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________________ 25 espes इंद्रियनी सुखशातामां आकुल एवो अने विषम परिसह ते सहेवाने परवश धड़ गएला अने संजम जे नथी पाळ्युं एवो क्लिव (कायर) माणस आराधनाना वखते मुझाय छे ॥ ९४ ॥ लका य गारवेल य | बहुस्सु मएस वा विदुच्चरि ॥ जे न कहंति गुरूणं ॥ न हु ते श्राराह गहुंति ॥ एए ॥ " लज्जावडे अने गारववडे करीने अने बहु श्रुतना मदवडे करीने जे पोतानुं पाप गुरुओने न कहे ते आ राधक नथी थता ॥ ९५ ॥ सुकर डुक्करकारी ॥ जालइ मग्गंति पावए कित्तिं ॥ तो निंद || तम्हा आराहणा से || ६ || दुष्कर क्रिया करनार मुझे, मार्गने जाणे, कीर्त्तिने पान अने पोतानां पाप नहि ओलवतां निंदे माटे आराधना श्रेय कद्देतां भली कही छे । ९६ ॥ न विकारणं तमन || संथारो न विश्र फासुश्रा भूमी ॥ अप्पा खलु संथारो ॥ दोइ विसुद्दो मगुजस्स ॥ ए ॥ तरणांनी संथारो अथवा प्राशुक भूमि ते ( विशुद्धिनुं ) कारण नयी, पण खरेखर जेनो आत्मा विशुद्ध होय तेज खरो संथारो कहवाय ॥ ९७ ॥ ९ हे प्रति तिरे के টि7-09 के गित
SR No.034177
Book TitleMurkhshatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Hansraj Shravak
PublisherHiralal Hansraj Shravak
Publication Year1926
Total Pages154
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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