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शतकम्
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भोजनमाटेनी जे स्वल्प वस्तु होय, तेवी वस्तुनो रसीयो थइ वधारे मागनारो (८५), बीजानां कपटयुक्त मीठां वचनोथी फुलाइ जनारो (८६), वेश्यासाथे व्यापार करीने तेणीनीसाथे कलह करनारो (८७) अने ज्या वे माणसो गुप्त विचार करता होय, त्या पोते त्रीजो थइने उभनारो (८८) मूर्ख जाणवो. ॥ २३ ॥ राजप्रसादे स्थिरधी-रन्यायेन विवर्धिषुः ॥ अर्थहीनोऽर्थकार्यार्थी। जने गुद्यप्रकाशकः ॥२४॥
राजानी थयेली मेहेरवानीमा स्थिरपणानी बुद्धि राखनारो (८९), अन्याय करीने पोताना उदयनी इच्छा राखनारो (९०), धनहीन छतां धनथी साधी शकाय एवं कार्य करनारो (९१), अने लोकोमा पोतानी गुप्त वात प्रकाश करनारो (९२) मूर्ख जाणवो. ॥ २४ ॥ अज्ञातप्रतिभूः कीत् । हितवादिनि मत्सरी ॥ सर्वत्र विश्वस्तमना । न लोकव्यवहारवित ॥२५॥
कीर्तिमाटे अजाण्यानो जामीन पडनारो (९३), हितशिखामण आपनारमते द्वेष धरनारो (९४), सर्व जगोये विश्वासयुक्त मनवाळो (९५), अने लोकव्यवहारने नही जाणनारो ( ९६ ) मूर्ख छे. ॥ २५ ॥ | भिक्कुकश्चोष्णजोजी च । गुरुश्च शिथिलक्रियः॥ कुकर्मण्यपि निर्लजः। स्यान्मूर्खश्च सहासगीः ॥२६॥ |
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