Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 7
________________ { vii} स्थापना आवश्यक-काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म, अक्ष, वराटक में एक या अनेक आवश्यक रूप से जो सद्भाव या असद्भाव रूप स्थापना की जाती है, वह स्थापना आवश्यक है। द्रव्य आवश्यक-जो आवश्यक रूप परिणाम का अनुभव कर चुका अथवा भविष्य में अनुभव करेगा ऐसा आवश्यक के उपयोग से शून्य साधु का शरीर आदि द्रव्य-आवश्यक है। द्रव्य आवश्यक के दो भेद-(1) आगम द्रव्यावश्यक (2) नो-आगम द्रव्यावश्यक। (1) आगम द्रव्यावश्यक-जिस (साधु) ने आवश्यक पद को सीख लिया है, हृदय में स्थित कर लिया है, आवृत्ति करके धारण रूप कर लिया है, श्लोक, पद, वर्ण आदि के संख्या प्रमाण का भली-भाँति अभ्यास कर लिया है, आनुपूर्वी-अनानुपूर्वी पूर्वक सर्वात्मना परावर्तित कर लिया है, स्वकीय नाम के समान अविस्मृत कर लिया है, उदात्तादि स्वरों के अनुरूप उच्चारण किया है, अक्षर का हीनतारहित उच्चारण किया है, अक्षरों का अधिकता रहित उच्चारण किया है, व्यतिक्रम रहित उच्चारण किया है, स्खलित रूप से उच्चारण नहीं किया है, शास्त्रान्तर्वर्ती पदों को मिश्रित करके उच्चारण नहीं किया है, एक शास्त्र के भिन्नभिन्न स्थानगत एकार्थक सूत्रों को एकत्रित करके पाठ नहीं किया है। अक्षरों और अर्थ की अपेक्षा शास्त्र का अन्यूनाधिक अभ्यास किया है, यथास्थान समुचित घोषों पूर्वक शास्त्र का परावर्तन किया है, स्वरोत्पादक कंठादि के माध्यम से स्पष्ट उच्चारण किया है, गुरु के पास आवश्यक शास्त्र की वाचना ली है, जिससे वह उस शास्त्र की वाचना, पृच्छना, परावर्तना, धर्मकथा से भी युक्त है किंतु अर्थ का चिंतन करने रूप अनुप्रेक्षा (उपयोग) से रहित होने से वह आगम द्रव्यावश्यक है। अनुपयोगो द्रव्यं-आवश्यक के उपयोग से रहित होने के कारण उसे आगम-द्रव्यावश्यक कहा जाता है। (2) नो आगम द्रव्यावश्यक तीन प्रकार का है- (अ) ज्ञायक शरीर द्रव्यावश्यक-जिसने पहले आवश्यक शास्त्र का सविधि ज्ञान प्राप्त कर लिया था, किंतु अब पर्यायांतरित हो जाने से उसका वह निर्जीव शरीर आवश्यक सूत्र के ज्ञान से सर्वथा रहित होने के कारण नो आगम ज्ञायक शरीर द्रव्यावश्यक है। (ब) भव्य शरीर द्रव्यावश्यक-समय पूर्ण होने पर जो जीव जन्मकाल से बाहर निकला और उसी प्राप्त शरीर द्वारा जिनोपदिष्ट भावानुसार भविष्य में आवश्यक पद को सीखेगा, किंतु अभी सीख नहीं रहा है, ऐसे उस जीव का वह शरीर भव्य शरीर द्रव्यावश्यक कहलाता है। (स) तद्व्यतिरिक्त द्रव्यावश्यक-इसके तीन भेद है-(क) लौकिक द्रव्यावश्यक-संसारी जनों द्वारा आवश्यक कृत्यों के रूप में जिनको अवश्य करना होता है, वे सब लौकिक द्रव्यावश्यक है। (ख) कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक-मोक्ष के कारणभूत सिद्धांतों से विपरीत सिद्धांतों की प्ररूपणा एवं आचरण करने वाले चरक आदि कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक कहते हैं। (ग) लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यक-लोक में श्रेष्ठ साधुओं द्वारा आचरित एवं लोक में उत्तरउत्कृष्टतर जिन प्रवचन में वर्णित होने से आवश्यक लोकोत्तरिक है। किंतु श्रमण गुण से रहित स्वच्छन्दविहारी द्रव्यलिङ्गी साधुओं द्वारा किये जाने से वह आवश्यक कर्म अप्रधान होने के कारण द्रव्यावश्यक है।

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