अस्त्यर्थे इनिः। सर्प, नृपे, ग्रामाध्यक्षे, नापिते च / भोगयुक्ते, त्रि० / भोगवदहयः / सर्प, भोगयुक्ते,त्रि० / वाचा कामिनि, द्वा० 15 द्वा०। यो०वि० *भोजिन् पुं० / भुक्ते, इत्येवंशीलो भोजी / भ०२ श० 1 उ०। भोक्तरि, आव०४ अ०। राजनि, व्य०५ उ०ा ग्रामस्वामिनि, व्य०७ उ०। भोइकुल न०(भोजिकुल) राजकुले, व्य०५ उ०। भोइंग पुं०(भोगिक) भोगेन विशिष्टनेपथ्याऽऽदिना चरति भोगिकः / नृपतिमान्ये प्रधानपुरुषे, उत्त०१५ अ० ग्रामस्वामिनि, बृ०१ उ०२ प्रक०ा नि००। भोग इन् कः / भोगवंशोद्भवे च। विषयभोक्तरि, त्रिक उत्त०१५ अ०। बृ०॥ भोइणी स्त्री०(भोगिनी) स्वामिन्याम, नि०चू० 10 उ०) भोइत्ता अव्य०(भोजयित्वा) भोजन कारयित्वेत्यर्थे , उत्त० 6 अ० | स्थाग भोइया स्त्री०(भोजिका) भोजयति भरिमिति भोजिका / बृ० 1 उ०२ प्रकला भाव्याम्, ग०२ अधि० व्यावृला महिलायां च / बृ० 1 उ०३ प्रक०। *भोज्या स्त्री० वेश्यायाम, व्य० 7 उ०। भोई स्त्री०(भवती) भा-डवतुः / डीप। युष्मदर्थे, "जहा य भोई तणुय भुयंगो।" उत्त०१४ अ०। भोऊण अव्य०(भुक्त्वा) भोजन कृत्वेत्यर्थे ,"त्व-थ्व-द्वध्वां चछजझाः क्वचित्" 215 // इति प्राकृतसूत्रेण तस्य वाचः। प्रा० २पाद। "रुदभुजमुचां तोऽन्त्यस्य' |8/4 / 212 / इति प्राकृतसूत्रेणैषामन्त्यस्य तः त्क्वातुम्तव्येषु / प्रा० 4 पाद / उत्त० / सूत्र०। पञ्चा भोग पुं०(भोग) भावे-घञ्। भोजने, स्था०३ ठा०३ उ०। विपाके, पश्चाता | विषयेषु भोगक्रियायाम, स्था० 10 ठा०। भोगस्तदुपयोगेन सफलीकरणमिति / सूत्र०१ श्रु० 3 अ०२ उ०। भोग इन्द्रियार्थसन्बन्ध इति। द्वा० 24 द्वा०ा मदनकामे, कामा इच्छारूपा मदनकामास्तु भोगा / सूत्र०२ श्रु०१ अ० शब्दाऽऽदिविषयाभिलाषे, आचा०१श्रु०२ अ०४ उ सुखे, सुखदुःखाऽऽद्यनुभवे, पण्यस्त्रीणां भाटकाऽऽदिरूपे वेतने, पाने, ज्योतिषोत्ते ग्रहाणां तत्तद्राशिस्थितौ भूम्यादिषूत्पन्नद्रव्यविनियोगे. यथेष्टविनियोगे च / 'बन्धूनामविगक्तानां, भोग नैव प्रदापयेत्।इति स्मृतिः।वाचा योगशास्त्रोक्ते सत्त्वपुरुषयोरभेदाध्यवसाये च। तदुक्तम्- ''सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तासङ्कीर्णयोः प्रत्ययाविशेषो भोगः परार्थः स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानमिति।" द्वा०२६ द्वा०। भुज्यते इति भोगः / इन्द्रियमनोऽनुकूले शब्दाऽऽदिके विषये, यो०वि० / सूत्र० / उत्त०। पञ्चा० / चं०प्र० / स्था०। धo जंग विपा० दशला प्रज्ञा कल्प० भ० आ०म०। स० / स्पर्शाऽऽदिके विषये, उत्त०५ अ०) आव० जी० / कामौ शब्दरूपे, भोगा गन्धरसस्पर्शाः / स्था०४ ठा० १उ०। अव०। औसा तं०ा "भोगेहिं संवुडे।" भोगा गन्धरसस्पर्शाः, तेषु मध्ये संवृद्धो वृद्धिमुपगतः / भ०६ श०३३ उ०। आतु०। आऽ चू०। क इविहा णं भंते ! भोगा पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा भोगा पण्णत्ता। तं जहा-गंधा, रसा, फासा। भुज्यते सकृदुपयुज्यत इति भोगः। सकृदुपभोग्ये पुष्पाऽऽहाराऽऽदिके विषये, भ०७ श०७ उ० रूवी भंते ! भोगा अरूवी भोगा? गोयमा ! रूवी भोगा नो अरूवी भोगा / सचित्ता भंते ! भोगा, अचित्ता भोगा? गोयमा! सचित्ता वि भोगा, अचित्ता वि भोगा / जीवा णं भंते ! भोगा पुच्छा? गोयमा ! जीवा वि भोगा, अजीवा वि भोगा। जीवाणं भंते ! भोगा, अजीवाणं भोगा? गोयमा ! जीवाणं भोगा, नो अजीवाणं भोगा। (रूविमित्यादि) भुज्यते शरीरेण उपभुज्यन्ते इति भोगाः विशिष्टगन्धरसस्पर्शद्रव्याणि, (रूविं भोग ति) रूणिणो भोगा नो अरूपिणः, पुद्गलधर्मत्वेन तेषां मूर्तत्वादिति / (सचित्तेत्यादि) सचित्ता अपि भोगा भवन्ति गन्धाऽऽदिप्रधानजीवशरीराणां केषाञ्चित्समनस्कत्वात् / तथा अचित्ता अपि भोगा भवन्ति, केषाञ्चिद्गन्धाऽऽदिविशिष्टजीवशरीराणाममनस्कत्वात्, (जीवा वि भोग त्ति) जीवशरीराणां विशिष्टगन्धाऽऽदिगुणयुक्तत्वात्,(अजीवा वि भोग त्ति) अजीवद्रव्याणां विशिष्टगन्धाऽऽदिगुणोपेतत्वादिति। भ०७ श०७ उ०। उक्तं हि-"सति भुजति त्ति भोगो, सो पुण आहारपुप्फमाईओ।" उत्त०३३ अाकर्म०। पं०सं०। श्रा० / प्रज्ञा०। भोगाः स्रक्चन्दनवादित्राऽऽदयः। सूत्र०२ श्रु० १अ०। भोगोऽत्रमाल्यताम्बूलविलेपनोद्वर्तनस्नानपानाऽऽदिः। ध०२ अधि०ा भुज्यन्ते शरीरेणोपभुज्यन्ते इति भोगाः। विशिष्टान्धरसस्पर्शद्रव्येषु, भ०७ श०७ उ०ा आधारे घञ्। भोगाऽऽधारभूते वस्तुनि, स्त्रीला शरीराऽऽदौ, ज्ञा० १श्रु०१अाजका छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से जे भविए अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जित्तए, से णूणं भंते! से खीणभोगीणोपभूउट्ठाणेणं कम्मेणं बलेणं वीरिएणं पुरिसक्कारपरक्कमेणं विउलाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरित्तए। से पूर्ण भंते ! एयम8 एवं वयह? गोयमा ! नो इणटेसमटे, पभू णं उट्ठाणेण वि कम्मेण वि बलेण वि वीरिएण

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