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॥१९॥
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जवि परिचत्त संगो ॥ तव तणु यंगो तहावि परिवा॥
मदिखा संसग्गीए ॥ कोसा जवण सियव्य रिसी॥ १० ॥ जो पण स्त्रीना सर्व संगने साग करनार अने तपवडे करीने पावला अंगवालो होने वोपण कोशाना घरने विपे वसनार सिंह गुफावासी ऋषि, स्त्रीमा संगथी चली जायो। १२८ ॥
सिंगार तरंगाए ॥ विलास वेलाए जोवण जलाए ।
के के जयंमि पुरिसा ॥ नारि नईए न बुझंति ॥ १२ ॥ शृंगार रूपी कल्लोलो छे जेमां अने विलास रुपी भरती छे जे मां जुबानी रुपी पाणी छे जेमा एवी स्त्री रूपी नदीने विषे जगतने विषे कया कया पुरुपो नथी डुबता ॥ १२१ ।
विसय जलं मोह कलं ॥ विलास बिब्बोय 'जलयरा इमं॥
मय मयरं नचिना ॥ तारुन्नमहमवं धीरा ॥१३०॥ धीर पुरुषो, विषय रुप जलबाला, अने मोह रुपी कादववाला, अने विलास अने अभिमान रूपी जलचर | वाला, मद रुपी मगरवाला, एवा जुवानी रुपी समुद्रने तरी गया ॥ १३० ॥
अप्रिंतर बाहिरए ॥ सव्वे संगे तुमं विवधेहिं ।। कय कारिय णुमईहिं॥ कायमणो वाय जोगेहिं ।। १३१ ॥
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