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आ०प०
॥ ६७॥
प्रापो
ए पञ्चरका | जो काही मरण देस कालंमि ॥ मूढसनो | सो गर उत्तमं गणं ॥ ६९ ॥
धरो
धीर ने मुझ रहि ज्ञानवाळो मरणना अवसरे जे आ पचरुखाण करशे ते उत्तम स्थानकने पामशे ॥ ६९ ॥
धीरो जरमरण विक्र ॥ धीरो (वीरो पाठांतरं ) विन्नाथ नाथ संपन्नो | लोगस्सुयोग || दिसच खयं सबडुरकाणं ॥ ७० ॥
धीर, जरा अने मरणने जाणनार, ज्ञान दर्शने करीने सहित, लोकमां उद्योतना करनार एवा धीर ( वीर जीनेश्वर ) सर्व दुःखोनो क्षय
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|| श्री श्रावर पच्चरकाल समाप्त ॥
एक के
पयन्नो.
॥ ६७॥