Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 8
________________ { viii} भावाश्यक के दो भेद है-(1) आमगत (2) नो आगमत:। आवश्यक का ज्ञायक होने के साथ जो उसके उपयोग से भी युक्त हो वह आगम से भावाश्यक है। नो आगमत भावावश्यक के 3 भेद हैं-(अ) लौकिक-लोक व्यवहार में आगम रूप से मान्य महाभारत, रामायण आदि की वाचना और श्रवण अवश्य करने योग्य होने से लौकिक आवश्यक है, उनके अर्थ में वक्ता व श्रोता के उपयोग रूप परिणाम होने से भावरूपता है। (ब) कुप्रावचनिक-मिथ्या शास्त्रों को मानने वाले चरक, चीरिक आदि पाखंडी यथावसर जो भावसहित यज्ञ आदि क्रियाएँ करते हैं, वह कुप्रावचनिक भावावश्यक है। स) लोकोत्तरिक-प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ श्रमण आदि जनों को अवश्य करने योग्य होने से आवश्यक है। इनके करने वालों का उनमें उपयोग वर्तमान रहने से भावरूपता है। आवश्यक के नाम, स्थापना आदि में वर्तमान में अलग-अलग परंपराओं में जो भेद परिलक्षित होता है वह द्रव्यावश्यक का ही है, भावावश्यक का लक्ष्य तो सभी का एक-सा ही है। हम भावावश्यक तक कैसे पहुँचें यह अधिक चिंतन का विषय है। कैसे करें भावावश्यक की आराधना (1) आवश्यक-अवश्य करणीय है, इस बात पर दृढ़ आस्था रखें-तीर्थङ्कर नाम गौत्र कर्म उपार्जन के 20 कारणों में एक कारण उभयकाल प्रतिक्रमण करने का भी बताया गया है ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र में। शीघ्र मोक्ष जाने के 23 बोलों में एक बोल उभयकाल प्रतिक्रमण का भी है, इससे स्पष्ट है कि तीर्थडर केवली या सामान्य केवली दोनों ही अवस्थाओं को प्राप्त करने में आवश्यक महत्त्वपूर्ण उपाय है। साधुसाध्वियों के लिए उभयकाल आवश्यक करना अनिवार्य है। श्रावक-श्राविका वर्ग भी उभयकाल या अपनी सुविधानुसार आवश्यक की आराधना में तत्पर रहते हैं। वर्तमान में आवश्यक की आराधना एक परंपरा निभाना जैसा कार्य हो गया है, आवश्यक के प्रति अहोभाव, श्रद्धाभाव की कमी के कारण यह आराधना जीवन में आनन्ददायक नहीं हो पाती। करना चाहिए के स्थान पर करना पड़ता है का भाव अधिक आ जाता है जिससे अंतरंग जुड़ाव नहीं हो पाता। रस नहीं आता। जिससे इस समय में दूसरा कोई आराधना का उपक्रम उपस्थित होने पर इसके स्थान पर उसे महत्त्व दे दिया जाता है, यह आवश्यक अवश्यकरणीय है, इस पर श्रद्धा की कमी का प्रतीक है। अत: आवश्यक के काल में आवश्यक की ही आराधना करने योग्य है, अन्य कोई नहीं, ऐसी दृढ़ श्रद्धा रखनी चाहिए। (2) पाठों के शुद्ध उच्चारण करने पर पूरा ध्यान दें-शास्त्र के पाठों का उच्चारण कैसे करना चाहिए इस संबंध में विस्तार से वर्णन हुआ है। एक मात्रा, अनुस्वार, अक्षर, पद आदि कम-अधिक हो जाता है तो ज्ञान का अतिचार कहलाता है। आगमे तिविहे के पाठ में ऐसे अतिचारों की चर्चा हुई है, सूत्र के 32 दोषों में भी इन्हें शामिल किया गया है, अत: पाठों के शुद्ध उच्चारण पर ध्यान देना अनिवार्य है। उसके बिना भावविशुद्धि सम्भव नहीं है। जब भी सामायिक-प्रतिक्रमण आदि के पाठ सीखें तब किसी व्याकरण के ज्ञान प्राप्त किये हुए व्यक्ति के पास ही सीखें, एक बार गलत उच्चारण जुबान पर जम जाता है तो उसे सुधारना बहुत कठिन होता है। अत: पहले उच्चारण शुद्धि के नियमों को सीखना चाहिए तथा एक-एक मात्रा, अनुस्वार

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