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भत्त
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संसारना मूल बीज भूत एवा मिध्यात्वने सर्व प्रकारे त्याग कर अने सम्यक्त्वने विषे दृढ चित्तवालो थइ नमस्कारना ध्यानने विषे कुशल था ॥ ५९ ॥
मियतन्हियादिं तोयं ॥ मन्नंति नरा जदा स तन्दाए ॥
सुस्कारं कुम्मा | तहेव मित्त मूढ मलो ॥ ६० ॥
जेम माणसो पोतानी तृष्णावडे करीने मृगतृष्णाने विषे ( झांझवाना पाणीमां ) पाणी मानेछे तेम मिथ्यात्वथी मूढ मनवालो कुधर्मथकी सुखनी इच्छा करे छे ॥ ६० ॥
न वि तं करेइ अग्गी ॥ नेय विसं नेय किन्ह सप्पोवि ॥
जं कुणइ मदा दोसं ॥ तिघं जीवाण मित्तं ॥ ६१ ॥
जे महा दोष जीवने तीव्र मिध्यात्व करे छे ते दोष अग्नि विष के कृष्ण सर्प पण करतो नथी ॥ ६१ ॥ देव वसणं ॥ तुरुमणिदत्तु दारुणं पुरिसो ॥
पावें
मित्तमो हिमणो ॥ साहु पनसान पावानं ॥ ६२ ॥
मिथ्यात्वथी मूढ चित्तवाळो माणस साधु उपर द्वेष राखवा रूप पापथी तुरुमणि नगरीना दत्तनी पेठे तीव्र दुःख आ लोकमांन पाये ॥ ६३ ॥
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पयनो.
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