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२२७२८२८२ || श्री जिनाय नमः ॥
विक्रम संवत् १९८२
॥ सुखेशतकम् ॥
( गुर्जर भाषांत रोपेतम् )
- छपादी प्रसिद्ध कर्त्ता
पंडित श्रावक हीरालाल हंसराज (जामनगरवाळा )
वीर संवत् २४५२
मूल्यम् रु.०६-०
श्री जैन भारकरोदय प्रिन्टिंग प्रेस - जामनगर.
सने १९२६.
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मूर्ख
॥ १॥
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॥ श्री जिनाय नमः ॥
- * ॥ श्रीचारित्रविजयगुरुभ्यो नमः ॥ * -
॥ अथ मूर्खशतकं प्रारभ्यते ॥
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( गूर्जरजाषांतरोपेतं )
भाषांतरकर्ता तथा छपावी प्रसिद्धकर्ता पंडित श्रावक हीरालाल हंसराज ( जामनगरवाळा )
शृणु मूर्खतं राजंस्तं तं भावं विवर्जय ॥ येन त्वं राजसे लोके । दोषहीनो मधिर्यथा ॥ १ ॥ हे राजन्! तुं भुर्खशतक सांभळी अने ते ते मूर्खपणाना भावनो त्याग कर के जेथी निर्दोष मणिनीपेठे तु जगतम शोभा पामशे ॥ १ ॥ सामर्थ्यं विगतोद्योगः । स्वश्लाधी प्राज्ञपर्षदि ॥ वेश्यावचसि विश्वासी । प्रत्ययी दंजमंबरे ॥ २ ॥ छती शक्ति निरुमी (१), विद्वानोनी सभामा पोते पोवानी प्रशंसा करनारो (२), वेश्याना वचनोपर विश्वास करनारो
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शतकम्
॥ १ ॥
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मूर्ख -
॥ २ ॥
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(३), अने कपटयुक्त आडंबर मां प्रतीति राखनारो (४), मूर्ख जाणो ॥ २ ॥ द्यूतादिवित्तबद्धाशः । कृष्याद्यायेषु संशयी ॥ निर्बुद्धिः प्रौढ कार्यार्थी । विविक्तर सिको वणिक् ॥३॥ - जुगार आदिकथी धन मेळववानी आशावाळो (५), खेतीआदिकनी पेदाशमां संशय करनारो (६), बुद्धिरहित छतां महान् कार्य करवानी इच्छावाळो (७), अने व्यापारी छतां इंद्रिओना विषयोमां आसक्त थयेलो (८) मूर्ख जाणवो. ॥ ३ ॥ ऋणेन स्थावरक्रेता | स्थविरः कन्यकावरः ॥ व्याख्याता चाश्रुते ग्रंथे । प्रत्यक्षार्थेऽप्यपहुवी ॥४॥
करज करने स्थावर मिल्कत बेचाथी लेनारो ( ९ ), वृद्ध होवाळतां कन्यासाथे लग्न करनारो (१०), नही सांभळेला शास्त्रनुं व्याख्यान करनारो ( ११ ) अने प्रत्यक्ष देखाता पदार्थने पण नही माननारो ( १२ ) मूर्ख जाणो ॥ ४ ॥ चपलापतिर्थ्यालुः । शक्तशत्रोरशंकितः ॥ दत्त्वा धनान्यनुशयी | कविना इठपाठकः ॥ ५ ॥ कुलटा खीनो स्वामी छत ( तेणीना दुराचारमाटे ) ईर्ष्या करनारो (१३), बलवान शत्रुधी पण शंका नहीं राखनारो (१४), धन आपीने पाळथी पश्चात्ताप करनारो ( १५ ), अने कविनसाथे हटवाद करनारी (१५) मूर्ख जाणवो ॥ ५ ॥ प्रस्तावे पक्का | प्रस्तावे मौनकारकः ॥ लाभकाले कलहक- न्मन्युमान् भोजनक्षणे ॥ ६॥ अवसर विना चतुराइयी भाषण करनारी (१७), अवसर आव्यो मौन रहेनारो (१८ ) लाभ थवाने अवसरे केश
शतकम्
॥ २ ॥
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करनारो (१९) अने भोजन वखते क्रोध करनारो (२०) मूर्ख जाणवो. ॥६॥
शतकम् कीर्णार्थः स्तोकलानेन । लोकोतः विष्टसंवृतः॥ पुत्राधीने धने दीनः । पत्न्यायत्तार्थयाचकः ॥७॥ ॥३॥
___ स्वल्प लाभमाटे धनने विखेरनारो (२१), लोकोना बचनधी खीज धरनारो ( २२ ) पुत्रने धन सोंपी देइ दीनता ध. 15 | रनारो (२३), अने स्त्रीने स्वाधीन करेलां धननी तेणीनी पासेथी फरी याचना करनारो (२४) मूर्ख जाणवो. ॥७॥ नार्याखेदात्कृतोछाहो । पुत्रकोपात्तदंतकः ॥ कामुकस्पर्धया दाता । गर्ववान् मार्गणोक्तिन्निः ॥७॥
एक स्त्रीथी कंटाळीने चीजी स्त्रीसाथे विवाह करनारो (२५), पुत्रना क्रोधथी तेनुं खून करनारो (२६), कोइ कामी पुरुषनी ||पूर स्पर्धा करीने (वेश्याआदिकने) धन आपनारो (२७), अने याचकोना मिष्ट वचनोथी अहंकार करनारो (२८) मूर्ख जाणवो. ॥८॥
धीदर्पान्न हितश्रोता। कुलोत्सेकादसेवकः॥दत्वार्थान् दुर्लभान् कामी । दत्वा शुल्कममार्गगाए। | पोतानी बुद्धिना अहंकारथी (परना) विकारी वचनोने नही सांमळनारो (२९), पोताना उंचां कुलना अभिमानथी 8 (राजाआदिकनी) नोकरी नही करनारो (३०), दुर्लभ प, धन आपीने काम सेवनारो (३१), अने जगात- भर्याछता
पण गुप्त मार्गोथी जनारो ( ३२ ) मूर्ख जाणवो. ॥९॥ || लुब्धे सुजुजि लानार्थी। न्यायार्थी दुष्टशास्तरि ॥ कायस्थे स्नेहबकाशः । क्रूरे मंत्रिणि निर्भयः॥१०॥ ||8||
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२
॥
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मूर्ख
॥ ४ ॥
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लोभी राजापासेथी लाभ मेळवावानी इच्छावाळो (३३), दुष्ट राजापासेथी न्याय मेळववानी आकांक्षा करनारी (३४), कायस्थजातिना मनुष्यसाथै स्नेह राखवानी आशावाळो (३५), अने निर्दय मंत्रिथी निर्भय रहेनारो (३६) मूर्ख आणवो. ॥ १० ॥ कृत प्रतिकार्यार्थी । नीरसे गुणविक्रयी || स्वास्थ्ये वैद्यक्रियान्वेषी । रोगी पथ्यपराङ्मुखः ॥११॥
करेला उपकारने नही जाणनारपर उपकार करनारो ( ३७ ), सांभळवामाटे जेने रस न पडतो होय, तेवा मानसपासे पोताना गुणो कहेनारो ( ३८ ), निरोगी छतां वैद्यक्रियानी गवेषणा करनारो, एटले शोकने खातर विविध प्रकारनां स्वादिष्ट चूर्ण आदिक औषधो खानारो (३५), अने रोगी छतां पथ्यथी वेगळो रहेनारो (४०) मूर्ख जाणवो. ॥। ११ ॥ लोजेन स्वजन त्यागी । वाचा मित्रप्रदासकृत् ॥ लाजकाले कृतालस्यो । महर्द्धिः कलप्रियः ॥१२॥ लोभने वश यइ पोताना स्वजनोनो त्याग करनार (४२), लाभ मळवाने समये आळस करनारो ( ४३ ), अने घणुं धन छत कंकास करनारो (४४) मूर्ख जाणो ।। १२ ।। राज्यार्थी गणकस्योक्तेर्मूर्ख मित्रकृतादरः ॥ शूरो ज्योतिषीना वचनथी राज्य मेळववानी अभिलाषा करनारी
दुर्बलवोधाय । दृष्टदोषांगनारतः ॥ १३ ॥ (१५), मुर्ख मित्रपते आदरसत्कार करनारो (४६),
शतकम्
॥ ४ ॥
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शतकम्
मूर्ख-18 निर्बलने शिक्षा करवामाटे शूरवीर (४७), अने वीना दोषो प्रत्यक्ष जोया छतां पण तेप्रते आसक्ति राखनारो (४८) ||
मूर्ख जाणवो. ॥ १३॥ क्षणरागी गुणाभ्यासे । संचयेऽन्यैः कृतव्ययः ॥ नृपानुकारी मानेन । जने राजादिनिंदकः॥१४॥ ___गुणोनो अभ्यास करवामां क्षणिक उत्साहवाळो (४९), वापदादाए संचय करेलुं धन उडाडनारो (५०), अहंकारथी | राजानुं अनुकरण करनारो (५१), अने जाहेरमा राजाआदिकनी निंदा करनारो (५२) मूर्ख जाणवो- ॥ १४ ॥ दुःखे दर्शितदैन्यातिः । सुखे विस्मृतपुर्गतिः ॥ बहव्ययोऽल्परक्षार्थ । परीक्षायै विषाशनः ॥१५॥
दुःख पड्ये दीनपणानी पीडा देखाडनारो (५३), सुखी अवस्थामा दुर्गतिने विसारी मूकनारो (५४), स्वल्प आवरुआदिकना रक्षणमाटे घणो द्रव्यर्नु खरच करनारो (५५), अने फक्त परीक्षा करवामाटे विषनुं भक्षण करनारो (५६) मूर्ख जाणवो. ॥ १५॥ दग्धाथों धातुवादेन । रसायनैः रसक्षयी॥ यात्मसंभावनास्तब्धः। क्रोधादात्मवधोद्यमः ॥१६॥
धातुवादथी एटले पाराआदिकनी रसायनक्रियावी धन मेळववानी लाळघे धननोधमाडो करनारो (५७), रसायनोना | भक्षणथी शरीरनी धातुओनो विनाश करनारो (५८), पोताने मळ्ता सन्मानथी अकड रहेनारो (५९), अने क्रोधथी आपघात
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॥५॥
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मर्ख
បិចចិ:
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करवाने तत्पर थयेलो (६०) मूर्ख जाणवो. ॥ १६ ॥
शतकम् नित्यं निष्फलसंचारी । युद्धप्रेक्षी शराहतः ॥ शयी शक्तविरोधेन । स्वल्पार्थः स्फीतडंबरः ॥१७॥
हमेशा प्रयोजनचिना ज्या त्यां फरनारो (६१), बाणआदिकथी घायल ययाछता यतुं युद्ध जोवा उभनारो (६२), बलवानसाचे वैर करीने निश्चितपणे निद्रा करनारो (६३), अने स्वल्प धन छतां महोटो आडंबर राखनारो [६४)
मूर्ख जाणवो. ॥ १७॥ || पंमितोऽस्मीति वाचालः॥सुनटोऽस्मीति निर्भयः॥ प्रफुल्लितोऽतिस्तुतिनि-मर्मनेदी स्मितोक्तिभिः।१ ||
हुं विद्वान् छु, एम मानीने घj घणु बोलनारो (६५), हुं सुभट छु, एम मानीने हमेशा निर्भय रहेनारो (६६), | कोइये धणी स्तुति करवायी फुलाइ जनारो (६७), अने मश्करीभरेला वचनोवडे परना मर्मस्थानोने मेदनारो (६८) | मूर्ख बाणवो. ॥ १८ ॥ दरिदस्तन्यासार्थी । संदिग्धार्थे कृतव्ययः ॥ खव्यये लेख्यकालस्यो। देवाशात्यक्तपौरुषः ॥१०॥
दरिद्रीहस्तक द्रव्यनी थापण राखनारो (६९), लाभ मळवानो जेमा संशय होय, तेवा व्यापारआदिकमां खर्च करनारो foll॥६॥ | (१०), पोताना खर्चना संबंधमा हिसाव राखवामां आळसवाळो (७१), अने लाभ अलाभ तो दैवाधीन छे, एम विचारी
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MARTOOT मख
शतकम्
उद्यमने नजीदेनारो (७२) मूर्ख जाणवोः ॥ १९॥ गोष्टीरतिर्दरिद्रश्च । दैन्ये विस्मृतनोजनः । गुणहीनः कुलश्लाघी । गीतगायी खरखरः ॥ २० ॥
दरिद्र छतां गोष्टीमा एटले खानपान आदिकनी मंडलीमा आसक्त ( ७३ ), दीनपणुं प्राप्त थवाथी एटले दिलगिरीना वखते योजनने विसारी मूकनारो (७४), गुणरहित छतां पोताना कुलनी प्रशंसा करनारो (७५), अने गधेडासरखो अवाज छतां मायन गानारो (७६ ) मूर्ख जाणवो. ।। २० ॥
नार्याभयान्निबझार्थी। कार्पण्यार्जितदर्यशः ॥ व्यक्तदोषजनश्लाघी। सनामध्यार्धनिर्गतः ॥ २१॥ का सीना क्यथी धनने गुप्त राखनारो (७७), कृपणताथी अपजश उपार्जन करनारो ( ७८), जेना दोषो प्रगटपणे 10 देखाता होय तेवा माणसनी प्रशंसा करनारो (७९), तथा सभामांथी अधवचे उठी जनारो (८०) मूर्ख जाणवो. ॥२१॥
स्तो विस्मृतसंदेशः । कासवांश्चौरिकारत॥भूरिजोज्यव्ययः कोत्यै । श्लाघायै स्वल्पनोजनः ॥२२॥ RI कासदप कारतांछता संदेशानुं विस्मरण करनारो (८१), खांसी- दरद छतां चोरी करवामां आसक्त (८२ ) कीर्तिमाटे
जमणवारकस्सामा घणुं द्रव्य खरचनारो (८३), अने पातानी प्रशंसा कराववामाटे स्वल्प भोजन करनारो (८३) व जाणवो. ।२२। स्वल्पे मोज्येऽतिरसिकः । प्रफुल्बश्वद्मचाटुभिः ॥ वेश्याव्यापारकलही। योमैत्रे तृतीयकः ॥२३॥
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शतकम्
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भोजनमाटेनी जे स्वल्प वस्तु होय, तेवी वस्तुनो रसीयो थइ वधारे मागनारो (८५), बीजानां कपटयुक्त मीठां वचनोथी फुलाइ जनारो (८६), वेश्यासाथे व्यापार करीने तेणीनीसाथे कलह करनारो (८७) अने ज्या वे माणसो गुप्त विचार करता होय, त्या पोते त्रीजो थइने उभनारो (८८) मूर्ख जाणवो. ॥ २३ ॥ राजप्रसादे स्थिरधी-रन्यायेन विवर्धिषुः ॥ अर्थहीनोऽर्थकार्यार्थी। जने गुद्यप्रकाशकः ॥२४॥
राजानी थयेली मेहेरवानीमा स्थिरपणानी बुद्धि राखनारो (८९), अन्याय करीने पोताना उदयनी इच्छा राखनारो (९०), धनहीन छतां धनथी साधी शकाय एवं कार्य करनारो (९१), अने लोकोमा पोतानी गुप्त वात प्रकाश करनारो (९२) मूर्ख जाणवो. ॥ २४ ॥ अज्ञातप्रतिभूः कीत् । हितवादिनि मत्सरी ॥ सर्वत्र विश्वस्तमना । न लोकव्यवहारवित ॥२५॥
कीर्तिमाटे अजाण्यानो जामीन पडनारो (९३), हितशिखामण आपनारमते द्वेष धरनारो (९४), सर्व जगोये विश्वासयुक्त मनवाळो (९५), अने लोकव्यवहारने नही जाणनारो ( ९६ ) मूर्ख छे. ॥ २५ ॥ | भिक्कुकश्चोष्णजोजी च । गुरुश्च शिथिलक्रियः॥ कुकर्मण्यपि निर्लजः। स्यान्मूर्खश्च सहासगीः ॥२६॥ |
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मूर्ख
॥ ए ॥
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पोते भीखारी छत उष्ण भोजननी इच्छा करनारो (९७), पोते गुरु छतां धर्मक्रिया करवामां शिथिल आचारवाळा ( ९८ ), कुकर्म करवामां पण लखारहित (९९), अने मश्करीयुक्त वचन बोलनारो (१००) मूर्ख जाणवो. ॥। २६ ।। मूर्खाणां शतमित्येतदुक्तमव्यवहारिणां ॥ जाड्यान्निविडतामेति । येषां पांडित्यखंडता ॥ २७ ॥ एबीरीते जेओनुं अर्धपंडितपणुं मूर्खाइयी निविडपणाने पामे छे, एवा अज्ञानी मूर्खोमाटे आ मूर्खशतक कहेलुं छे. ॥ २७ ॥
॥ इति मूर्खशतकं सभाषांतरं समाप्तम् ॥
॥ समाप्तोऽयं ग्रंथो गुरुश्रीमच्चारित्र विजय सुप्रसादात् ॥ श्रीरस्तु ॥
( आ ग्रंथनी हाथनी लखेली माचीन प्रति मुनिमहाराज श्रीजशविजयजी पासेथी मळी हती, तेपरथी तेना गुजराती भाषांतर सहित आ ग्रंथ छापीने प्रसिद्ध कर्यो छे, अने ते माटे ते उक्त मुनिमहाराजनो अहीं उपकार मानवामां आवे छे.)
शतकम्
॥ ए॥
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॥ इति मूर्खशतकं समाप्तम् ॥
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समस्
महुर विरेयल मेसो ॥ कायव्वो फोफलाइ दव्वेहिं ॥ निव्वाविन अग्गी ॥ समाहिमेसो सुदं लदइ ॥ ४२ ॥
फोफलादिक द्रव्ये करीने मधुर औषधनुं विरेचन करावयुं जोइए. केमके एरीते उदरनो अनि डोलवे थके आ अणशणनो करनारो सुखे समाधि पामे ॥ ४२ ॥
जावजीवं तिविदं ॥ प्रादारं वोसिर
इदं खवगो || निगो यरि || संघस्स निवेयां कुलाइ ॥ ४३ ॥
अणशण करनार तपस्वी जाव जीव सुधी प्रण प्रकारना आहार ( अशन, खादिम, अने स्वादिम ) ने अहां बोसिरावे छे एम निज़ामणा करावनार आचार्य संघने निवेदन करे ।। ४३ ।।
प्राराहण पञ्चश्यं ॥ खमगस्स य निरुवसग्ग पञ्चयं ॥
तो सगो संघेण || होइ सव्वेण कायव्वो ॥ ४४ ॥
ते (तपस्वी) ने आराधना संबंधि सर्व वातः निरुपसर्गपणे प्रवर्ते तो सर्व संधे बसें छप्पन्न वासोश्वासनो काउस्सग करवो ॥ ४४ ॥
पञ्चस्काविंति तनुं ॥ तं ते खवगं चनव्विदाहारं ॥
संघ समुदाय मधे ॥ चिश्वंदण पुव्वयं विहिणा ॥ ४५ ॥
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R
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एसएसस्सस्कार
त्यार पछी.ने आचार्य संघना समुदायमा चैत्यवंदन पूर्वक विधिवडे ते क्षपक (तपस्वी) ने चतुर्विध)
का पयस्रो. आहारनु पच्चखाण कराये ॥ ४५॥
- अहवा समाहि हेनं ॥ सागारं चयतिविदमाहारं ॥ .. तो पाणियंपि पहा ॥ वोसिरियन जहाकालं ॥ ६ ॥
अथवा समाधिने अर्थे त्रण प्रकारना आहारने सागार पणे पचखे स्यार पछी पाणीने पण अवसरे को वोसिराचे, ॥ ४६॥
तो सो नमंतसिरसं ॥ घमंतकरकमलसेहरो विहिणा ॥
खामे सध्व संघं । संवेगं संजणेमाणो ॥ ४ ॥ त्यार पछी ते (अणशण करनार ) मस्तक नमावीने पोताना वे हाथने मस्तके मुकुट समान करीने विधिवडे संवेग पमारतो सर्व संघने खभावे ॥ ४७ ॥
पायरिय नवद्याए ॥ सीसे साइंमिए कुलगणेय ।।
जेमे केई कसाया ॥ सव्ये तिविहेण खामेमि || G ॥ आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, कुल अने गणना उपर में जे कोइ कपाय कर्या में सर्वे हुँ त्रिषिधे ! भखमावूछ ।। ४८॥
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M
सव्वे श्रवराहप || खामेमि श्रहं खमेन मे जयवं ॥
श्रमवि खामेमि सुझे ॥ गुण संघायस्स संघस्स ॥ ४५ ॥
सत्रें मारा अपराधना पद ( वांक), हे भगवन् मने खमो अने हुं पण गुणना समुह वाला एवा संघने शुद्ध बहने खमाकुंछु ॥ ४९ ॥
इय वंद खामण गरिददिं ॥ जवसय समधियं कम्मं ॥ चवणे खोण खयं, मिगावइ राइपत्तिव्व ॥ ५० ॥
आ रीते वंदन, खामणां स्व निंदाओवडे सो भवनुं उपार्जे कर्म एक क्षण मात्रमा मृगावती राणीनी पेठे क्षय करे ॥ ५० ॥
ग्रह तस्स मदेव्वयं सुधियस्त || जिस वय जाविय म
• पच्चरकायादारस्स || तिव्व संवेग सुदयस्स ॥ ५१ ॥
हवे ते (अणशण करनार ) महाव्रतने विषे निश्चल रहेलाने अने जिन वचनवडे भावित थयुंछे मन एवाने, पचख्या के आहार जेणे एवाने, अने तिव्र संवेगवडे करीने मनोहर एवाने ॥ ५१ ॥
आराइल बाजान ॥ कयच मप्पारायं मांतस्स ॥
कलुस कल तर लिहिं ॥ अणुसहि देइ गणिवसजो ॥ ५१ ॥
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पयनो.
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STOR-फिर
अणशण भाराधनाना लाभ यकी पोताने कृतार्थ माननाराने, पापरुपी कादवने ओलंगवाने लाकडी सभत्तमान एवी शीखामण आचार्य दे ॥५२॥ .
कुग्गह परुढ मूलं ॥ मूलाचविंद वन मिचत्तं ॥
नावेसु परमतनं ॥ संमत्तं सुत्त नीइए ॥ ३ ॥ कुग्रह (कदाग्रह) कपी बध्युछे मूल जेनुं एवा मिथ्यात्वने मूल थकी उखडी नांखीने हे वत्स परम तस्व एवा सम्यक्त्वने सूत्रनी नीतिए भाव्य ॥ ५३॥
जत्तिं च कुणसु तिवं ॥ गुणाणुराएण वीयरायाणं ॥
तह पंच नमुक्कारे ॥ पवयणसारे रइं कुणसु ॥ ५४॥ वली गुणना अमुरागवडे वितराग भगवाननी तीव्र भक्ति कर ।। तथा प्रवचननो मार एवा पांच नमस्कारने विष अनुराग कर ॥ ५४॥
सुविहिय हिय निझाए ॥ सझाए नधुन सया होसु ॥
निच्चं पंच महब्बय ॥ रकं कुण पायपञ्चकं ॥ ५५ ॥ मुविहित साधुने हितना करनार एवा स्वाध्यायने विषे हमेशां उद्यमवंत था अने नित्य पांच महावतनी रक्षा आत्म समक्ष कर ॥ ५५ ॥
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155750३४.
सुनिया स || मोह मदल्लं सुकम्म निस्सद्धं ॥ दमसु मुणिंद संदोदे || निंदिए इंदिय मइँदे ॥ ए६ ॥
मोहे करीने मोटा अने शुभ कर्मने शल्य समान एवा नियाण शल्यने तुं स्याग कर, अने मुनिंद्रोना समुद्दे निधी छे एवा इंद्रियरूपी मृगेंद्राने तुं दम ॥ ५६ ॥
fare सुदावाए । विश्न्न निरयाइ दारुणावाए ॥
हसु कसायपिसाए ॥ विसय तिसाए लय सहाए ॥ ५७ ॥
निर्वाण सुखने अंतराय भूत अने नरकादिकने विषे भयंकर पात जेथी थाय छे एवा कषायरुपी पिशाचने हण, जे विषय तृष्णाना हमेशां सखाइआ छे ॥ ५७ ॥
काले पहुते ॥ सामन्त्रे सावसेसिए इन्हिं ॥
मोद महारिन वारण | असिलहिं सुरासु प्रणुसहिं ॥ ५८ ॥
काल नहीं पहोंचते अने हमणां थोडं चारित्र बाकी रहे छते मोह रूपी महा बैरीने विदारखाने माटे स्वदूग अने लाठी (डांग ) समान हित शिक्षाने तुं सांभल ॥ ५८ ॥
संसार मूल बीयं ॥ मिछत्नं सवदा विवछेद ||
संमने दढचित्तो ॥ होसु नमुक्कार कुसलो म ॥ ५ ॥
KANNAKAKARAAN AMANANMANA
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भत्त
॥ ९ ॥
संसारना मूल बीज भूत एवा मिध्यात्वने सर्व प्रकारे त्याग कर अने सम्यक्त्वने विषे दृढ चित्तवालो थइ नमस्कारना ध्यानने विषे कुशल था ॥ ५९ ॥
मियतन्हियादिं तोयं ॥ मन्नंति नरा जदा स तन्दाए ॥
सुस्कारं कुम्मा | तहेव मित्त मूढ मलो ॥ ६० ॥
जेम माणसो पोतानी तृष्णावडे करीने मृगतृष्णाने विषे ( झांझवाना पाणीमां ) पाणी मानेछे तेम मिथ्यात्वथी मूढ मनवालो कुधर्मथकी सुखनी इच्छा करे छे ॥ ६० ॥
न वि तं करेइ अग्गी ॥ नेय विसं नेय किन्ह सप्पोवि ॥
जं कुणइ मदा दोसं ॥ तिघं जीवाण मित्तं ॥ ६१ ॥
जे महा दोष जीवने तीव्र मिध्यात्व करे छे ते दोष अग्नि विष के कृष्ण सर्प पण करतो नथी ॥ ६१ ॥ देव वसणं ॥ तुरुमणिदत्तु दारुणं पुरिसो ॥
पावें
मित्तमो हिमणो ॥ साहु पनसान पावानं ॥ ६२ ॥
मिथ्यात्वथी मूढ चित्तवाळो माणस साधु उपर द्वेष राखवा रूप पापथी तुरुमणि नगरीना दत्तनी पेठे तीव्र दुःख आ लोकमांन पाये ॥ ६३ ॥
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पयनो.
॥ ९ ॥
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Su
मा कासि तं पमायं ॥ संमते सब रक नामलए ॥
जं सम्मत पठाई ॥ नाल तव विरिय चरणाई ॥ ६३ ॥
तुं सर्व दुःखने नाश करनार एवा सम्यक्त्वने विषे प्रमाद न करीश, जे कारण माटे सम्यकत्वने आधारे ज्ञान, तप, वीर्य अने चारित्र रहेलां छे. ।। ६३ ।।
नावारा पिम्मागु ॥ राय सुगुणागुराय रत्तो श्र ॥ धम्मागुराय रतो ॥ श्र दोसु जिणसासणे निचं ॥ ६४ ॥
जेवोतुं पदार्थना उपर अनुराग करे छे, प्रेमनो अनुराग करे छे अने सद्गुणना अनुरागने विषे रक्त थाय छे तेवोज जिन शासनने विषे हमेशां धर्मना अनुरागवडे करीने रक्त था. ॥ ६४ ॥ दंसण जो जो ॥ नहु जो दोइ चरण पनो ॥ दंसणमपत्तस्स न ॥ परियमणं नहि संसारे ॥ ६५ ॥
सम्यकत्व
भ्रष्ट ते सर्वथी भ्रष्ट जाणवो, पण चारित्रथी भ्रष्ट थएलो बधायी भ्रष्ट थतो नथी केमके सम्यक्त्व पामेलो जे जीव छे तेने संसारने विषे झाझुं परिभ्रमण नथी ॥ ६५ ॥ दंसण जो जो ॥ दंसण जस्स नचि निवाणं ॥ सिकंति चरण रदिया । दंसण रहिया न सिद्यंति ॥ ६६ ॥
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पयनो.
___दर्शन थकी भ्रष्ट ते भ्रष्ट जाणवो सम्यक्त्वधी चुकेलाने मोक्ष नथी, चारित्रथी रहित जीव मुक्ति पाIE मेछे पण ममीकतयी रहित जीव मोक्ष पामता नथी ॥६६॥ ॥१०॥
सुझे सम्मने अविरन वि ॥ अधेश तिवयर नामं ॥
जद आगमेसिनहा ॥ हरिकुख पहु सेणियाईया ॥ ६७ ॥ शुद्ध सकित छते अविरती एवो पण जीव तिर्थकर नाम कर्म उपार्जन करे जेम आगामि कालमांकल्याण थवान छे जेमनुं एवा हरीकुलनो प्रभु एटले कृष्ण महाराज अने श्रेणिक विगेरे राजाओए उपार्जन कयु ॥१७॥
कल्लाण परंपरयं ॥ लहंति जीवा विसुक्ष्सम्मत्ता ।
सम्म इंसण रयणं ।।नग्घ ससुरा सरे लोए ॥६॥ निर्मल सम्यकत्ववाला एवा जे जीवो ते कल्याणनी परंपराने पामेछे. ( केमके ) सम्यक् दर्शन रूपी रत्न मुर अने असुर लोकने विषे अमुल्य छे ॥ ६८ ॥
तेलुकस्स पहुतं ॥ लड्मवि परिवति कालेणं ॥
सम्मने पुण लहे ॥ अस्कयसुकं लहइ मुकं ॥ ६॥ त्रण लोकनी प्रभुता पामीने काले करीने ते पडेछ. पण सम्यक्त्व पामे छते अक्षय मुखवालु एबु मोक्ष तेने जीव पामेछे ॥ ६९॥
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। एवा जे जीवा ॥ ६८ ॥
कालेणं ।।.
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अरिहंत सि चेइय ॥ पवयण मायरिय सव्वसाहसु॥
तिब्वं करेसु नतिं ॥ तिगरण सुशेण नावणं ॥ ७० ॥ १. अरिहंत २. सिद ३. चैख (बिन प्रतिमा) ४. प्रवचन सिद्धांत ५. आचार्य . मत्र साधु एटलाने विष मन, बचन अने काया एत्रण करणवडे शुदभावथी तीव्र भक्ति कर ।। ७० ॥
एगावि सा समचा ॥ जिगन्नत्ती पुग्ग निवारेनं ॥
कुखहाईलहावे ॥ भासिद्धि परंपर सुहाई॥ १ ॥ एकली एवी पण जिन भक्ति दुर्गतिने निवारवाने माटे समर्थ थाय छे अने ज्यां सुधी मिद्धि पामे : IF त्या पुधी दुर्लभ एका परंपर मुखने मेलबी आपपा समर्थ ॥१॥
विषा वि ननिमंतस्त । सिडि मुवयाइ होश फलयाय ॥
किं पुण निव्वुश विद्या ॥ सिशिह अन्ननिमंतस्स ॥ ७२ विद्या पण भक्तिवंतने सिद्ध थाय छे अने फलने आपनारी थाय छे तो वली शी रीते मोक्षनी विद्या अभक्तिवंतने सिद वाय ? ॥७२॥
तेसिं पारादण नायगाण ॥न करिव जो नरो ननिं॥ धणियं पि नवमंतो ॥ सालिं सो ऊसरे चव ॥ ३ ॥
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भत
।। ११ ।।
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ते आराधना ओना नायक एवा वीतराग भगवान तेनी जे माणस भक्ति न करे ते पुरुष प्रणो पण उ- पयनो. यम करतां डांगरने उखर भूमिने विषे वावेछे ॥ ७३ ॥
बीएण विया सस्सं ॥ इइ सो वास मप्रएण विणा ॥
आराहणमिहंतो ॥ श्रासहयजत्तिमकरंतो ॥ ७४ ॥
आराधकनी भक्ति नहि करतो पण आराधनाने इच्छतो एवो माणस वी विना धान्यनी अने वादला विना वरसादनी इच्छा करेछे ॥ ७४ ॥
उत्तम कुल संपत्तिं ॥ सुह निष्फत्तिं च कुणइ जिणनत्ती ॥ या सजीवस्स || दहुरस्सेव रायगिहे ॥ ७५ ॥
श्री जिनेश्वर महाराजनी भक्ति उत्तम कुलने विषे उत्पत्ति अने सुखनी निष्पत्ति करेछे, जेम राजग्रह नगरने विषे मणीआर शेठनो जीव जे देडको इतो तेने थयुं ॥ ७५ ॥
आराहण पुरस्सर मान्न दियन विसुद्ध लेसान ॥
संसार स्कय करणं ॥ ' मा मुंची नमुक्कारं ॥ ७६ ॥
आराधना पूर्वक वीजे ठेकाणे चित्त नहि आपनार विशुद्ध लेश्या थकी संसारना क्षयने करनार एवा नवकारने तुं मा मुक ॥ ७६ ॥
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॥ ११ ॥
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अरिहंत नमुक्कारो || इक्कोवि दविच जो मरणकाले || सो जिणवरेदिं दिवो ॥ संसारुज्ञेयण समो ॥ ७७ ॥
मरणनी वखते जो एक पण अरिहंतने नमस्कार थाय तो ते संसार उच्छेद करवाने समर्थ छ एमजिनेश्वर भगवाने कडेलं छे ॥ ७७ ॥
मिंगे किलिकंमा || नमो जिणाणं ति सुकय पणिदालो || कमलदलरको जस्को । जान चोरुति सूलिहिन ॥ ७८ ॥
_rai कर्म करना एवो महावत जेने चोर कहींने शूलीए दीघेलो ते पण 'नमो जिणाणं' एम कतो शुभ व्याने वर्ततो कमलपत्रना जेवी आंखवालो यक्ष थयो ॥ ७८ ॥
नाव नमुक्कार विवजियाई ॥ जीवेण प्रकय करणाई ॥
गहियाणि य मुक्काणि य ॥ प्रांतसो दव्व लिंगाई ॥ ७७ ॥
भाव नमस्कार रहित एवां निरर्थक द्रव्य लिंग जीवे अनंती वार ग्रहण कर्यो अने मूक्यां ॥ ७९ ॥ राणा पागा || गहणे दठो नवे नमुक्कारो ॥
तद सुगर मग्ग गमले । रहुब जीवस्त अपमिहन ॥ ८० ॥
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भत्त
आराधना रूप पताका लेवाने विषे नमस्कार हाथ रूप धायछे तेमज सद्गतिना मार्गे जवामां ते जी।। १२ ।। वने अप्रतिहत रथ समान हे ॥ ८० ॥
अन्नाणी विय गोवो ॥ श्राराहित्ता मनुं नमुक्कारं ॥
चंपाए सिहिसुन || सुदंसणो विस्सुन जान ॥ ८१ ॥
अज्ञानी एवो पण गोवाल नवकार आराधीने मरण पाम्यो ते चंपानगरीने विषे श्रेष्ठी पुत्र सुदर्शन वे नामे प्रख्यात थयो । ८१ ।।
विद्या जदा पिसायं ॥ नाणं हियय पिसायं ॥
सुछु वनता करे पुरिस वसं ॥ सुधु वनत्तं तद करे ॥ ८२ ॥
जेम त्रिया सारी रीते आराधी थकी पिशाच प्रते पुरुषने वश करेछे तेमज्ञान रुडी पेरे आराध्यं वकुं मन रुपी पिशाचने वश करेछे ।। ८२ ।।
नवसम किएद सप्पो । जह मंतेण विदिशा पठत्तेणं ।। तद दियय किएद सप्पो || सुहु वनत्तेल नालेल ॥ ८३ ॥
जेम विधिए आराधेला मंत्रवडे कृष्ण सर्प उपशमे छे तेम रुडी पेरे आराघेला एवा ज्ञान वडे मन रूपी कृष्ण सर्प वश थापछे ॥ ८३ ॥
पचन
। १२
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जह मक्कम खणमवि॥ मझलो अछि नसके।
तह खणमवि मझो। विसएहि विणा न हो मणो ॥ ४ ॥ जेम मांकडो क्षण मात्र पण निश्चल थइ न शके तेम मन क्षणमात्र पण विषयोना आनंद विना मध्यस्थ न रही शके ।। ८४ ॥
तम्हा स ननिमाणो॥ मण मक्कमन जिणोवएसेण ॥
कानं सुत्त निबो ॥ रामेयबो सुहेकाणे ॥५॥ ते माटे ते उठता मनरुपी मांकडाने जिनना उपदेशवडे दोरीथी वांधेलो करीने शुभ ध्यानने विषे र. माडवो ॥ ८५॥
सूई जहा ससुत्ता ॥ न नस्सइ कय वरंमि पमियावि ॥
जीवो तदा ससुत्तो । न नस्सई गन विसंसारे ॥ ६ ॥ जेम सोय दोरा सहित होय ते. कचरामा परी होय तो पण खोवाइ जाय नहि तेम जीव (अम धान रूपी) दोरा सहित संसारने विषे पडयो होय तो पण नाश पामे नहि ॥ ८६ ॥
संग सिलोगोहिं जवो। जता मरणानं रस्किन राया। पत्तोसुसामन्नं ॥ किं पुण जिरा वुत्न सुत्तेणं ॥ ७ ॥
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भत्त
पयत्री.
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लाँकिक श्लोकोबडे यवने नो मरण थकी राजाए बचाव्यो भने ते रुडे साधुपणुं पाम्यो तो जिनेश्वर भगवान कहेला एवा सूत्रवडे जीव मरणना दुःखथी छुटे एमां शुं कहे, ॥ ८७ ॥
अदवा चिलाइपुत्तो॥ पत्तो नाणं तदा सुरतं च ॥
नवसम विवेग संवर ॥ पयसुमरण मित्त सुयनाणो॥1॥ अथवा उपशम, विवेक, संवर ए पदना सांभलवा मात्र श्रुत ज्ञान जेने छे एवो चिलाती पुत्र झान पाम्यो तेमन देवपणुं पाम्यो ॥ ८८ ॥
परिदर धीव वह ॥ सम मण वयण काय जोगेहिं ।।
जीव विसेसं नानं ॥ जावजीवं पयत्तेणं ॥ नए॥ जीवना भेदने जाणीने जावजीव प्रयत्नवडे सम्भक मन, वचन, कायाना योगवडे छ कायना जीवना वधने त्याग कर ॥ ८९॥
जह ते न पियं पुरकं ।। जागिय एमेव सत्व जीवाणं ।
सवायर मुवनत्तो ॥ इत्तो धम्मेण कुणसुदयं ॥७॥ जेम तने दःख वहालु लागतुं नथी एम सर्व जीवने पण दुःख गमतुं नथी एवं जाणीने सर्व आदरवडे उपयुक्त छतो धर्मने विषे उद्यम करतो दयाने कर ॥९० ॥
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१३॥
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तुंगं न मंदरान॥ आगासान विसालय नछि॥
जह तह जयंमि जाणसु॥ धम्ममहिंसासमं नचि ॥ जेम जगतने विपे मेरु पर्वन थकी कंइ उचुं नयी अने आकाश धकी कई मोटुं नथी सेम अहिंसा ममान धर्म नथी ॥२१॥
सवे विय संबंधा॥ पत्ता जीवेण सवे जीवहिं॥
तो मारंतो जीवं ॥ मारइ संबंधिणो सवे ॥ ए॥ मर्व पण (मघलाए ) संबंधो सर्वे जीवो साथे आ जीवे पाम्या तेथी जीवने मारतो छतो सर्व संबंधिओने मारे छ ।॥ १२ ॥
जीव वदो अप्पवहो ॥ जीवदया अप्पणो दया हो।
ता सब जीवहिंसा ॥ परिचत्ता अत्न कामेहिं । ए३॥ जीवनो वध ते आपणोज वध जाणवो अने जीवनी दया छे ते आपणीज दया छे तेथी आत्माना मुखने इच्छता जीवोए सर्व जीव हिंसा त्याग करी छे ॥ ९३ ॥
जावश्याई पुस्काई। हुति चनगश्गयस्त जीवस्त ॥ सवाई ताई हिंसा ॥ फलाई निनणं वियाणाहिं ॥४॥
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भत्त
१४॥
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जेटलां दुःखो चार गीतमा रखडता जीवने थाय छे ते सर्वे हिंसाना फल छे एम मुक्ष्म बुद्धिषी जाण ॥ ९४॥
जंकिंचि सुहमुयारं ॥ पहुत्तणं पग सुंदरं जं च ॥
आरुग्गं सोहग्गं ॥ तं तमदिसाफलं सर्व ॥एप॥ जे कर मोटुं सुख अने प्रभुपणुं जे कंइ स्वभाविक रीते सुंदर छ, निरोगपणुं, सौभाग्यपणुं छे ते ते सर्वे अहिंसान फल समजवू ॥ ९५॥
पाणोवि पामिहेरं ।। पत्तो बढोविसंसुमारदहे॥
एगेण वि एग दिण थिएण | हिंसावय गुणणं ॥ए । चंडाल पण मुमुमार द्रहने विषे एक दिवसमा एक जीव बचाववाथी उत्पन्न थएलो अहिंसा व्रतना गुणवडे देवतार्नु सानिध्य पाम्यो ॥ ९६ ।।
परिहर असच वयणं । सर्वपि चनविहं पयत्तेण ॥
संजमवंता वि जननासा दोसेण लिप्पंति ॥ ए॥ असत्य चार प्रकारचें छे तेनां नाम १. अछतानुं प्रगट कर, जेमं आत्मा सर्वगत छ, २. बीजा अर्थन कहे, जेम गो शब्दे श्वान. ३. छताने ओलबवू, जेम आत्मा नथी. ४. निदान करवू, जेम चोर न होय तेने
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॥१४॥
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चोर कहेवो, ए सर्वे पण चार प्रकारना असत्य वचनने प्रयत्नवडे करीने त्याग कर जे माटे संजमवंत पुरुषो पण भाषाना दोपवडे ( असत्य भाषणवडे कर्मथी ) लेपाय छे. ॥ ९७ ॥
दासेण व कोदेण व ॥ लोहेण नएण वा वि तमसचं ॥
मा नणसु नणसु सचं ॥ जीवदिय पसबमिणं ॥ एG॥ वली हास्यवडे क्रोधवडे लोभवडे अने भयवडे ते असत्य ना बोल पण जीवने हितनुं करना5 अने सुंदर एवं सत्य वचन बोल ॥ १८ ॥
विस्तसणियो माया ॥ व होइ पुद्यो गुरुत्व लोअस्त ।
सयणुव सच्चवाइ ॥ पुरिसो सवस्स होइ पिन ॥ ए सत्यवादी पुरुष मातानी पेठे विश्वास राखवा लायक अने गुरुनी पेठे लोकने पूजवा योग्य अने सगानी पेठे सर्वने वहालो लागे छे. ॥ ११ ॥
होन व जमी सिहंमी ॥ मुंमी वा वक्कलि वन ग्गो'वा॥
... लोए असच्चवाइ॥नंन पासमचंमालो ॥१०॥ I जटावंत होय अथवा शिखावंत होय, मुंड होय अथवा वल्कल (झाडनी छाल) पहरनार होय, अथवा नमहोय तोपण लोकने विषे असत्यवादी, पाखंडी अने चंडाल कडेवायछे ॥१०॥
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अलियं सयंपि नणियं ॥ विहण बहुआई सस वयणाई॥
पमिन नरयंमिवसू ॥ इोण असञ्चवयरोण ॥ १० ॥ एकवार पण जूटुं वोल्यु थकुं धणा सत्य वचनोनो नाश करछे केमके एक असय वचनवडे वमुराजा नरकने विपे पडयो ॥१०॥
माकुणसुधीर बुद्धिं ॥ अप्पं व बहुं व परधणं घित्तुं ॥
दंतंतर सोहणयं ॥ किलिं च मिपि अविदिन्नं ॥१०॥ हे धीर, थोडं के वधारे पारकुं धन ( जवू के ) दांत खोतरवाने माटे एक सळी मात्र पण अदत्त लेवाने बुद्धि न कर ॥ १०२ ॥
जो पुण अव अवहर॥ तस्स सो जीवियंपि अवहर॥
जं सोयच कएणं । नझइ जीयं न नण अचं ॥१३॥ वली जे पुरुष पैसो हरण करेछे ते तेनुं जीवित पण हरण करेछे जे कारण माटे ते पुरुष पैसाने माटे जीवनो साग करेछे पण पेसाने मेलतो नथी ॥ १.३॥
तो जीवदया परमं ॥ धम्म गहिकरा गिन्द मादिनं ॥ जिण गणहर पमिसिहं॥ लोग विरुई अहम्मं च ॥ १० ॥
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तो जीवदया रूप परम धर्मने ग्रहण करीने अदत्त न ले केमके जिनेश्वर भगवाने अने गणधर भगवाने निषेध्युं छे तेमज लोक विरुद्ध अने अधर्म ले || १०४ ॥
चोरो परलोगंमिवि ॥ नारय तिरिएसु लहइ स्काई ॥
मणुयत्तणे विदीयो || दारिद्दोवहुनु होइ || १०५ ॥
चोर परलोकमां पण नरक तिर्यचने विषे घणां दुःखो पामेछे; मनुष्यपणाने विषे पण दीन थाय अने दरिद्रतावडे पीडाएलो होय ॥ १०५ ॥
'चरिक्क निवित्तीए ॥ सावय पुत्तो जहा सुदं लदइ ॥
afa मोरपि चिति ॥ गुठी चोराण चलुले ॥ १०६ ॥
- चोरी थकी निवर्तलो श्रावकनो पुत्र जेम सुख पाम्यो, कीटी नामनी डोशीने घेर चोर पेठा ते चोरोना पगोने विषे अंगूठो मोर पिछडे चितर्यो ते एधानीए राजाए ओलखीने श्रावकना पुत्रने टाळीने वधा चोर मार्या ॥ १०६ ॥
रस्काहिं वंनचेरं ॥ बंनगुत्ती हिं नवहिं परिसुद्धं ॥
निचं जिणी हि कामं । दोसप्पकामं वियाणित्ता ॥ १०७ ॥
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॥१६॥
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नव ब्रह्मचर्यनी गुप्ति तेणे करी शुद्ध एवं ब्रह्मचर्य ने रक्षण कर निस घणा दोपथी भरेलो एवो ना- णीने कामने जीत ॥१०७॥ .
जावइया किरदोसा ॥ इहपरलोए ऽहावदाहंति ॥
आवद तेन सव्वे ॥ मेहुण सन्ना मगुस्सस्स ॥ १७ ॥ खरेखर जेटला दोष आ लोक अने परलोकने विपे दुःखना करनारा छे ते वधा दोषोने मनुष्यनी मैथुन संज्ञा लावेछे ॥१०८॥
र अर तरल जीदा ॥ जुएण संकप्प नुप्पम फरोण ॥
बिसय बिलवासिणा ।। मैंय मुहेण बिब्बो अरोसेण ॥१॥ रति अने अरतिरुप चंचल वे जीभवाला अने संकल्प रूप प्रचंड फणावाला अने विषयरुप बीलमांवसनारा अने मदरूप मुखवाला अने गर्वयी अनादररुप रोषवाला ॥ १०॥ .
काम नुअंगेण दहा ॥ लचा निम्मोय दप्प दाढेण ॥
जासंति नरा अवसा ॥ उस्सह उरकावह विसेण ॥ ११ ॥ लज्जारुप कांचलीवाला अने अहंकाररुप दाढवाला अने दुःसह दुःखकारक विषवाला एवा काम 15 भुजंगवडे हसाएला माणसो परवश थएला देखायछे ॥१०॥
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लल्लक नरय वियणान घोर संसार सायरव्वदणं ॥
संगठन पिच ॥ तुबत्तं कामिय सुदस्स ।। १११ ॥ रौद्र नरकनी वेदनाओ अने घोर एवा संसार सागर तेनुं वहन कर, तेने पामे पण कामिन सुखनुं तुच्छपणुं न देखे ॥ १११॥
वम्मद सरसय विशे॥ गिझे वणिनम्बराय पत्तिए ।
पान स्कालय गेहे ॥ पुगंधेरोग सो वसिन ॥११॥ कामना सेंकडो वाणवढे विधाएलो अने गृद्ध थएलो एवो वाणीओ जेम राजानी स्त्रीए पायखानाना | खालनी अंदर नांख्यो ते अनेक दुर्गधोने सहन करतो त्यां रह्यो । ११२॥
कामा सत्तो न मुण॥ गम्मा गम्मं पि वेसियाणुव्व ॥
सिही कुबेरदत्तो ॥ नियय सुया सुरय र रत्तो ॥ ११३ ॥ कामासक्त माणस वेश्यानी पेठे गम्य अने अगम्यने न जाणे जेम कुबेरदत्तशेठ पोतानी तरन बाळक६ ने जन्म आपनारी माताना उपर सुरत विषय मुखथी रक्त थएलो रह्यो । १.१३॥
पमि पिल्लिय कामकलिं ॥ कामग्घबा सुमुय सुअणुबंधं ॥ . महिला सुदोस विसव, ल्लरीसु पयज्ञ नियचंतो ॥ ११४॥
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पयन्नो.
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भत्ता कंदर्प व्याप्त एवी अने दोषरुप विषनी वेलडीओ एवी स्वीओने विष प्रयों के काम कलह जेणे एवा
प्रतिबंधने ( आसक्तिने ) स्वभावथी जोता एवा तमे छोडीदो ॥१५४॥ ॥१७॥
महिला कुलं सुवंसं ॥ पई सुयं मायरंव पियरंवा ॥ .
विसअंधा अगणंती॥ उरक समुइंमि पामे ॥१५॥ स्त्री-विषयमा आंधली थइ छती कुल, वंश, पति, पुत्र, माता तेनज पिताने नहि गणकारती दुःख समुद्रने विप पाडेछे ॥ ११५॥
नीयं गमाहिं सुपन हराहिं ॥ नप्पिच मंथर गइहिं ॥
महिलाहिं निन्नयाहिंव ॥ गिरिवर गुरुया विनियति ॥ ११६ ॥ स्त्रीओ नीचगामीनो पक्षे (ढळती जमीनमा जनारी) मारा स्तनवाली पक्षे ( सुंदर पाणीने हरण कर| नारी ) देखवा योग सुंदर अने मंद मंद गतीवाली नदीओनी पेठे मेरू पर्वत जेवा भारे ( पुरुपो) ने पण | भेदी नांखेछ । ११६॥
सुछ वि जियासु सु वि पियासु ॥ सुषु वि परूढ पिम्मासु ॥ महिलासुनुअगीसु अ॥ विसंनं नाम को कुणइ ॥ १७ ॥
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॥१७॥
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अतिशय परिचयवाली अने अतिशय प्रिय एवी वली अनिशय प्रेमवंत एवी पण खीओ रुप मापणोने विषे खरेखर कोण विश्वास करे ॥ ११७ ॥
विसंन्न नितरं पिहु, नवयार परं परूढ पिम्मपि ॥
कय विप्पियं पई कति ॥ निति निदणं दयासान ॥१८॥ अति विश्वासवंत एवा अने उपकारने वि तत्पर एचा ने उत्पन्न थयो छे प्रेम ते जेन एवा पण पतिने एकवार अप्रिय करवाथी तरतज ते अधम खीओ मरण पमाडेछे ॥ ११८ ॥
रमणिय दंसणान ॥'सो मालं गीन गुण निबज्ञान॥
नव मालाइ मालान वहरंति हिययं महिलियान ॥ ११ ॥ मंदर देखाती एवी अने मुकुमार अंगवाली अने गुणथी (दोरीथी) बंधाएली नवी जाइनी माला जेवी स्वीओ पुरुषना हृदयने हरेछे ॥ ११०॥
किंतु महिलाण तासिं ॥ दंसण सुंदर जणिय मोहाणं ॥
आलिंगण मयरा देश ।। बध मालाण वविणासं ॥ १२० ॥ दर्शनना सुंदरपणाथी उत्पन्न कयों के मोह ने जेमने एवी सियोना लिंगनरुप मदिग कणेरनी वध्य मालानी पेठे पुरुषोने विनाम आपछ ॥ १२० ॥
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॥ १८
रमणी दंसणं चेव ॥ सुंदरं होन संगम सुदेां ॥
मलसं पुरा विलासो ॥ १२१ ॥
. मघोन्विष सुरदोमालाई | स्त्रीनुं दरशन खरेखर हुं छे, माटे संगमना मुखवडे करीने सर्यु; मालानो गंघ पण सुगंधीदार होय पण मर्दनवडे विनाश पामे ॥ १२१ ॥
साकेयपुराहिवइ || देव र र सुस्क पो । पंगुल देनं वढो || ढोय नईइ देवीए ॥ १२२ ॥
साकेत नगरनो अधिपति देवरति नामे राजा राज्यना सुखथी भ्रष्ट थयो, पांगलाने माटे ते नदीमां पडयो अने ते नदीरुप देवीने विषे बुडयो ॥ १२२ ॥
सोय सरी डुरिय दरी ॥ कवम कुमी महिलिया किलेस करी ॥ वयर विशेयण अरणी ॥ उरक खणी सुरकपमिवरका ।। १२३ ।
शोकनी नदी अने दुरितनी गुफा, कपटनुं घर अने क्लेशनी करनारी अने वैररूपी अग्निने सलगाववाने अरणीना लाकडा समान अने दुःखनी खाण अने सुखनी प्रतिपक्षी स्त्री छे ॥ १२३ ॥
अमुलियमा परिक्कम्मो ॥ सम्मं को नाम नासिनं तरइ ॥ म्हसर सरोदे || दिोिमयीं ॥ १२४ ॥
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॥ १८ ॥
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205
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कामना पाणनो विस्तार छे नेमा वा मृमाक्षीओ (सीओ) नां दृष्टिना कटाक्षने विपे अणजाग्यो पोछे मननो निग्रह जेनो एवो कयो पुरुप सम्यक प्रकारे नाशी जवाने समर्थ थाय छे ॥ १२४ ॥
घण मालानव पुरुन ॥ मंत सुपनहरान वढूति ॥
मोदविसं मदिलान ॥ पालक्क विसं व पुरिसस्त ॥ १५ ॥ अतिशय उंचां अने घणां बादलों वाली एवी मेवपाला जेम हडकवाना विपने वधारे तेम अतिशय उंचा पयोधर (स्तन) वाळी स्त्री पुरुषना मोह विषने वधारे छे ।। १२५ ॥
परिदरसु तन तासिं ॥ दिहिं दिखीविसस्त व अहिस्स ॥
जं रमणि नयण बाण ॥ चरित पाणे विणासंति ॥ १६ ॥ ते माटे ते स्वीओनी दृष्टिने दृष्टिविष सर्पनी दृष्टिनी पेठे तमे त्याग करो केमके स्त्रीनां नेत्र बाण चारिवरूपी प्राणनो नाश करेछे ॥ १२६ ॥
महिला संसग्गीए ॥ अग्गी इव जं च अप्पसारस्स ॥
मयणं व मणो मुणिणो ॥ विदंत सिग्घं चिय विलाइ ॥ १२७॥ स्त्रीनी संगतिथी अल्प सत्त्रवाला मुनिनु पण मन अनिथी जिम मीण ओगली जाय तेनी पेठे स्वरेखर मली जाय छे ॥ १२७ ॥
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जवि परिचत्त संगो ॥ तव तणु यंगो तहावि परिवा॥
मदिखा संसग्गीए ॥ कोसा जवण सियव्य रिसी॥ १० ॥ जो पण स्त्रीना सर्व संगने साग करनार अने तपवडे करीने पावला अंगवालो होने वोपण कोशाना घरने विपे वसनार सिंह गुफावासी ऋषि, स्त्रीमा संगथी चली जायो। १२८ ॥
सिंगार तरंगाए ॥ विलास वेलाए जोवण जलाए ।
के के जयंमि पुरिसा ॥ नारि नईए न बुझंति ॥ १२ ॥ शृंगार रूपी कल्लोलो छे जेमां अने विलास रुपी भरती छे जे मां जुबानी रुपी पाणी छे जेमा एवी स्त्री रूपी नदीने विषे जगतने विषे कया कया पुरुपो नथी डुबता ॥ १२१ ।
विसय जलं मोह कलं ॥ विलास बिब्बोय 'जलयरा इमं॥
मय मयरं नचिना ॥ तारुन्नमहमवं धीरा ॥१३०॥ धीर पुरुषो, विषय रुप जलबाला, अने मोह रुपी कादववाला, अने विलास अने अभिमान रूपी जलचर | वाला, मद रुपी मगरवाला, एवा जुवानी रुपी समुद्रने तरी गया ॥ १३० ॥
अप्रिंतर बाहिरए ॥ सव्वे संगे तुमं विवधेहिं ।। कय कारिय णुमईहिं॥ कायमणो वाय जोगेहिं ।। १३१ ॥
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॥ १९॥
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करखं, करराव, अने अनुमोदवा रूप त्रण करणवडे अने मन, वचन, कायाना जोगावडे अभ्यंतर अने वाहिर एवा मर्वे संगोने तुं त्याग कर. ॥ १३१॥
संग निमितं मारई॥ अलियं करेइ चोरिकं ॥
सेवा मेहुण मिचं ॥ अप्परिमाणं कुण जीवो ॥ १३२॥ प्रसंग पडे संगना हेतुथी जीवने मारे, जुहूं बोल, चोरी करे, मथुन सेवे, अन जीव इच्छानु अपरिमाण करे (परिग्रहनु परिमाण न करे)॥ १३२ ॥
संगो महा जयं जं ॥ विदेमिन सावरण संन्नेणं ॥
पुत्तेण दिए अचमि ॥ मुणिव कुंचिएण जदा ॥ १३३ ॥ संग मोटा भयर्नु कारण छे, केमके पुत्रे द्रव्य चोरे छते श्रावक कुंचिक शेठे मुनिपती रूपीने वहेमथी | पीडा उपजावी ॥ १३३ ॥
सव्वग्गंथ विमुक्को ।। सीनून पसंतचित्तो य ॥
जं पावइ मुत्तिसुहं ॥ न चक्कवट्टी वि तं लदइ॥ १३४॥ बाझ अने अभ्यंतर परिग्रहयी मुक्त, शीतल परिणामवालो, अने उपशांत चित्तवालो एवो पुरुष जेवू निलाभपणान सुख पामे ते मुख चक्रवर्ति पण न पामे ॥ १.३४ ॥
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निस्सलस्सेह महत्वयाई॥भरकम निवण गुणाई॥
नवहमति य ताई। नियाण सलेण मुणियो वि ॥ १५ ॥ शल्य रहित पुरुषने महाव्रतो अखंड होय अने अतिचार रहित होयते महाव्रतोने नियाण शस्यवडे मुनोयो पण उपघात पमाडे छे ॥ १३५ ।।
अद राग दोस गपंच ॥ मोदगतं च तंजवे तिविदं।
धम्म दीण कुलाई॥ पत्रणं मोद गतं ।। १३६ ॥ ते नियाण शल्य राग गर्भित, द्वेष गर्भित अने मोह गर्भित ए रीते त्रण प्रकार थाय छे धर्मने काने हीण कुलादिकनी प्रार्थना करे ते मोह गभित निया' समज. ॥१३६॥
रागेण गंगदत्तो । दोसेण विस्सनइमाईया ॥
मोदेण चमपिंगल । माईया हुंति दिवंता ॥ १३७ ॥ राग नियाणाने माटे गंगदत्त, अने द्वेष नियाणाने माटे विश्वभूति ( महावीर स्वामिनो जीव ) अने मोह नियाणे चंडपिंगल आदि दृष्टांत प्रसिद्ध छे ॥१३॥
अगणिय जो मोरक सुई ।। कुगर नियाणं असार सुह हेनं ॥ सो कायमणि कएणं ॥ वेरुलिय मणिं पणासे ॥१३॥
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ਤੇਲ ਜਾਣੇ $ ਕੇ ਸਵੇਰੇ ਜਾਗ
जे मोक्षना मुखने अवगणीने असार मुखर्नु कारण ए, नियाj करे ते पुरुष काचमणिने माटे वैडूर्य रत्नने नाश करे छे ॥ १३८ ॥
पुस्करकय कम्मरकय ॥ समाहि मरणं च बोदिलानो य ।
एयं पयत्वं ॥ न पणियं तन अनं ॥ १३ ॥ ___ दुःखक्षय अने कर्मक्षय समाधि मरण अने बोधी बीजनो लाभ एटलां वानांनी प्रार्थना करची एटले इच्छवां तेथी बीजु केइ मागवू नहि ।। १३९॥
ननिय नियाण सल्लो ॥ निसिन्नन नियति समिय गुत्तीहिं॥
पंच महन्वय ररकं ॥ कय सिव सुरकं पसादे ॥ १० ॥ नियाण शल्यने त्याग करीने रात्रि भोजनथी निवृति करी पांच समिति ने त्रण गुप्तिए करीने सहित का पंच महाव्रतनी रक्षा करे ते मोक्ष सुखने साधे छे. ॥ १४० ॥
इंदिय विसय पसना ॥ पति संसार सायरे जीवा॥
परिकब चिन्न पस्का ॥ सुसील गुण पेहुण विहुणा ॥ ११ ॥ इंद्रियोना विषयमा आसक्त थएला जीवो सुशील गुण रुप पीछां विनाना अने छेदाएली पांखवाला पक्षी. ओनी पेठे संसार सागरमां पडे छ ॥१४१॥
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॥ २१ ॥
न लद जहा लिहतो || सुदिल्लियं धियं रसं सुनं ॥ सोसाइ तालुय रसियं ॥ विदितो मन्नए सोस्कं ॥ १४२ ॥
जेम श्वान ( कुतरो ) हाडकाना रसने सुखे सुखे चाटतो थको खरं सुख नथी पामतो अने ताळवानो रस शोपवेछे पण ते चाटतो सुख माने छे ॥ १४२ ॥
महिला संग सेवि ॥ न लहइ किंचिवि सुदं तहा पुरिसो ॥
सो महाए वरान ॥ सय काय परिस्समं सुरकं ॥ १४३ ॥
ते स्त्रीओना संगने सेवनार पुरुष कंइ पण सुख पामतो नथी तोपण पोताना शरीरनुं परिश्रम थाय छे तेनेज ते वापडो सुख माने छे ॥ १४३ ॥
सुविमग्गितो ॥ छवि केली नत्रि जद सारो ॥
इंदिय विससुतहा || नवि सुहं सुवु विगवि ॥ १४४ ॥
aj मागतां छतां कलेना गर्भमां कोइ ठेकाणे सार नथी तेम इंद्रियोना विपयोमां घणुंए शोधयुं छतुं कई सुख नयी मलतुं ॥ १४४ ॥
सोए पवसिय पिया || चस्कूराएल माहुरो वलिनु ॥ घाण राय पुतो ॥ निदन जीहाइ सोदोसो ॥ १४५ ॥
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पयन्नो.
॥ २१ ॥
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श्रोत इंद्रिवडे परदेश गएला सार्थवाहनी स्त्री, चक्षुना रागवडे मथुरानो वाणियो, भ्राणने वशे ( गंध प्रिय ) राजपुत्र अने जीव्हाने रमे सोदाम राजा हणायो ॥ १४५ ॥
फार्सिदिए 5 || नहो सोमालिया महीपालो || एक
विनिया ॥ किं पुरा जे पंचसु पसत्ता ॥ १४६ ॥
फरम इंद्रिवडे दुष्ट सोमालिकानो राजा नाश पाम्यो; अकेके विपये ए बधा नाश पाम्या तो जे पांचे इंद्रियां आसक्त होय तेनुं शुं कहे ॥ १४६ ॥
fater farai fress || निरविरको तर उत्तर जवोहं ॥ देवी दीव समागय || जानुअगा दुन्नि दिता ॥
ज्ञान जुयलं च नणियं च ॥ पाठांतरं ॥ १४७ ॥
विषयनी अपेक्षा करनारो माणस दुस्तर एवा भवसमूद्र प्रते पडे अने विषयथी निर्पेक्ष होय ते तरे; ( आ उपर ) रा द्विपनी देवीने मल्या वे भाइ १. जीनपालिन २ जीन रक्षित तेनां दृष्टांत जाणवां अथवा भाइनुं द्रष्टांत कां छे ॥ १४७ ॥
बलिया अवय रकंता || निरावयरका गया श्रविग्घेणं ॥ तन्हा पत्रयण सारे || निरावयस्केल दोयवं ॥ १४८ ॥
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॥२२॥
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रागनी अपेक्षा कीधी ते छल्या अने जे निर्पेक्ष थया ते निर्विघ्नपणे ठामे पहोंच्या ते कारण माटे प्रत्र
पियनो. चनसारने विषे निपुण माणसे रागने विषे निर्पेक्ष थर्बु ॥ १४८ ॥
विसए अवयस्कता ॥ पति संसार सायरे घोरे ।
विसए सु निराविस्का । तरंति संसार कंतारं ॥ १४ ॥ . विषयनी आमक्ति धरतां मणमो घोर संमार मागरने विषे पडे छे अने विषयमा निर्पेक्ष पुरुषो संसार | रुपी अटवीने ओलंगी जाय छे ॥ १४ ॥
ता धीर धिर बलेणं ॥ दंते दमसु इंदिय मईदे ॥
तेणरकय पमिवरको ॥ हराहि राहण पमागं ॥ १० ॥ तेधी हे धीर पुरुष धीरज रूपी वलबडे करीने दुर्दात एवा इंद्रिय रुप सिंहने दम; ने नेणे करीने अंत| रंग वैरी रुप राग अने द्वेपनो क्षय कर्यो छे जेणे एवो तुं आराधना पताकाने ले ॥ १५०॥
कोहाइण विवागं ॥ नाका य तेसि निग्गहण गणं ॥
निग्गिएद तेण सु पुरिस कसाय कलिणो पयनेण ॥ ११ ॥ क्रोधादिकना विपासने जाणीने अने तेना निग्रहवडे गुण जाणीने हे मुपुरुप ! प्रयत्नवडे कपायरुपी क्लेशनो निग्रह कर ॥१ ॥
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जं अ तिकं ऽस्कं ॥ जं च सुहं ननिमं तिलोइए ।
तं जाण कसायाणं । वुट्टि स्कय हेनयं सवं ॥ १५ ॥ जे त्रण जगतने विषे अति तीव दुःख छे अने जे उत्तम सुख छ ते सर्व अनुक्रमे कषायनि दृद्धि अने क्षयर्नु कारण समज ॥ १५२॥
कोहेण नंदमाई । निहया माणेण फरसरामाई ।।
मायाए पंग रद्या ।। लोहेणं लोदगंदा ॥ १५ ॥ क्रोधवडे नंद विगेरे, अने मानवडे फरशुरामादि, मायावडे पंडरज्या अने लोभवडे लोहनंदी दुःख पाम्या ॥१५३ ॥
श्यनवएसामय पा, गएण ॥ पल्हायंमि चित्तमि ॥
जान सुनिव्वुन सो, पानण व पाणियं तिसिन ॥ १५ ॥ आ उपदेश रुप अमृत पानवडे चित्त जेम तरस्यो माणस पाणी मेलवीने निरांते बेसे तेम ते शिष्य अतिशे निवृत ययोछतो कहे छे ॥ १५४ ॥
इलामो अणुसहिंते नव पंक तरण दढ लहिं ॥ जं जह नत्नं तं तह ॥ करेमि विणयण जण ॥१५॥
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॥ २३
प्रकारे
हे भगवन हुं भव रुपी कादव ओलंगवाने दृढ लाकडी समान तमारी शिक्षाने इच्छं ; जे जेम आहे क ते तेम हुँ करूँ एम विनयथी नमेलो ते कहे छे ॥ १५५ ॥
जो कोई तेमने उदीरे
जर कदवि श्रसुदकम्मो ॥ दए। देहंमि संभवे विणा ।।
अदवा तहाश्या ॥ परीसदा से नदीरिया ॥ १५६ ॥
अशुभ कर्मना उदये करीने शरीरने विषे वेदना अथवा तरश विगेरे परिमहो भने ॥ १५६ ॥
निहं महरं पदाय लिधं ॥ दिययंगमं असलियं च ॥
तो सेहावयवो ॥ सो रकवन पमवंते ॥ १५७ ॥
स्निग्ध, मधुर, दरखनुं करनार, हृदयने गमतुं, अने साचुं वचन कहता एवा आचार्ये ( आराधक साधु) ते सहन करे एम कर ॥ १५७ ॥
संजरसु सुयजं ॥ तं मद्यंमि चनविहस्स संघस्स ॥ बूढा महा पइसा || अहयं श्राराहइस्तामि ॥ १५८ ॥
हे मत पुरुष, तमे संभारी आपो के चतुर्विध संघना मध्ये मोटी प्रतिज्ञा में करी ते हुं आराधीश ॥ १६८ ॥
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यत्रो.
५ ॥ २३ ॥
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दंत सिद्ध केवली || पच्चरकं सब संघ सरिकस्स ॥ पञ्चरकाणस्स कयस्स || जंजलं नाम को कुराइ ॥ १५५ ॥
अरहंत, सिद्ध, केवली अने सर्व संघनी साखे प्रत्यक्ष जे पञ्चख्खाण कर्तुं तेनुं भागवुं कोण करे ॥ जाकिए करुणं ॥ खऊंनो घोर वेयला तो वि ॥
आराहणं परिवन्नो || ऊायेण अवंति सुकुमालो ॥ १६० ॥
शियालणीए अतिशय खवातो, घोर वेदना पामतो पण ध्यानवडे अति सुकुमाल आराधना प्राम्यो मुग्गल गिरिंमि सुकोसलो वि || सिध् दश्यनुं जयवं ॥ वग्घी खतो || पमिवन्नो नचमं श्रहं ॥ १६१ ॥
चित्रकुट पर्वत विषे सिधार्थ (मोक्ष) ते छे ध्यायं जेने एवो भगवान् कोसल पण वाघणवडे खातो मोक्ष प्रत्ये पाम्यो ॥ १६१ ॥
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ग || सुबंधुणा गोमए पलिवियंमि ॥1
तो चाणको || पविमो उत्तमं श्रयं ॥ १६२ ॥
गोकुलमा पादोषगम अणशणवाला सुबंधु मंत्रिए छाणां सलगावे छते दानतो एवो चाणाक्य ते उत्तम अर्थने (आराधकपणाने) पायो ।। १६२ ॥
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भत
॥ २४ ॥
अवलंबिल सनं तुमपि ता धीर धीरयं कुणसु ॥
जावे सु य नेगुलं ॥ संसार मदा समुहस्स ॥ १६३ ॥
ते मारे सत्वने अवलंबीने तुं पण हे धीर पुरुष धीरजपणुं घर अने संसार महा समुद्रनुं निर्गुणपणुं भाव ॥ जंम जरा मरस जलो ।। श्रसाइमं वसल सावया इलो || जीवा क देनं ॥ समुद्दो ॥ १६४ ॥
रुद्दो जव
जन्म, जरा अने मरण रूपी पाणी हे जेमां, अनादि दुःखरूपी श्वापदवडे न्याय अने जीवोने दुःख नो हेतु एवो भव समुद्र ते घणोज कट्टनो करनारो अने रुद्र छे ।। १६४ ॥
नोहं जेल मए ॥ अमोर पारंमि जव समुद्दमि ॥
जव सय सदस्स उल्लदं ॥ ल सम्म जाण मिणं ॥ १६५ ॥
हूं धन्य छं, ने कारण माटे में अपार भव समुद्रने विषे लख्खो भत्रे पण पामवाने दुर्लभ एवं सद्धर्मरूपी आझा (हान) पायुं ॥ १६५ ॥
एयस्त पनावेयं ॥ पालि तस्स सइ पयते ॥
जम्मं नरेवि जीवा || पार्वति न उस्क दोगच्चं ।। १६६ ।।
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॥ २४ ॥
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5 , स्मृति अने प्रयत्लवडे पालेखा हा जीव जन्मांतरने विषे पण दुःख अने दारिद्र न पामे ॥१६६॥
चिंतामणी अनवो॥ एय मनव्वोय कुप्प रुस्कत्ति ।।
एसो परमो मंतो॥ एयं परमामयं च ॥१६॥ आ धर्म अपूर्व चिंतामणी रत्न छे, अने वली आ अपूर्व कल्पवृक्ष छे, आ परम मंत्र छे. वली अहिं आं आ धर्म परम अमृत समान छे ॥ १६७॥
अह मणि मंदिर सुंदर ॥ फुरंत जिणगण निरंजणुऊोन॥
पंच नमुक्कार समे || पाणे पणन विसद्ये ॥ १६ ॥ हवे मणिमय मंदिर अने सुंदर स्फुरायमान जिनगुणरूप निरंजन उद्योन छे जेने विषे एवो ने विनयवंत थको पंच नमस्कार सहित प्राणोने साग करे ॥ १६८ ॥
परिणाम विसुझीए । सोहम्मे सुरवरो महिठ्ठीए ।। . आराहिनण जायइ ॥ जत्न परिमं जहमं सो ॥१६॥
ते पुरुष भक्त परिज्ञाने जधन्य थकी आराधीने परिणामनी विशुद्धिवडे सौधर्म देवलोकने विष महर्दिक देवता थाय ॥१९॥
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॥ २५
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नक्कासे गिदो || अच्य कप्पंमि जायइ श्रमरो ॥ निवाण सुदं पाव ॥ साहू सब सिद्धिं वा ॥ १७० ॥
उत्कृष्टपणे भक्त परिज्ञा आराधीने गृहस्थ अच्युत दामना बारमा देवलोकने व देवता याय अने जो साधु होय तो उत्कृष्टं मोक्षनुं सुख पाये अथवा तो गर्वार्थ मिद्धने विषे जाय ॥ १७० ॥
इय जोइसर जिसवीर ॥ न जलियाशुस्सरिणी निरामो ॥ जनपरि धन्ना || पति जावंति सेवंति ॥ १७१ ॥
एते योगीश्वर श्री जिन वीरस्वापि अने भद्र एवा निर्थकर देते भाषेला अनुसार भक्त परिज्ञा पयन्नो जेओ भणेछे, भावेछे अने मंत्र ने ओ धन्य ॥ १७१ ॥
सत्तरिसयं जिलाणं व || गाहाणं समयवित्त पम्मतं ॥ रातो विदिशा ॥ सासय सोस्कं बह सोकं ॥ १७२ ॥ मनुष्य क्षेत्रने विदे एक छे; तेने विधिपूर्वक आराधन करतो शाश्वतुं
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पाये ॥ १७२ ॥ ॥ इति श्री जब परिक्षा सम्मना ॥
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५। २५ ।।
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चउसरण पयन्नो.
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सावऊजोग विरई, नक्कित्तण गणवन अपमिवनि ॥
खलियस्स निंदणा वण, तिगिन्छ गण धारणा चेव ॥१॥ पाप व्यापारथी निवर्तवा रुप सामायक नामे पडेलु आवश्यक, चोचीस तिर्थकरना गुणानुं उकिर्तन करवारूप चउविसथ्यो नामनुं वीजें आवश्यक, गुणवंत गुरुनी वंदना रूप वंदनक नामर्नु त्रीजु आवश्यक, लागेला अतिचार रूप दोषनी निंदारुप प्रतिक्रमण नामनुं चोथु आवश्यक, भाव घा एटले आत्माने भारे दुपण लागेलुं तेने मटाडवा रूप काउसग्ग नामर्नु पांचमुं आवश्यक, अने गुणने धारण करवा रूप पञ्च खाण नामनु छई आवश्यक. ए छ आवश्यक निश्चे करी कवायछे ॥५॥
चारित्तस्स विसोही, कीरइ सामाइएण किल दयं ॥
सावळेयर-जोगाण, वझणा-सेवणतन॥२॥ आ जिनशासनमा सामायकवडे करी निश्चे चारित्रनी विशुदि कराय छे, ते सावध योगने खाग करवायी अने निर्वद्य योगने सेवायी थाय ॥२॥
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।। २६ ।।
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दंसणयार विसोदी, चनवीसायनुएल किाइ य ॥ tags गुण कित्तer, रुवेणं जिलवरिंदाणं ॥ ३ ॥
दर्शनाचारनी विशुद्धि चडावेसध्या (लोगस्स ) बडे कराय छे, ते जिनेश्वर भगवानोना अनि अदभूत गुणना किर्तनरूप चोविमे जिननी स्तुतिवडे धायछे ॥ ३ ॥
नालाइन गुणा, तस्संपन्न परिवत्तिकरणानु ॥ वंदuri after, कीरइ सोदीन तेसिं तु ॥ ४ ॥
ज्ञानादिक जे गुणो तेवडे करी सहित गुरु महाराजने विधिपुर्वक वंदन करवारुप, त्रीजा वंदन नामना आवश्यक ज्ञानादिक गुणोनी शुद्धि कराय छ ॥ ४ ॥
खस्ति तेसिं पुणो, विदिला जं निंदलाइ पक्किमणं ॥ तेरा पक्किम, तेसिं पिय कीरए सोही ॥ ५ ॥
चली ते ज्ञानादिकनी आशातनानी निंदादिक विधिवडे करवी ते मतिक्रमण कद्देवाय ने प्रतिक्रमणवडे ने ज्ञानादिक गुणोनी शुद्धि करायछे ॥ ५ ॥
चरणाइयाइयाणं, जहक्कमं वल तिगिन्छ रुवेणं ॥
पक्किमला सुद्धा, सोही तह कानस्सरणं ॥ ६ ॥
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।। २६ ।।
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चारित्रादिकना ऑनचारोनी प्रतिक्रमणवडे शुद्धि न यह होय तेमनी गुमडाना ओमट मरवा अनुक्रमे आवेला पांचमा काउमा नामना आवश्यकबडे शुद्धि थाय छे ॥ ६॥
गुणधारण रुवेणं, पञ्चरकामेण तवइआरस्स ।।
विरिआयारस्स पुणो, सोहिवि कीरए सोही ।। 30 गुणना धारण करता रुप पचखाणे करीं तकना अतिचारनी अने वही विर्याचारना सर्व आवश्यक कनारी शुद्धि कराय छे ।
गय वसह सीह अनिसे, दाम ससी दियरं ऊयं कुंनं ।।
पनमसर सागर विमाण, लवण रयणुञ्चय सिद्धिं च ॥6॥ हाथी, कृषभ, सिंह, अभिषेक, माळा, चंद्रमा, मूर्य, धना, कलम, पद्ममरोरर, सागर, ( देवगतिमांथी आवेला तिर्थंकरोनी माता) विमान, अने (नरकमांथी आवेला तिथंकरोनी माता) भवन देखे, रत्ननों दगलो भने | अंग्र. ए चउद स्वप्न सर्व तिर्थंकरोनी माता तेमने गर्भमा आवतां देखे ॥ ८ ॥
अमरिंद नरिंद मुणिंद, वविध वंदिन महावीरं ।। कुसलाणुबंधि बंधुर, मश्चय कित्तइस्लामि॥॥
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॥२७॥
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देवताना इंद्र, चक्रवर्ति राजा, अने मुनिश्वरोए बांदेला एवा महावीरस्वामिने वांदीने मोक्षने पमाडनार पयन्नो. सुंदर चउसरण नामनुं अध्ययन कहीश ॥ ९ ॥
चनसरण गमण डुक्कर, गरिहा सुकमागु मोयला चेव ॥ एस गयो अवश्यं, कायद्यो कुसलदेनत्ति ॥ १० ॥
चार सरण करवां, पाप कार्योंनी निंदा करवी अने निश्चे सुकृतनी अनुमोदना करवी आत्रण वस्तु मोक्षनुं कारण छे माटे निरंतर करवी ॥ १० ॥
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अरिहंत सिह साहू, केवलिकदिन सुहावदो धम्मो ॥ एए चनरो चनगर, हरणा सरणं लहइ धन्नो ॥ ११ ॥
अरिहंत, सिद्ध, साधु, अने केवळीए कहेलो सुख आपनार धर्म, आ चार शरण छे ने चार गतिने नाश करनार छे अने ते भाग्यशाली पुरुष पामेले ॥ ११ ॥
इसो जिराजति जरु, घरंत रोमंच कंचु करालो || पहरिसपणन म्मीसं, सीसंभि कयंजली नाइ ॥ १२ ॥
हवे ते पुरुष तिर्थंकरनी भक्तिना समुहे करी उछलनां स्वांटारूप वख्तरे करी भयंकर तेवो घणा हरख अने स्नेह सहित मस्तकने विषे वे हाथ जोडी आ प्रमाणे कहे ॥ १२ ॥
१२७॥
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00000-6-250
रागहोसारीणं, हंता कमगाइ अरिहंता॥
विसय कसायारीणं, अरिहंता इंत में सरणं ॥१३॥ राग अने दुषरुप वैरीओना हणनार, अने आठ कर्मादिक शत्रुना हणनार, विषय कषायादिक वैरीओना हणनार एवा अरिहंत भगवान मने शरण हो. ॥ १३ ॥
रायसिरि मवकसित्ता, तव चरणं ऽचरं अणुचरिना ।।
केवल सिरि मरहंता, अरिहंत्ता इंतु मे सरणं ॥ १४ ॥ राज्य लक्ष्मिने त्याग करीने दुष्कर तप अने चारित्रने सेवीने केवळ ज्ञान रूप लक्ष्मिने योग्य एवा अरिहंतो यने शरण हो ॥ १४ ॥
थुइ वंदण मरहंता, अमरिंदं नरिंद पूनमरहंता ।।
सासय मुह मरहंता, अरिहंता हुंतु मम सरणं ॥१५॥ स्तुति अने वंदन करवाने योग्य एवा, इंद्र अने चक्रवतिनी पुजाने योग्य एवा, शाश्वत मुख पामयाने योग्य एवा अरिहंतो मने शरण हो ॥१५॥
. परमणगयं मुणंता, जोईद मईद काण मरहंता॥ . धम्मकदं अरहंता, अरिहंता इंतु मे सरणं ॥ १६ ॥
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॥ २८ ॥
वीजाना मनमा रहेली वातने जाणनारा, अने योगिश्वरने महेंद्रने ध्यान करना वोम्य व धर्म कथाने कहेका योग्य एवा अरिहंत भगवान मने शरण हो ॥ १६ ॥
सङ्घजिश्रा महिंसा, अरदंता सच्चवयण मरदंता ॥
बंजय मरदंता, अरिहंता हुतु मे सरणं ॥ १७ ॥
सर्व जीवोनी दयापाळवी तेने योग्य, सत्य वचनने योग्य (बळी ) ब्रह्मचर्य पाळवाने योग्य एवा अरिहंतो मने शरण हो ॥ १७ ॥
नसरणमवसरिता, चनत्तीसं श्रइसए निसेवित्ता ||
धम्मच कहता, अरिहंता हुंतु मे सरणं ॥ १८ ॥
समवसरण देणीने चोकीस अतिशये करीने सहित धर्मः कथाने कहेता एवा अरिहंतो मने शारण हो ॥ १८ ॥
गाइ गिरा लेंगे, संदेदे देदिणं समं चित्ता ॥
तिहुल मणु सासंता, अरिहंता हुंतु मे सरणं ॥ १०७ ॥
एक वचने करी पाणी ओना अनेक संदेहोंने एक काळे छेड़ी नाखला अने ऋण जगनने शिक्षा ( उपदेश) आपता एवा अरिहंत भगवान मने शरण हो ॥ १९ ॥
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२८॥
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वयणा मरण नुवणं, निवावंता गुणेसु गवंता॥
जिअलोअ मुरंता, अरिहंता हुंतु मे सरणं ॥२०॥ (पोताना ) वचनामृतवडे जगतने शांति पमाडता, अने गुणोमां स्थापना, ( वळी ) जीव लोकनो उद्वार करता एवा अरिहंन मने शरण हो ॥२०॥
अञ्चप्रअ गुणवंते, नियजस ससहर पहासिअ दियते ॥
नियय मणाइ अगते, पमिवन्नो सरणमरिहंते ॥१॥ अति अद्भूत गुण गाजा, अने पोनाना यशरुप चंद्रवडे सर्व दिशाओना अंतने शोभाव्या छ एवा शाश्वत अनादि अनंत एवा अरिहनोने शरणपणे मे अंगिकार कर्या. ॥ २१ ॥
ननिय जर मरणाणं, समत्त पुस्कत्त सत्त सरणाणं ॥
तिहुयण जण सुदयाणं, अरिहंताणं नमो ताणं ॥१२॥ तज्यां छे जरा अने मरण जेमणे, अने वधा दुःखथी पीडाएला पाणीओने शरणभुत एवा, अने प्रण जगतना लोकने मुख आपनार एषा ते भरिहंतोने (म्हारो) नमस्कार हो ॥ २२ ॥
अरिहंत सरण मल सुद्धि, लाइ सुविसु सिइ बहुमाणो॥ पणयसिर रश्य कर कमल, सेहरो सहरिसं जणइ ॥ १३ ॥
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॥ २९ ॥
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अरिहंतना शरणथी कर्मरुप मेलनी शुद्धिए पाम्युं छे अति शुद्ध सिद्धमां बहु मान जेणे एवो, अने तिथी नमेला मस्तकउपर कर्यो छे हस्तरूप कमळनो दोडों जेणे अर्थात् मस्तके अंजळी करी छे जेणे एवो हळवा कॉर्म जीव हर्ष सहित सिद्धनुं शरण कहे ॥ २३ ॥
कम्मरकय सिधा सादावित्र्य नारा दंसण समिधा ॥ सब लड़सिद्धा, ते सिद्धा हंतु मे सरणं ॥ २४ ॥
आठ कर्मनो क्षय करीने सिद्ध एला, अने स्वभाविक ज्ञान दर्शनंनी समृद्धिवाला वळी सर्व अर्थनी लओ मिद्ध यह छे जेमते ते सिद्धो मने शरण हो ॥ २४ ॥
तिलोअ मन्त्रयत्रा, परम पयचा अचिंत सामना ॥
मंगल सि पयचा, सिद्धा सरणं सुह पसन्ना ॥ २५ ॥
त्रण भुवनना मधाळे रहेला, अने परमपद एटले मोक्षमां रहेला बळी अनिय सामध्येवाला, अने मंगभूत सिद्ध पदमा रहेनार, अने अनंत सुखे करी एव सिद्धो मने शरण हो ॥ २८ ॥ मूलुकका अमूलरका सजोगिपचरका ॥
साहावित्त सुरका, सिद्धा सरणं परम मुस्का ।। २६ ।।
मुळशी उखाडी नाख्या छे राग द्वेष रूप शत्रु जमणे अने अमृढ ळक्षवाळा, वळी केवळीओ नेमने देखी
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॥ २९ ॥
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शके छे एवा. स्वाभाविक मुख जेमणे ग्रहण कई छाना उत्कृष्ट मोक्षवाळा मिन्द्रो (मने । शरण हो. ॥२०॥
पमिषीलिप पमिणीया, ममग्ग काणगि दह नव वीणा ॥
जोइसर सरणीपा, सिहा सरणं समरणीया ॥ २७॥ गगादिक शत्रुधोनो तिरस्कार कर्यो ? नेमण सवा बळी ममग्र ध्यानका अग्निा वायं छे भवन चीज जेमणे एना अने योगिश्वरोग आश्रय करवा योग्य अने भव्य प्राणी ओए स्मरण करवा याग्य एका मिद्धो मने शरण हो ॥२७॥
पावित्र परमाणंदा, गुगनीमंदा विदीन नवकंदा ॥
लहुई कय रविचंदा, लिहा सरगं खघिय दंदा ॥ २० ॥ पमाडयो छे आनंद जेमणे, अने गुणोपर पां. वळी नाग कों हे भवाग का जेमणे, अने केवळजानना प्रकाशवडे चंद्र अने मूर्यने यांचा प्रभावाना करीदीधा छे. की युद्ध आदि चलेशनो नाश कर्यो छे जेमणे एवा सिद्धो मने शरण हो ॥ २८ ॥
नवलपरम बना, उल्लदलंजा विमुक संरंजा ॥
जवण घर धरण खंना, सिहा सरणं निरारंजा | ॥ पाम्यु छ उत्कृष्ट ज्ञान जेमने एवा, वळी मोक्षरूप दुर्लभ लाभ मेळल्यो ले जेपणे एला. मुक्या छ भनेक
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॥३०॥
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प्रकारना समारंभ जेमणे एवा, प्रण भूवन रुप घरने धारण करवामां स्तंभ ममान, अने बळी आरंभ राहत, एवा सिद्धो मने शरण हो । २१ ॥
सिंघसरणेण नयनहेन, साहु ग जशिअ अगरान॥
मेश्णी मिलंत सुपसन, म तलिम नइ ॥ ३०॥ मिद्धना शरणवडे नय अने बार अंगरूप ब्रह्मना कारणभून माधुना गुणोनो उपज्यो छे अनुराग जेने, एवो भव्य पाणी पृथीने अडक्यु छे अति प्रशस्थ मस्तक जेनुं एवो थइ खां आ रीसे कहे ॥१०॥
जिअलोम बंधुणो कुग, सिंधुणो पारगा महानागा ॥
नाणाइ एहिं सिवसुरक, सागा माहुणो सरणं ॥ ३१ ॥ जीवलोकना बंध अने कुगति समुदना पार पामनार नहा भाग्यवाळा एवा. अने ज्ञानादिके करी मोक्ष सुखना गापनार माधुओ (मने) शरण हो ॥३१॥
कवलोगो परमोही, विनलमई सुअहरा जिणमयंमि ॥
आयरिय नवनाया, ते सवे साहुणो सरणं ॥ ३२॥ केवळीओ, परमावधिज्ञानवाला, विपुलमनि मनापर्यवज्ञानि, श्रुतधर तेपन जीनगनने विष रहे ला || आचार्यों अने उपाध्यायो ने मर्वे माधुओ मने शरण हो ॥ ३० ॥
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चनदस दस नव पुछी, ज्वाल सिक्कारसंगिलो जे भ ॥ जिलकप्पा हालंदिय, परिहारविसुद्ध साहु श्र ॥ ३३ ॥
चद पूर्वि दस पूर्वि अने नत्र पूर्वि, अने वळी वार अंग धरनार, अगियार अंग धरनार, जिनकल्पि यथालंदि, परिहारविशुद्धि चारीत्रवाला एवा साधुओ ॥ ३३ ॥
खीरासव महु आसव, संजिन सोश्र कुछ बुद्धि ॥ चारण वेनविपयाणु, सारिलो साहुलो सरणं ॥ ३४ ॥
क्षीराव अने मवाश्रव लब्धिवाळा, संभिन्न श्रोत लब्धिवाळा अने कोष्ट बुद्धिवाला, चारण मुनियो. |क्रिय लब्धिवाळा अने पदानुसारिलब्धिवाळा साधुओ मने शरण हो ॥ ३४ ॥
यि वर विरोदा, चिमहोदा पसंत मुदसोहा ॥
निमय गुण संदोहा, दयमोहा साहुगो सरणं ॥ ३५ ॥
तज्या छे वैर विरोध जेमणे, हमेशां अद्रोहि (शांत ) अतिशय शांत, मुखनी शोभावाळा, बहु मान क छे गुणना समुहनु जेमणे एवा, अने हण्यो छे मोह जेमणे एवा साधुओ (मने ) शरण हो. ॥ ३५ ॥ सिरोद दामा, श्रकामघामा निकामसुद कामा || सुपुरिस मणानिरामा, श्रायारामा मुसी सरणं ॥ ३६ ॥
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तोडयं छे स्नहरुप बंधन ते जेमणे, निर्विकारी स्थानमा रहेनार, निर्विकार सुखना कामी, सत्पुरुषोना मनने आनंद करनार अने आत्मामां रमनार मुनिओ मने शरण हो. ॥ ३६ ॥
मिहिन विसय कसाया, ननिय घर घरणि संग सुहसाया ।
अकलिभ इरिस विसाया, साह सरणं गय पमाया ॥ ३७॥ दर कर्यो छे विषय अने कपाय ते जेमणे, त्याग कयों छे घर अने स्वीना संगना मुखनो स्वाद जेमणे, बळी नथी हर्ष अने नथी शोक ते जेमने एवा अने गयो छे प्रमाद जेमनो एवा साधुओ मने शरण हो.।३७॥
हिंसाइ दोस सुन्ना, कय कारुनो सयंनुरूपन्ना ॥
अजरामर पह खुन्ना, साहु सरणं सुकय पुन्ना ॥ ३० ॥ हिंसादिक दोपे करीने रहित, कर्यो छे करुणा भाव ते जेमणे, एवा स्वयंभु रमण समुद्र जेवी विस्तीर्ण बुद्धिवाला, जरा अने मरण रहित मोल मार्गमा जनारा, अने अतिशे पुन्य कयु डे जेमणे एवा साधु मने | सरण हो ।। ३८ ॥
काम विझबण चुक्का, कलिमल मुक्का विमुक्तक चोरिक्का ॥
पावरय सुरय रिक्का, साहु गुण रयण चिचिक्का ॥ ३ ॥ झामनी विडंबनाए करीने रहित, पापे करीने रहिन. वळी चोरी जेमणे त्याग करी छे एवा. पापरुप
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रजना कारण एत्रा, मैथुनथी रहित अने साधुना गुणरूप रत्ननी कांतिवाळा एवा मुनियों (मने) शरण हो. साहुन सुडा जं, प्रायरियाई तन्त्र ते साहू |
साहुन लिए गदिया, तम्हा ते साहुणो तरणं ॥ ४० ॥
जे माटे साधुपणामां विशेषे करीने रहेला एवा आचार्यादिक छे ते माटे तेओ पण साधु कहेवाय. साधु कद्देवावडे तेमने ग्रहण कर्या ते माटे ते साधु (मने ) शरण हो ॥ ४० ॥
परिवन्न साहु सरो, सरणं कानं पुणोवि जिगधम्मं ॥ पहरिस रोमंच पवंच, कंचुचिश्रतणु जाइ ॥ ४१ ॥
स्विकार्य छे साधुनुं शरण जेणे एवो ते जीव, वळी पण जिन धर्मने शरण कहीं अति हर्षथी थयेला रोमांचना विस्ताररूप बख्तरे करी शोभायमान शरीरवाळो आ रीते कड़े ॥ ४१ ॥
पवरसुकवि पत्तं, पत्तेहिवि नवरि केहिवि न पत्तं ॥
तं केवलि पनतं, धम्मं सरणं पवन्नोहं ॥ ४२ ॥
अति उत्कृष्ट पुन्पवडे पामेलो, वळी कटेला भाग्यत्राळा पुरुषोए पण नहि पामेलो एवो केवळी भगवाने प्ररुपेला ते धर्म तेनै हुँ शस्मर मैगिकार करूं ॥ ४२ ॥
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पण अपनेणय, पत्नाणिय जेण नर सुर सुदाई॥ ॥३२॥
मुस्कसुदं पुण पत्तेण, नवरि धम्मो स मे सरणं ॥४३॥ जे धर्म पामे छते अने अणपामे पण जेणे माणस अने देवताना मुखाने मेळव्यां, पण मोक्षमस्व तो वळी धर्म पामेलाएज मेळव्युं ते धर्म मारे शरण हो ॥ ४३ ॥
निदलिप कलुस कम्मो, कय सुद जम्मो खलीकय अहम्मो ॥
पमुह परिणाम रम्मो, सरणं मे दोन जिणधम्मो ॥ ४ ॥ ___अतिशे दल्यो छ मलीन कर्म जेणे, कयों छे शुभ जन्म जेणे, दूर कयों के अधम जणे, परि- Pणामे सुंदर एवो जिन धर्म:मने शरण हो ॥ ४४ ॥
कालत्नएविन मयं, जम्मण जरा मरण वादि सय समयं ॥
अमयंव वहुमयं, जिणमयं च सरणं पवनोहं ॥ ४ ॥ त्रण काळमां पण नहि नाश पामेलं, अने जन्म, जरा, मरण अने सेंकडो गम व्याधिन समावनार, अमृतनी पेठे घणाने इष्ट एवा जिन मतने ह शरणरूपे अंगिकार करूंछ ॥ ४५ ॥
पसमिश्र कामप्पमोहं, दिखा दिसुन कलिय विरोई॥ सिव सुह फलय ममोहं, धम्म सरणं पवनोहं ॥ १६ ॥
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विशेषे शमाव्यो छे कामनो उन्माद जेणे, देखेला अने नहि देखेला पदार्थोमो नधी को विरोध जे, अने मोक्षना सुखरूप फळने आपनार एवा अमोघ एटले मफळ धर्मने शरणरुपे अंगिकार कछु- ॥ ४६॥
नरय गइ गमण रोदं, गुण संदोहं पवाइ निस्कोदं ॥
निहणिय वम्मद जोई, धम्मंसरणं पवनोदं ॥४॥ ___ नरक गति गमनने रोकनार, गुणनो समुह छे जेमां एवो, अन्यवादिवढे क्षोभ करवा योग्य नाह एIPI चो, अने इण्यो छ कामरूप सुभट जेणे एबो धर्म शरणरूपे ऑगकार करूंछु ।। ४७ ।।
नासुर सुवन सुंदर, रयणालंकार गारव महग्धं ॥ निदिमिव नेगचदरं, धम्मं जिणदेसि. वंदे ॥ ४ ॥ समर ... संदर
, मोटाइ : महा मुल्य२ वाळो, निधाननी पेठे अज्ञानरूप दारिद्रने हणनार एवा जिनेश्वरोए उपदेशेला धर्मने हु बांदुर्छ ॥ ४८॥
चनसरण गमण संचित्र, सुचरित्र रोमंच अंचित्र सरिरो॥
कय कम गरिदा असुद, कम्मरकय कंखिरो जण ॥ ४ ॥ आ चार शरण अंगीकार करवावडे एकहुं करेलं जे मुकृत तेणे करी थएली विकस्वर रोमराजीए यु
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॥ ३३ ॥
क्त छे शरीर जनुं एबो, अने करेला पापनी निदाए करीने अशुभ कर्मना क्षयने इच्छतो एवो जीव ( था ममाणे ) कहे ॥ ४९ ॥
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मन्ननवि, मित्त पवत्तणं जमहिगरणं ॥
जिल पवयण परिकुठं, डु गरिहामि तं पावं ॥ ५० ॥
आ वां करेलुं अने परभवमां करेलुं मिथ्यात्वना प्रवर्तनरूप जे अधिकरण, जिनशाशनमां निषेधेलं एवं ते दुष्ट पाप नेने हुं गहुँछु एटले गुरुनी साखे निदुछु ॥ ५० ॥
मित्त तमंचे, अरिहंताइसुप्रवन्न वयणं जं ॥
अन्नाले विरश्यं, इन्दि गरिदामि तं पात्रं ॥ ५१ ॥
मिध्यात्वरूप अंधाराए अंध थयेलार आरिहंतादिकमां ने अवरणवाद, अज्ञाने करीने विशेषे कर्यो होय ते पापने हमण हुं गर्छुछु निदुद्धं ।। ५१ ।।
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सु धम्म संघ साहुसु, पावं परिणीश्रयाइ जं रइ अन् पावेसु, इन्हिं गुरिदामि तं पात्रं ॥ ५२ ॥
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धर्म, संघ, अने साधुओमां शत्रुपणुं जे पाप कथुं होय ते, अने अन्य पापस्थानकोमा जे पाप ळा होय ते पाप हमणां हुं गहुँछु ।। ५२ ।।
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पवनो.
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अन्नेसु अ जीवेसु, मित्नी करुणा गोअरेसु कयं ।।
परिश्रावणा पुरकं, इन्हि गरिहामि तं पावं ॥ ३ ॥ वीजा पण, मैत्री करुणादिकना विषय, एवा जीयोमा परितापनादिक दुःख उपजाब्यु होय ने पापने हूं इमणां निदुईं ॥ ५३॥
जं मण वय काएहिं, कय कारिअ अणमईहिं आयरिअं॥
धम्म विरु: मसुई, सवं गरिहामि तं पादं ॥ ५५ ॥ जे मन, वचन, अने कायाए करी करवा, कराववा, अने अनुमोदवावडे आचरेलुं एवं धर्मयी विरुद्ध अने अशुद्ध एवं सर्व पाप ते ९ निदुर्छ ॥ ५४॥
अहसो ऽक्का गरिहा, दलिनक्कमक्कमो फुझ जणइ ॥
सुकुमानुराय समुश्न, पुम्नं पुलयंकुर करालो ॥ ५ ॥ हवे दुष्कृतनी निंदाथी दळयुं छे उत्कट पाप कर्म ते जेणे एचो, अने सुकृतनो जे राग तेथी यएली प. वित्र विकस्वर रोम राजीए सहित एवो, ते जीव प्रगट नीचे प्रमाणे कहे ॥५५॥
अरिदंतं अरिहंतेसु, जं च सिइत्तणं च सिसु ॥ . मायारं पायरिए, उवायत्तं नवनाए ॥६॥
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अरिहंतोने विष भरिहत्तपणु, अने सिद्धोने विषे वळी जे सिद्धपणु, आचार्यमा जे आचार, अने उपाध्यायमा उपाध्यायपणुं ॥.५६ ॥
साइण साहुचरिश्र; देसविरइंच सावय जणाणं ॥
प्रणमन्ने सबेसि, सम्मत्तं सम्मदिहोणं ॥ ५ ॥ माधुओर्नु जे उत्तम चरित्र, अने श्रावक लोकोनुं देशविरतीपणुं, अने समकिनहोष्टर्नु ममकित एसबने हुं अनुमोदुएं ॥५॥
अहवा सबंवि अ विष, राय वयणाणसारि जं सुकम् ॥
कालत्तएवि तिविदं, अणमोएमो तयं सत्वं ॥ ५ ॥ अथवा वितराग वचनने अनुसारे जे सर्व सुकृत त्रणे काळयां ( कर्य होय ) ते त्रणे प्रकारे ( मन, व. चन, ने कायाए करी) अनुमोदीए छीए ॥ ५८ ॥
सुद परिणामो निचं, चन सरण गमाइ थायरं जावो ॥
कुसल पयमोन बंध. वान सुदाणुबंधान ॥ ५ ॥॥ निरंतर शुभ परिणामवाळो जीव चार शरणनी प्राप्ति आदिने आचरतो पुन्य प्रकृतिओने वांधेळे अने ( अशुभ ) बांधेलीने शुभ अनुबंधवाळी करेछे ॥ ७० ॥
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मंदणुलावा बक्ष, तिवणुनावा कुणइ ता चेव ।।
असुदान निरघुवंधान, कुण तीचा मंदान ॥ ६० ॥ जे ( शुभ ) मंद रमवाळी बांधी होय तेनेज तिव्र रमवाळी करे. अने अशुभ ( मंद गमवाळी ) ने अनुबंध रहित करछे, अने तिन रमवाळीने मंद रसवाळी करेछे ॥६॥
ता एयं कायचं, बुहेहि निचंपि संकिलेसंमि ।।
होइ तिकालं सम्मं, असं किलेसंमि सुकयफलं ॥ ६१ ।। ते माटे पंडितोए हमेशा संक्लेशमा (रोगादि कारणमां ) ए करवं, अमक्लेशपणामां प्रण काळ मंडी | पेरे कयु छतु मुकृत फळ (पुन्या संधि पुन्य ) वाळु थायछे ॥ ६१ ॥
चनरंगो जिणधम्मो, न कनचनरंगसरणमविन कयं ॥
चनरंग नवछेन, न कळ हा हारि जम्मो ॥६॥ जेणे (दान, शियळ, तप, अने भावरूप) चार अंगवाळो जिनधर्म न कयों, जेणे ( अरिहंतादि ) चार प्रकारचें शरण पर्व न कर्यु, तेमन मेणे नार गतिरूप संमारनो छेद न कर्यो, ते अरे ! मनुष्य जम्म हारी गयो ॥ १२॥ .
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नजीकपमाय मदारि, वीर-नईतमेय मधयणं ॥
जाए मर्यक, कारण निव्वुर सुहाणं ॥१३॥ आ रीते है जीव मैनादरूपी मोटा शउने जीतनार, मोक्ष पमारनार, अने मोक्षना सुखोजें भवंध्य का. रणभूत एवा भाजपपन गय संध्याए जान कर ॥३॥
.. ॥इति श्री चतुःशरण प्रकीर्णकं समाप्तं ॥
इति श्रीमद् वीरभद्राचार्य कृत चतुरशरण प्रकीर्णकं समा.
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महा पच्चस्खाण पयन्नो. एस करेमि पणामं ॥ तिथ्ययराणं अगत्तर गईणं ॥
सबसिं च जिणाणं । सिक्षाणं संजयाणंच ॥१॥ आ हूं उत्कृष्ट मतिवाला तीर्थकरोने अने सर्व जिनोने, सिद्धोने संयतो ( माधुभो ) ने नमस्कार करुंछु.
सब ऽस्क पहीणाणं ॥ सिसाणं अरहो नमो ।
सहहे जिण पन्नत्तं ॥ पञ्चरकाएमि पावर्ग ॥२॥ सर्व दुःख रहित एवा सिद्धाने अने अरिहंतोने नमस्कार थाओ, जिनेश्वर भगवाने भाषेलु मर्व सद्दहं छु, अने सर्व सावध पापना योग तेने पञ्चरूखुर्छ ॥२॥
जंकिंचि पुच्चरियं ॥ तमहं निंदामि सच्च नावणं ॥
सामाईयं च तिविहं ॥ करेमि सवं निरागारं ॥३॥ जे कंइ पण मार्छ आचरण माराथी वयु होय ते ९ साचा भावधी निछ, भने मन, वचन ने काया ए प्रण प्रकारे सर्व निरागार ( आगार राहेत.) एवं सामावक हु करूयं ॥२॥
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बाहिर प्रिंतरं नवहिं ॥ सरीरादि सजोधणं ॥ मासावर कापणं ॥ सर्व तिविदेश वोसिरे ॥ ४ ॥
बाह्य उपधी ("वखादिक ), अभ्यंतर उपधी ( क्रोधादिक ) शरीर विगेरै भोजन सहित मन, वचन ने काया एत्रण प्रकारे सर्व वोसिरा ॥ ४ ॥
राग बंध पनसं च ॥ हरिसं दीपजावियं ॥
नस्तुगतं जयं सोगं रई मयं च वोसिरे ॥ ५ ॥
रागनो बंध, द्वेष, हर्ष अने दीनपणुं, आकुलपणुं, भय, शोक, रति, मद, ए मचलाने मिराउँछु ॥५॥ रोसे परिनिवेसेा ॥ कय तहेव सझाए |
जोमे किंचिवि जनि ॥ तिविदं तिविदेश खामेमि ॥ ६ ॥
रोपे करीने, कदाग्रहवडे, अकृतन्नतावडे तेमज अमत् व्यानने विषे जे हुं कांड अविनयपणे बोल्यो ते त्रिविधे त्रिविधे खमावुं ॥ ६ ।
खामि स जीवे ॥ सबे जीवा खमंतु मे ॥
आसवे वोसिरत्ताएं || समादिं पनि संघए || 9 ||
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मर्वे जीवोने खमा, सब जीवो मने बमो, मघला आ भवने चोमिरावीने ममाधि ( शुभ । ध्यानने आदरे ॥ ७॥
निंदामि निंदणिऊं ॥ गरिहामि अजं च मे गरदशिऊं ॥
आलोएमि अ सन्वे । जिणेहिं जं जं च पमिकुठं ।। ॥ जे निंदवा योग्य होय तेने हं निर्दछ, अने जे गुरुमाग्वे निंदवा योग्य होय सेने गईई, अने जे जे जिनोए निपेध्यु छे ते सर्वने आलोउर्छ । ८॥
नहीं सरीरगं चेव ॥ आहारं च चनविहं ॥
ममत्तं सब दवेसु ॥ परिजाणामि केवलं ॥ ५ ॥ उपधी, शरीर अने चतुर्विध आहार, अने सर्व द्रव्यने विषे ममता ने मर्वने जाणीने याग करूयं ॥०॥
ममत्तं परिजाणामि ॥ निम्ममते नवग्नि॥
आलंबणंच मे आया ॥ अवसेसं च वोसिरे ॥१०॥ निर्ममपणाने विष उद्यमवंत यएलो एको ममताने समस्त प्रकारे त्याग करा. एक मारे आत्मानुज आसंबन के बीजं सर्व वोसिराबुंध ॥१०॥ ....
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थाया में जं नाणे ॥ आया मे दसणे चरित्ते य॥
आया पच्चरकाणे ॥ आया मे संजमे जोगे ॥११॥ मारूं जे ज्ञान ते मारो आत्मा छे, आत्मा तेज मारुं दर्शन अने चारित्र छे, आत्मा तेज पच्चलखाण छ, आत्मा तेज मारूं संजम अने तेज मारो जोग छे ।। ११ ॥
मूल गुण नुत्तर गुण ॥ जे मे नारा हिथा पमाएणं ।।
ते सव्वे निंदामि ॥ पडिक्कमे आगमिस्साणं ॥१॥ मूल गुण अने उत्तर गुण जे में प्रमादवडे करी न आराध्या होय ते सर्वने हुँ निद्छ अने आगामीकालने विषे जे थवाना होय तेथी हुँ पाछो रखें, ।। १२॥
कोहं नजि मे का ॥ नचाहमवि कस्सई ॥
एवं अदीण मणसो ॥ अप्पाण मयुसासए ॥१३॥ एकलो हूं ठु माऊं कोइ नथी अने हुँ पण कोइनो नथी एम अदीन चित्तवाळो आत्माने शिक्षा आपे.
इक्को नप्पद्यए जीवो ॥ को चेव विवद्यई ॥ कस्स होइ मरणं ॥ इक्को सिद्य नीरन ॥ १४ ॥
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जीव एकलोज उपजेछे. अने एकलोज नाश पामेछे, एकलाने मरण होयरछे भने एकलोज जीव कर्म रज रहित थइने मोक्ष पामछे ॥१४॥
को करे कम्मं ॥ फलमधिसिक समणहवइ ।।
इक्का जाय मर ॥ पराइकर जा ॥१५॥ एकलो कर्म करेछे, तेनुं फल पण एकलोन भवेछे, एकलो जन्मेछे ने मरेछे ने परलोकमा एकलोज उत्पन्न थायछे ॥१५॥
को मे सासन अप्पा ॥ नाण दसण लस्कयो ।
सेसा मे बाहिरा नावा ॥ संघसंजोग सरकणा ॥१६॥ ज्ञान, दर्शन, लक्षणवंत एकलो मागे आत्मा शाश्वनो छ बाकी मार वाहीरभाव सर्वे मंयोगस्प छे.
संजोग मला जीवेण ॥ पत्ता पुरक परंपरा ॥
तम्हा संजोग संबंधं ॥ सवं तिविदण वो सिरे ॥१७॥ संयोग छे मूल जेनुं एवी जीवे दुःखनी परंपरा पामी ते माटे सर्व संयोग संबंधने त्रिविधे त्रिविधे वामिगळु ॥१७॥
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अस्संजम मन्नाणं । मिहत्तं सबनविध ममत्तं ।।
जीवेसु अजीवेसु श्र॥ तं निंदे तं च गरिहामि ॥१७॥ असंयम, अज्ञान, मिथ्यात्व, अने सर्व प्रकारना जीवने विषे अने अजीवने विषे ममत्वपणुं, ते हुँ निर्दछु अने गुरुनी माखे गरहुंछु ॥१८॥
मित्तं परिजाणामि ॥ सत्वं अस्संजमं अलीयं च ॥
सबनो अममनं ।। चयामि सत्वं च खामेमि ॥१५॥ मिथ्यात्वने, सर्व असंयमने, सर्व अनस यचनने अने मर्व थकी ममनाने सम्यक प्रकारे छोड्छु अन मबने खमाबुछु ॥ १९ ॥
जे मे जाणंति जिणा ॥ अवराहा जेसु जेसु हाणेसु ।।
तं तह पालोएमि ॥ नवष्टि सब नावणं ॥ २० ॥ जे जे ठेकाणे मारा अपराधो थएला जिनेश्वर भगवान जाणेछे ने सर्व प्रकारे उपस्थित थपलो एवो हुं तेमज आलोउँछु ॥ २०॥
नप्पन्नाणुप्पन्ना ॥ माया अगमग्गन निहंत ॥ पालोमण निंदण गरिदाहिं ।। न पुगुनिया वीयं ॥ १॥
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थल एव एटले तेना पछी बनी भविष्यकाळी माया हावडे याग करुं ॥ २४ ॥ जद बालो जंपतो ॥ का मकां च नद्युग्रं जइ ॥ तं तद लोइया ॥ माया मय विप्यमुक्कोन ॥ २२ ॥
जेम बोलतुं बालक सरलपणे कार्य अने अकार्य धुंए कही दे म माया भने नदवडे रहित एव पुरूप सर्व पाप आलोये ॥ २२ ॥
उत्पन्न थती एटले वर्तमान कारनी, अनुत्पन्न बीजीवार न करूं ए रीते आलोण निंदन ने
सोही कुनूस || धम्मो सुहस्त चिवई ॥
faari परमं जाइ ॥ घय सिनिव पावला || १३ ||
जेमीवडे मीलो अनि दीपे तेम सरल बएला माणसने आलोञण शुद्ध वाय अने शुद्धने धर्मस्थिर रहे अने परम निर्वाण एटले मोक्षने पाये ॥ २३ ॥
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सल्लो || जह जलियं सासणे धुअरयाणं ॥
सब लो || सिर जीवो धुम्र किलेसो ॥ २४ ॥
शल्य सहित माणस सिद्धि पामे नहि, एम पाप मेल जेना खरी गएला छे एवा ( वीतराग ) ना सासनमां कहेलुं छे; सर्व शल्यने उद्धरीने क्लेश रहित एवो जीव सिद्धि पाये ॥ २४ ॥
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सुबहुपि नाव सद्धं ॥ पालेएकण गुरु सगासंमि ॥
निस्सल्ला संथारग ॥ मुविंति धाराहगा हुँति ॥ २५ ॥ घणुए पण भाव शल्य गुरुनी पासे आलोइने निःशल्य थकी संथारो (अणशण ) आदरे नो तेओ आराधक थाय. ॥ २५ ॥
अप्पंपि नाव सल्लं ॥ जे नालोअंति गुरुसगासंमि ॥
धंतंपि असुअ समिता ॥ न हुते आराहगा हुँति ॥ १६॥ थोडं पण भाव शल्य गुरुनी पामे जे न भावानेते अत्यंत ज्ञानवंत छतां पण आराधक न थाय ॥२६॥
न वि तं स च विसं च ।। उप्पत्तोव कुणइ वेआलो ॥
'जं तं'चप्पन ॥सव पमाइन कुते ॥ २७॥ खराब रीने वापरेलुं एवं शस्त्र, विष, दुःषक वैताल अने दुःप्रयुक्त यंत्र अने प्रमादथी छेडेलो एवो साप देवू काम न करे (जेबु भावशल्य करे.)। २७ ॥
जं कुण नाव सल्लं ।। अगड़ियं नत म कालं मि ॥
उलन वोदिअनं । अणंत संसारिअनं च ॥ २० ॥ जेवं भाव शल्य अंतकाले अण उरिउं को तेथी दुर्लभ योधीपणुं अने अनंत मंमारीपणुं थाय छे. ॥
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तो नरंति गारव ॥ रहिया मूलं पुणप्रव लयाणं ॥
मिला देसण सल्लं ॥ माया सझं नियाणं च ।। ३ ।। तेथी गारव रहित माणस पुनर भवरूपी लताओना मूल एवा मिथ्यादर्शन शल्य. मायाशल्य अने नियाणशल्यने उद्धरछे ।। २९ ॥
कप पावोधि मणूसो ॥ आलोश्य निंदिन गुरु सगासे ।
होइ अरेग लहून ॥ नदरिअनरुव नारवहो ॥ ३० ॥ पापनो करनारो एवो पण माणस (पापने ) आलोइने अने गुरुनी पासे निदीने जेम भारनो वहन करनारो माणम भार उतारीने हलवो थाय तेम ते घणोज हलवो थाय ॥३०॥
तस्सय पायचित्तं ॥ जं मग्गविन गुरु वश्स्संति ॥
तं तह अणुसरिअवं श्रणवत्र पसंग नीएण ॥ ३१ ॥ - तेनुं प्रायश्चित जेम मार्गने जाणनारा एवा गुरु उपदेश करे तेम अनवस्थाना प्रसंगनी बोकवाला माणसे अनुसरवू ॥ ३१ ॥
दस दोस विप्प मुक्कं ॥ तम्हा सर्च अगूहमाणेण ॥ जं किंपि कय मक ॥ तं जहवत्तं कद्देई ॥३॥
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दश दोष रहित जे कइ पण अकार्य कयु होय ते सर्व नाह छुपाविने जेम थयुं होय तेमज कहे | जोइए ॥ ३२॥
सवं पाणारंन्नं ॥ पञ्चरकामि अलिय वयणं च॥
सवं अदत्तादाणं ॥ अबंन परिग्गरं चेव ॥ ३३ ॥ सर्व प्राणीओना आरंभ अने अमत्य वचन, मत्र अदत्तादान, मर्व मैथुन अने मत्र परिग्रहने हुं त्याग कछं. ॥ ३ ॥
सवं च असणपाणं ॥ चनविदं जो अबाहिरो नवहि ॥
अप्रिंतरं च नवहिं॥ मछतिविहेण वोसिरे ॥ ३४ ॥ मर्व अशन अने पानादिक चतुर्विध आहार अने जे वाद्य ( वस पात्रादि ) उपधी अने कमायादि अभ्यंतर उपधी न मर्वने त्रिविधे वोभिरावूई. ॥ ३४ ॥
कंतारे प्रिस्क ।। आयंकवा नदया समुप्पन्न ।
जं पालीअं न जग्गं ॥ तं जाणमु पालणा मु ।। ३।। ।। वनमा अथवा दुकाळमां अथवा मोटो गेग उत्पन्न यये छने जे ब्रत पाल्य अने न न भाग्यं ने शुद्ध पाल्यु ममज ॥ ३२ ॥
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रागेण व दोसेण व ॥ परिणामेण व न दूसिधे जंतु ॥
तं खलु पञ्चरकाणं ॥ नाव विसुई मुणेयत्वं ॥३६॥ __ रागे करीने अथवा देषे करीने अथवा परिणामे करीने जे (पञ्चरुखाण ) न दीन कर ने बरेचर भाव विशुद्ध पच्चख्खाण जाणवू ॥ ३६ ॥
पीअं थणय जिरं ॥ सागर सलिलान बहुतरं हुक्का ।।
संसारंमि अणंते ॥ माईणं अन्न मन्नाणं ॥३७॥ आ अनंत संसारने विषे नवनवी माताओनां सननां व जीवे पीधां ते समुद्रना पाणी यकी पण बधारे थाय छे ॥ ३७॥
बहुसोवि मए रुम ॥ पुणो पुणो तासु तासु जासु ॥
नयणोदयंपि जाणसु ॥ बहुअरं सागर जलान ॥३०॥ ते ते जातीओमां वारंवार में घणुं रुदन कर्यु ते नेत्रना आंमुर्नु पाणी समुद्रना पाणी थकी पण वधारे जाणवू ॥३८॥ - नछि किसो पएसो॥ लोए वालग्ग कोमिमिनोवि ॥
संसारे संसरंतो ॥ ज न जान मन वावि ॥३॥
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एवो कोइ पण वाळना अपना मध्य भाग जेटलो प्रदेश नथी के जिहां संसारमा भमतो जीव नथी ज. न्म्यो ने नथी मुभो ॥ ३९ ॥
चुलसी किल लोए । जोमीणं पमुह सयसहस्साई ॥
किकंमिश्र इनो। अणंतखुनो समुप्पन्नो ॥४०॥ लोकने विषे खरेवर चोराशी लाख जीवा योनीयो छे ते माहे एकेक योनीमां जीव अनंतीवार उत्पन्न थयो छे ॥४०॥
नमहे तिरिश्रमि अ॥ मयाई वहुयाई बाल मरणाई॥
तो ताई संन्नरंतो ॥ पंमित्र मरसं मरीहामि ४१॥ उर्ध्व लोकने विषे, अधो लोकने विषे अने निर्वग लोकने विष घणा बाळ मरण पाम्यो तो ते मरणो ने संभारतो पीडत मरणे हु मरीश ॥ ४५ ॥
मायामिति (पया मे ॥ नाया नभिणी अपुन घायाय ।।
एयाई संजरंतो॥ पंमिय मरणं मरीहामि ॥४॥ मागे माना. मारा पिना, भाइ, वेन, मागे पुत्र, मारी पुत्री वधांने मंभारना पंडित मरण हूं मरीश.
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माया पीइ बंधू || संसार बेहिं पूरिनु लोगो ॥
बहु जोणि निवासिएहिं ॥ न य ते ताणं च सरणं च ॥ ४३ ॥
संसारमा रहेला ने घणी योनीमां निवास करता माता, पीना अने बंधुओवडे आखो लोक भरेलोले ते तारुं त्राण तथा शरण नथी ॥ ४३ ॥
इक्को करे कम्मं ॥
इक्को प्रणुदवइ कय विवागं ॥
इक्को संसरइ जिन ॥ जर भरण चलग्गइ गुविलं ॥ ४४ ॥
एकलोज जीव कर्म करे छे, अने एकलोज जीव माठां करेलां पापना फलने भोगवे छे। अने एकलोज जीव जरा मरणवाला चतुर्गति रुप गहन वनमां भ छे ।। ४४ ।।
नबेवणयं जम्मशमरणं ॥ नरएसु वेश्रणानं वा ॥ एआई संजरंतो | पंमिय मरणं मरिहामि ॥ ४५ ॥
उद्वेगना करनारा जन्म अने मरण छे, नरकनी गतिए अनेक वेदनाओ छे ए संभारतो पोहत मरण हूं मरीश ।। ४५ ।।
वायं जम्मण मरणं ॥ तिरिएसु वेप्रणान वा ॥ एभाई संजरंतो ॥ पंक्रिय मरणं मरिदामि ॥ ४६ ॥
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उद्वेगना करनारा जन्म अने मरण छ, तिर्गचनी गतिए अनेक वेदनाओ हे एमभारतो पोडत मरण हुँ Poमरीश ॥ ४६॥ ॥४२॥
नवेवणयं जम्मण मरणं ॥ मणएसु वेपणान वा ॥
एआई संन्नरंतो पंमिय मरणं मरिहामि ॥ ४ ॥ मनुष्यनी गतिमा उद्देगनां करनार जन्म अने मरण अने वेदनाओछे ए मंभारतो पोडन मरण हूं मरीश ॥
नव्वेवणयं जमण मरणं ॥ चवणं च देवलोगान॥
एआई संन्नरंतो पंमिय मरणं मरिहामि ॥ ४ ॥ उद्वेगना करनार जन्म, मरण अने देवलोकथी चव, थाय छे ए संभारतो पंडित मरण हूं मरीश ॥४८॥
इक्कं पंमिय मरणं ॥ बिंद जाइ सयाई बहुआई ।।
तं मरणं मरिअव्वं ॥ जण मन सम्मन हो ॥ भए । एक पौडन मरण बहु मॅकडो गमे जन्म मरणोने छदे ने मरण मग्वं जाइए के जे माणवडे मरेलो शुभ मरणवालो होय ॥४॥
कर आ णु तं सुमरणं ॥ पंमिश्र मरणं जिणेदिं पन्नतं ॥ सुनहरि अ सल्लो पानवगन मरिहामि ॥ ५० ॥
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क्यारे ते शुभ मरण जे जिनेश्वर भगवान कहेलं एवं पंडित मरण तेने शुद्ध एवो अने शल्य रहित एवो दोपगम अणशण लेइ मरण पामीश ॥ ५० ॥
जव संसारे सवे ॥ चनविहा पुग्गला मए बड़ा ॥
परिणाम पसंगे ॥ अ विहे कम्म संघाए ॥ ५१ ॥
सर्व भव संसारने विषे परिणामना प्रसंगवडे चार प्रकारना पुद्गलो में बांध्या अने आठ प्रकारना कमनो समुदाय में बांध्यो ॥ ५५ ॥
संसार चक्कवाले ॥ सधे ते पुग्गला मए बहुसो ॥
दारिश्रा य परिणामिश्रा य ॥ नयहिं गन तित्तिं ॥ ५२ ॥
संसारचक्रने विषे सर्वे ते पुद्गलो में बणी वार आदारपणे लेइ परीणमाच्या तोए पण तृप्ति थड़ नहि. आहार निमित्ते ॥ श्रदयं सबेसु नरय लोएसु ॥
नववोमि व बहुसो ॥ सबासु अ मित्र जाईसु ॥ ५३ ॥
आहारना निमित्ते हूं. सर्व नरकलोकने विषे घणीवार उपन्यो धुं तेमज सर्व म्लेच्छ जातियोमां उपन्योछु. श्राहारनिमित्ते ॥ मला गति दारुणे नरए ॥
सच्चितो आहारो ॥ न खमो माला वि पञ्चेनं ॥ ५४ ॥
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आहारना निमिचे मत्स्य भयंकर नरकने विषे जायछे तेथी सचित आहार मनवडय मार्थवाने युक्त नथी.
तण कोण व अग्गी ॥ लवण जलो वा नई सहस्तेहिं॥
न श्मो जीवो सक्को ॥ तिप्पे काम नोगेहिं ॥ ५५ ॥ तृण अने काष्टवडे जेम अग्नि, अथवा हजारो नदीओवडे जेम लवणसमुद्र कृप्त थतो नथी, तेम आ जीव काम भोगोवहे तृप्त यइ शकतो नथी ॥५५॥
तण कोण व अग्गी ॥ लवण जलो वा नइ सहस्सेहिं ।।।
न इमो जीवा सक्को ॥ तिप्पेनं अनसारेणं ।। ५ ।। तृण अने काष्ठवडे जेम आग्ने, अथवा हजारो नदीओवडे जेम लवणसमुद्र तृप्त थतो नथी, तेम आ जीव पैसावडे तृप्त यतो नथी ॥ १६ ॥
तण कोण व अग्गी ॥ लवण जलो वा नई सहस्सेहिं ॥
नमो जीवो सक्को ॥ तिप्पेनं गंध मोहिं ॥॥ तृण अने काष्टवडे जेम अग्नि, अथ्वा हजारो नदीओवडे जेम लवण समुद्र तृप्त थतो नथी, नेम आ जीव गंधमाल्यना भोगवडे तृप्त तो नथी ।। ५७ ॥
तण कोण व अग्गी ॥ लवण जलो वा नई सहस्सेहिं ।।
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न इमो जीवो सक्को ॥ तिप्पन नोअण विहीए ॥ ५ ॥ तृण अने काष्टवडे जेम अग्नि, अथवा हजारो नदीओबडे जेम लत्रणसमुद्र तृप्त यतो नथी, तेम आजीव भोजनविधिवडे तृप्त थलो नथी ॥५८ ॥
वलयामुह सामायो । दुप्पारोवण र अपरिमियो ।
न इमो जीवो सको ॥ तिप्पेनं गंध मल्लेहिं ॥ ए वडवानल जेबो अने दुःखे पार पामीए एवो अपरिमित गंधमाल्यवडे आ जीव तृप्त थइ शकतो नयीं.
अविभो अ जीवो ॥ अश्य कालंमि आगमिस्साए ॥
सहाण य रुवाण य॥ गंधाण रमाण फासाणं ॥६० ॥ अविदग्ध मूर्ख एवो आ जीव अतित कालने विषे अने अनागत कालने विषे शब्द, रूप, रस, गंध अने स्पर्श ए पांच विषये करी तृप्त न थयो ने थशे नहीं ॥६॥
कप्पतरू संनवेसू ॥ देवुत्तरकुरवसं पमूएसु ॥
नववाएग य तितो ॥ न य नर विज्ञाहर सुरेसु ॥ ६१ ।। देवकुरु, उत्तरकुरुमां उत्पन्न थएला एवा कल्पवृक्षोथी मळेला सुखथी तेपज मनुष्य विद्याधर अने देवोने विषे उत्पन्न थएला एवा मुखवडे आ जीव तृप्त थयो नहि ॥६१॥
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खइएस व पीएस व ॥ न य एसो ताइन दवइ अप्पा ॥ जडुग्गरं न च || तो नूणं ताइन दोइ ॥ ६२ ॥
खावावडे तेमज पीवावडे आ आत्मा बचावातो नथी; जो दुर्गति न जाय तो निश्चे बचावापलो कहेवाय. देविंद चक्कवट्टित्तणाई ॥ रजाई उत्तमा जोगा ॥
पत्ता तो ॥ नयदं तित्तिं गनु तेहिं ॥ ६३ ॥
देवेंद्र चक्रवर्तिपणाना राज्यो तथा उचम भोगो अनंतीवार पाम्या पण तेओ वडे हुं तृप्ति पाम्यो नहि. खीर दगबु रसेसुं ॥ साऊसु मदोददीसु बहुसोवि ॥
नववो न य तदा || बिन्ना मे सीयल जलेण ॥ ६४ ॥
दुध, दहिं, शेरडीना रसवाळा स्वादिष्ट मोठा समुद्रोनै विषे घणीवार हूं उत्पन्न थयो तोपण शतिळ जळवडे मारी तृष्णा न छीपी ॥ ६४ ॥
तिविहे य सुह मलं ॥ तम्हा काम र5 विसय सुरकाणं ॥ बहुसो सुदम थं ॥ नय सुद तग्दा परिबिएहा ॥ ६५ ॥
मन, वचन ने काय ए ऋण प्रकारे काम भोगना विषय सुखोना अतुल मुखने बहुबहुवार अनुभब्युं तो पण सुखनी तृष्णा भागी नहि ।। ६५ ।।
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जा का पत्रणा ॥ कया मए राग दोस यसरण ॥
पमिबंधेण बहविदं॥ तं निंदे तं च गरिहामि ॥६६॥ __ मे कोई प्रार्थना में राग द्वेषने घश थइ प्रतिबंधे करी घणी प्रकारे करी होय ते हुँ निंदुएं अने गुरुनी साखे गरहुंषु ॥ ६६॥
इंतूण मोहजालं ॥ वित्तण य अध्कम संकलिअं॥
जंमस मरण रहह ॥ नितूण जवान मुञ्चिदिसि ॥६७ ॥ मोहजालने हणीने, अने आठ कर्मनी सांकलने छेदीने जन्म मरणरुपी अर्हटने भागी नास्त्रीने संसारथकी तुं मूकाइश ॥६७॥
पंच महत्वयाई॥तिविहं तिविहेण चारु हेनणं ॥
मश वयण काय गुत्तो ॥ सद्यो मरणं परिनिया ॥६॥ पांच महाव्रतने त्रिविधे त्रिविधे आरोपीने मन वचन अने काय गुप्तिथी मुप्त एत्रो सावधान थइ मरणने आदरे ॥१८॥
कोई माणं माया ॥ लोहं पिऊं तदेव दोसं च ॥ चश्मण अप्पमत्तो ॥रकामि महबए पंच ॥ ६॥
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क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम तेमज द्वेषने अप्रमत्त थको त्याग करीने पंच प्रहाव्रतने रक्षण करूं ॥
कलह अपस्काणं ॥ पेसुमं पित्र परस्स परिवायं ॥
परिवझंतो गुनो ॥ रस्कामि महत्वए पंच ॥ ७० ॥ कलह, अभ्याख्यान, चाडी, पली परनी निंदा एटलां वानां साग करतो अने प्रण गुधिए गुप्त एवो | पंच महाव्रतने रक्षण करूं ॥ ७० ॥
पंचिंदिय संवरणं ॥ पंचव निरून्निनण काम गुणे ॥
अच्चासायण जी ॥रकाभि महवए पंच ॥ १॥ पांच इंद्रियोने संवरीने अने पांचे कामना (शब्दादि) गुणने रंधीने देव गुरुनी अती आशातनाथी बीतो। पंच महाव्रतने रक्षण करूं !! ७१ ॥
किएदा नीला कान ॥ लेसा जाणाई अट्टरुदाई ॥
परिवङतो गुनो ॥ रस्कामि महत्वए पंच ॥ २ ॥ __ कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, अने आध्यान अने रौद्र ध्यानने वर्मतो थको पंच महाव्रतने रक्षण करुं ॥ ७२ ॥
तेन पम्हा सुक्का । लेसा काणाई धम्म सुक्काई ॥
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गुप्त एयो. ४५॥
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. नवसंपन्नो जुत्तो ॥ रस्कामि महत्वए पंच ॥ ३ ॥ तेनो लेश्या, पद्म लेश्या अने शुक्ल लेश्या ने धर्म ध्यान ने शुक्ल ध्यान ए वे ध्यानने आदरतो अने ते सहित पंच महाव्रतने रक्षण करूं ॥ ७३ ॥
माणसा माणसच्चविन ॥ वाया सञ्चेण करण सच्चेप्स ॥
तिविहेण वि सच्च विन ॥ रकामि महत्वए पंच ॥ ४ ॥ मनबहे मनने ससपणे, वचन सयपणे ने कर्तव्य सत्यपणे ए त्रण प्रकारे सत्यपणे प्रवर्ततो तथा जाणतो पंचमहाव्रतने रक्षण करूं ॥ ७४ ॥
सतनय विप्पमुक्को ॥ चत्तारि निलंनिनण य कसाए ।
अमय हाण जठ्ठो रस्कामि महवए पंच ॥ ५ ॥ सात भयथी रहित एवो, चार कषायने रोकीने, आठ मदना स्थानक राहत थको पंचमहाव्रतने | रक्षण करुं ॥ ७५॥
गुत्ती समिई लावणाननाणं च दंसणं चेव ॥ नवसंपन्नो जुत्तो ।। रस्कामि महबए पंच ।। ७६ ॥
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ण गुप्ति, पांच समिती भने पछी-मावनाओने ज्ञान अने दर्शन एटलांने आदरतो भने ते सहित पंच महाबतने रक्षणanaku
अपवंतिक विरत ॥ तिकरण सुशे तिसक्ष निस्सलो॥
तिविदेण अप्पमत्तो ॥ रस्कामि मदवए पंच॥ ७॥ एप्रकारे प्रपदंडयकी विरक्त एवो, त्रिकरण शुद्ध एवो भने त्रण शल्यथा रहिव एयो भने त्रिविषे अपमत्त एवो पंच महाव्रतने रक्षण करूं ॥ ७७
संगं परिजाणामि ॥ सल्लं तिविहेस अकरा ॥
गुत्ती समिईन ॥ महंताणं च सरणं च ॥ ७ ॥ सर्व संगने सम्यक प्रकारे जाणुंछु अने माया शल्प, नियाण शल्य अने मिथ्यात्व भल्यरूप त्रण - स्यने त्रिविधे टाळीने त्रण गुप्ति अने पांच समिती ए मने रक्षण अने शरण हो ॥ ७० ॥
जहरकदिअ चक्कवाले ॥ पोयं रयण जरियं समुमि ॥
निकामगा धरिती ॥ कय करणा बुद्धि संपन्ना ॥ ७ ॥ जेम समुद्रनुं चक्रवाल क्षोभे सारे समुद्रने विषे रत्लथी भरेलु एवं पण माझ वहाणवटीओकृत करण बुद्धि युक्त एवो थइने वहाणने रक्षण करेछे ॥ ७९ ॥
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४६॥
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नितिनिPिAARAAR
तव पोभं गुण जरी ॥ परीसहम्मीहिं खुदिम मारई॥
तद पाराहिति विक ।। नवएसवलंवगा धीरा ॥10॥ तेम गुणरुपी रत्नवडे भरेलु तपरुपी वहाण परिसई रुपी कल्लोलावडे क्षोभायमान थवा शरु यएलु उपदेश रूप आलंबनवाला धीर पुरुषो आराधे ॥ ८॥
जर ताव ते सुपुरिसा ॥ पाया रोविध नरा निरवयस्का ।।
पप्रार कंदर गया । साहंती अप्पणो अ॥१॥ ____ो भा प्रमाणे ते सत्पुरुषो आत्माने विषे व्रतनो भार मूक्यो छे जेणे एवा अने शरीरने विषे निरपेक्ष एवा पर्वतनी गुफामा रहेला एका पोताना अर्थने साधछे ॥१॥
जइ ताव ते सुपुरिसा ॥ गिरिकंदर कमग विसम पुग्गेसु ॥
घि धणि ब कहा ॥ साहंती अप्पणो अ॥२॥ ते सुपुरुषो पर्वतनी गुफा, पर्वतनी कराड, अने विषम स्थानके रहेला एवा धीरजबडे असंत तैयार र-1 हे तो ते पोतानो अर्थ साधे ॥ २॥
किं पुस प्रणगार सहायगेण ॥ अणुम वूसंगह बलेणं ॥ परलोएणं सका ॥ सादेवं अप्पणो अहं ॥३॥
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म०प०
॥ ४७ ॥
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तो कम साधुभोने सय भापनार एवा अन्योअम्य संग्रहना बलवडे पटले वैयावच करवावडे परलो - कना अर्थ पोतानो अर्थ साधी शके ? (न साधी शकेः ॥ ८३ ॥
जिरा वयमप्प मे सक्का हु साहु मधे ॥
॥ महुरं कसाहुइ सुगं तेण ॥ सादेन अप्पणो श्रहं ॥ ८४ ॥
अल्प एवं पण मधुर एवं अज्ञे कानने गंमतुं, आ वितरागनुं वचन, सांभळता जीवे साधुओनी मध्ये पोarat अर्थ साधवाने खरेखर समर्थ थइ शकाय ॥ ८४ ॥
वीर पुरिस पन्ननं ॥ सप्पुरिस निसेवियं परमघोरं ॥
धन्ना सिलायल गया ॥ सादिंती अप्पलो अहं ॥ ८५ ॥
सत्पुरुषोए प्ररूपेलो भने उत्तम पुरुषोर सेवेलो अने परम मुश्केल एवो अर्थ जे पुरुषो शिलातलने विषे रहेला थका पोताना अर्थने साधेछे तेओने धन्य छे ।। ८५ ।।
वादिति इंदिया || yव मकारि पइस चारीणं ॥
कय परिकंम कीवा ॥ मरणे सुह संग वार्यमि ॥ ८६ ॥
पूर्वे जेणे पोताना आत्माने बाधाम न राख्यो होय तेने इंद्रियो पीडा आपेछे अने परिसह सहन नाह करवाथी मरणने वखते सूख छांडतां वीएछे ॥ ८६ ॥
४२७२००८-२००९
पयनो.
।।। ४७५
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पुत्व मकारिअ जोगो ॥ समाहि कामो अमरण कालंमि ॥
ननवइ परीसह सहो ॥ विसय सुह समुश्न अप्पा ॥७॥ पर संजमजोग पाळयो न होय, अने मरूणकाळने विषे समाधि इच्छतो होय ते विषयमुखमां लीन आत्मा परिसह सहन करवाने समर्थ न थाग ॥८७॥
पुचिं कारिअ जोगो ॥ समादि कामो अमरण कालंमि॥
संन्नवा परीसह सहो ॥ विसय सुह निवारिन अप्पा ॥॥ पर संजममोग पाळयो होय अने मरणना काले समाधिने इच्छतो होय एवो पुरुष विषयमुखयकी आसामी शके अने परिसहने सहन करवाने समर्थ थइ शके ॥ ८८ ॥
'पुष्विं कारिश्र जोगो । अनिबाणो ईहिकण मइ पुवं ॥
ताहे मलिश्र कसान॥ सऊो मरणं पमिडिता ॥ नए॥
जीग आराध्यो अने नियाणा रहित बुदिपूर्वक विचारीने अने ते वखते कषायने टाळीने सजगाने अंगीकार करे ॥ ८९ ॥
पावाणंपावाणं ॥ कम्माणं अप्पणो सकंमारणं ॥ सका पसाइ जे॥तबेण सम्म पत्तेणं ॥९॥
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म०प०
४८ ॥
जे जीवोए सम्यक प्रकारे तप कयों हाये से जीव पोताना आकरां पाप कर्म वाळवाने समर्थ थइ शके ॥ ९० ॥
इक पंयि मरणं ॥ परिवभि सुपुरिसो असंतो ॥ खिप्पं तो मरणाएं | काही अंतं प्रांताणं ॥ ५१ ॥
एक पीडत मरणने आदरीने पुरुष असंभ्रांत थको जलदीयी ते अनंत मरणोनो अंत करशे ॥९१॥ किं तं पंमिय मरणं ॥ काशिव आलंबणाणि नशिआणि ॥ एयाई नाऊ ॥ किं प्रायरिया पसंसंति ॥ २ ॥
ते के पंडित मरण अने तेनां केवां आलंबन का छे ए वघां जाणीने आचार्यो धुं प्रशंसे ॥ ९२ ॥ सण पानवगमं ॥ श्रालंबणं जाण भावणान् ॥ एथाई नाऊ | पंमिय मरणं पसंसंति ॥ ए३ ॥
पादोपगम अणशण, ध्यान अने भावनाओ ते आलंबन छे, एटलां वानां जाणीने ( आचार्यो) पंडित मरणने प्रशंसे छे ॥ ९३ ॥
इंदिय सुहसानन ॥ घोर परीसद पराइ अपरको ॥
कय परिकम्म की वो || मुजइ धारादला काले ॥ ए४ ॥
निजी विदेि
पन्नी.
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इंद्रियनी सुखशातामां आकुल एवो अने विषम परिसह ते सहेवाने परवश धड़ गएला अने संजम जे नथी पाळ्युं एवो क्लिव (कायर) माणस आराधनाना वखते मुझाय छे ॥ ९४ ॥
लका य गारवेल य | बहुस्सु मएस वा विदुच्चरि ॥ जे न कहंति गुरूणं ॥ न हु ते श्राराह गहुंति ॥ एए ॥
" लज्जावडे अने गारववडे करीने अने बहु श्रुतना मदवडे करीने जे पोतानुं पाप गुरुओने न कहे ते आ राधक नथी थता ॥ ९५ ॥
सुकर डुक्करकारी ॥ जालइ मग्गंति पावए कित्तिं ॥
तो निंद || तम्हा आराहणा से || ६ ||
दुष्कर क्रिया करनार मुझे, मार्गने जाणे, कीर्त्तिने पान अने पोतानां पाप नहि ओलवतां निंदे माटे आराधना श्रेय कद्देतां भली कही छे । ९६ ॥
न विकारणं तमन || संथारो न विश्र फासुश्रा भूमी ॥
अप्पा खलु संथारो ॥ दोइ विसुद्दो मगुजस्स ॥ ए ॥
तरणांनी संथारो अथवा प्राशुक भूमि ते ( विशुद्धिनुं ) कारण नयी, पण खरेखर जेनो आत्मा विशुद्ध होय तेज खरो संथारो कहवाय ॥ ९७ ॥
९
हे प्रति तिरे के টि7-09 के गित
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म०प०
॥ ४९ ॥
जिल वयण
गया
मे ॥ दोन मइ जाए जोग मल्लीला ॥
जद तं देस काले ॥ श्रमूढ सत्तो चयइ देहं ॥ ८ ॥
जिन वचनने अनुसरती शुभ ध्यान अने शुभ योगमां लीन एवी मारी मती थाओ; जेम ते देश कालने वि पंडित को आत्मा देह याग करे ! ९८ ॥
जाहे दो पत्तो ॥ जिरावर वयला रहिन अलाइतो || तो इंदिय चोरा || करंति तत्र संजम विलोमं ॥ एए ॥
जिनवर वचनथी रहित एवो अने क्रियाने विषे आळसु एवो कोइ मुनि ज्यारे प्रमादी थाय सारे (तेना) इंद्रियोरुपी चोरो तप अने संयमनो नाश करे छे ॥ ९९ ॥
जिe are मग म || जं वेलं होइ संवर पवि ॥ अग्गी वासहीन ॥ समूल मालं महइ कंमं ॥ १०० ॥
जिन वचनने विषे अनुसरती मति छे जेनी एवो पुरुष, जे वेला संवरमां पेटेलो होय ते वेला वायरा सहित अग्निनी पेठे मुल अने डाला सहित कर्मने बाळी मूके ॥ १०० ॥
जद मंद वान सदिन || अग्गी रुरके वि हरि तह पुरिसकार सहिन | नाणं कम्मं खयं ने३
॥
वा संके ॥
१०१ ॥
पयन्नो.
।।। ४२ ।।
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जेम वायु सहित अग्नि लीला वनखंडनां वृक्षोने पण बाळे, तेम पुरुषाकार (उधम) सहित माणस ज्ञाने | करीने कर्मनो क्षय करे ॥ १० ॥
जं अन्नाणी कंमं ॥ खवेश बाई वास कोमोहिं ॥
तं नाणी तिहिं गुत्तो ॥ खवेश नसास मिनेणं ॥ १० ॥ ___अज्ञानी घणा क्रोडो वर्ष करीने जे कर्म खपावे ते कर्म ज्ञानी पुरुष त्रण गुप्तिए गुप्त छतो एक श्वासोश्वास मात्रमा खपावी नखे ॥ १०२॥
न है मरणं मि नवग्गे ॥ सक्का बारस विदो सब खंधो॥
सबो अणचिंतेनं ॥ धंतं पिसम चिनेण ॥ १०३ ॥ खरेखर मरण पासे आव्ये छते बार प्रकारनुं श्रुतस्कंध (द्वादशांगी ) सर्व मजबुत पण समर्थ चित्तवाला माणसथी चितवी शकाय नहि ॥ १०३ ॥
कमि विजमि पए ॥ संवेगं कुण वीयरायमए ।
तं तस्स होइ नाणं ॥ जेण विरागत्तण मुवे ॥ १०४ ।। एक वीजबाला पदने विषे वीतरागना शामनने विषे जे संवेग करेछे तेज तेनुं ज्ञान छे जेवडे वैराग्यपणुं पमाय छे. ॥१०४॥
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म०प०
पयन्नो.
॥५०॥
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इक्कंमि बिमि पए ॥ संवेगं कुणइ वीयरायमए ॥
सो तेण मोदजालं ॥ बिंद अऊप्प गेण ॥ १५ ॥ एक बीजबाला पदने विपे वीतरागना शासनने विषे जे संवेग कराय छे ते वडे ते माणस मोहजालने, । आभप्राय विशेषवडे छेदे छे ॥ १०५॥
कंमि बिजंमि पए संवेगं कुणा वीयरायमए ।
क्व नरो अन्निकं ॥ तं मरणं तेण मरिश्रयं ॥ १६ ॥ - एक वीजवाला पदने विषे वीतरागना शासनने विषे जे संवेग करेठे ते पुरुष निरंतर वैराग्य पामे; ते. कारण माटे एवा समाधि मरणे तेणे मरतुं ॥ १०६ ॥
जेण विरागो जाय ॥ तं तं सहायरण कायछ ।
मुच्च इह संवेगी। अणंतन दो असंवेगी ॥१७॥ जेवढे करीने वैराग्य थाय ते ते कार्य सर्व आदरवडे करयुं जोइए, अहिंआं संवेगी जीव संसार थकी मुक्त थाय अने असंवेगी जीवने अनंतो संसार थाय ॥ १० ॥
धम्म जिण पन्नतं सम्म मिणं सददामि तिविदेणं ॥ तस थावर नून दिवे ॥ पंथं निवाण नगरस्त ॥ १० ॥
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५०॥
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जीनेश्वर भगवाने प्रकाशेलो आ धर्म हुँ सम्यक् प्रकारे त्रिविधे सदृहुंछु; ते त्रस अने स्थावर प्राणीने हितकारक छे अने मोक्ष नगरनो रस्तो छ ॥ १०८ ॥
समणो मिति अ पढमं ॥ बीयं सब संजन मिति ॥
सवं च वोसिरामि अ॥ जिणेहिं जं जं च पझिकु ॥ १० ॥ हुँ श्रमण छु ए पहेलं, सर्व अर्थनो संयमी छु ए वीज अने जिनेश्वर भगवाने जे जे निषेधेलं छे ते ते सर्व हुं वोसिराकुंछु ॥ १०९ ॥
नवदी सरीरगं चेव ॥ आहारं च चनविदं॥
मणसा वय कारणं ।। वोसिरामि तिनाव ॥११॥ उपधि, शरीर, चतुर्विध आहार ते मन वचन अने कायावडे भावथी बोसिरा ॥११०॥
मणसा अचिंतणिङीं ॥ सवं नासाइ अन्नासणिऊं च ॥
कारण अकरणिङ॥ सवं तिविदेण वोसिरे ॥ १११॥ मनवडे करीने जे चितववा योग्य नथी अने भापाए करीने जे सर्व कहेवा योग्य नथी अने कायावडे करवा योग्य नयी ते सर्व हुँ त्रिविधे चोसिराकुंछु ॥११॥
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म०प०||
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ਰੋ-ਰੋ ਅਤੇ ਅਤੇ
अस्संजमे वेरमणं ॥ नवदि विवेग करणं नवसमो ॥ अपरू जोग विरन ॥ खंती मुत्ती विवेगो ॥ ११२ ॥
असंयमने विषे विरतिपर्णु, उपधिनुं विवेककरण (त्याग करवुं ), उपशम अने अयोग्य व्यापारथी विरक्त थ, क्षमा, निलभता अने विवेक ॥ १५२ ॥
एयं पञ्चस्काणं ॥ श्रानर जण श्रावसु जावेल ॥ अमरं परिवन्नो | जंपतो पावइ समाहिं ॥ ११३ ॥
आ पच्चखाण रोगथी पीडाएलो माणस आपदाने विषे भाववडे अंगीकार करतो अने बोलतो समाधि पाये ।। ११३ ॥
जइ
एसि निमित्तंमी ॥ पञ्चरका ना करे कालं ॥ तो पच्चरका | इमेल इक्केण विपणं ॥ ११४ ॥
ए निमित्तने विषे जो कोइ माणस पच्चखाण करीने काल करे तो आ एक पण पदवडे पच्चखखाण करावनुं ।। ११४ ॥
मम मंगल मरिहंता | सिद्धा साहू सुखं च धम्मो ॥ तेसिं सरणोवगढ़ ॥ साव वोसिरामिति ॥ ११५ ॥
"मुझे डिडिविरिविकिरी টि একট৬৯ডिড जिसे
पयन्नो.
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19-251925 1925151565
मने अरिहंत, सिद्ध, साधु, श्रुत अने धर्म ए मंगल छे, तेमनुं शरण पामेलो एवो हूं सावय ( पापकर्म ) वोसिराकुंडुं ॥ ११५ ॥
अरहंता मंगलं मझ ॥ अरहंता मऊ देवया ॥
अरहंते कित्तत्ता | वोसिरामित्ति पावगं ॥ ११६ ॥
अरिहंत ते मने मंगल छे अने अरिहंत तेज मारा देव छे अरिहंतोनी स्तुति करीने हुं पाप बोसिराखुंडं. सिद्ध मंगलं म ॥ सिद्धाय मझ देवया ||
सिद्धे अ कित्नइत्ताणं । वोसिरामित्ति पावगं ॥ ११७ ॥
सिद्ध मने मंगल छे अने सिद्ध एज मारा देव छे; सिद्धनी स्तुति करीने हुं पाप बोसिराकुंएं ॥ ११७ ॥ प्रायरिया मंगलं मड् ॥ प्रायरिया मा देवया ॥
प्ररिए किन ताणं । वोसिरामित्ति पावगं ॥ ११८ ॥
आचार्य मारुं मंगल छे, आचार्य एज मारा देव छे, आचार्यनी स्तुति करीने हुं पाप वोसिरानवकाया मंगलं मंज्ञ ॥ नवजाय म देवया ॥.
नवाए कि नश्ता || वो सिरामित्ति पावगं ॥ ११७ ॥
RANANAS PARRANDARA
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जापयत्रो
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उपाध्याय मारुं मंगल छे अने उपाध्याय मारा देव छ; उपाध्यागनी स्तुति करीने हुं पाप वोसिराकुंडं. म०प०
साहब मंगलं मझ साहू'मा देवया॥ ॥५२॥
साहय कित्तिश्ताणं ॥ वोसिरामिति पावगं ॥१०॥ साधु मारे मंगसीक छे, साधु मारा देव छ, साधु महाराजनी स्तुति करीने हुँ पापने योसिराकुंछु.
सिझे नवसंपत्तो॥बरदंते केवलि तिनशि ॥
इत्तो एगयरेण वि॥पएण भाराहन दो॥११॥ सिद्धोनो आशरो लइने अने अरिहंत अने केवलीनो भाववडे आशरो लइने अथवा ए मांहेला गमे ते IS एक पदवडे आराधक होय ॥ १२५५
समुश्न वेपणो पुण ॥ समणो हियएण किंपि चिंतिज्जा ॥
आलंबणाई कांइं॥ काकरा मुणी दुई सहई ॥१२॥ जेने वेदना उत्पन्न थइ छे एवो वळी साधु हृदयवडे कांइक चिंतबे, कांइक आलंबन करीने ते मुनि | दुःखने सहन करे ॥ १२२॥
वेपणासु नश्नासु ॥ किमेस तं निवेअए॥ किंवा आलंवणं किच्चा ॥ तं एक महिनासए ॥१३॥
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वेदनाओ उत्पन्न धये छते आ तो शी वेदना ! एम जाणी खमे अथवा कांइक आलंबन करीने ते दुःखनी विचारणा करे ।। १२३ ॥
अत्तरेसु नरसु || वेअशा अणुत्तरा ॥
माय वट्टमास || मए पत्ता प्रांतसो ॥ १२४ ॥
उत्कृष्ट नरकोने विषे उत्कृष्टी वेदनाओ प्रमादे वर्तता एत्रा में अनंतीवार पामी ॥ १२४ ॥ मए फेयं इमं कम्मं || समास प्रबोदियं ॥
पोरगं इमं कम्मं ॥ मए पत्तं श्रांतसो ॥ १२५ ॥
अबोधपणुं पामीने में आ कर्म कर्यु; आ जूनुं कर्म हुं अनंतीवर पाम्यो ॥ १२५ ॥ ताहिं दुःरक विवागाहिं ॥ नवविया हि तदिं तहिं ॥
न य जीवो जीवो न ॥ कथ पुड्डो अर्चितम् ॥ १२६ ॥
ते ते दुःखना विपाकोवडे त्यां यों वेदना वांगे छते जीव पूर्वे अजीब कराची नहि ॥ १२६ ॥
बिहार | इवं जिल देसि मारि ॥ विप्रकु
विन पसलं ॥ मरणं ॥ १३ ॥
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॥ ५३ ॥
अप्रतिबद्ध विहार, ए तनुं जिनभाषित भने विद्वान माणसोए प्रशंसेलु अने महा पुरुषोए सेवेलं जाणीने अप्रतिवद्ध मरण गंगीकार करे ॥ १२७ ॥
जद पचिमंमि काले || पश्चिम तिठयर दिसि मुधारं ॥
पहा निलय परं ॥ नवेमि अनुधं मरणं ॥
१२८ ॥
जेम छेल्ले काळे छेला तिर्थंकर भगवाने उदार उपदेश आप्यो एम निश्चय मार्गवालुं अप्रतिबद्ध मरण अंगीकार करूं ॥ १२८ ॥
बत्तीस मंमियादिं ॥ करू जोगी जोग संगद बलेणं ॥ (तवणेड़ पालेां ॥ १२५ ॥
मिळाय बारस || विहे
नायस
बत्रीस भेदे योग संग्रहवडे संजम व्यापार स्थिर करी, बार भेदे तपरुप स्नेहपानें करी ॥ १२९ ॥ संसार रंगम || धि बल ववसाय बद्ध कन्हान
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हंतूरा मोह मत्रं ॥ हराहि आराहण पमागं ॥ १३० ॥
संसाररूपी रंग भूमिकामां धीरजरुपी बल अने उद्यमरुपी सन्नाह ( बखतर) पहेरी सज्ज थलो एवो मोहरूपी मने हणीने आराधनारुपी जय पताका लेइ ले ।। १३० ।।
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५३ ॥
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पोराणगं च कम्मं ॥खवेइ अन्नं नवं तु न चिणा॥
कम कलंकलिवल्लिं ॥ छिंद संथार मारूढो ॥ १३१ ।। वली जनां कर्म खपावीने नवां कर्म न वांधे; कर्म व्याकुलता रुपी वेलडीने संथारामा रहेलो साधु छेदे |
आराहणो वनुत्तो ॥ सम्म काकण सुविदिन कालं ॥
नकोसं तिनि नवे ॥ गंतु लन्निऊ निवाणं ॥ १३ ॥ आराधनाने विपे सावधान एवो मुविहित साधु सम्यमकारे काल करीने उत्कृष्टा त्रण भव अतिक्रमीने निर्वाण एटले मोक्ष प्रत्ये पामे ॥ १३२ ॥
धीर पुरिस पन्नत्तं ॥ सप्पुरिस निसेविकं परम घोरं ॥
नमो हुसिरंगं । दरसु पमागं अविग्घेणं ॥ १३३ ॥ उत्तम पुरुषोए कहेलं अने सत्पुरुषोए सेवेलुं एवं घणुंज आकरूं अणमण करीने निर्विघ्नपणे जयपताका मेळवे ॥ १३३॥
धीर-पमागा हरणं ॥ करह-जह तंमि देस कामि ॥ सुनच माणुगुरांतो ॥ घिद निश्चल बच कडा ॥ १४ ॥
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म०प० ॥ ५४ ॥
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जेमते देशकालने विषेस जयपताकानुं हरण करे ते सुत्रार्थने अनुसरतो अने संतोष रूपी निश्चल सन्नाह पहेरीने सज्ज यलो ॥ १३४ ॥
चार कसाति । तन्न गारवें पंचविं ग्गा ॥
देता परीसद चमू || हराहि श्रारादस पफागं ॥ १३५ ॥
चार कषाय, त्रण गाव, पांच इंद्रिय ग्राम (समूह) रुपी बैरी अने परिसह रूपी फोन तेने हणीने आराधनारुप जयपताकाने तुं अंगीकार कर ।। १३५ ॥
माया हुव चिंतिका जीवामि चिरं मरामि व लहुँति ॥
जर इबसि तरिनं जे ॥ संसार मदोश्रदि मपारं ॥ १३६ ॥
जो अपार संसार रुपी महोदधि तरवाने तुं इच्छा राखतो होय तो हुं घणुं जीवुं अथवा शीघ्र मरण पा एवं निश्चे विचारखुं नहि ॥ १३६ ॥
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aftनं । सबेसिं चेव पाव कम्माणं ॥
जिer arm नाएा दंसण || चरित जावुन जग्गं ।। १३७ ।।
जो सर्व पापकर्मने खरेखर निस्तरवाने इच्छेछे, तो जिन वचन, ज्ञान, दर्शन चारित्र अने भावने विषे उद्यमवंत था ॥ १३७ ॥
पपन्नों.
॥॥ ५४ ॥
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835516665MNS
दंसण नारा चरितं ॥ तवे अ धारादला चन खंधा ॥
सा चेव होइ तिविहा ॥ नकोसा ममि जहन्ना ॥ १३८ ॥
दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप ए आराधना चार भेदे थाय, ते आराधना बळी त्रण भेदे थाय. २ उत्कृष्ट, २ मध्यम, ३ जघन्य ॥ १३८ ॥
देऊरा विछ | नक्कोसाराहणा चठ खंधा ॥
कम्मरय विप्यमुक्का || तेणेव नवेण सिद्धिका ॥ १३० ॥
पंडित पुरुष ते उत्कृष्ट आराधना चार भेदे आराधीने कर्म रज रहित थइने तेज भवे सिद्धि पामे ॥ १३९ ॥ श्रादे वि ॥ जदन्न माराहणं चन खंधा ॥ सत्त जव गढ़
|| परिणामेऊण सिज्जिद्या ॥ १४० ॥
पंडित पुरुष चार भेदे जघन्य भारापना आराधीन सात अथवा आठ भव संसारमां करीने पछी मुक्ति पाये ।। १४० ॥
१०
सम्म मे सब एसु ॥ वेरं मझ न केाइ ॥
खामे म सब जीवे ॥ खमामि श्रहं सब जीवाणं ॥ १४१ ॥
MARAANAANANA ARRARINNA
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म०प०
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॥५५॥
सर्व जीवने विषे मने समता छ, मारे कोइनी साथे वरे नथी, हे सर्व जीयोने खमाई, भने सर्व जीवने 11
पयनो, खमुंडूं ॥ १४१॥
एभं पञ्चरकाणं । अणुपालेकण सुविहिन सम्मं ।
वेमाणिव देवो ॥ हविज अदवावि सिङ्गिङ्गा ॥१५॥ ए पञ्चखाण सुविहित साधु सम्यक् प्रकारे पाळीने, वैमानिक देव थाय अथवा सिद्धि पाप ॥१४२॥
॥ इति महापच्चरका सम्मत्तं ।।
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आउर पच्चख्खाणं पयन्नो.
सिक्क देस विरसम्मदिधी मरिका जो जीवो ॥ तं दो बाल पंयि ॥ मरणं जिस सासणे नलियं ॥ १ ॥
छकायनी हिंसामांची देश जे त्रस हिंसा तेनो एक देश जे मारवानी बुद्धिए निरअपराधी जीवनी निरपेक्षपणे हिंसा तेथी तथा जू बोलवादिकथी निर्वृत्ति पाम्यो छतो जे समकित दृष्टि जीव मरे ते जिनशासनने विषे पांच मरणमांतु बाळ पंडित मरण कहेलं छे ॥ १ ॥
पंचय अणुच्वयाई ॥ सत्तन सिस्कान देस जइ धम्मो ॥ सर्व्वण व देसेण व ॥ तेा जुन दोइ देस जइ ॥ २ ॥
जिनशासनमां सर्व विरती अने देशविरती ए वे प्रकारों यतिधर्म छे, तेमां देशविरती ने पांच अनुव्रतो अने सात शिक्षावतो मळी श्रावकनां बार व्रत कहां छे, ते सर्व बताए अथवा एक बे आदि व्रतरुप तेना देशे करीने जीव देशविरती होय ॥ २ ॥ :
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॥ ५६ ॥
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विधि-विज
पारावद मुसावाएं ॥ प्रदत्त परदार नियमणेहिं च ॥ अपरिमि इवान विय ॥ असुवयाई विरमलाई ॥ ३ ॥
प्राणीनो बध, जूहुँ बोलवु, अदचादान, अने परस्त्रीनो नियम करवावडे करीने तेमज वळी परिमाणरहित इच्छाथकी नियम करवावडे पांच अनुव्रतों एटले नियमो थायछे ॥ ३ ॥
जं च दिसावेरम ॥ अनु दंमान जं च वेरमणं ॥ देसावगा सियं पिर्य ॥ गुणवयाई जवे ताई ॥ ४ ॥
- जे दिग्विरमण व्रत, अने वळी अनर्थदंड थकी जे निवर्ततुं ते अनर्थदंड विरमण, बळी देसावगासिक पण (मळी) ते प्रण गुणवतो कहेवायछे ॥ ४ ॥
नोगाणं परिसंखा ॥ सामाइय प्रतिदि संविनागोय ॥ पोसह विहीन सो ॥ चनरो सिस्कान वृत्तानं ॥ ५ ॥
भोग उपभोगनुं परिमाण, सामायिक, वळी अतिथिसंविभाग, पोपधविधि पण ए सर्वे (मळी) चार शिक्षाव्रत कहेला छे ॥ ५ ॥
आसुकारे मरणे । श्रचिनाए अ जीविधांसाए ॥ - नाहिं व श्रमुको || पश्चिम संतेहा म किच्चा ॥ ६ ॥
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पपत्रों.
५६ ॥
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उतावळु मरण थये छते, अने जीवितव्यनी आशा नहि तुटे छते, अथवा स्वजनोए (संलेखना करवाउनी ) रजा नहि आपे छते छेवटनी संलेखना कर्या विना ॥ ६ ॥
आलोय निस्सल्लो | सघरे चेवारुदितु संथारं ॥
जर मरइ देसविरन ॥ तं वुत्तं बाल पंमिश्रयं ॥ ७ ॥
शल्यरहित छतो पाप आलोवीने अने पोताना घरने विषे निश्वे संथारा उपर चढीने जो देशविरति छतो मरे तो ते बालपंडित मरण कद्देवाय ॥ ७ ॥
जो जनपरिन्नाए ॥ नवक्कमो विचरेण निदिठों ॥
सो चेव बाल पंमिय ॥ मरणे नेच जदाजुग्गं ॥ ८ ॥
जे विधि भक्तपरिज्ञाने विषे विस्तारथी बतावेलो छे ते नक्की बालपंडित मरणने विषे यथायोग्य जाणो ॥ ८
॥
मालिस कप्पो || वगेसु निश्रमेण तस्स नववानुं ॥
नियमा सिकार चक्को ॥ सएरा सो सत्तमंमि नवे ॥ ए ॥
वैमानिक देवलोकना वार देवलोकने षिषे निश्वये करीने तेनी उत्पति थायछे, अने ते उत्कृष्टथी निश्चये करी सातमा भवने त्रिषे सिद्ध थायछे ॥ ९ ॥
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पयत्रो.
इय बालमियं हो ॥ मरण मरिहंत सासणे दि॥ आ०प०
इत्तो पंझिय पंमिय ॥ मरणं वुद्धं समासणं ॥ १० ॥ ॥५७॥
जिनशासनने विपे आ बाल पंडित मरण कहेलुं छे, हवे पंडित मरण कोने कहेवू ते संक्षेपे करीने | कहुंछु ॥ १०॥ का इछामि नंत नत्तम मिकमामि ॥ अश्यं पमिकमामि ।। अणागयं पमिकमामि
पञ्चपन्नं पमिकमामि. कयं पमिकमामि कारियं पमिकमामि अगमोश्यं पमिकमामि मिचित्तं परिकमामि असंजमं पमिकमामि कसायं पक्किमामि पावपनगं पमिकमामि मिहादसण परिणामेसु वा इहलोगेसु वा परलोगेसु वा सञ्चिनेसुवा प्रचित्तेसुवा पंचसुइंदिय
बेतु वा अन्नाणं काणे १ अणायारं काणे कुदंसणं जाणे ३ कोई काणे ४माणं काणे Dail मायं काणे ६ लोहं काणे ७ राग काणे दोसं काणे ए मोहं काणे १० चं जाणे
११ मिठं काणे १२ मुखं काये १३ संकं काणे १५ कंखं काणे १५ गेहिं जाणे १६ आसं काणे १७ तन्हं काणे १७ बुहं काणे १ए पंथं काणे २० पंचाणं जाणे १ नि काणे २२ नियाणं जाणे २३ नेहं जाणे श्व कामं क्राणे २५ कलुस काणे २६ कलई काणे
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२७ जुङमाणे २० निजुङ जाणे श्ए संगं काणे ३० संगहं जाणे ३१ ववहारं काणे ३२ कय विक्कयं काणे ३३ प्रणथ्य दंम काणे ३४ प्रानोगं जाणे ३५ प्रणानोगं काणे ३६ अणावं काणे ३७ वेरं काणे ३० वियकं काणे ३ए हिंसं जाणे ४० हासं झाणे । ४१ पदासं झाणे ४२ पसं झाणे ४३ फरुसं झाणे व जयं झाणे ४५ रुवं झाणे ४६ अप्पपसंसं झाणे ४७ परनिंदं झाणे ४७ परगरिदं झाणे भए परिग्गरं झाणे ५० पर प|रिवायं झाणे ५१ परदूसणं ५२ आरंनं झाणे ५३ संरंनं झाणे ५५ पावाणुमोयणं झाणे
५ अदिगरणं झाणे ५६ असमाहि मरणं झाणे ५७ कम्मोदय पञ्चयं झाणे ५० ही गारवं झाणे एए रसगारवं काणे ६० सायागारवं काणे ६१ अवेरमणं झाणे ६२ अमुत्ति मरणं झाणे ६३ पसुत्तस्स वा पमिबुद्धस्त वा जो मे कोइ देवसि राइन नत्तम प्रकमो वइक्कमो अइयारो अणायारो तस्स मिछामिक्कम ॥
हे भगवंत ! अनशन माटे सामान्यपणे पाप व्यापार पडिकछु, गइ वखननो हुँ परिजमुंछु, भविष्यमा थवानाने हु पडिक्कमुंएं, वर्तमानकाळना पापने हुँ पडिनमुंडूं, करेला पापने पडिक्कमुंछु, करावेला पापने पडिक्कमुंछु, अनुमोदेला पापने पडिक्कमुचु, मिथ्यात्वने पडिक्कमुंछु, अविरतिने पडिलमुंएं, कपायने पीडकमुर्छ,
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आ०प० ॥ ५८ ॥
पाप व्यापारने पडिकमुंड, मिध्यादर्शन परिणामने विषे, आ लोकने विषे, परलोकने विषे, सचितने विषे, अचितने विषे, पांच इंद्रियना विषयने विषे, अज्ञान सारु एम चितवे छते १, खोटो आचार चितत्रे छते २, बौद्धादिक दर्शन सारुं एम चितवे छते ३, क्रोधवशे चितवे छते ४, मान वश थइ चितत्रे छते ५, माया वश 'यह चितवे छते ६, लोभ वश वह चितवे छते ७) रामने वश यह चितवे छते ८, द्वेषने वश यह चितवे छते ९, अज्ञान वशः थइ चितवे छते १०, पुद्गल पदार्थ अने यश आदिकनी इच्छा बशे चिंतने छते १५, मिथ्या दृष्टिपणे चितवे छते १२, मुर्च्छा वश थइ चितवेः छते १३, संशय थकी चितने छते १४, अभ्यमतनी वांछाए करीचित छते १५, घर विषे चिंतने छने १६, बीजानी वस्तु पामवानी वांछा थकी चिंतने छते १७, तरस लगवायी चितवे छते १८, भुखझी चितवे छते १९, सामान्य मार्गमां चालवा छतां चितवे छते २०, विषममार्गमां चालतां छतां चितवे छते २१, निद्रामां चितवे छते २२, नियाणुं चिंतत्रे छते २३, स्नेहवशे चितवे छते २४, विकारना वशे चितवे छते २५, वितना डोहोलाण यकी चितवे छते २६, क्लेश कराववा चितवे छते, २७ सामान्य युद्धने विषे चितवे छते २८, महा युद्धने विषे चितत्रे छते २९, संग चितवे छते ३०, संग्रह चितवे छते ३१, राजसभायां न्याय कर (बवा माटे चितवे, छते ३२, खरिद करवा बेचवा माटे चितवे छते ३३, अनर्थ दंड चिंतने छते ३४, ऊपयोग सहित चितवे छते ३५, अनुपयोगे नितवे छते ३६, माथे देवु होय तेना वशे चितत्रे छते ३७, वेर चितवे छते ३८, तर्क वितर्क चितवे छते ३२, हिंसा चिंतत्रे छते ४० हास्यना वश थइ चितवे छते ४१, अतिहास्यना वश यइ चितवे छते ४२, अति रोषे करी चितवे छते ४३,
पयनो
१॥ ५८ ॥
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कठोर पाप कर्म चितवे छते ४४, भय चितवे छते ४५, रूप चितवे छते ४६, पोतानी प्रशंसा चिंतवे छते ४७, बीजानी निंदा करतां चिंतचे उते ४८, बीजानी गर्दा करतां चिंतचे छते ४९, धनादिक परिग्रह मेळववाने चितवे छते ५०, बीनाने क्लेश आपवानुं चिंतये छते ५१, बीजाने माथे पोतानुं दुषण चढाववा चिंतवे छते ५२, आरंभ चिंवरे ते ५३, विषयना तिव्र अभिलाषयी चिंतवे छते ५४, पाप कार्य अनुमोदवारुप चिंतये छते ५५, जीवहिंसाना साधनोने मेळववानुं चितवे छते ५६, असमाधिए मर एम चितवे छते ५७, गाढ कर्मना उदय यकी चिंतवे छते ५८, ऋद्धिना अभिमाने करी चिंतबे छुते ५९, सारा भोजनना अभिमाने करी चितवे छते ६०, मुखना अभिमाने करी चितवे छते ६१, अविरति सारी एम चिंतवे छते ६२, संसार मुखना अभिलाप सहित मरण करता चितवे छते घर, दिवस संबंधी अधा रात्री संबंधी मुतां छतां अथवा जागतां छुतां, कोई पण अतिक्रम, पतिक्रम, अतिचार, अनाचार साम्बी होय तेनो मने मिच्छामिदुकडं हो.
एस करेमि पणाम, जिरावर वसहस्स वक्ष्माणस्स ॥ ... . सेसाणं च जिणाणं, समगहरास च ससि ॥११॥
निनने विषे ऋषम समान बर्देवान स्वामीने की गणपर सहित पाकीना सर्व तिर्यकरोने हुं आ नमस्कार करुंडं ॥ ११
संबंपाशानं ॥ पञ्चकामिति अलिय वयणं च ॥ . सब मदिना दाणं ॥ मेहुन्न परिग्गई चेव ॥ १२॥ .
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आ०प०
॥५९॥
आ प्रकारे सर्व प्राणी भोना आरंभने, अलिक (असस ) वचनने, सर्व अदत्तादान ( चोरीने), मैथुन अने परिग्रहने पञ्चरूकुंई ॥ १२ ॥
॥ वेरं मझ न केशइ ॥ • आसान वोतिरित्ताणं ॥ समाहिमणुपालएं ॥ १३ ॥
सम्मं मे सब नू
मारे सर्व प्राणी विषे मित्रपणु छे, कोइनी साथे मारे बेर नथी, सर्व वांच्छाओने त्याग करीने हुं समाधिराखुं ॥ १३ ॥
स चादर विहिं ॥ संनाच गारवे कसाए श्रं ॥
सर्व्वं चैव ममत्तं ॥ चएमि सवं खमावेमि ॥ १४ ॥
सब मकारना आहारने, संज्ञाओने, गारवोने, अने कषायोने अने सर्व ममताने त्याग करुं सर्वने खमायु॑षुं ॥ १४ ॥
हुआ इमंमि समये ॥ नवक्कमो जी विश्रस्स जइ मजा ॥
एयं पञ्चस्काणं ॥ विठला आरादणा होन ॥ १५ ॥
जो मारा जीवितनो उपक्रम ( आउखानो नाश ) आ अवसरमां होय तो आ पचरुखाण अने विस्तावाळी आराधना थाओ ॥ १५ ॥
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पयनो.
॥ ५९ ॥
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सब पुरक पदणाणं । सिक्षाणं अरहन नमो ॥
सददे जिण पन्नत्तं ॥ पञ्चकामि अ पावगं ॥ १६ ॥ सर्व दुःख क्षय ययां छे जेमनां एवा सिदोने, अरिहंतने नमस्कार हो, जिनेश्वरोए कहेलु तत्व हुं सद्दईछु, पापकर्मने पचरूखंछु ॥ १६ ॥
नमुथ्थु धुअ पावाणं । सिक्षणं च मदेसिणं ॥
संथारं पमिवजामि ॥ जदा केवलि देसियं ॥१७॥ जेमनां पाप क्षय थयांछे एवा सिद्धोने तथा महा ऋषीओने नमस्कार हो, जेवो केवळीए रतान्यो छे तेवो संथारो हुँ अंगीकार करुंषु ॥ १७॥
जं किंचिवि उच्चरित्रं ॥ तं सवं वोसिरामि तिविदेणं ॥
सामाश्यं च तिविहं ॥ करेमि सवं निरागारं ॥१८॥ जे काइ पण खोटें आयु होय ते सर्वने मन, वचन, कायाए करी वोसिरावूक, वळी सर्व आगारहित IN (ज्ञान, श्रद्धा अने क्रियारुप ) प्रण प्रकारनुं सामायक करुंछु ॥ १८ ॥ .. बलं अप्रिंतरं नवहिं । सरीराइ सन्नोयणं ।
मासा वय कायोहिं॥ सव्वं जावेण वोसिरे ॥१॥
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पण खोटुं आपण प्रकार सराइ सलीमार ॥ १५ ॥
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पयसो
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_ पाल, अभ्यंतर, उपषि, अने शरीरादि भोजन सोहक पन, रचन, कायाएकरीने सर्वने भावकी वोसिराएं। १९... ... सव्वं पाणारंजं ॥ पञ्चरकामिति अलिय वयणं च ॥
- सव्व मदिनाकारू ।। मेंहुन्न परिग्गर्दै चेव ॥ २० ॥ ___ आ प्रकारे सर्व प्राणीओना आरंभने अलिक ( असस) बचनने सर्व अदनादान ( चोरीने ) मैथुन H अने परिग्रहने पचठ्छु ॥ २० ॥
सम्म मे सब्व नूएसु ॥ वेरं मद्य न केल॥
प्रासान वोसिरित्ताणं समादि मणुपालये ॥१॥ मारे सर्व प्राणी विषे मित्रपणुंके, कोइनी साथे मारे वेर नथी, सर्व वाच्छाओने त्याग करीने हुं समाHDधि राखंर्छ ॥ २१॥
रागं बंधं पसं च ॥ हरिसं दीण नावयं ॥
उस्सुगत्तं जयं सोगं ॥ रई अरई च वोसिरे ॥२२॥ बंधना कारणभूत रांगने तथा द्वेषने, हर्षने, रांकपणाने, चपळपणाने, भयने. शोकने, रातेने, अरविने चोसिराछु ॥ २२॥
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मकान
६०॥
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मम परिवद्यामि॥नम्ममत्तं नवन्नि
प्रासंबणं च मे पाया ॥ अवसेसं च वोसिरे ॥२३॥ यमतारहितपंणामां तत्पर थयो तो ममतानो त्याग करुंछु वळी मने आत्मा भालंबन भूत के वीजा सर्व पदार्पने वोसिराचुंछु ॥ २३ ॥
आया हु मदं नाणे ॥ आया मे दसणे चरित्ने अ॥
पाया पच्चरकाणे ॥ पाया मे संजमे जोगे ॥ २५ ॥ निश्चे मने मानमा मात्मा, दर्शनमा अने चारित्रमा मने आत्मा, पचरूखाणमा मने आत्मा, संजमजोगमा मने आत्मा ( आनंबन ) थाओ ॥ २४ ॥ - एगो वच्च जीवो ॥ एगो चेवुववव ।।
एगस्स चेव मरणं॥ एगो सिप नीर ॥२५॥ जीव एकलो जाय छे, नकी एकलो उपजेछे, एकलाने ज मरण पण थायछे, अने कर्मरहित थयो छतो। एकलोज सिद्ध थायछे ॥ २५ ॥
एगो मे सासन अप्पा ॥ नाण देसण संजुन॥ सेसा मे बाहिरा मावा ॥सव्वे संजोग लरकणा ॥ ६॥
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मान, दर्शन सहित मारो पात्मा एक शाश्वतो के, वाकीना मारे बाह्य पदार्थों सर्वे संबंधमात्र स्व. रुपवाला छे॥RI
संजोग मूला जीवेण || पत्ता उस्क परंपरा ॥
तम्हा संजोग संबंध ॥ सव्वं तिविहेण वोतिरे ॥७॥ संबंध छे मूल ते जेनुं एवी दुःखनी परंपरा आजीवे मेळवी चे माटे सर्वे संभोग संबंधने मन, वचन ने | कायाए करी वोसिराकुंषु ॥ २७ ॥ ::
मूल गुण उत्तर गुखे ॥ मे नाराहिया पयरोणं॥
तमहं सव्वं निंदे ॥ परिक्कमे आगमिस्साणं ॥ २०॥ प्रयत्नवडे जे मळगुणो अने उत्तरगुणो में न आराध्या ते सर्वने हुँ निर्दछु आवता काळनी निराधनाने पडिमुंछु।२८॥
.. सत्त नए अठ मए ॥ सन्ना चत्तारि गारवे तिनि ।
आसायण तितीस ॥ रागं दोसं च गरिहामि ॥ सात भय, आठ पद, चार संझा, प्रण गारव, तेत्रीश आशातना, राग अने देखने गर। ॥२९॥
असंजम मन्त्राएं | मिचत्तं सम्वमेव य ममत्तं ।।
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जीवेसु अजीवेसु. अ॥ तं निंदे तं च गरिहामि ॥३० ।। जीवमां अने अजीवमा अवितिने, बानने, मिथ्यात्ने वळी सर्व मयताने निदुषु अने गर९र्छ ॥३०॥
निदामि निंदणि ॥ गरिदामि अजं च मे गरहणिकं ॥
आलोएमि में सव्वं ॥ अप्रिंतरं बाहिर उवहिं॥३१॥ निंदरा योग्यने हुं निंदुई अने जे मने गरहवा योग्य छे ते गरजं सर्व अभ्यंतर अने बाह्य उपधि (माया) ने हुँ आलोयं ॥ १ जह बालो जंपतो.॥ कामकां च अभं जरा॥
तं तद पालोरङ । मायामोसं प्रमुनूर्ण ॥३॥ जेम बालक बोलतो छतो. कार्य, अकार्यने सरळपणे कहेछ तेम ते पापने माया मृषावाद मूकीने तेवी रीते आलोवे ॥३२॥
नाणंमि दसपामि ॥ तवे चरिने अवसु,वि अकंपो.॥ .....
धीरो, पागमा कुसलो। अपरिमावि रहस्सा MA: झानमा, दर्शनमा तपमा अर्ने चारित्रमा ए चारेमा अचलायमान, धीर, आगममां कुशल, कहेला गुप्त पापो नहि कहेनार (तेषा गुरु पासे आलोयण लेवी जोइए)॥३॥
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आ०प०
॥ ६२ ॥
• रागेण दोसेपाव ॥ जं, जे प्रकयनुमा पारपणं ॥
जो मे किं त्रिवि जशितं ॥ जमुई तिविदेश सम्मेभिः ॥ २४ ॥
रागे करी, द्वैपे करी, अथवा जे तमारु अहित अकृतज्ञपणाएं करी अने ममादे करी बीजाने में कंड क होय ते हुं मन, वचन, कायाए करी खमाई ॥ ३४ ॥
तिविहं भांति मरणं ॥ बालाएं बालपंक्रियाणं च ॥
तइयं पंक्रिय मरणं ॥ जं. केवलियो अणुमरंति ॥ ३५ ॥
मरण त्रण प्रकारनुं कहेर्छे (१) बाळकोडूं (२) बाळ, पंडितोतुं (३) पंडित मरण जेणे करी केवळीओ मरण पामेछे ॥ ३६ ॥
जे पुण अ-मइया ॥ पयलिय लन्नाय वक्कनावा य ॥
यसमा दिशा मरंति ॥ न ते आरामा असिना ॥ १६ ॥
बळी जे आठ मदवाळा छे ते, नाश पावी हे बुद्धि शेमनी एना, वक्रपणाने धारण करनारा असमाधिए मरेछे, निश्चे ते आराधक कहेला नयी ॥ २६ ॥
मरणें विरादिए ॥ देव डुग्गई उल्लदा य किर बोदी | संसारो यै प्रणती ।। दवई पुणो भाग मस्ताएँ || ३७ ॥
पयो
॥६२॥
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मरण विराधे छते देवतामा दुर्गति वाय मर्म सम्बवाव पामत् दुर्लभ यह परे भने बळी भावता कामां अनंत संमार घाय।३।।
का देव उग्गई का ॥ प्रबोदि केणेव वुई मरणं ॥
केणं अणंतं पारं । संसार हिंमई जीवों ॥३७॥ ___देवनी दुर्गति कयी ? अबोधि [ ? शा हेतुए (पारंवार ) मरण पाय ! कया कारणे संसारमा जीव अनंतकाळ सुधी भमे ॥ ३८॥
कंदप्प देव किविस ॥ प्रनिगा पासुरीअ संमोदा॥
ता देव उग्गा ॥ मरणमि विरादिए इति ॥इए . मरण विराधे छते की देव, किलविष्या देव देह देव । चाकर देव, दास देव, अने संमोहा देव ए पांच दुर्गतिओं थाय ।। २९॥
मिछा सण रसा। सनियाणा किन्द पेसमो गाढा ॥..
रह जे मति जीवा ॥ तेसिं खुलाहा नवे बोडी ॥ ४ ॥ _आ समारमा मिथ्यादर्शनमां रक्क, नियाणासहि जमादानाले जीवो मरण पामे तेभोने पोघि वीज दुर्लभ थायछे ॥४०॥
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अ०प०
॥ ६३ ॥
सम्म रता । श्रनियाला सुकलेसमो गाढा ॥
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इइ जे मरंति जीवा ॥ तेतिं सुखदा, नवे बोद्धी ॥ ६१ ॥
था संसारमा सम्यक् दर्शनमां रक्त, नियाणा रहित, शुक्ल लश्याबाळा जे जीवो मरण पामेछे ते जीवो बोधि बीज ( समकित ) मुलम घायले ॥ ४ ॥
जे पुरा गुरु पडिली । बहुमोदा ससबला कुसीलाय ॥ समादियामति ॥ ते हुँति प्रांत संसारि ॥ ४२ ॥
जेओ बळी गुरुना शत्रुभूत, घणा मोहवाळा, दुषण सहित, कुशील अने असमाधिए मरण पामेछे तेथो अनंत संसारी थायछे ॥ ४२ ॥
जिवयले प्ररत्ता ॥ गुरुवयणं जे करंति जावे ॥
- असबल असं किलि । ते हुति परित संसारि ॥ ४३ ॥
जिन बचनमो रागवाळा, गुरुनुं वचन भाषे करीने शेओ करेछे, दुषण रहित, संक्लेष रहित होयछे, तेओ थोडा संसारवाळा थायछे ॥ ४३ ॥
बाल मरणालि बहुसो || बहुधासि प्रकामगाणि मरणालि ॥ मरिहंति ते वराया ॥ जे जिपरावयां नयांणंति ॥ ४ ॥
पपन्नो.
॥ ६३ ॥
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जिन बच्चने नयी जाणता ते बीचारा बाळरो अने पर इच्छा तिपणे मरण पामशे ॥ सरगहणं बिस नरकणं च ॥ जलणं च जलप्पवेसो ॥ प्रणायार जंगसेवी ॥ जंमश मरशाणु बंघीलि ॥ ४५ ॥
ए.
शस्त्र प्रहष्य विष भक्षण, बळी मरखं, पाणीमा बुढी चतु, अनाचार सर्वा-अधिक उपवरण सेवनार, जन्म मरणती परंपरा अधारनार ॥ ४६ ॥
नद्रुमद्रे तिरियंसि वि || संग्राणि जीवेश बालमरणाशि· ॥ सूण नाण सद्गन ॥ पंमिय मरणं श्रणुमरिस्तं ॥ ४६ ॥
उंचा, नींचा अने विर्च्छा,(लोक) मांजारा की दर्शन जाने सहित बको पंडित मरणेमरीश ॥ ४६ ॥
"यय जाई ॥ मरणं नरएस बेथलाई म ॥
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एप्राणि सरतो । पदिय मरण मरतु इन्दि ॥ 8 ॥
उद्वेग करनारा जन्म मरण मने नरकने विवे से बुधुलो बेदनाओ, एथोने संभारतो छतो हमजां पंडित मरणे मर ॥ ४७ ॥
छपाइ 'स्कं ॥ तो बच्चों सहावट नवरे ॥
AAAAAAABARANNAA ANNA PANNAAH
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कि कि मए न प । संसार-संतरतणे on भा०प०
यो दुःख उत्पा पाय वो स्वभाव, पीतेन विजागोजी संसारमा अपना प्रताप कुछ ॥१४॥ ख नयी पाम्यो ॥८॥
संसार चकवाले॥ संबंधिये पुग्गवा मए बहुता। . ...मादारिमाय परिणाममाय में यह गळतर्ति ॥ ॥ ...
की में पसीखत संगरबा पालमसकोतापसोपडसालासोमन).it माप्ति पाम्पो नहि ॥४..
Ltitlet तण कोरिकसगी वाजलोवा मकसहस्साह। FI... नश्मो जीवो सको। तप्पेठं कामनोगेहिं ॥५॥
___ तरवां लाकर करी मेम बानि अने हमाले नदीओ करीब मामु (हात पारतो नवी) IPI तेम कामभोगोए रीके का जोर व पामतोमेसnati
माहार मिमिनेणं मागल-मामी पुदीं।" सञ्चित्तो पादारो॥ न खमो मशसावि पथ्ये ।
SamaARLSHReी
६४॥
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आहारना कारणे करी ( तंदुलीमा) बच्छी सावनी नरक मुमिर जाय. माटे सचित आहार बने करीने पण प्रार्थना करवा योग्य नयी ॥ ५१ ॥
पु िक परिकम्मो | अनिभाणो कहिकण मइ बुद्धिं ॥ पहा मला कमान ॥ तच्चो मरण परिचामि ॥ ५२ ॥
प्रथम अभ्यास कर्यो जेथे, अबै निवाणा राति पय त मति भने बुद्धियीज विनारीने पछी नाश कर्या के कषाय जेणे, एवो छतो जल्दी मरण अंगीकार करं ॥ ५२ ॥
प्रक्क चिरजातिय ॥ ते पुरिसा मरण देस कालमि ॥
पुर्व कप कम्म परिना
लांबा बखत
पाछा पछे (दुर्मति
पति
ते माटे पानी के हेतु
सहित करो ॥ ५४ ॥
३ ।।
विवाका (पूर्व करेला कर्मोंना प्रभावे क॥ ५३
सम्हा चंदग विधं ॥ सकारणं उस पुस्ति ॥
जीवो अविरहि गुणो ॥ कारक मागमिं ए४ ॥
मार्ग साधना, माटे पोतानो आत्मा ज्ञानादि गुण
STE SUSTANUENSTRIEKSTASSIS
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छाममस्म्सालयन्सान
जह तंमि देसकाले ॥ अमूढ समोरचयह बेहः।।
बाहिर जोग..विरहिछे। अप्रिंतरोग:मलीणो.॥५५॥ से अवसरने विक सानपान मनको, मुदीला मा रहिवा भने मात्आना स्वरूप चितवनना म्यापारने करनारनी पेले शरीरले बांटी दे ५५ ॥
...हंतण रागादोसंतजित्तूशाकम्मसंघा .
जम्मर मरण स्वजितण-गंवा विमुकिसि। राग देखने हणीने, आ कर्माना समुहनो नाश कमिम अने परलरुप ईडने भेदीने संसारथी अकाशे-॥५६॥
एवं सर्वएस ।। जिणदि सददामि तिविदेणं ।। .
तस पावर खेमकरं ।। पार निवास मग्गस्त ॥ ५॥ - आ प्रकारे त्रस ओ स्थावरने कल्याण करनार, मोक्ष मार्गनों पार पमाडनार जिनेवरे बतादेलो सर्व | उपदेश मन, वचन, कायाए करी सइईई ॥५७॥...
___ नदि तंमि देसकाले ॥सको बारसविदो सुभकंधों ॥
छURUSHBASURUS
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PANEERETER
सबो अणुचिंतेन ॥ धणियंपि- समथ्यचित्तेणं ॥५॥ वे अवसरने विषे अतिशय समर्थ चितवानए पण बार अंगरूप सर्वश्रुत स्कंध विषां शाक्य मथी।
एगंमिवि जंमि पए ॥ संवेगं वीराय मग्गंमि ॥ - गछ नरो अन्निरकं ॥ तं मरणं ते मरिभवं ।। एए । वितरागना मारगां जे एक पण पदने विषे मनुष्य वारंवार वैराग्य पामे तेणे करी सहित जे मरखं ते | मरण मरचा योग्य छे ॥१९॥
ता एगंपि.सिलोगं । जो पुरितो मरणं देत कालमि ॥
धाराहसो. वरत्तो ॥ चिंतंतो भाराहगो हो ॥६॥ ते माटे जे पुरुष मरणना अवसरमा, "भाराधनाना उपयोगवाळो एक पण श्लोक सिंतवतो हे तो वे भाराषक बायछे ॥३०॥
भाराहणो वनुत्तो॥ कालं कारण सुविदिन सम्म ।
चमोसं तिन्नि नवे ॥ गंतूण सदर निवाणं ॥ ११ ॥ भाराधना करवाना उपयोगबाळो, रुड़ा आचारबागे, रुही रीते काल करीने उत्कृष्टयी पण भव करीने मोक्ष पामेछे ॥६॥
मिर-मिशिनिक Wianारनिनिति
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मा०प०
प्रयको
समणु विपद पढमं ॥ बी सब संजन मिति॥
सर्वच, वोसिरामि ॥ एवं लसिय समासेणं ॥३५॥ मथम तो हुं मायू , बीजु सर्व पदार्थोमां संपमवाली बुं ( तेथी) हुबळी सर्वने चोसिराथुएं, आ संसे- करी कई
सई अलपुर। जिणवयस सुजासिधे अमयमा
गुदिन भुगश्मग्गो ॥ नाई मरपस्स बोहेमि ॥६॥ जिनेश्वर भगवानन्य आयममां कडेल, अमृत सरखं अने पूर्व नहि पामेलं एवं ( आत्मतत्त) दुपाम्यो भने सिद्धि गतिनों मार्ग प्राण को तो हुँ मरगयी पीतो नयी ॥ ३ ॥
धीरेण.वि मरियन ॥ कान रिसेण वि अवस्स मरियो ।
दं हु मरियो | वरे सुधीरत्तणे मरिठं ॥ ६॥ धीर पुरुषे पण मर पडेछ, बने कायर पुरुष पण अवश्य परच पडेछ, बनेने पण निश्चये करी मरवातुंगे, तो धीरपणे मर र निश्चे सुंदर
:: : !! -सिलेण विमरियावं । निस्सीलेंणवि अवस्स मरियो ।
बुन्दंप हु मरियो ॥ वर खुसीलनणे मरित्रं ।। ६५॥
SENSEta
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18BECAMERAMANAस्यामा
शीलवाळाए पण मरतूं पडेछ, शीलरहित माणसे पण अवश्य मरवू पहेछे, बनेने पण निश्चय करी पर|वानुं छे, तो शील सहित मरतुं ए निचे सुंदर छे ॥ १५ ॥
नास्स देसणस्त य ॥ सम्मत्तस्त य चरित्न जुत्तस्स ॥
जो कादि नवनगं॥ संसारा सो विमुचिदिसि ॥६६॥ जे कोइ चारित्र सहित ज्ञानमां दर्शनमा अने सम्यक्त्वमा सारधानपणुं करशे ते विशेषे करी संसारथकी मूकाशे ॥ ६६ ॥
चिरनसिप बनयारी॥ पफ्फोमेऊण सेसयं कम्मं ॥ - अणुपुबीइ विसुक्षे॥ग सिधिभकिलेसो ॥७॥ पणा काळ सेव्युं छे ब्रह्मचर्य जेणे ते बाकीना कर्मनो नाश करीने तथा सर्व क्लेशनो नाश करीने अनुक्रमे शुद्ध थयो छतो सिद्धिमा जाय ॥ ६ ॥
निक्कसायस्स दंतस्स ॥ सूरस्स ववसाइणो॥
संसार परित्नोअस्स | पचरकाणं सुदं नवे ॥३०॥ कपाय रहित, दान्त, (पांच इंद्रियो अने छहा मनने दमन करनार,) शुरवीर अने उद्यमवंत तथा संसारथी भय भ्रांत यएलो एवार्नु पचरूखाण कहुं होय ॥ ६८ ॥
सिAिARA रसिया
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आ०प०
॥ ६७॥
प्रापो
ए पञ्चरका | जो काही मरण देस कालंमि ॥ मूढसनो | सो गर उत्तमं गणं ॥ ६९ ॥
धरो
धीर ने मुझ रहि ज्ञानवाळो मरणना अवसरे जे आ पचरुखाण करशे ते उत्तम स्थानकने पामशे ॥ ६९ ॥
धीरो जरमरण विक्र ॥ धीरो (वीरो पाठांतरं ) विन्नाथ नाथ संपन्नो | लोगस्सुयोग || दिसच खयं सबडुरकाणं ॥ ७० ॥
धीर, जरा अने मरणने जाणनार, ज्ञान दर्शने करीने सहित, लोकमां उद्योतना करनार एवा धीर ( वीर जीनेश्वर ) सर्व दुःखोनो क्षय
A
li 06 ॥
|| श्री श्रावर पच्चरकाल समाप्त ॥
एक के
पयन्नो.
॥ ६७॥
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DिA---रिपरिक
आराधना पयन्नो. नमिकण नगइ एवं ॥ जयवं समनच्चियं समाइससु ।।
तत्तो वागर गुरु ॥ पद्यनाराहणं एवं ॥१॥ श्री गुरु महाराजचे नमस्कार करीने आ प्रमाणे शिप्य कहे के हे भगवन् ! मनै समयने चित्त आदेश करो (आराधना करावो) त्यारे गुरु महाराज छेवटनी आराधना आ प्रमाणे भणे ॥१॥
बालोश्सु अश्यारे ॥ वयाइ नच्चरसु खमिसु जीवेसु॥
वोसिरिसुनाविअप्पा ॥ प्रहारस पावगणाई॥॥ १ अतिचार आलोवो. २.व्रत उचरो. जीवाजोनी खमावो. ४ आत्माने भावीने अदार पाप स्थानक | वोसिरावो ॥२॥
चनसरण उक्का गरिहणं च ॥ सुकमाणुमायणं कुणसु ॥ सुहन्नावणं भासणं ॥ पंच नमुक्कार सरणं च ॥३॥
समा+ESABSNBCN
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भरा०
॥ ६८ ॥
উ-টভিউডভति कित
५ चार शरण आदरो. ६ पापनी निंदा करो. ७ सुकृतनी अनुमोदना करो. ८ शुभ भावना भावो ९ अशण करो अने. १० पंच परमेष्टितुं ध्यान करो. ॥ ३ ॥
नामि दंसणं मिय ॥ चरणंमि तवंमि तहय विरयंमि ॥ पंचविदे श्रायारे ॥
श्रारालोयणं कुरासु ॥ ४ ॥
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप अने वीर्य ए पांच प्रकारना आचारने विषे अतिचारनी आलोयणा करो ॥ काल लियाई छ । प्यार प्रायार विरदियं नाणं ॥
जं किंचि मए पढियं ॥ मिचामि डुकरं तस्स ॥ ५ ॥
१. काल. २ विनय. ३ बहुमान. ४ उपधान. ५ गुरुने ओलववा. ६ शुद्ध पुत्र. ७ अर्थ. ८ सुत्र तथा अर्थ बँने. ए आठ प्रकारमाथी आचार रहित हुं जे कांई भण्यो होर्ड तेनो मारे मिच्छामि दुक्कडं हो ( ते पाप मारे मिथ्या थाओ ) ॥ ५ ॥
नालील जं न दिन्नं ॥ सइ साममि वह श्रसलाइ || जा विदिया य श्रवन्ना ॥ मिचामि डुक्करुं तस्स ॥ ६ ॥
छती शक्ति वत्र अन्नादिक जे ज्ञानीओने में न आप्युं होय अने जे में तेमनी अवज्ञा करी होय तेनो मारे मिच्छामि दुक्कडं हो ॥ ६ ॥
पपन्नो.
॥ ६८ ॥
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जे पंच ने नाणस्स ॥ निंदणं जो इमस्स नवदासो॥
जो न क नवधान मिचामि 5क्कम तस्स ॥७॥ ज्ञानना पांच प्रकार, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव अने केवल तेनी जे निंदा करी होय, अने पली तेमनी जे हांसी करी होय ते, तथा वली जे में तेमनो उपघात कयों होय तेनो मिच्छामि दुक्कडं हो ॥७॥
नाणीवगरण नूयाणं ॥ कवलिया फलिद पुत्रियाईणं ॥
आसायणा कया जं। मिहामि उक्कम तस्स ॥७॥ ज्ञानोपगरणभूत जे कवली, पाटी पोथी विगैरेनी जे काइ आशातना कीधी होय तेनो मारे मिष्यामि दुक्कडं हो ॥८॥
जं समत्तं निसं ॥ कियाइ अविद गुण समान ।।
धरियं मएं न सम्म ॥ मिलामि उक्कम तस्स ॥ए॥ निःशंकित, निखित निवितिगिच्छा, अमुद दिहि, उपहणा, स्थिरिकरण, वात्सल्य, प्रभावना ए आठ प्रकारना गुणे सहित एवं जे समकित में न धारण करें होय तेनो मारे मिच्छामि दुक्कई हो ॥९॥
जंन जणिया जिणाणं ॥ जिण परिमाणं च नाव पूया ॥ जं च मन्नत्ति विहिया ॥मिहामि इक्कम तस्स ॥१०॥ .
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आरा ॥६९॥
FEResses:
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जे अरिहंतनी जिन प्रीतमानी भावथी पूजा न.करी होय अने में अभक्ति करी होय, तेनो मारे मि-बापयत्रो. च्छामि दुक्कडं हो ॥१०॥
जं विरईन विणासो॥ चेईय दस्त जं विणासंतो॥
अन्नोन विरिकन मे ॥ मिलामि उक्कम तस्स ॥ ११ ॥ चैत्य द्रव्यनो जे में विनाश कर्यो होय अने जे विनाश करता बीजा माणसने उवेख्यो होय तेनो मारे | मिच्छामि दुक्कडं हो ॥ ११॥
। पासायणं कुणंतो॥जंकदवि जिणंद मंदिराश्स ॥
आमनीए न निसि-शे ॥ मिचामि उक्कम तस्स ॥१५॥ जिन मंदिरनी भाशातना करता एवा कोइ माणसने छती शक्तिए न निषेध्यो होय तेनो मारे मिच्छामि दुबई हो ॥१२॥
जं पंचहिं समिहि ॥ तीहिं गुत्तीहिं संगयं सययं ॥
परिपालियं न चरणं ॥ मिलामि कुक्कम तस्स ॥१५॥ जे पांच समिातेवडे अने प्रण गुप्तिवडे सहित एबुं चारित्र निरंतर में न पारयुं होय तेनो मारे मिच्छामि दुबई हो ॥१३॥
स्स्सRE
कोड प्रकारे
ध्याकम्पमतमान
विनिमरुस्स्स
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एगिदियाण जंकदवि । पुढवि जल जल मारुय तरूणं ।।
जीवाण वदो विदिन ॥ मिजामि उक्कम तस्स ॥१५॥ पृथ्वी, अप, तेज, वाउ, वनस्पति ए जे एकेंद्रि जीवोनो में कोइ पण रीते वध कर्यो होय, तेनो मारे मिच्छामि दुबाई हो ॥१४॥
किमि संख सुत्ति पुयर ॥ जलोय गंमोल अलसप्पमुहा ॥
बेइंदिया दया जं ॥ मिहामि कसं तस्स ॥१५॥ करमीया, शंख, जीप, पोरा. अलो, गंडोला, अलसीयां, प्रमुख बेइंद्रि भीयोने के में हग्या होय तेनो मारे मिच्छामि दुई हो ॥१५॥
गहद कुंथु जूभा ॥ मंकुण मंको कीमियाईया ।
तेदिया हया जं ॥ मिजामि एक्कम तस्स ॥१६॥ गदहीयां, कुंयुआ, जु, मांकण, मंकोटी, कीडी, विमेरे तेइंति जीवोने में हग्या होग तेनो मारे मिच्छामि दुकडं हो ॥ १६॥
करोलिय कुत्तिय विलू ॥ मडिया सलहडप्पय पमुदा॥ चनरिदिया दया जं। मिजामि उकळं तस्स ॥१७॥
विशिपिविकिमिति
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AAAAAAAAAAE
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आरा ०१
॥ ७० ॥
करोलीया, कुंती, विळी, मांख, पतंगिया, तीड, भमरा विगेरे जे में चौरिंद्र जीव हण्या होय तेनो मारे मिच्छामे दुकडं हो ॥ १७ ॥
जलयर यजयर खयरा ॥ श्रानट्टि पमाय दप्प कप्पेतुं ॥ पांच दिया दया जं ॥ मिचामि डुक्करुं तस्स ॥ १८ ॥
जलचर, थलचर, खेचर विगेरेने १ निःशुकता, २ उपयोग शुन्यता ३ दर्प विगेरेथी जे में पंचिद्रि जीव हगा होय तेनो मारे मिच्छामि दुकडं हो ॥ १८ ॥
कोद लोह भय दास ॥ परवसेणं मए विमूढेां ॥ जातिय मसञ्च वयणं ॥ तं निंदे तंच गरिदामि ॥ १५ ॥
r क्रोध, लोभ, भय अने हास्यना परवश पणाथकी में मूर्खे असत्य वचन भाष्णुं होय तेने हुं निदुछु अने गरहुंलुं ॥ १९ ॥
hi कवम वाव ॥ मए परं वंचिन श्रोपि ॥ धि
दिनं ॥ तं निंदे तं च गरिदामि ॥ २० ॥
जे कपट व्यापारबडे में परने ठगीने थोडं पण धन अण दीधुं लीधुं होय तेने हुं निदु अने गरहुं || दिवं व मस्तं वा ॥ तेरि वा सराग हियएां ॥
AAAAAHöst ALAARNAA ARAAN
पपन्नो.
1106||||
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जं मेहुण मायरियं ॥ तं निंदे तंच गरिदामि ॥ २१ ॥
देव संबंधी अथवा मनुष्य संबंधी अथवा तिर्यंच संबंधी सराग हृदयवडे करीने जे मैथुन सेन्युं होय ते डुं निंदुएं अने गरहुं ॥ २१ ॥
जं धरा धन्न सुवन्न ॥ पमुहंमि परिगहे नव विदेवि ॥ विहिन ममत्त जावो ॥ तं निंदे तं च गरिहामि ॥ २२ ॥
धन धा सुवर्ण प्रमुख नव विव परिग्रह (धन, धान्य खेत्र वास्तुक सोनुं रुपुं कुप्य द्विपद चतुष्पद) ने विषे जे ममता मान कीधा होय ते हुं निदुं अने गर ।। २२ ।।
जं राई नोयण विरमलाई | नियमेसु विविह रूवेसु ॥ खलियं मद संजायं ॥ तं निंदे तं च गरिहामि ॥ २३ ॥
रात्रि भोजन बिरमणादि विविध प्रकारना नियमाने विषे मने जे दोप लाग्यो होय ते हुं निदुछु अने गहुं ॥ २३ ॥
बाहिर मनिंतरयं ॥ तवं वालस विहं जिणुद्दिनं ॥
जं सत्तीए न कयं ॥ तं निंदे तं च गरिदामि ॥ २४ ॥
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भारा
।
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जिनेश्वर भगवते भाषेला एवा वास अने अभ्यंतर मली बार प्रकारना तपने जे यथाशक्ति न की होय तेने हुं निर्दुए भने गरई ॥ २४ ॥
जोगेसुरिक पह साहगेसु ॥ जं वीरियं न य पननं ॥ . मण वय काशएहि ॥ तं नि दे तं च गरिदामि ॥ १५ ॥ मोदर मार्गना साधक योगने विष मन वचन कायाए करी जे वार्य न फोरव्यू ते निदुषं अने गर ।
पाणाश्वाय विरमण ॥ पमुहाई तुमं 5वालस वयाई॥
सम्म परित्नावतो ॥ नणसु जहा गदिम नंगाई ॥ १६ ॥ माणातिपात विरमण प्रमुख तमे वार व्रतोने सभ्य प्रकारे रुडी रीते भावता जे भांगावरे लीपा होय ते भांगाए कहो-॥॥२६॥
खामेसु सघ सने ॥ खमेसु तोसें तुमं विगयकोवो।। ।
परिदरिय पुबवरो॥ सवे मिनित्ति चिंतेसु॥१७॥ तमे कोप रहितपणे सर्व प्राणीमात्रने खमावो अने तेमनुं तमे खमो पूर्व (आगलनु) वैर त्याग करीने सर्व मित्र छ एम चितवो ॥२७॥ पाणाश्वाय मलियं ॥ चोरिक्कं मेहुणं दविण मुठं ॥ .
CH.॥
समध्SSBFesses
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७४९
कोहं माणं मायं | लोनं पिद्यं तदा दोसं ॥ २८ ॥
१ प्राणातिपात, २ मृषावाद, ३ चोरी, ४ मैथुन, ५ द्रव्यनी मूर्च्छा (परिग्रहनी लालच ), ६ क्रोध, ७ मान, ८ माया, ९ लोभ, १० प्रेम, तथा ११ द्वेष ॥ २८ ॥
कलदं प्रप्ररकाणं ।। पेसुन्नं रश्श्ररई, समानत्तं ॥ परपरिवार्य माया | मोसं मित्त सवं च ॥ २७ ॥
१२ कलह, १३ अम्याख्यान ( आलदेवु ), १४ चाडी, १५ रतिअरति सहित, १६ परपारेवाद ( पारका दोष ), १७ मायावृषा, अने १८ मिध्यात्व शल्य ॥ २९ ॥
वोसरिसु इमाई | मुस्क मग्ग संसग्ग विग्ध नूयाई ॥
डुग्गर निबंधाई ॥ अधारस पावालाई ॥ ३० ॥
आ मोक्ष मार्गना संसर्गने विघ्न भूत अने दुर्गतिना कारण एवां अढार पाप स्थानकोने बोसरावो ॥
चनत्तीस श्रइसय जुआ ॥ श्रह महा पाकिदेर परिपुन्ना ॥
सुरविदिय समवसरणा ।। अरिहंता मन ते सरणं ॥ ३१ ॥
चोत्रीश अतिशय युक्त, आठ महा प्रातिहार्य सहित अने देवताएं रचेलुं छे समवसरण जेमनुं एवा ते अरिहंत भगवानो मने शरण हो ॥ ३१ ॥
#NAARANANLAR
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आरा०
॥ ७२ ॥
चनविह कसाय चत्ता ॥ चन वयणा चन पयार धम्म कहा ॥ चन गइ उद निदलणा । श्ररिदंता मन ते सरणं ॥ ३२ ॥
चार कारना (क्रोध, मान, माया, लोभ रूप ) कषाय जेमने त्याग कर्या छे, चार मुखवाला, चार प्रकारनी धर्म कथा कहेनारा चार गतिमा दुखने नाश करनारा अरिहंतो ते मने शरण हो । ३२ ॥
जे प्रकम्म मुक्का ॥ वर केवल नारा मुलिय परमठा ॥
मय ठाणं रदिया ।। अरिहंता मन ते सरणं ॥ ३३ ॥
जे आठ कर्मथी मुक्त छे अने प्रधान केवल ज्ञाने करी जाण्याचे परमार्थ जेमणे, आठ मदना स्थानक रहित एवा अरिहंतो ते मने शरण हो ॥ २३ ॥
जव खित्ते प्ररुहंता ॥ जावा रिप्पदरलेल अरिहंता ॥
जे तिजग पूणिका ॥ अरिहंता मन ते सरणं ॥ ३४ ॥
जे अरिहंतो संसाररूप क्षेत्रमां उपजता नथी अने भाव, अरि ( राग अने द्वेष ) ने इणवे करीने अरिहंत या छे, जे त्रण जगतमां पूजनीक छे, एवा अरिहंतो ते मैंने शरण हो ॥ ३४ ॥
तरिना जव समुदं ॥ रेंनदं उदलदरि लस्क दुल्लंघं ॥ जे सिद्धि सुदं पत्ता ॥ ते सिझ हुंतु मे सरणं ॥ १५ ॥
ARKKANANAMMINANS
पत्रो.
॥ ७२ ॥
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समस:
- रौद्र अने दुःखनी लखोगमे लोरोथी नहि ओलंधाय एवा संसार समुद्रने तरीने सिाद गतिर्नु सुख E तेने जे पाम्या छे ते सिद्धो मारे शरण हो ॥ ३५ ॥
जेनंजिऊण तव मुग्गरे ॥ निविमा कम्म नियमाइ॥
संपत्ता मस्क सुहं । तेसिसा हंतु मे सरेणं ॥ ३६॥ .. वरुपी मोगरवडे निविट (आकरी) कमरुप वेडीने भागीने मोक्षरुप मुखने पाम्या ते सिदोर्नु मारे शरण हो.
काणानल जोगेणं॥ जाण निहट्ठ सयस कम्ममलो।
कराग व जाण अप्पा ।। ते सिहा इंतु मे सरणं ॥३॥ ध्यानरूपी अनिना योगकडे जेमनो सकल कर्म रुप मेल बली गयो छे अने सोनानी पेठे जेमनो आत्मा निर्मळ थयो छे ते सिद्धो मारे शरण हो ॥३७॥
जाण न जम्मो न जरा ॥ न वाहिणोन मरणं न वाबाहा ।।
न ये कोदाइ कसाया। तें सि हंत मे सरणं ॥३०॥ जेमने जन्म, रा ( घडपण) रोग, मरण अने अवाघा (पीसी) अनें क्रोषादिक कषायो नथी ते सिदोनुं मारे शरण हो ॥२८॥
- कांचं महुअर वित्तिं॥ जे बायालीसं दोस परिसुई। . मुजति नन पाणं ।। ते मुणिणो हुँतु में सरणं ॥१५॥
SHRSHASxstsA1.
0-100
सिर
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आरा
1॥७३॥
मधुकरी (भमरो फुलनी बास ले तेनी पेठे ) वृत्ति करीने जे तालीश दोपे करीने शुद्ध एवं भोजन | अने पाणी जमे छे ते मुनीओमुं मारे शरण हो ॥ ३९ ॥
पंचिंदिय दमण परा ॥ निक्रिय कंदप्प दप्प सरपसरा ॥ . धारंति बनचे । ते मुणीणो हुंतु मे सरणं ॥४०॥ ___पांच इंद्रियोने दमवामां तत्पर कंदर्पनो दर्प (कामदेवनो अहंकार) अने तेना बाणनो प्रसार जेमणे जीत्यो छे एवा अने ब्रह्मचर्य बनने धारण करे छे ते मुनिओ मारे शरण हो ॥ ४० ॥
जे.पंच समिइ समिया ॥ पंच मदन्वय नरुबदण वसदा॥
पंचम.गइ अणुरत्ता ॥ ते मुणिणो हुँतु मे सरणं ॥१॥ जे पांच समितिए समिता. पांच महाव्रतना भारने उपाडवाने वृषभ सरखा, अने पंचमी गति (मोक्ष) मां अनुरक्त एना ते मुनिओ मारे शरण हो ॥४१॥
जे चत्त सयल संगा॥ सम मणि तिण मित्त सत्तुणो धीरा॥
साहंति मुरक मग्गं ॥ ते मुणिणो इंतु मे सरणं ॥४॥ जेमणे सकल संग त्याग कयों छे, मणि अने तरणुं, मित्र भने शत्रु ए जेमने सरखा छे एका जेभो धीर छे भने जे मोक्ष मार्गने साधे छे ते मुनिभो मारे शरण हो ॥ ४२ ॥
जो केवलनाण दिवायरेहि ॥ तिर्सेकरेदि पत्ननो ।।
99.comससस
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सब जग जीव दियन ॥ सो धम्मो होन मे सरणं ॥ ४३ ॥
जे केवलज्ञाने करीने सूर्यरूप एवा तिर्थकरोए कहेलो अने सर्व जगतना जीवने हितकारी एवो धर्म ते मारे शरण हो । ४३ ॥
कल्ला न
कोमि जाणी || जब धन प्पबंधाइ निदलणी ॥ जीवदया ॥ सो धम्मो होन मे सरणं ॥ ४४ ॥
क्रोड कल्याणने उत्पन्न करनारी अने अनर्थता समूहने नाश करनारी जीवदया ज्यां वर्णन कराय छे ते धर्म मारे शरण हो ॥ ४४ ॥
जो पाव जरुक्तं ॥ जीवं जीमंमि कुगइ कुवंमि ॥
धारिई निवममाणं ॥ सो धम्मो दोन मे सरणं ॥ ४५ ॥
पापना भारथी आक्रांत थएला जीवने भयंकर कुगतिरुप कुवाने विषे पडतां धारण करी राखे छे ते धर्म मारे शरण हो ॥ ४५ ॥
सग्गा पवग्ग पुरमग्ग ॥ लग्गा लोभाए सबवाहो जो ॥
जव श्रमविलंघण खमेो ॥ सो धम्मो दोन मे सरणं ॥ ४६ ॥
देवलोक अने- मोक्षरूप नगरना मार्गमां जनारा लोकोने सार्थवाह समान ने धर्म छे अने भवरूपी अटवी ओलंघवाने समर्थ छे ते धर्म मारे शरण हो ॥ ४६ ॥
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एवं घनएदं सरणं पवनो। निविन चित्तो नव चारगान॥
जं उक्कम किंपि समस्कमोसें। निंदामि सबंपि अहं तमिन्दिं ॥७॥ ए प्रकारे पार शरणने आँगकार करनारो भवरुपी बीदखानाथी उदासीन छ चित जेनुं एवो, जे काइ दुष्कृत कर्यु होय ते सर्व अहि हुँ एमना समक्ष निद्छु ॥४७॥
जंच मित्त विमोहिएणं ॥ मए नमतेण कयं कुति॥
मणेण वाया कलेवरेणं । निंदामि सबंपि अदं तमिन्हि ॥ ४ ॥ जे मिथ्यात्वना विशेष मोहवड़े करीने में अहिंमा भमतां मन, वचन अने कायावडे कुतीर्थ सेव्युं ते सवेने पण हुं अहिं निंदुई॥ ४८
पढाश्त जं जिण धम्म मग्गो । मए कुमग्गो पयमी कनऊं ॥
जान अहं जं परपावहेक ॥ निंदामि सबंपि अहं तमिन्दिं ॥४॥ जे जिन धर्मना मार्गने दांकी दीधी भने में जे कुमार्ग प्रगट कर्यो, वली पारकाने पापर्नु कारण हुँथयो ते सर्वेने ९ अहिंआं निदुछु ।। ४९॥ जंतासि जं जंतु उहावहारं ॥ इलुस्कलाइणि मए कयाई॥
Hus४॥ जं पोसियं पाव कुबयं तं । निंदामि सबपि अहं तमिन्दिं ॥५॥
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जे जीवोमे दुःख करनारा हल अने उखल ( खांयणीओ ) विगेरे यंत्रो में कराव्यां वली पापे करीने कुटुंब पोष्यं ते सर्वेने अहिंआं हुं निदुछु ॥ ५० ॥ जिस जवण बिंब पुनय ॥ संघ सरुवाइ सत्त खित्ताई ॥ जं ववियं घण बीयं ॥ तमदं प्रमोभए सुकयं ॥ ५१ ॥ १. जिन भवन ( देरासर ). २ जिन प्रतिमा. ३ पुस्तक. ४ चतुर्विध संघ धनरुपी बीज वायुं होय ते सुकृतने हुं अनुमोदुंखुं ॥ ५१ ॥
सात क्षेत्रोने विषे जे
जं सुद्ध नारा दसरा | चरणाई नवन्नव प्पवदलाई || सम्म म पालियाई ॥ तमदं अणुमोयए सुकयं ॥ ५२ ॥
जे भवरुपी अर्णव एटले समुद्रमां वहाण समान शुद्ध ज्ञान, दर्शन, अने चारित्रने सम्यक प्रकारे में पाल्यां होय ते सुकृतने हुं अनुमोदुछु ॥ ॥ ५२ ॥
जिला सिद्ध सुरि नवझाय ॥ साहु सादम्मिय प्पवयलेसु ॥ जं व बहुमाणो ॥ तमदं अणुमोअए सुकयं ॥ ५३ ॥
जिन अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, साधर्मिक अने प्रवचनने विषे जे बहुमान में कर्यु होय ते सुकृतने हु अनुमोदुहुं ॥ ५३ ॥
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आरा
पयनो.
॥७५।
सामाईय चनवीसत्रयाइ॥ श्रावस्सयंमिच प्रेए ।
जं नामियं सम्मं ॥ तमहं अणुमोपए सुकयं ॥ ५ ॥ सामायक, चउविसत्यो विगेरे छ प्रकारना आवश्यकने विषे जे सम्यक् प्रकारे उद्यम कर्यो होय ते सुकतने हुं अनुमोदुछु ॥ ५४॥
पुत्व कय पुन्न पावाण ॥ सुस्क उस्काण कारणं लोए ॥
न य अन्नो कोवि जणो ॥ ईय मुणिय कुणसु सुहन्नावं ॥ ५५ ॥ पूर्वकत पुन्य अने पाप ते लोकने विषे मुख अने दुःखना कारण छे पण कोइ बीजो माणस कारण नथी एम जाणीने शुभ भाव कर ॥ ५॥
पुचि चिन्नाणं ॥ कम्माणं वेश्प्राय जं मुस्को ॥
न पुणो अवेइआणं ॥श्य मुणिय कुणसु सुहन्नावं ॥५६॥ पूर्वे दृष्ट कर्म करेलां तेनुं वेदबुं तेज मोक्ष कहेवाय पण तेपने नौह भोगवां ते मोक्ष नहि एम जाणी शुभ भाव कर ॥ ५६ ॥ --
जंतु मए नरए नारएणं । उस्कं तितिस्कियं तिरकं ॥ तनो किनिय मित्तं ॥ इय मुणिय कुणसु सुदनावं ॥ ५ ॥
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जे तमे नरकने विषे नारकीपणे अत्यंत तीखां दुःख सह्यां तेथी आ दुःख केटलामे हिस्से छे एम जाणीने शुभ भाव कर ॥ ५७ ॥
जेण विसा चारितं ॥ सुयं तवं दारा सीलमवि सर्व्वं ॥
. कास कुसमं व विदलं ॥ इय मुलिय कुणसु सुहजावं ॥ ५८ ॥
जे भाव विना, चारित्र, श्रुत, तप, दान, शील विगेरे सर्व पण कासना फुलनी पेठे निष्फल छे एम जाणीने शुभ भाव कर ।। ५८ ।।
जंजिल बहुदा ॥ सुरसेल समुद्र पवएहिंतो ॥ तिची तए न पत्ता ॥ तं चयसु चनविदादारं ॥ ५ ॥
मेरु पर्वतना जेटला ढगलाथी पण बधारे आहार घणी रीतें भोगव्या तो पण तेवढे तृप्ति थइ नहि माटे ते चार प्रकारना आहारने त्याग करो ॥ ६९ ॥
जो सुलहो-जीवां ॥ सुर नर तिरि नरय गइ चटक्के ॥
मुलिय उल्लदं विरयं ॥ तं चयंसु चनविदादारं ॥ ६० ॥
जे आहार जीवाने देवता, मनुष्य, तिर्यच भने नरक ए चार गतिओने विषे सुलभ छे ने विरति पशुं दुर्लभ छे ते माढ़े ते चार प्रकारना आहारने त्याग करो ॥ ६० ॥
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आरा
॥७६॥
बीव निकाय वहे ॥ श्रकयंमि कहंपि जो न संभवइ ॥ जव जमल दादारं ॥ तं चयसु चनविहादारं ॥ ६१ ॥
छ जीवनी निकायनो व कर्या विना जे आहार कोइ पण रीते यतो नथी अने ते भव भ्रमणप दुःखनो आधाररूप छे ते माटे चार प्रकारना आहारनो त्याग करो ॥ ६१ ॥
चत्तंमि जंमि जीवाणं ॥ होइ करयलगयं सुरिंदत्तं ॥
सिद्धि सुदं पहु सुलदं ॥ तं चय सु चनविदादारं ॥ ६२ ॥
जे आहारने त्याग कर्ये छते जीवोने हाथेलीमां इंद्रपशुं आवे छे भने सिद्धिनुं सुख पण नकी सुलभ थाय छे ते चार प्रकारना आहारने त्याग करो ।। ६२ ।।
नाणाविद पाव परायणोवि ॥ जं पाविना श्रवसा ॥ जीवो लद सुरतं ॥ तं सरसु मणे नमुक्कारं ॥ ६३ ॥
नाना प्रकारना पापमां तत्पर थएलो एवो पण जीव अंतना बखते जे नवकार पामीने पामे छे ते नवकारने मनने विषे स्मरण करो ॥ ६३ ॥
सुलदान रमणीनं ॥ सुलदं रऊं सुरतणं सुलदं ॥
कुचिय जो ल्हो ॥ तं सरसु मणे नमुक्कारं ॥ ६४ ॥
देवताप
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पयचो.
॥। 36 ।।।
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स्त्रीभो मूलभ छ, रान अने देवपणुं ए पण मुलभ छे पण एक जे दुर्लभ छे ते नवकार छे ते माटे मनने विषे नवकारर्नु स्मरण करो ॥ ६४॥
जेए सहाएण गयाण ॥ परनवे संन्नति नवियाणं ॥
मण वंबिय सुस्काई तं सरसु मणे नमुक्कारं ॥६५ ॥ जेनी सहाय पामेला भव्य जीवोने परभवने विषे मनोवांछित मुखो मले छे ते नवकार मंत्रनुं मनने | विषे स्मरण करो ॥१५॥
लहमि जंमि जीवाणं ॥ जायज्ञ गोपयं व नवजलदी॥
सिव सुद्द सचंकारं ॥ तं सरसु मणे नमुक्कारं ॥१६॥ जे नवकार पामे छते जीवोने संसार समुद्र गोपद (गावडा) जेबो थाय छे अने जे मोक्ष मुखनो सत्यकार मे ते नवकार मंत्र- मनने विषे स्मरण करो ॥६६॥
एवं गुरु वइ॥ पचंताराहणं निसुणिऊणं॥
वोसि सहपावो॥ तदेव आसेवए एसो ॥६७॥ एग्रमण करनार - ए प्रकारे गुरुए उपदेशेली छेल्ली आराधना सांभलीने सर्व पाप जेणे बोसराव्युं छे एवो पुरुष
तथा प्रकारे सेवे ॥१७॥
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________________ षयरो. हस्स शिपिA5004551ST आरा पंच परमिकसमरण // परायणो पाविकण पंचतं / / // 7 // पत्नो पंचम कप्पंमि ॥रायसीहो सुरिंदत्तं // 30 // पंच परमेष्टी स्मरणमा तत्पर थएलो एवो राजसिंह कुमार मरण पामीने पांचमा देवलोक्ने विषे इंद्रपजाणाने पामतो हो // 68 / / तप्पत्ती रयणवइ॥तदेव धारादिन तकप्पे॥ सामाणियत्नं पत्ता // तक चुभा निवइस्संति // ए॥ तेनी स्त्री रत्नवती तेनीज पेठे नवकारने आराधीने देवलोकने विषे इंद्रना सामानिक देवपणाने पामती हवी अने त्यांची चवीने बने मोक्षे जशे // 69 // सिरि सोमसूरि रश्यं / / पङताराहणं पसमजणणं॥ जे प्रणसरति सम्मं // लहंति ते सासयं गणं // 7 // श्री सोममारए रचेली छेवटनी आराधना ते उपशमने उत्पन्न करनार छ माटे जेओ सम्यक प्रकारे | आदरशे तेओ शाश्वता स्थानकने (मोसने) पामशे // 7 // // इति श्री आराधना प्रकरणं संपूर्ण.॥ F+RC5HEस HESGSecemeSPASSFES Clin77 //