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________________ मप निविवि ण गुप्ति, पांच समिती भने पछी-मावनाओने ज्ञान अने दर्शन एटलांने आदरतो भने ते सहित पंच महाबतने रक्षणanaku अपवंतिक विरत ॥ तिकरण सुशे तिसक्ष निस्सलो॥ तिविदेण अप्पमत्तो ॥ रस्कामि मदवए पंच॥ ७॥ एप्रकारे प्रपदंडयकी विरक्त एवो, त्रिकरण शुद्ध एवो भने त्रण शल्यथा रहिव एयो भने त्रिविषे अपमत्त एवो पंच महाव्रतने रक्षण करूं ॥ ७७ संगं परिजाणामि ॥ सल्लं तिविहेस अकरा ॥ गुत्ती समिईन ॥ महंताणं च सरणं च ॥ ७ ॥ सर्व संगने सम्यक प्रकारे जाणुंछु अने माया शल्प, नियाण शल्य अने मिथ्यात्व भल्यरूप त्रण - स्यने त्रिविधे टाळीने त्रण गुप्ति अने पांच समिती ए मने रक्षण अने शरण हो ॥ ७० ॥ जहरकदिअ चक्कवाले ॥ पोयं रयण जरियं समुमि ॥ निकामगा धरिती ॥ कय करणा बुद्धि संपन्ना ॥ ७ ॥ जेम समुद्रनुं चक्रवाल क्षोभे सारे समुद्रने विषे रत्लथी भरेलु एवं पण माझ वहाणवटीओकृत करण बुद्धि युक्त एवो थइने वहाणने रक्षण करेछे ॥ ७९ ॥ गुताक DIRE ४६॥
SR No.034177
Book TitleMurkhshatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Hansraj Shravak
PublisherHiralal Hansraj Shravak
Publication Year1926
Total Pages154
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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