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________________ ३० ॥४ ससककप MPARANSFEBहरुसम्म अरिहंतोने विष भरिहत्तपणु, अने सिद्धोने विषे वळी जे सिद्धपणु, आचार्यमा जे आचार, अने उपाध्यायमा उपाध्यायपणुं ॥.५६ ॥ साइण साहुचरिश्र; देसविरइंच सावय जणाणं ॥ प्रणमन्ने सबेसि, सम्मत्तं सम्मदिहोणं ॥ ५ ॥ माधुओर्नु जे उत्तम चरित्र, अने श्रावक लोकोनुं देशविरतीपणुं, अने समकिनहोष्टर्नु ममकित एसबने हुं अनुमोदुएं ॥५॥ अहवा सबंवि अ विष, राय वयणाणसारि जं सुकम् ॥ कालत्तएवि तिविदं, अणमोएमो तयं सत्वं ॥ ५ ॥ अथवा वितराग वचनने अनुसारे जे सर्व सुकृत त्रणे काळयां ( कर्य होय ) ते त्रणे प्रकारे ( मन, व. चन, ने कायाए करी) अनुमोदीए छीए ॥ ५८ ॥ सुद परिणामो निचं, चन सरण गमाइ थायरं जावो ॥ कुसल पयमोन बंध. वान सुदाणुबंधान ॥ ५ ॥॥ निरंतर शुभ परिणामवाळो जीव चार शरणनी प्राप्ति आदिने आचरतो पुन्य प्रकृतिओने वांधेळे अने ( अशुभ ) बांधेलीने शुभ अनुबंधवाळी करेछे ॥ ७० ॥ E DISSPANDr025250g ॥३४
SR No.034177
Book TitleMurkhshatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Hansraj Shravak
PublisherHiralal Hansraj Shravak
Publication Year1926
Total Pages154
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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