Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 5
________________ आवश्यक-ऐतिहासिक पर्यालोचना समणेण सावएण य अवस्सं कायव्वयं हवइ जम्हा। ___ अंतो अहो-निसिस्स उ, तम्हा आवस्सयं नाम।। __ अर्थात् जो श्रावक-श्राविकाओं के लिए दोनों समय करना आवश्यक है उसे आवश्यक कहते हैं। संयमी जीवन को शुद्ध रखने के लिए अनिवार्य सभी क्रियाएँ आवश्यक कहलाती हैं। जैसे-प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, स्वाध्यायादि। लेकिन यहाँ दोनों समय करना आवश्यक होने से इसका संबंध प्रतिक्रमण व प्रतिलेखन से जुड़ता है। आवश्यक के भेदों के आधार पर देखें तो इसका संबंध प्रतिक्रमण से ही अधिक संगत लगता है। प्रतिक्रमण पापों से पीछे हटने की क्रिया है अत: इसकी ऐतिहासिकता पर विचार करें तो लगता है यह साधक के साथ जुड़ी हुई क्रिया है इसलिए जितना पुराना इतिहास साधक का है, उतना ही पुराना प्रतिक्रमण का भी है। साधना करने वाले साधक को कब-कब प्रतिक्रमण करना चाहिए इसका वर्णन ठाणांग सूत्र के 6ठे ठाणे में आया है, यहाँ 6 प्रकार के प्रतिक्रमण की चर्चा है छव्विहे पडिक्कमणे पण्णत्ते तं जहा-उच्चारपडिक्कमणे, पासवणपडिक्कमणे, इत्तरिए, आवकहिए, जं किंचि मिच्छा, सोमणंतिए। अर्थात् प्रतिक्रमण 6 प्रकार का कहा गया है (1) उच्चार प्रतिक्रमण-मल विसर्जन के पश्चात् वापस आने पर ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना। (2) प्रस्रवण प्रतिक्रमण-मूत्र विसर्जन के पश्चात् वापस आने पर ईर्यापथिकी सूत्र के द्वारा प्रतिक्रमण करना। (3) इत्वरिक प्रतिक्रमण-दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण करना। (4) यावत्कथित प्रतिक्रमण-मारणान्तिकी संलेखना के समय किया जाने वाला प्रतिक्रमण। (5) यत्किंचित् मिथ्यादुष्कृत प्रतिक्रमण-साधारण दोष लगने पर उसकी शुद्धि के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं' कहकर पश्चात्ताप प्रकट करना। (6) स्वप्नान्तिक प्रतिक्रमण-दु:स्वप्नादि देखने पर किया जाने वाले प्रतिक्रमण।

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