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________________ म०प० ॥ ४४ ॥ कैसे सिरे এी তिद টিউইনফি खइएस व पीएस व ॥ न य एसो ताइन दवइ अप्पा ॥ जडुग्गरं न च || तो नूणं ताइन दोइ ॥ ६२ ॥ खावावडे तेमज पीवावडे आ आत्मा बचावातो नथी; जो दुर्गति न जाय तो निश्चे बचावापलो कहेवाय. देविंद चक्कवट्टित्तणाई ॥ रजाई उत्तमा जोगा ॥ पत्ता तो ॥ नयदं तित्तिं गनु तेहिं ॥ ६३ ॥ देवेंद्र चक्रवर्तिपणाना राज्यो तथा उचम भोगो अनंतीवार पाम्या पण तेओ वडे हुं तृप्ति पाम्यो नहि. खीर दगबु रसेसुं ॥ साऊसु मदोददीसु बहुसोवि ॥ नववो न य तदा || बिन्ना मे सीयल जलेण ॥ ६४ ॥ दुध, दहिं, शेरडीना रसवाळा स्वादिष्ट मोठा समुद्रोनै विषे घणीवार हूं उत्पन्न थयो तोपण शतिळ जळवडे मारी तृष्णा न छीपी ॥ ६४ ॥ तिविहे य सुह मलं ॥ तम्हा काम र5 विसय सुरकाणं ॥ बहुसो सुदम थं ॥ नय सुद तग्दा परिबिएहा ॥ ६५ ॥ मन, वचन ने काय ए ऋण प्रकारे काम भोगना विषय सुखोना अतुल मुखने बहुबहुवार अनुभब्युं तो पण सुखनी तृष्णा भागी नहि ।। ६५ ।। AARA पन्नो ४४ ॥
SR No.034177
Book TitleMurkhshatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Hansraj Shravak
PublisherHiralal Hansraj Shravak
Publication Year1926
Total Pages154
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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