Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 05
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan

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Page 1600
________________ भुयगावई 1562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 5 भुवणतिलय भुयगावई स्त्री०(भुजगवती) भुयगवई' शब्दार्थे, भ०१० श०५उ०। भुवण न०(भुवन) भवत्यत्र / भू–क्युन् / जगति, जने, आकाशे, चतुर्दशभुयगीसर पु०(भुजगेश्वर) नागराजे, ता"भुयगीसरविपुलभोगआदाण- संख्यायां च / वाच० जलतत्त्वे, गा०। फलिहउच्छूढदीहवाह।" औ०। जी०। भुवणगुरु पुं०(भुवनगुरु) त्रिभुवननायके, पञ्चा० 2 विव० / त्रिभुवनभुयगेसर पुं०(भुजगेश्वर) 'भुयगीसर' शब्दार्थे, औ०। बान्धवे, पञ्चा०२ विवा जगज्ज्येष्ठे, पञ्चा०६ विव०ा त्रिभुवनानुशासके, भुयपरिसप्प पुं०(भुजपरिसर्प) भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति भुजपरिसर्पाः। / दर्श०३ तत्त्व। “भुवणगुरूण जिणाणं, विसेसओएयमेव दट्ठव्वं।" पञ्चा० अहिनकुलाऽऽदिके, अनु० / स्था०। जी०। प्रज्ञा०। 4 विव०। तीर्थकर, "भुवणगुरुणोवगारा, पमाययं नावगच्छति।" पंव० अधुना भुजपरिसर्पानभिधित्सुराह 5 द्वार। 'भुवणगुरुजिणिंदगुणापरिणाए।'' पञ्चा०७ विव०) से किं तं भुयपरिसप्पा? भुयपरिसप्पा अणेगविहा पण्णत्ता। भूवणचंद पुं०(भुवनचन्द्र) चैत्रगच्छभवे स्वनामख्याते आचार्य, तं जहा- णउला, सेहा, सरडा, सल्ला, सरंट्ठा, सारा, खोरा, "श्रीभुवनचन्द्रसूरिर्गुरुरुदियाय प्रवरतेजाः।" ध०र०३ अधि० घरोइला, विस्संभरा, मूसा, मंगुसा, पइलाइया, छीरविरालिया, ७लक्षण जहा चउप्पाइया, जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा भुवणच्छेरग त्रि०(भुवनाऽऽश्वर्य) भुवनाद्भुते, ''भुवणच्छेरयभूया, पण्णत्ता। तं जहा-समुच्छिमा य, गब्भवक्कं तिआ या तत्थ णं भुवनाऽऽश्वर्य्यभूता भुवनाद्भुतभूतः / पञ्चा०६ विव०॥ जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे नपुंसगा, तत्थ णं जे ते गब्भवक्कं तिया, | मुवणणाण न०(भुवनज्ञान) सप्तलोकज्ञाने, “सूर्ये च भुवनज्ञानम्।" तेणं तिविहा पण्णत्ता तंजहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा। एएसि सूर्ये च प्रकाशमये संयमा भुवनानां सप्तानां लोकानां ज्ञानम्। तदुक्तम्णं एवमाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं भयपरिसप्पाणं नव जाइकुल- "भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्।" द्वा०२६ द्वा०। कोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा हवंतीति मक्खायं / सेत्तं भुवणणाह पुं०(भुवननाथ) त्रिजगत्त्रातरि, दर्श०१ तत्त्व। भुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया / (सूत्र-३५) भुवणतिलय पुं०(भुवनतिलक) कुसुमपुरस्थस्यधनदनृपतेः पुत्रे स्वनामप्रज्ञा०१पदा जी०। ख्याते राजकुमारे, ध०२०। भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिय पुं०(भुजपरिसर्पस्थल तत्कथानकम्चरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिक) भुजाभ्यां परिसर्पतीति भुजपरिसर्पः, स चासो स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकश्व भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रिय ''सुइवाणियं सुपत्तं, कुसुमं व समत्थि इत्थ कुसुमपुरं। तिर्यग्योनिकः / भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिगयोनिकभेदे, प्रज्ञा० धणओ विव भूरिधणो, धणओ नामेण तत्थ निवो॥१॥ १पद। सूत्र०ा जी01 आसि पउमेसयस्सव, पउमा पउमावई पिया तस्स। भुयपरिसप्पिणी स्त्री०(भुजपरिसर्पिणी) गोधिकानकुल्यादिके, जी०। पुत्तो य भुवणतिलओ, तिलओ इव सेसपुरिसाणं // 22 // से किं तं भुयपरिसप्पिणीओ? भुयपरिसप्पिणीओ अणेगवि- तस्सय रूवाइगुणा-ण जइ वि उवमापय इमे हुज्जा। धाओ पण्णत्ताओ / तं जहा-गोहीओ, णउल्लीओ, सेधाओ, मयणाइणो पसिद्धा, विणयगुणो अणुवमो तह वि।।३।। सेलाओ, सेरडीओ, सेरिंधीओ, सावाओ,खाराओ, पंचलोइ-- सो कालम्भि सुहेणं, उवज्झायमहन्नवाउ गिण्हेइ। याओ, चतुप्पझ्याओ, मूसियाओ, सुंसुसियाओ, घरोलियाओ, विणओ णओ कलाओ, जलपडलीओ जलहरु व्य / / 4 / / गोव्हियाओ, जेव्हियाओ, विरचिरालियाओ। सेत्तं भुयपरिस तेण य विणयगुणणं, जणिओ विजागुणो उसो तस्स। प्पिणीओ। जी०२ प्रति जो अमरसुंदरीण वि, मुहाइँ मुहलाई कासी य॥५।। भुयमोयग पुं०(भुजमोचक) नीलवर्णे रत्नविशेष, भ०१ श०१ उ०। अन्नदिणे सो राया, अत्थाणसभाइ जाव आसीणो। "भुयमोयगइंदनीले य।" प्रज्ञा०१ पद० जी०। ता औ०। प्रश्न चिट्टेइ ताव हिट्ठाण वित्तिणा एव विन्नतो // 6|| *भुरुकुडिअ (देशी) उद्धूलिते, दे०ना०६ वर्ग 106 गाथा। *भुरुहुंडिअ (देशी) उद्धूलिते, देना०६ वर्ग 106 गाथा। सामिय ! रयणस्थलपुर-पहुणो सिरिअमरचंदनरवइणो। भुल्ल धा०(भ्रंश) अधः पतने, प्रा०।"भ्रंशेः फिडफिट्टफुरफुडफुट्ट चिट्ठइ पहाणपुरिसो, बाहिं को तस्स आएसो?||७|| चुक्कभुल्लाः" |841177 / इति प्राकृतसूत्रेण भंशेर्भुल्लाऽऽदेशः। लहु मुंचसु इय रन्ना, वुत्तो सो वित्तिणा समाणीओ। भुलइ। भंसइ। प्रा०४ पाद। नमिय निवं उवविट्ठो, समए इय भणिउमारद्धो // 8 // मुल्लुंकी स्त्री०(भल्लुकी) शृगाल्याम्, "भुल्लंकी य भसुआ महा देव ! सिरिघणय ! नरवर! तुम्ह पइजंपए अमरचंदो। सद्दा।" पाइ०ना० 127 गाथा। अम्ह पहू ! अस्थि महं, वरधूया जसमई नाम॥६॥ भुव अव्य०(भुवर्) भू-अरु वुन् किच / भुवोक, तिर्यग्लोके, गा०। सा तुह सुयरस विमल, गुणनिवह खेयरीहिँ गिज्जत। वाचा आयन्निऊण सुइरं, अच्चतं तम्मि अणुरत्ता // 10 //

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