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महापाध्याय श्रीयशोविजय गणिकृत आत्मसंवादः ।
__ सं. विजयशीलचन्द्रसूरि उपाध्याय श्रीयशोविजयजीनी एक अपूर्ण छतां अद्भुत रचना अहीं आपवामां आवे छे : आत्मसंवाद. तेमनी प्राप्य-अप्राप्य रचनाओनी अद्यावधि तैयार थएलो सूचिओमां आ नाम प्रायः नथी. केमके सूचिकारोए तो. ए माटे बांधेलां धोरणोने आधीन रहीने ज निर्णय करवानो होय छे. ते धोरणोने चातरीने अटकल-अनुमाननो आधार लेवानुं तेमने माटे वा होय छे.
आ रचना यशोविजयजीनी होवानो एक पण लिखित आधार के पुरावो प्रति थको प्राप्त थतो नथी. प्रतिना प्रारंभे 'एँ नमः' नथी, के नथी प्रतिना प्रान्तभागे कर्ता के लेखकना नामनुं सूचन करती पुष्पिका. अने छतां आ रचना यशोविजयजीनी ज छे तेम कहेवा पाछळ बे मुख्य कारणो छे ते आ: तेमना हस्ताक्षर अने तेमनी शैली. वर्षो पूर्वे आ प्रतिनी झेरोक्स माग हाथमां आवी, त्यारे तेने जोतां ज ते यशो-हस्ताक्षर होवानुं मने खातरीपूर्वक लागेलुं. आजे जेम जेम ते प्रतिनी लखावट, एक एक अक्षरना मरांड वगैरे ध्यान दईने जोऊं छु, त्यारे ते तेमना ज हस्ताक्षर होवा विशे कोई संदेह रहेतो नथी. यशो-हस्ताक्षरने ओळखनारा आपणे त्यां गण्या गांठ्या जे थोडा जणा छे, तेओ मारा आ तारण साथे संमत थशे तेवी मने श्रद्धा छे. तेमनी सवलत खातर झेरोक्स नकलनी प्रिन्ट आ साथे मूकवामां आवी छे.
प्रति, ग्रंथकारे रचवा धारेला बृहत्काय ग्रंथना खरडा (Draft) समान छे. प्रारंभ खूब सरस अन सुघड लखावटथी थयो छे. पण एकाद पानं वह्या पछी तरत ज ग्रंथकार उतावळमां आव्या छे अने तेमनी कलम एवी तो गति पकडी ले छे के टर टेर तेओ पंक्तिनी पंक्तिओ लखीने रह करता जाय छे. अने पाने पाने हांसियामां पाठोनां उमरण कर्ये ज जाय छ: एटलुं ज नहि, आ त्वराने कारणे, यशोविजयजी जेवा विद्वान पुरुष माटे कल्पी न शकीए तेत्रो क्षतिओ पण आमां थयेली जोवा मळे छे. दा.त. दोषाणां ने बदले दोषानां. नव्ये ने बदले छेदितव्ये वगैरे. अने अक्षरो छुटी जवान पण घणीवार बनतुं जात्रा मळे छे. 'त्' ना 'द' थवानी होय त्यां 'त'
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ज रहेतो होय तेवू तो वारंवार छे. आनो अर्थ एटलो ज के ग्रंथकारना फलद्रूप दिमागमा युक्ति-तर्कोनो एक एवो तो भारे धसमसतो प्रवाह वहेतो हशे के तेने कागल पर अवतारवानी त्वरामां आवं झीणुं जोवानो अमने अवकाश ज नहि रह्यो होय; अने पछीथी सारी नकल करती वेळा आ बधुं समें करी लेवानो तेमनो ख्याल रह्यो हशे.
शैलीनी वात लईए तो नव्यन्याय-आधारित युक्ति अने तर्कवादनी शैली यशोविजयजी महाराजे आत्मसात् करी छे, अने जैनेतर दरेक दर्शनना सिद्धांतो तथा मान्यताओ, तेमणे ते शैलीथी खंडन के प्रतिविधान कर्यु छे. सामो पक्ष जे पण तर्क के युक्ति पेश करे, तेना ताणावाणा छूटा पाडीने तेनी तमाम बाजुओ तपासवी, ते बधी बाजुओ केवी केवी रीते खोटी के अप्रमाण छे ते. देखाडी आपवू; पछी पोतानी युक्ति रजू करी, सामानी दृष्टिए तेना तमाम अंकोडा उघाडा पाडीने छेवटे तेनी यथार्थता साबित करी आपवी; आवी तलस्पर्शी के घेरुं ऊंडाण धरावती शैली, जेम अन्य रचनाओमां, तेम आमां पण जोई शकाय छे. नव्य न्यायनी परिभाषा अने पद्धतिथी रजूआत करनार मात्र यशोविजयजी ज थया छे तेमां तो बेमत नथी ज. जैन दर्शनना मतने रजू के स्थापित करती वेळा तेमना मनमां भगवतीसूत्र वगैरे आगमोना पाठ अने शब्द चोक्कसपणे होय छे, अने तेना तात्पर्यने सर्वप्रथम नवनवा अकाट्य तर्कोथी स्थापित करी आपीने छेक छेल्ले तेओ आगमनो पेलो पाठ एवी रोते मूके के आपणा मनमा ए पाठनो मर्म जळहळतो थई जाय, अने तेना प्रति तथा ते पाठ रचनार गणधर-श्रुतधरोना अगाध श्रुतज्ञान प्रति सहेजे दृढ आस्थाभाव वधी जाय. यशोविजयवाचकना ग्रंथो अने शैलीथी परिचित जनोने ते ज शैली आ अपूर्ण ग्रंथमां पण अवश्य जोवा मळशे. पछी तेओ पण आ रचना तेओनी होवाना अनुमान साथे सहमत थशे ज, तेनी खातरी
ग्रंथ, नाम 'आत्मसंवाद' छे; आ नाम कर्ताए पोते २३मा पत्र पर हांसियामां मोटा अक्षरे नोंध्युं छे. नाम मुजब ज आमां आत्मा विशे विस्तारथी चर्चा थई छे. सर्वप्रथम नास्तित्ववादी चार्वाक साथे चर्चा छे, जे ग्रंथनो बहु मोटो भाग रोके छे. ते पछी सांख्य वादी साथेनो विवाद छे, जे एक-बे
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पानांमां ज पूरो थयो छे. छेल्ले क्षणवादी बौद्ध साथे मुठभेड छे, जे अधूरी रही छे. लागे छे के ते चर्चा हजी लांबी चाली होत, अने त्यार पछी अन्य दर्शनो-संबद्ध पण चर्चा होत. तेमणे स्वयं बे स्थळे निर्देश आप्यो छे के - "भेदाभेदस्थले एव वक्ष्यामः" अने "मोक्षसिद्धौ अभिधास्यमानत्वात्". आनो अर्थ ए के स्याद्वादानुसारी पदार्थो तथा सिद्धान्तोनुं प्रतिपादन करता करतां भेदाभेदवाद तथा मोक्षसिद्धि पण तेओ आलेखनार हता. पण आपणा दुर्भाग्ये आ बधुं नथी बन्यु- नथी मळ्यु. २३मा पत्र पर वंचाती छेल्ली पंक्तिमा "इति चे" आटलुं छे. आमां 'चेत्' एवो शब्द पण तेमणे पूरो नथी कर्यो, 'चे' करीने ज अटकी गया छे; ते परथी तेमनी व्यस्ततानो अंदाज काढी शकाय छे, अने आ त्वरानुं कारण पण समजी शकाय छे. आ लखाण एकवार छूट्यु, ते छूट्यु; पछी तेमने फरीथी आने जोवा-सुधारवा-पूर्ण करवानो अवकाश ज नहि सांपड्यो होय ! अद्भुत !
आत्मवाद जेवो गहन के सूक्ष्म विषय अने तेनी जटिल दलीलोनी शृंखला धरावतो आ ग्रंथ होवा छतां ग्रंथकार खूब हळवाशभरी-रमूजभरी भाषानो वारंवार उपयोग करे छे, अने अध्येताना मनने बोझिल बनतुं अटकावे छे. तो हळवा मिजाजमां लखाएल आ रचनामां शंगाररस-द्योतक वाक्यो पण एकाधिक वार अवतर्यां छे. जातिस्मरणज्ञाननी प्रमाणता सिद्ध करवा माटे बे उदाहरण तेमणे टांक्यां छे; एक कोई बाळकनु, पूर्वजन्मनी कामक्रीडाने वर्णवतुं; बीजुं पण पाटणना बाळकनु, दक्षिणापथना लक्ष्मीधर गाममा चतुर्मुख जिनप्रासाद होवानुं वर्णवतुं; ते पण बहु विचारोत्तेजक छे. वळी, ग्रंथकार ज
आ अंगे स्पष्टता करे छे के "संवादोऽयं, न संवादाभासः, बालस्य विप्रतारणबुद्ध्याद्यभावात्". मतलब के ते युगमां पण जातिस्मरण धरावतां पात्रो विशे यशोविजयजी जेवा मेघावी साधु वाकेफ रहेतां हशे. जो आ कल्पना साचो होय तो तेमनी वैज्ञानिकता परत्वे आदर उपजे.
जैन आगमोना विविध पाठोनां उद्धरण तो आमा छे ज, साथे अन्य शास्त्रोना संदर्भो पण कर्ताए अनेक स्थाने टांक्या छे. उपरांत, चार्वाक, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध, शून्यवादी, अद्वैतवादी वगेरे मतोनो, चिन्तामणिकार, वाचस्पति, धर्मकीर्ति, सुधर्मस्वामी वगैरे ग्रंथकारोनो, तेमज
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भगवती, विशेषावश्यक वगेरे ग्रंथोनो उल्लेख पण यथास्थाने आमां थयो छे. आ सिवाय पण, अन्ये, केचित्, अपरे, वदन्ति, आवा सांकेतिक उल्लेखो द्वारा तो तेमणे अनेक पर - दार्शनिकोनो तथा तेमना पाठ संदर्भोनो हवालो आप्यो छे ज, जेनां रहस्य तो आवा विषयोना खास अभ्यासीओ ज खोली शके.
'स्फटिक' शब्द रत्नजाति माटे प्रसिद्ध छे. अहीं तेओ तेने माटे 'स्फुटिक' शब्द प्रयोजे छे- वारंवार अने 'युवानी - जुवानी' माटे तेमणे शब्द वापर्यो छे- "यौवनिका".
आ ग्रंथनी हस्तप्रति अमदावादना डहेलाना उपाश्रयना भंडारमां छे, तेम झेरोक्स नकल परनी सिक्कानी छाप जोतां मानी शकाय वर्षो पूर्वे तेनी नकल में मेळवेली, परंतु क्यांथी, कोना मारफते ते कशुं आ क्षणे याद नथी. प्रतिनो प्रारंभ " श्रीगुरुभ्यो नमः " थी थयो छे. मंगलाचरण, प्रस्तावना जेवुं कशुं ज नथी. समजी शकाय छे के एकवार रचना करी लोधा पछी तेने आखरी ओप आपवा पूर्वक अधिकृत नकल करवानी थशे त्यारे आ बधी औपचारिकता करी लेवाशे तेवुं कर्ताना मनमां होवुं जोईए. २३ पत्रनी आ प्रतिमां छठ्ठे पानुं एक बाजुए साव कोरुं-लखाण विनानुं ज रह्युं छे, ते बाबत पण ग्रंथकारनी त्वरा तथा व्यस्ततानी तेमज मनमां उभराता जोशीला प्रवाहनी गवाही आपी जाय छे. प्रारंभना बे पत्रोमा हांसिया माटे लीटीओ बे तरफ आंकेली छे, पण पछी तो वगर लीटीए ज लेखन वह्युं छे.
आ ग्रंथनी प्रतिलिपि करवानुं काम खूब धीरज अने निपुणता मागी ले तेवुं कष्टसाध्य हतुं मुनि कल्याणकीर्तिविजयजीने ते सोंपतां तेमणे लांबे गाळे पण ते काम पार पाडी आप्युं छे. तेनुं पुनरवलोकन - संपादन वगेरे करवा पूर्वक आजे ते अत्रे प्रस्तुत करवामां आवे छे. उपाध्याय यशोविजयजीनी कृति पर काम करवानुं मळे ए. केटलुं बधु संतर्पक अने रोमहर्षक छे, ते वर्णनातीत छे.
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*अनुमान+२ अगस्टोनमः।इहरवलज्ञाननियात्यामादतिजैनास्तन्नमस्तवाकिस्ताहिामोहोहिजीक्स्पो व्यतेनवनिरसतुनास्त्येवघरादेश्वितस्पप्रत्यकेवायस्पातनचारप्रदनुमानंघमालविरुपचादिदो
पात्रावानुमानविरोधोयघाघटस्पनित्यचेसाध्येघरस्पशिनिपचंसाध्यमानमनित्पचसाधकेनपरि - खामियसाधकेनवानुमाननबापतएमदंसवेवापि।पिचानुमानस्पविषयाकिंसामान्य विशेषोवा
सर्यवास्पातानाधासनिमात्रास्तिचेकम्पावषितिपत्पलावनसिमाधान्।नवतेमिना विकिंचित्प्रयोजनं पुरुषम्पप्रार्तिप्रतिरेशादिविशिष्टपेवफतचातानहितायःअत्रलिविव निनादिविशिवनिरस्तीनिविशेषमाध्यस्तबनयुक्तं विवरितदेशादिविषणनहितम्पव
रन्वयानावार नहपर्वतोयंवकिमान्समादित्पाविवक्षितदेादिविशिऐनमाध्यनमहतो रन्दोस्तितहाविधेनववादिनामहधमादित्योपनिश्यात् नावितीयःतवापिहिसामान्पवान् विशोषमाध्यस्तधावविशेषपातदोषातातीविशेषेनुगमानावात्।सामान्पमियाधानात तहस्तानूपपन्नचादनुमानकघातातिानवागमःमागेत्रबझनाविप्रतिपत्तेःयधमाणंतत्र्य बामविमाननखितंयघाप्रत्पराअविवकछविहाजीवापन्नतातापुटविकाश्याजावत-सका
'आत्मसंवाद' - प्रथम पार्नु
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॥विरंकारसमस कार्पनायतपमानाकार तानापनविन नकार्यपहासमर्पचारकार्यरत वर्जिनचहानायकायतलवमाननिकालनतनुपपने मितकार्यकारणमावाकदिनुपलं लत्पपासानकारिया
पाकिसgपतलालमनुषसरमपमत्यमतिनलक शनिपतविनातारतेनवोपलचिलहसासीनताभिमारिकाम्यबस्तोमंनिभानासाविमचनबार कावेम्पुमतएनम्पतिशारागमनं प्रागवलतकामयारिस्तुकचंबापाकनमाकाचिन्मस्पतपुरकोपाल नवनासकामावपिनोपनमोनापकानविनम्नंगतिकार्यमारलपकारानांकल्विनपरम्परनातीनात दानात सकारांविषञ्चास्मिारिकार्यवानन्दजावारaazामवयवस्येवतासनत्योपानामधाकामविरमा दिश्यारिकारलजन्मस्मादमिनिमननशतकम्पपतिपत्रसप्रशासनमामश्वभर्विकल्पोरिनवप्रवर्ग तविपुक्तावत्पदानुपलनारिनाकार्यकारणभावाभापानबारहमाननवजावानलयाविनानमनसनन्यस्वजार ५मविहानप्रतिकारणऽपमानसमाल्कनविननाननम्पसजननम्बचावनतरहीताम्मानिन तरंजवनीतिघ्रत्यकनसमि समनिमा-पान्पत्रान्यमापदिशकम्पत्मिादिकानविष्यतीत्येवानिकिकार्यकारभावापाशंकरीयाप्रतिनिपताव तत्रिपादप्रतिनियनम्पमात्पत्तःपपापमापरिनुकमेवम्पाययममारकाविधानिस तुरन्पन्नध पत्तिमादिकार्पनरतहिमनरत्रमादिन्यतिरेकानुविधाविपाशनापारनतम्यागादिनःम्पान्जम्पविश्वनवी मादिकालपनधारियतिरेकानुविधायिनविहिननरपितम्पत्तुिनववंयोनापिनुनुचानावानमारकमस्तुक माधोतिहतुकचाबमाभावामिंगनिमपतएकरानवानगवेकाननरचनेनरमानिकिमत्रनयुक्तरतिरेनाकाल धर्मानुशमानावाविनोबाबाम्पसकाचप्रगामधन्नारएवातिप्रनगरोबपानिबेकरीतातिरे
'आत्मसंवाद' - छेल्लु पार्नु
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आत्मसंवादः
॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥
इह खलु 'ज्ञान-क्रियाभ्यां मोक्ष' इति जैनाः । तत्र सहते चार्वाकः । तथा हि- मोक्षो हि जीवस्योच्यते भवद्भिः, स तु नाऽस्त्येव, घटादेरिव तस्य प्रत्यक्षेणाऽग्रहणात् । न च तदन्यदनुमानं प्रमाणं, अनुमानविरुद्धत्वादिदोषात् । तत्राऽनुमानविरोधो यथा-घटस्य नित्यत्वे साध्ये । घटस्य हि नित्यत्वं साध्यमानमनित्यत्वसाधकेन परिणामित्वसाधकेन चाऽनुमानेन बाध्यते । एवं सर्वत्राऽपि ।
अपि चाऽनुमानस्य विषयः किं सामान्यं विशेषो वा उभयं वा स्यात् । नाऽऽद्यः, अग्निमात्रास्तित्वे कस्यचिद् विप्रतिपत्त्यभावेन सिद्धसाधान् (सिद्धसाधनात्) । न च तेन सिद्धेनाऽपि किञ्चित् प्रयोजनं, पुरुषस्य प्रवृत्ति प्रति देशादिविशिष्टस्यैव वर्हेतुत्वात् ।
न द्वितीयः, अत्र हि विवक्षितदेशादिविशिष्टो वह्निरस्तीति विशेष: साध्यः, तच्चन युक्तं विवक्षितदेशादिविशेषणसहितस्य वढेरन्वयाभावात् । न हि पर्वतोऽयं वह्निमान् धूमादित्यादौ विवक्षितदेशादिविशिष्टेन साध्येन सह हेतोरन्वयोऽस्ति, तथाविधेन वयादिना सह धूमादेाप्त्यनिश्चयात् ।
नाऽपि तृतीयः, तत्राऽपि हि सामान्यवान् विशेषः साध्यः । तथा च विशेषपक्षोक्तदोषात् । तदुक्तं
"विशेषेऽनुगमाभावात्, सामान्ये सिद्धसाधनात् । तद्वतोऽनुपपनत्वादनुमानकथा कुतः ? ॥ इति ।
न चाऽऽगमः प्रमाणं, तत्र बहूनां विप्रतिपत्तेः । यत्तु प्रमाणं तत् सर्वेषामविगानेन स्थितं, यथा प्रत्यक्षम् ।
अपि च कथं 'छव्विहा जोवा पन्नत्ता, तं० पुढविकाइया जाव तसकाईया' तथा 'अस्थि जीवे' इत्यादि जीवास्तित्वप्ररूपकं वचः प्रमाणम् ? पृथिव्यासेजोवायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदायेषु शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा । तथा 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय पुनस्तान्येवाऽनुविनश्यति' इत्यादिकं च जीवप्रतिषेधपरं न प्रमाणं ?, नियामकाभावात् ।
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तस्मात् सुदृढमिदं यन्नाऽस्ति जीवः ।
ननु यो भूतव्यतिरिक्तं जीवं प्रतिषेधति स एव जीव:, जीवादन्यस्य घटादेरिवाऽचेतनत्वेन प्रतिषेधकत्वायोगात् इति चेत्
न, चैतन्यविशिष्टकायस्यैव परलोकगामिजीवप्रतिषेधकत्वात्, तदन्यसत्त्वे प्रमाणाभावात् ।
यत्तु 'जीवश्चेत् परलोकगामी न भवेत् तर्हि दानादिफलस्याऽभाव एव स्यात्, ततः प्रतिपद्यतां परलोकगामी जीव इति', तत् भस्मावगुण्डितपुरुषवचनवत् प्रश्नाननुरूपत्वादसङ्गतम् । तथा हि
केनाऽपि प्रामाणिकेन कश्चिद् भस्मावगुण्डितशरीरः पृष्टो यथा - केचिद वादिन आचक्षते - देवो नाऽस्ति प्रमाणाभावात् । तत्र किमुत्तरम् ? स आह यदि देवो न स्यात् तर्हि धार्मिको देवार्चननिमित्तं पुष्पानयनाय कथमाराममगात् । न हीदं वाक्यं देवसाधकं भ्रान्त्यैव तत्प्रवृत्त्युपपत्तेः । एवं दानादेरपि लोभ- मिथ्याज्ञानादित एव कैश्चित् प्रवर्तितत्वेन परलोकगामिजीवसाधकता दुरापास्ता ।
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अथ स्मरणं ह्यनुभूतविषयं, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । स्मर्यते च केनचित् पूर्वभवसम्बद्धं जन्म । ततोऽवश्यं तदनुभूतमिति सिद्धः परलोकगामी आत्मा इति चेत् ।
न । नहि पूर्वभवसम्बद्धजातिं स्मरन् कश्चिदुपलभ्यते येनैवमुच्यमानं मनो हरति विदुषाम् । न चाऽनुपलभ्यमानोऽपि कश्चिद् भविष्यतीति स्वीकरणीयं, वन्ध्यापुत्रस्वीकारप्रसङ्गात् ।
ननु बालकस्य प्रथमत एवोत्पन्नस्य स्तनदर्शनान्तरं स्तनादानाभिलाषो जायते । स चाऽभिलाषः पूर्वविवक्षितकारणदृष्टावेव दृष्टेषु कार्येषु तत्कार्यतया च ज्ञातेषु सत्सु पुनरपि कालान्तरे विवक्षितकारणदर्शनानन्तरमुपजायमानेन स्मरणेन विवक्षितकायांर्थितया विवक्षितकारणादानविषयो जन्यते, नाऽन्येन । न चाऽसौ बालकस्य तदानीमसिद्ध इति वाच्यं अभिलाषादेव प्रतिनियतविवक्षितकारणोपादानाद्यर्थे प्रवृत्त्यादिव्यवहारोपपत्तेः । यदुक्तम् -
तद्दृष्टावेव दृष्टेषु संवित्सामर्थ्यभाविनः । स्मरणादभिलाषेण व्यवहारः प्रवर्तते ॥ इति ॥
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July-2002 ततः प्रथमत एवोत्पन्नमात्रस्य बालस्य स्तनाभिलाषदर्शनादनुमीयते देहातिरिक्त: परलोकयायी जीवोऽस्ति, येन पूर्वभवे क्षुदपनोदकारी स्तनो दृष्टः सम्प्रति स्मरणविषयीकृत इति ।
मैवम्, भूतस्वभावादेव स्तनादानाभिलाषस्योपपत्ते: । अयमेव हि भूतानां स्वभावो यत् प्रथममननुभूतमपि किञ्चित् स्वात्मन उपष्ठ(ट)म्भकारकमुपाददते । न च स्वभावेऽपि पर्यनुयोगो घटते ।
'अग्निर्दहति नाऽऽकाशं कोऽत्र पर्यनुयुज्यते ॥' इति वचनात् ।
विचित्रकार्यकारितया च भूतस्वभावस्याऽपि विचित्रत्वात् । __ अनेन प्रतिनियतालब्धवित्तलाभ-लब्धवित्तापहारवैचित्र्ये नियामकं पूर्वभवार्जितपेवाऽदृष्टं स्वीकर्तव्यं, तस्वीकारे च कर्तारमन्तरेण तदनुपपत्तेस्तकर्तुरात्मनोऽपि पूर्वभवेऽस्तित्वमङ्गीकर्तव्यमित्यपि निरस्तम् । भूतानामेव तथास्वभावत्वेनाऽलब्धवित्तलाभादिवैचित्र्योपपत्तेः । उक्तं च - ‘जलबुद्बुदवज्जीवा' इति । यथैव हि सरित्समुद्रादौ नियामकादृष्टं विनाऽपि स्वभावसामर्थ्याद् विचित्रा बुबुदा: प्रादुःष्यन्ति तथा प्राग्भवोपार्जितादृष्टमन्तरेणाऽपि अलब्धवित्तलाभादिवैचित्र्यभाजो जीवा इति । अपि चैतन्यविशिष्टकायमात्ररूपा भवन्ति इति नाऽस्ति परलोकगाम्यात्मा, तदभावाच्च नारकत्वाद्यवस्थारूपस्य परलोकस्याऽप्यभाव एव । तदुक्तम्
'एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः' ॥ इति एवं च परलोकार्थं तपश्चरणाद्यप्यनुष्ठानमनर्थकम् । यदाह'तपांसि यातनाश्चित्राः संयमो भोगवंचने'ति ।।
अत्रोच्यते- यत् तावदवादि 'आत्मा प्रत्यक्षेण नोपलभ्यते घटादिवदिति', तदयुक्तम्; अवग्रहहापायधारणानां स्वसंवेदनप्रसिद्धत्वेनाऽऽत्मनोऽपि प्रत्यक्षत्वात् । धर्मप्रत्यक्षत्वे धर्मिणोऽपि प्रत्यक्षत्वनियमात् । नहि रूपादिप्रत्यक्षादन्यत् घटादीनां प्रत्यक्षेणोपलम्भनमस्ति, न चाऽवग्रहादीनां स्वसंवदनप्रसिद्धत्वमसिद्धम्; विवक्षितनीलत्वलक्षणविषये नीलं विज्ञानमुत्पन्नं ममाऽऽसीदित्यादेरवग्रहादिविषयकस्मरणात् तत्सिद्धेः । न चाऽननुभूतविषयमपि स्मरणं, अतिप्रसक्तेः; अनुभवश्चैषां स्वसंवेदनेनैवेति कथं न स्वसंवेदनप्रसिद्धत्वम् ? ।
न चाऽवग्रहादिज्ञानानां स्वसंवेदनप्रत्यक्षत्वेऽपि न धर्मत्वं, सततं
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39 परतन्त्रतयोपलभ्यमानत्वेन रूपादीनामिव धर्मत्वात् । धर्माश्च न धमिणमन्तरेणेति य एषां धर्मी स एवाऽऽत्मा; प्रत्यक्षश्चाऽसौ, एतत्प्रत्यक्षत्वात् । अन्यथा घटादीनां प्रत्यक्षत्वे का प्रत्याशा ?। रूपादीनामेव तत्राऽपि प्रत्यक्षत्वम्ः इत्यस्याऽपि सुवचत्वात् । अनुभवविरोधश्चेद् दूषणं, स किं नाऽत्र, येनात्मनः प्रत्यक्षत्वं न स्वीकुरुषे ? ।
किं च, अस्त्यहमिति ज्ञानं, न चैतत् प्रत्याख्यातुं शक्यम्, अनुभवविरोधात् । न चैतदनुमितिरूपं, व्याप्तिस्मरणादिनिरपेक्षत्वात् । किन्तु प्रत्यक्षं, स्वसंविदितरूपत्वात् स्पष्टप्रतिभासत्वाच्च । तद्विषयश्च न बाह्योऽर्थस्तस्याऽत्र प्रतिभासाभावात् । न च भूतचतुष्टयविषयमिदं ज्ञानं, अरूपादिप्रतिभासात्मकत्वात् अन्तर्मुखावभासित्वाच्च । यत् पुनर्भूतचतुष्टयविषयं तद् बहिर्मुखावभास्येव, तथा प्रतीयमानत्वात् । न चेत्, प्रतिभासमानस्याऽप्यहप्रत्ययस्य विषयान्तरमेव कल्पयितुं शक्यम् । सलिलादिप्रतिभासिनोऽपि ज्ञानस्य पृथिवीविषयत्वकल्पनया तद्भावप्रसक्तेः । तस्मादेतस्य यो विषय: स आत्मैवेति कथमुक्तम् 'आत्मनः प्रत्यक्षेण न ग्रहण मिति ? ।
अथ यथा रूपादिविषये प्रत्यक्षमुत्पद्यमानं तत्स्वरूपमवगमयति तथा आत्मविषयेऽप्युत्पद्यमानं प्रत्यक्षमात्मस्वरूपमवगमयेत् । न च प्रत्यक्षविषये वस्तुनि विप्रतिपत्तिरतोऽप्रत्यक्ष एवाऽऽत्मेति चेत्
न, 'इदं रूप'मित्यादिप्रत्यक्षस्य यथा रूपस्वरूपप्रकाशकत्वं तथा'ऽयमह मिति प्रत्यक्षस्याऽप्यस्त्येवाऽऽत्मस्वरूपप्रकाशकत्वं, शरोरगुणग्रहणवैमुख्यतयाऽन्तर्मुखावभासित्वेन प्रवृत्तेः ।
न चैवमात्मनः सदा सन्निधानात् सदैवाऽहंप्रत्ययप्रसङ्गेन सदैवाऽऽत्मग्रहणं इति वाच्यम् । आत्मनः सदा ग्रहणस्वभावत्वानभ्युपगमात् । कर्मवशगस्य हि तस्य तत्कर्मक्षयोपशमसामर्थ्यादेव तत्र तत्र विषयग्राहकत्वेन प्रवृत्तेस्तकर्मप्रतिबन्धादेव च तदैवाऽपरत्राऽप्रवृत्तेरिति न सर्वदैवाऽऽत्मग्रहणम् ।
न च प्रत्यक्षविषये वस्तुनि न विप्रतिपत्तिर्भूतेष्वपि तद्दर्शनात् । प्रकृतिविकाररूपत्वेन तेषां सांख्यैः स्वीकारेऽपि वैशेषिकैरणुव्यणुकादिक्रमारब्धकार्यरूपतया, बौद्धेश्च विज्ञानमात्ररूपतया स्वीकारात् । यदि चेयं न वस्तुतो विप्रतिपत्तिः, प्रसिद्धव्यवहारनियमात्, सर्वैरपि सांख्यादिभि: शौचादितत्तत्कर्मार्थे
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मृदादेरेवोपादानात्, तदेतदात्मन्यपि तुल्यं; सर्वैरपि वादिभिः शरीरस्य जडत्वेन तदतिरिक्तेनैव चेतनेन दर्शनस्मरणप्रत्यभिज्ञानालोचनादिकरणात् ।
नन्वहंप्रत्ययो नाऽऽत्मविषयोऽहंप्रत्ययत्वात्, स्थूलोऽहमिति प्रत्ययवदिति चेत् न; विपक्षबाधकाभावेनाऽप्रयोजकत्वात् । सहचारदर्शनमेव विपक्षबाधकमिति चेत्, न; दूरस्थमङ्गारभृतं पात्रं धूमवत्, वह्निमत्त्वादित्यस्याऽपि प्रयोजकत्वपातात्, महानसादौ धूमध्वज-धूमयोः सहचारदर्शनात्; अनुमानप्रामाण्याङ्गीकारेऽपसिद्धान्ताच्च ।
ननु सुहृद्भावेन पृच्छामि-स्थूलोऽहं कृशोऽहमिति योऽहंप्रत्यय: स नाऽऽत्मविषयोऽहं सुखी अहं दुःखीति प्रत्ययस्तु आत्मविषयः, इत्यत्र किं नियामकम् ? इति चेत्
न । उभयस्याऽप्यस्याऽऽत्मविषयकत्वात्; अन्तर्मुखावभासितया प्रवृत्तत्वेन ! किन्तु 'स्थूलोऽहं' इत्यादिरूपस्य भ्रमत्वम्, अस्थूल एवाऽऽत्मनि स्थूलत्वग्रहणरूपत्वात् । अतत्प्रकारे तत्प्रकारकज्ञानस्यैव भ्रमल्वात् । 'अहं सुखी' ति ज्ञानस्य तु प्रमात्वं, सुखिन्येव सुखग्रहणस्वरूपत्वात् । तद्वति तदन्याप्रकारकज्ञानस्यैव च प्रमात्वात् । नहि तस्येवाऽस्याऽपि भ्रमत्वमेव, रक्तजपाकुसुमसंसर्गाद् रक्तः स्फुटिक इति ज्ञानस्येव कठिनः स्फुटिक इत्यस्याऽपि भ्रमत्वप्रसङ्गात् ।
अथ भवति रक्तः स्फुटिक इति प्रत्ययस्य भ्रमत्वं, जपाकुसुमसंसर्गाभावे शुक्ल: स्फुटिक इति बाधकज्ञानदर्शनात् । न तु कठिनः स्फुटिक इत्यस्याऽपि, द्रवत्वाधिकरणं स्फुटिक इति विपरीतप्रत्ययस्य जातुचिदप्यदर्शनात् इति चेत् ।
तहि कुतो न भवति स्थूलोऽहमिति प्रत्ययस्य भ्रमत्वम् ? अहं सुखीति प्रत्ययस्य चाऽभ्रमत्वम् ? मोहापगमे विवेकाकलिते मनसि 'स्थूलोऽहं नाऽस्मि, किन्तु शरीरं मे स्थूलं' इति भेदप्रत्ययस्य बाधकस्याऽत्राऽपि दर्शनात्: 'नाऽहं सुखी, किन्तु शरीरं मे सुखि' इत्यस्य च कदाचिदप्यदर्शनात् ।
वस्तुतस्तु स्थूलोऽहं इत्यादिप्रत्ययस्याऽपि भेदं तिरस्कुर्वत एवोत्पद्यमानस्य भ्रमत्वं, स्थूलशरीरवानहमित्येवं शरीरोपाधिकतया जायमानस्य तु आत्मालम्बनतयाऽपि सत्यत्वमेव । दृश्यते चाऽभेदतिरस्कारेणाऽपि तज्जायमानं, यथा स्थूलं कृशं वा मम शरीरमिति ।
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41 अथ मदीय आत्मा इत्यत्राऽपि अभेदतिरस्कारेण भेदेन प्रतिपत्तिरस्ति । न च मच्छब्दवाच्यमात्मान्तरमपि स्वीक्रियते भवता । न चैवं प्रतिपन्नस्त्वयाऽप्यात्मा एतदात्मशब्दाभिधेय इति वाच्यं, मम शरीरं कृशमित्यादिज्ञानेषु शरीरव्यतिरिक्त मालम्बनमङ्गीकुर्वतो ममाऽऽत्मा सुखीत्यादिज्ञानेष्वपि आत्मव्यतिरिक्तालम्बनाभ्युपगमप्रसङ्गस्याऽनिष्टस्याऽऽपादनात् इति चेत् ।
न ! नहि ममाऽयमात्मेति ज्ञाने शरीरादिवन्मत्प्रत्ययविषयादन्य आत्मा प्रतिभाति, किन्त्वहमित्यात्मानं प्रत्यक्षतः प्रतिपद्याऽऽत्मान्तरव्यवच्छेदेन परप्रतीत्यर्थं ममाऽऽत्मेति निर्दिशति; ममाऽऽत्माऽहमेवेत्यर्थः । यदा पुनः शरीरमात्मशब्देन निर्देष्टुमिच्छति तदा ममाऽऽत्मेति भेदाभिधानमेवेदम्, आत्मोपकारकत्वेन शरीरे आत्मत्वोपचारात्, प्रियभृत्येऽत्यन्तोपकारकतयाऽहमेवाऽयमित्यादिवत् ।
अथवा ममाऽऽत्मेति मत्प्रत्ययविषयात् भेदेनाऽऽत्मज्ञानं बाध्यत्वादस्तु भ्रमरूपं, शरीरभेदज्ञानं तु कथं तथा? नहि एकत्र मर्वादौ सलिलज्ञानस्य भ्रमत्वे विमलजललहरीमनोहारिणि सरस्यपि तस्य भ्रमत्वं, भ्रम-प्रमाविशेषाभावप्रसङ्गात् ।
तत् सिद्धमहं-प्रत्ययस्य प्रत्यक्षतया तद्विषयस्याऽऽत्मनोऽपि प्रत्यक्षत्वम् ॥ एतेन किं स्वरूपमात्मनः प्रत्यक्षेणाऽवगम्यते तद् वाच्यं मनागिति न किञ्चित् ।
सुखादेरपि कि स्वरूपं प्रत्यक्षेणाऽवगम्यते यन्मानसप्रत्यक्षे तत् स्वीक्रियते ? न ह्याख्यातुमशक्यमपि प्रत्याख्यातु शक्यं इति यदि, तदत्राऽपि तुल्यम् । अथाऽऽख्यायते एव सुखादेरानन्दादिस्वरूपं प्रसिद्धमेव रूपं प्रत्यक्षेणाऽवगम्यते इति चेत्, तहि तदाधारत्वमात्मनोऽपि रूपं प्रत्यक्षेणाऽवगम्यत इति कथं न जानाति भवान् येनैवं लज्जामपहाय पुनः पुनः प्रलपति । तदुक्तम्
सुखादि चेत् समानं हि स्वतन्त्रं नाऽनुभूयते । मतुबर्थानुवेधात् तु सिद्धं ग्रहणमात्मनः ॥१॥ इदं सुखमिति ज्ञानं दृश्यते न घटादिवत् ।
अहं सुखीति तु ज्ञप्तिरात्मनोऽपि प्रकाशिका ॥२॥ इति । यत् तु आत्मन्यसत्येव प्रत्यक्षग्रहणाभिमान एष आत्मवादिनां निमीलिताक्षस्य तिमिरग्रहणाभिमानवत्, तत् तुच्छम् । न हि प्रागगृहीतान्धकारस्य निमोलिताक्षस्यान्धकारग्रहणाभिमानः, जात्यन्धस्य तथाऽदर्शनात् । किन्तु
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प्राग्गृहीतान्धकारस्य निमीलिताक्षस्य प्राग्गृहीतस्यैवाऽन्धकारस्योपस्थापनेन ।
न चैवं त्वयाऽपि प्रागात्मा गृहीतोऽस्तीति स्वीक्रियते येनाऽस्यैवोपस्थापनेनाऽहंप्रत्ययादात्मग्रहणाभिमान उच्यमानः सुन्दरतां तवाऽऽत्मनः ख्यापयेत् । यदि तु स्वीकृतस्तदा सिद्ध एवाऽऽत्मेति कृतं विवादेन ।
अत्राऽऽह - अस्तु अवग्रहादिज्ञानभेदानां धर्मतया प्रत्यक्षतया च तद्धर्मिणोऽपि प्रत्यक्षत्वम् । परं कुत एवं परलोकगाम्यात्मा प्रत्यक्षः ? भूतानामेव तद्धर्मित्वोपपत्तेः । यदुक्तं वाचस्पतिना
'पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये शरीर-विषयेन्द्रियसंज्ञास्तेभ्यश्चैतन्यमिति । कायाकारप्राणापानपरिग्रहवद्र्यो भूतेभ्यस्तदुत्पद्यते तेनाऽविशिष्टेभ्य इति । प्रयोगश्च-चैतन्यं कायाकारभूतेभ्यः समुत्पद्यते, तद्भाव एव भावात्, मद्याङ्गेभ्यो मदशक्तिवत् । न चोत्पद्यतां तथाविधभूतेभ्यः. परन्तु धर्मी तस्य जीव एव स्यादिति वाच्यम्; उत्पादकत्वाभिमतभूतसमुदायस्यैव धर्मितयाऽऽत्मकल्पनानवकाशात्' ।।
तन्न, चैतन्यस्य धर्मत्वे स्वीकृते आत्मास्वीकारस्य लज्जास्पदत्वात्: धर्मिणमन्तरेण धर्मस्याऽवस्थितेरभावात् । न च भूतान्येव धर्मी, आनुरूप्याभावात् । अन्यथा जल-काठिन्ययोरपि धर्म-धर्मिभावप्रसङ्गात् । न चाऽऽनुरूप्याभावोऽसिद्धः, अबोधस्वरुपस्य मूर्तस्य विषयापरिच्छेदकस्य पृथिव्यादिभूतस्य बोधस्वरूपं अमूर्त विषयपरिच्छेदकं चैतन्यं प्रति अनुरूपित्वाभावात् । अबोधस्वरूपत्वादिकं च भूतानां सकलजगत्प्रसिद्धमेवेति नहि तदपि प्रत्याख्यातुं शक्यम् ।
तदिदमुच्यते-भूतसमुदायश्चैतन्यस्य धर्मी न, चैतन्येन सहाऽननुरूपित्वात् । यद् येन सहाऽननुरूपि तत् तस्य धर्मिभूतं न, यथा काठिन्यस्य जलम् । अननुरूपी च चैतन्येन सह भूतसमुदायस्तस्मान्न चैतन्यस्य धर्मीति । तदुक्तम्
काठिन्याबोधरूपाणि भूतान्यध्यक्षसिद्धितः । चंतना च न तद्रूपा तद्धर्मः सा कथं भवेद् ।। इति । किं च. न प्रत्येकं भूतानां धर्मश्चैतन्यं, घटपटादावभावात् । अथ तत्राऽप्यस्त्येव चैतन्यं, किन्त्वनभिव्यकं काष्टपिष्टादौ मदशक्तिवत् ।
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कायाकारपरिणतभूतेभ्यः पुनरस्याऽभिव्यक्ति:, सुराकारपरिणतेभ्यस्तेभ्य इव तस्या इति चेत् । न । अविद्यमानायाश्चेतनायाः कायाकारपरिणत भूतैरभिव्यक्तेरसिद्धेः । ननूक्तमेव कायाकारात् प्रागपि भूतेषु अनभिव्यक्ता सा विद्यते इति चेद् उक्तं, परमयुक्तम् । तत्सत्त्वे प्रमाणाभावात् । न च विना प्रमाणं किञ्चित् सिध्यति, सर्वस्य सर्वेष्टार्थसिद्धिप्रसङ्गात् ।
न च प्रत्यक्षमेव प्रमाणं, अतीन्द्रिये विषये तत्प्रवृत्तेरसिद्धेः । अनुमानं तु त्वया न स्वीक्रियत एव, अपसिद्धान्तापातात् ।
ननु सिद्धान्तरहस्यमिदमस्माकम् । सैद्धान्तिकैरुक्तं यदलौकिकमनुमानं स्वर्गनरकादिप्रसाधकं तन्न प्रमाणम् । लौकिकं तु धूमादि प्रमाणमेव । तद्दर्शनानन्तरं समस्तेनाऽपि लोकेनाऽग्नेरनुमीयमानत्वात् इति चेत्
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हन्तैवमपि अकायाकारभूतेषु चैतन्यानुमानमप्रमाणमेव समस्तेनाऽपि लोकेन तत्र चेतनाया अननुमीयमानत्वेनाऽस्यालौकिकत्वात् । इत्थम्भूतस्याऽपि लौकिकत्वे स्वर्गनरकादिसाधकस्याऽपि लौकिकत्वप्रसङ्गात् ।
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यत् तृक्तं काष्टपिष्टादिषु प्रत्येकमनुपलभ्यमानाऽपि मदशक्तिः सुराकारपरिणतैस्तैरभिव्यज्यते यथा तथा कायाकारपरिणतैर्भूतैश्चेतनाऽपीति । तदविचारितसुन्दरम् । यतो मदशक्तिर्न काष्टपिष्टादिवस्तुस्वरूपं, सुराकारपरिणामपूर्वदशायामपि तस्य सत्त्वेन तदभिव्यक्तिप्रसङ्गात् । न चाऽतीन्द्रियैव काचित्, तत्साधकप्रमाणाभावात् । न च भवद्भिः प्रागनुपलभ्यमानाऽपि तस्या अभिव्यक्तिरङ्गीक्रियत एव समुदायदशायामिति वाच्यम्, काष्टपिष्टादीनां मदशक्तावभिव्यञ्जकत्वासिद्धेः । विद्यमानं हि वस्तु येन प्रकाश्यते तदभिव्यञ्जकं यथाऽन्धकारदशायां घटादेः प्रदीपादि । न च मदशक्तिरपि विद्यमाना, प्रमाणाभावात् । तत् कथं काष्ट पिष्टादीनां तदभिव्यञ्जकत्वं ? किन्तु तज्जनकत्वम् । तत्सामग्रीसमावेशे तदुत्पत्तेर्दर्शनात् मृत्पिण्डादिसामग्यां घटवत् । तन्न तद्दृष्टान्तेन चेतनाया अभिव्यक्ति: सिद्ध्येत ।
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यदपि - 'गथा नीलता प्रत्येकमनुपलभ्यमानाऽपि तन्तुसमुदाये उनलभ्यते तथा चेतनाऽपि' - इति कश्चित् तत् तुच्छम् । नीलतायाः पयांदषूपलभ्यमानायाः प्रत्येकमपि तन्तुपक्ष्मादी दर्शनात् । नह्येवं चेतनाऽपि प्रत्येकमुपलभ्यते, येनाऽयं दृष्टान्तः सम्यक् स्यात् । तदुक्तं "नीलादितुल्यताऽपि च प्रत्येकमदृष्टोऽ युक्तेति" ।
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July-2002 किञ्च, चैतन्याभिव्यक्तिर्यदि कायाकारभूतकारणिका तहि मृतकायेऽपि कथं न स्यात् ? । न हि घृतसंयोगादिकारणिका कुङ्कुमादिगन्धाभिव्यक्तिपुंतसंयोगवत्यपि कुङ्कुमादौ न भवति । तन्न तथाविधभूतानां चेतनाया अभिव्यञ्जकत्वम् ।
अपि च, आवृतस्यैवाऽभिव्यक्तिरभिव्यञ्जकसत्त्वे भवति, न च नावृतस्य, तथाऽदर्शनात् । एवं च कायाकारहेतुषु अकायाकारेषु भूतेषु चैतन्यं केनाऽऽवृतं? इति निर्वचनीयम् ।
कायाकारपरिणामाभाव एवाऽऽवरणं इति चेत्-न, अभावस्य सकलशक्ति विकलतया आवरणादिक्रियाकारित्वायोगात् । तदकारकस्य चाऽऽवरणत्वानुपपत्तेः, अतिप्रसङ्गात् । न च भावभूतमेव किञ्चिदावरणं. भृतचतुष्टयातिरिक्तस्य भावस्य स्वीकारेऽपसिद्धान्तप्रसङ्गेन भूतचतुष्टयमध्यादन्यतरदेव तत् त्वया वाच्यं, तस्य च नावरणत्वं, व्यञ्जकत्वाङ्गीकारात् । आवरणत्वे वा न कदाचिदपि तदभिव्यज्येत, कायाकारस्य तन्निमित्तकत्वेन तस्य सर्वदा सत्वात् ।
किञ्चेदं चैतन्यं यदि भूतेभ्यो व्यतिरिक्तं तदा सिद्धमेवाऽस्माकमिष्टं. नाममात्रविपर्ययेणाऽऽत्मनोऽभ्युपगमात् ।
अथाऽव्यतिरिक्तं तत् तु न युक्तं, भूतनिश्चयेऽपि हर्षविषादादिरूपचैतन्यस्याऽनिश्चयात् । नहि यस्मित्रिश्चीयमानेऽपि यन्न निश्चीयते तयोरप्यैक्यम्, अतिप्रसङ्गात् । उक्तं च- "यस्मिन्निश्चीयमानेऽपि यन्न निश्चीयते न तयोरैक्यमेव, यथोष्णत्व-कठिनत्वयोः । न निश्चीयते च शरीरे निश्चीयमानेऽपि चैतन्यं, ततो नाऽनयोरैक्यमिति" ! न चाऽसिद्धिः । तथाहि- अस्ति खल चैतन्यस्य हर्षविषादादि अनेकं रूपमनुभवसिद्धं, भूतानां काठिन्यादिवत् । तच्च शरीरे निश्चीयमानेऽपि न निश्चीयते, तत्प्रतिपक्षस्य संशयस्याऽसकद्दर्शनात् । विरुद्धधर्मसंसर्गेऽपि यदि न भेदस्तदा पृथिव्यादीनामप्यैक्यमापद्येतेति पृथिवीप्राप्तौ जलप्राप्तिरपि स्यात् । तथा च न काचित् कामिनी कुचकुम्भभारखिन्ना कुम्भमादाय सलिलार्थं सरसीमभिव्रजेत्, इति अयत्नेनैव सर्वार्थसिद्धि स्यात्, सर्वार्थासिद्धिरेव वेति महदसमञ्जसं स्यात् ।
अथ भिन्नाभिन्नं भूतेभ्य: चैतन्यं, तन्न सङ्गतम् । भिन्नं हि यदि भूतेभ्यश्चैतन्यं तदा कथमभिन्नम् ? अथाऽभिन्नं कुतस्तर्हि भिन्नम् ? विरोधात् । कथञ्चिद्भेदाभेदपक्षे त्वविप्रतिपत्तिरेव । अस्माभिरपि शरीरस्य आत्मना सह कथञ्चिदभेदाभ्युपगमात् ।
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भवतु वा प्रत्येकं भूतेषु चैतन्यं, तथाऽपि कथं तदेकं स्यात् ? भिन्नभिन्नवस्तुधर्मत्वात्, भिन्नाभिप्रायपुरुषसमुदायचैतन्यवत् । भिन्नाभिप्रायतया तेषां 'अहं ददामि अहं करोमी' त्यादिरूपविशिष्टैकमानसिकानुभवनिबन्धनत्वेनाऽ-- वस्थानाभावप्रसङ्गात् । यश्च भवति सकलप्राणिप्रसिद्धः प्रत्येकं सकलैरपीन्द्रियैरूपलम्भो-'रूपं पश्यामि, मधुरमास्वादयामी'त्याद्याकारः सकलशरीराधिष्ठात्रेकरूपः कालान्तरे स्मृतिजनक: सकलेन्द्रियोपलम्भः सोऽपि चैतन्यस्य नानात्वपक्षे न स्यात् ।
न ह्यत्यन्तासन्नानामपि पुंसां मिथोऽपि भिन्ने चैतन्ये एकस्मिन् रूपं पश्यति अन्यस्याऽपि 'रूपमहं पश्यामी' त्याद्याकारं ज्ञानं जायमानमुपलभ्यते. न वा तत्प्रभवं कालान्तरे स्मरणमपि । अनुभूयते चेदमुभयमपि देहे स्वसंवेदनप्रत्यक्षणति न प्रतिषेधोऽप्यस्य कर्तुं शक्यो, भूतानामपि प्रतिषेधापत्तेः । तस्मान्न भूतेषु प्रत्यकं चैतन्यमिति ।
न च भूतसमुदाय एव चैतन्यमस्त्विति वाच्यं, प्रत्येकमसत: समुदायेऽप्यसत्त्वात् । तत्समुदाय एव परलोकगामित्वभावात् । तस्मान्न प्रत्येक भूतानां धर्मश्चैतन्यं, नाऽपि तत्समुदायस्य । न च धर्मोऽप्ययं धर्मिणमन्तरेणोपपद्यत इति धर्मिणा भवितव्यमवश्यम् । यश्चाऽस्य धर्मी स एवाऽऽत्मा। तत् सुष्टु(यू)क्तंअवग्रहादिज्ञानानां प्रत्यक्षत्वेन प्रत्यक्ष एवाऽऽत्मेति । धर्माणां धर्मिणमन्तरेणाऽनुपपद्यमानतया, भूतानां तद्धर्मित्वनिरासेनाऽऽत्मन एव तद्धर्मितया प्रत्यक्षत्वस्य प्रामाणिकत्वात्. धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदभेदात् ।
ननु वस्त्वन्तरमेव चैतन्यस्य धर्मि भवतु, न पुनरात्मेति चेद्-भ्रान्तोऽसि । यदेव वस्त्वन्तरं चैतन्यस्य धर्मिभूतं तस्यैवाऽऽत्मशब्देनाऽभिधानात्, भूतातिरिक्तचैतन्यसिद्धौ नामविवादस्य निरर्थकत्वात् ।
केचित् तु. न प्रत्येकं भृतानां धर्मश्चैतन्यं, नाऽपि तत्समुदायस्य. किन्तु स्वतन्त्रमेव धर्मि, उत्पद्यते च तद् भृतेभ्यः. इत्याहुः । तत् 'चत्वार्येव भूतानि तत्त्वम्' इति सिद्धान्तोक्ततत्त्वसङ्ख्यानियमव्याघातकत्वादुपेक्ष्यम् । तदुक्ततत्त्वानामुपलक्षणत्वे तु नाऽऽत्मप्रतिषेधोऽपि युक्तो, प्रामाणिकत्वात् । नामान्तरेणाऽऽत्मन एव स्वीकाराच्च । भूतेभ्यश्च यथा तन्नोत्पद्यते तथा वक्ष्यते ।
अथ वदन्ति- मा भवतु प्रत्येकावस्थायां भृतेषु चैतन्यं, तत्साधक
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July-2002 प्रमाणाभावात् । असतश्च नाऽभिव्यक्तिर्भवतीति मा भृत् कायाकारपरिणतभूतेभ्यस्तस्याऽभिव्यक्तिः । उत्पत्तिस्तु भविष्यति, असतोऽप्युत्पत्तेः । तदुक्तं कायाकारप्राणाषानपरिग्रहवद्भ्यो भूतेभ्यस्तदुत्पद्यते नाऽविशिष्टेभ्य' इति। न च प्रत्येकावस्थायामविद्यमानस्य समुदायावस्थायामपि भूतेभ्यश्चैतन्यस्योत्पत्तिर्न भवेत इति वाच्यं । प्रत्येकावस्थायामविद्यमानाया अपि गुड-धातक्यादिभ्यो मदशक्तेरुत्पत्तेः । न चाऽनुपपत्तिः, दृष्टेऽनुपपत्तेरभावात् । तदुक्तम् 'न दृष्टेऽनुपपन्नते'ति । न च चैतन्यं यदि असदेवोत्पद्यते भूतेभ्यस्तदा खरविषाणमपि तत उत्पद्येत, असत्त्वाविशेषादिति वाच्यम् । भूतानां तज्जननस्वभावतया तस्यैव तेभ्य उत्पत्तेः ।
न च 'भूतानां चैतन्यजननस्वभावत्वे घटादावपि चैतन्योत्पत्तो चेतनाचेतनव्यवहारविलो [पा] पत्तिः, न चाऽयं व्यवहारोऽभिव्यक्तान- . भिव्यक्तचैतन्यनिबन्धनो न तु तत्सत्त्वासत्त्वनिबन्धन इति । सत्यपि घटादो चैतन्ये न चेतनत्वेन व्यवहारः, तच्चैतन्यस्याऽनभिव्यक्तत्वात् । यदुक्तम्- 'चैतन्यानभिव्यक्तिर्घटादिषु, कारणाभावात्. पांश्वादिषु अनभिव्यक्तमदशक्तिवत् । चैतन्याभिव्यक्तेहि कारणं क्षित्यादेः कायाकारपरिणतत्वं. मदशक्त्यभिव्यक्तः पिष्टोदकगुडधातक्यादिपरिणतत्ववत् । तच्च घटादिषु नाऽस्तीति तदनभिव्यक्तिभावस्तत्र, पांश्वादौ पिष्टोदकादिपरिणामाभावान्मदशक्त्यनभिव्यक्तिभाववदिति ।' इत्यपि वक्तुं शक्यम् । घटादौ चैतन्यस्याऽनभिव्यक्तेरनुपपत्तेः ।
तथाहि- अनभिव्यक्तिः खलु आवृतस्य भवति न त्वनावृतस्य । न च तत्र चैतन्यस्य भूतव्यतिरिक्तं किञ्चिदावारकं, चत्वार्येव भूतानि तत्त्वमिति तत्त्वसंख्यानियमव्याघातापत्तेः । न च भूतानामन्यतमस्यैवाऽऽवारकत्वं, तेषां व्यञ्जकत्वेन प्रतिज्ञानात् । न च व्यञ्जकमावारकं, स्वरूपव्याघातात् । न च भूतानामेव विशिष्ट परिणामाभाव आवारकः, तस्य सकलशक्तिविकलत्वेनाऽऽवारकत्वायोगात् । नो चेत् आवरणक्रियाकरणशक्तिमत्तया कुड्यादिवत् तस्य भावत्वापत्तावपसिद्धान्तभयेन पृथिव्याद्यन्यतमत्वेनैव त्वया स्वीकरणीयतया व्यञ्जकत्वस्यैवोपपत्तेः । किञ्च, यस्य विशिष्टपरिणामस्याऽभावा (व आ) वारक: स भूतेभ्यो भिन्नो वा स्यादभिन्नो वा ? यदि भिन्नस्तहि 'चत्वार्येव भूतानि तत्त्व' मिति तत्त्वसङ्ख्यानियमव्याघातः, अथाऽभिन्नस्तदा तत्स्वरूपवत् तस्याऽपि सदा भावेन सर्वदाऽभिव्यक्तिप्रसङ्गः ।
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अथ परिणामत्वान्नाऽसौ नित्यस्तेनाऽ [सना ] तनाकारेण परिणमनस्य परिणामत्वात् न सर्वकाले भवति, सनातनत्वप्रसङ्गात्, किन्तु कदाचिदेव । यदा काले तु भवति तदा भूतेभ्योऽभिन्न एवेत्यदोष इति चेत्, न कालानभ्युपगमे एवंभूतवाक्यप्रवृत्त्ययोगात् । लोकप्रसिद्धत्वादप्रतिक्षेपार्होऽसौ काल इति चेत् न, आत्मन्यपि तस्य तुल्यत्वात् पितृकर्माऽन्यथाऽनुपपत्तेः, तस्याऽपि लोकप्रसिद्धत्वात् । तदुक्तम्
'पितृकर्मादिसिद्धेश्च हन्त नाऽऽत्माऽप्यलौकिक' इति ।
तदेवमावारकाभावादनभिव्यक्तचैतन्यानुपपत्तौ चेतनाचेतनव्यवहारस्य तद्भावाभावनिबन्धनत्वेन घटादौ चैतन्याभ्युपगमे भवत्येव चेतनाचेतनव्यवहारविलोपप्रसङ्ग इति वाच्यम् । कायाकारपरिणतभूतेभ्य एवं चैतन्योत्पत्त्यभ्युपगमेन घटादौ तत्परिणामाभावादेव चैतन्यानुत्पत्तेरुपपत्तौ चैतन्याभावाभावनिबन्धनस्य चेतनाचेतनव्यवहारस्य विलोपानुपपत्तेः ।
न चैवं मरणावस्थायामपि चैतन्यमुत्पद्येत कारणत्वाभिमतकायाकारपरिणतभूतानां तदानीमपि सत्त्वादिति वाच्यम् । कारणत्वाभिमतपवनस्य तत्राऽभावेन तथाविधभूतसत्त्वस्य तदानीमसिद्धेः । न च वस्त्यादिना तत्र प्रक्षिप्ते पवने चैतन्यमुत्पद्येत, समस्तकारणानां सत्त्वादिति वाच्यम्- प्राणापानलक्षणपवनस्यैव तद्धेतुत्वापगमेन पवनमात्रात् तदुत्पत्तेरनुत्पत्तेः ।
ननु प्राणापानलक्षणपवनाभावान्मृतकाये चैतन्याभावो न तु जीवाभावादित्यत्र किं निगमकं येन वैपरीत्यं न स्यादिति चेत् । न । लाघवस्यैव विनिंग [म] कत्वात् । मृतावस्थायां प्राणापानाभावस्य त्वयाऽप्यवश्यमङ्गीकृतत्वेन तत एव चैतन्याभावोपपत्तौ जीवाभावकल्पने गौरवात् । प्राणापानवत् जीवस्योभयसिद्धत्वाभावात् । न च यद् यस्य कार्यं तत् तदनुरूपं, यथा मृत्पिण्डस्य कार्यं घटो मृत्पिण्डानुरूप:: कार्यं च यदि भूतानां चैतन्यं तर्हि भूतानुरूपं स्यात्, न चाऽस्त्येव, तथैव अमूर्तबोधस्वरूपस्य चैतन्यस्य मूर्त्ताबोधस्वरूपैर्भूतैरनुरूपत्वाभावात् इति वाच्यम् । शृङ्गादपि शरस्योत्पत्तेर्दर्शनेन कार्यस्य स्वकारणानु - रूपत्वनियमाभावात् । न हि शरस्याऽपि शृङ्गानुरूपत्वं, प्रत्यक्षेण बाधात् । यदि च मूर्तत्वादिना रूपेण शरस्य शृङ्गानुरूपत्वमेवेति न बाधस्तर्हि सत्त्वादिना रूपेण चैतन्यस्याऽपि भूतानुरूपत्वमेवेति तुल्यम् । न च भूतानां चैतन्यादत्यन्तविलक्षणत्वात
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कथं तेभ्यस्तदुत्पत्तिरिति वाच्यम् । लोके भिन्नजातीयादपि कारणाद् भिन्नजातीयस्य कार्यस्य दर्शनात् । न चाऽसिद्धिः, सूक्ष्माप्रदेशपरमाणुभ्यः स्थूलसप्रदेशघटादेस्त्वयाऽप्युत्पत्तेरङ्गीकारात् । तत् सुनिष्पन्नमेतद् यद् प्राणापानविशिष्टकायाकारभूतसमुदायाच्चैतन्यमुत्पद्यते, तदपगमे च विनश्यति । तथा च सुष्ठुक्तम् .. "नाऽस्त्येव परलोकगाम्यात्मा, ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः कस्य भविष्यति ? इति व्यर्थं एव तपःप्रभृति कष्टानुष्ठानम्" इति । एवं च
द्राक्षामद्यादिकं पेयं भक्ष्यं मांसादिकं भृशम् । जनन्यादिस्त्रियो भोज्या रूपवत्यो यदा रुचिः ॥१॥ कायध्वंसावसाने हि चैतन्ये कस्य पातकम् ? परलोकोऽपि कस्य स्याद् यद्भयात् तद् विवय॑ते ।२।।
इत्येवंरूपानुसारेण प्रवृत्तिर्विधेया, चैतन्यस्य भूतकार्यतया परलोकगामिनो जीवस्याऽभावात् । न च भूतकार्यत्वं चैतन्यस्याऽप्रामाणिकं. चैतन्यं कायपरिणामापत्रभूतकार्य, तद्भाव एव भावात् । यद् यद्भाव एव भवति तत् तत्कार्यं, मदशक्तेः सुरापरिणामापन्नमद्याङ्गकार्यत्ववत् । इति प्रमाणस्य सत्त्वात् ।
अत्र वदन्ति - चैतन्यस्य भूतकार्यत्वे किं प्रमाणम् ? न तावत् प्रत्यक्षं, अतीन्द्रियविषये तस्याऽभावात् । नहि उत्पन्नमनुत्पन्नं वा चैतन्यं भूतानां कार्यं इति व्यापारे प्रत्यक्षमुपैति, तस्य स्वयोग्यसंनिहितार्थग्रहणरूपत्वात्, चैतन्यस्य चाऽमूर्तत्वेन तदयोग्यत्वात् । न च भूतानामहं कार्यमित्येवमात्मविषयं भूतकार्यत्वं प्रत्यक्षमवगन्तुमलं, कार्यकारणभावस्याऽन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात् । व्यतिरेकनिश्चयनिबन्धनस्य चाऽनुपलम्भस्य तत्राऽभावात् । न च तदुभयातिरिक्तः कश्चिदन्वयो तदुभयान्वयव्यतिरेकज्ञाताऽभ्युपगम्यते, आत्मसिद्धिप्रसङ्गात् । नाऽप्यन्यत् प्रमाणं, तस्याऽनभ्युपगमात् । प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणं, नाऽन्यदिति वचनात् । अभ्युपगमेऽपि ततो विवक्षितार्थप्रतीत्यसिद्धेः । अधिकृत-चैतन्यवस्तुनोऽतथारूपत्वात् ।
तथाहि-यदि चैतन्यं भूतसमुदायमात्रनिमित्तकं स्यात् तहि घटादावपि स्यात्, निमित्ताविशेषात् । कायाकारपरिणाम एव निमित्तविशेषस्तदभावादेव न चैतन्यं घटादौ । तदुक्तम्- 'कायाकारप्राणापानपरिग्रहवद्भ्यो भृतेभ्यश्चैतन्यं नाऽविशिष्टेभ्यः' इति, अतो न दोष इति चेत्, न । आत्माभाववादिमते
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अनुसंधान-२०
49 कायाकारपरिणामस्यैव युक्त्याऽनुपपत्तेः । कथं कायाकारपरिणामस्य मन्मते युक्त्याऽनुपपत्तिरिति चेत् । इत्थम् । भवन्मते हि कायाकारपरिणामः किं पृथिव्यादिमात्रनिबन्धन आहोस्विद् वस्त्वन्तरनिमित्त उताऽहेतुकःसङ्गीयते ? । तत्र यद्याद्य: पक्षस्तहि सर्वत्र कायाकारपरिणामप्रसङ्गः, पृथिव्यादिभूतसमुदायस्य सर्वत्र सत्त्वात् । तथाविधसाम्यादिभावसहकारिकारणवैकल्यान सर्वत्र तत्परिणाम प्रसङ्ग इति चेत् । ननु सोऽपि साम्यादिभावो न वस्त्वन्तरनिमित्तः, तत्त्वसंख्याव्याघातप्रसङ्गात्, किन्तु पृथिव्यादिभूतमात्रनिमित्तकस्तथा च तस्याऽपि सर्वत्राऽविशेषेण भावप्रसङ्गात् कुतः सहकारिकारणवैकल्यमिति ? ।
अथ द्वितीयः पक्षस्तदप्ययुक्तं, तथाऽभ्युपगमे सत्यात्मसिद्धिप्रसङ्गात् । तथाभूतवस्त्वन्तरयोगादेव हि विशिष्टकायाकारपरिणामभाव उपपद्यते नाऽन्यतस्तथा च सति न कश्चिद् दोष इति ।
अथ तृतीयः पक्षस्तदा सदाऽभावादिप्रसङ्गः । "नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणाद्" इति न्यायात् ।
तन्न त्वन्मते कायाकारपरिणामो घटते । तदभावे तु दूरात्सारितमेव प्राणापानपरिग्रहवत्त्वं भूतानामिति साधूक्तं न तथाविधभूतेभ्यश्चैतन्यमुत्पद्यते इत्यत्र किञ्चित् प्रमाणम् ।
___ किञ्च, प्रत्येकावस्थायामविद्यमानस्य चैतन्यस्य समुदितावस्थामां भूतेभ्य: कथमुत्पत्तिर्घटते ? एकान्तेनाऽसत उत्पादस्याऽभावात्, भावे वा खरविषाणमपि तेभ्य उत्पद्येत, असत्त्वाविशेषात् । न च-भूतानां तज्जननस्वभावतया तस्यैवोत्पत्तिर्न खरविषाणस्याऽपि तज्जननास्वभावत्वात्-इत्यपि वाच्यम् । तेषां तज्जननस्वभावत्वकल्पनाया अयोगात् । अनुत्पन्नं हि चैतन्यं खरविषाणतुल्यमित्यवन्ध्यभावतोऽविशेषेणाऽसज्जननस्वभावत्वमेव परमार्थतो भूतानां भवेदिति तेभ्यश्चैतन्यस्येव खरविषाणस्याऽप्युत्पत्तिप्रसङ्गात् । न च-प्रत्येकावस्थायामविद्यमानाऽपि समुदितावस्थायां मद्याङ्गेभ्यो मदशक्तिरुपपद्यमाना दृष्टा न पुनः खरविषाणं, कारणशक्तिनियमात्; तद्वदत्राऽपि स्यादिति वाच्यम् । मदशक्ते प्रत्येकावस्थायामेकान्तेनाऽविद्यमानत्वासिद्धेः । मदशक्तित्वेन तदानीमविद्यमानत्वेऽपि रूपान्तरेण विद्यमानाया एवोपपत्तेः । अत एव समुदितावस्थायां मद्याङ्गेषु ये गुणास्त्रस्यादय (भ्रम्यादय?)स्ते प्रत्येकावस्थायामपि गुडधातक्यादिषु सामान्यत उपलभ्यन्त इति ।
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प्रत्यक्षसिद्धं चैतन्नहि भवताऽप्यपह्नोतुं शक्यम् । यस्तु प्रत्यक्षसिद्धमप्यर्थमपहनुते तस्य तु शून्यवादिमत एव प्रवेशो युक्त इति कथं त्वयि चार्वाकता चिरस्थायिनी स्यात् ?
न ह्येवं समुदितावस्थायां ये गुणास्ते प्रत्येकावस्थायां भूतेषु सामान्यतोऽप्युपलभ्यन्त इति कथं समुदितावस्थायामपि तेभ्यश्चैतन्यस्योत्पत्तिः स्यात् । नहि प्रत्येकावस्थायां सर्वथाऽविद्यमाना स्निग्धता समुदितावस्थायां सिकताकणेषु केनाऽप्यनुभूयते । न चैतद्दोष भयेन प्रत्येकावस्थायामपि किञ्चिच्चैतन्यस्वरूपं स्वीक्रियत एवेति वाच्यम् । एकेन्द्रियजीवसिद्धिप्रसङ्गेनाऽपसिद्धान्तापातात्, चेतनाचेतनव्यवहारविलोपपत्तेश्च ।
न चाऽनभिव्यक्तं यत्र चैतन्यं तत्राऽचेतनव्यवहारोऽन्यत्र तु अपर इति वाच्यम् । अनभिव्यक्तचैतन्यस्य त्वयैव तिरस्कारात्, अपलापे प्रतिज्ञासंन्यासनिग्रहापातात्, प्रमाणाभावेन तन्निरासस्य सुकरत्वाच्च ।
किञ्च, कायाकारपरिणतभूतेभ्यो यद्यसत एव चैतन्यस्योत्पत्तिः, कथं तर्हि मृतकायादपि तस्योत्पत्तिर्न स्यात् ? ननूक्तमेवैतत् प्राक् यत् प्राणापानलक्षणपवनाभावात् तत्र चैतन्यं नोत्पद्यत इति, इति चेत् । ननु प्रत्युक्तमपीदं तदैव यज्जीवाभावादेवेति किं न स्यादिति अहो अहो विस्मरणशीलत्वमाचार्यस्य यदुक्तमपि लाघवं विनिगमकतया न स्मरति, भव्यलाघवमेव तवेत्थं वदतो जानामि ।
उभयसिद्धोऽपि प्राणापाना[ भा] वो जीवाभावमन्तरेणोपपद्यते यतः । कथमेवमभिधीयत इति चेत्, शृणु सावधानमनाः । नहि मृतकाये प्राणापानाभावो निर्हेतुकः, सदाऽभावप्रसङ्गात् । नाऽपि कायाकारनिमित्तकः, जीवदवस्थायामपि तस्य सत्त्वेन तदभावप्रसङ्गात् । नाऽपि कायाकारध्वंसनिमित्तः तस्य तदानीमसत्त्वात् । न चाऽऽन्तरपुद्गलापगमनिमित्तो, निमित्तमन्तरेणाऽऽन्तरपुद्गलापगमस्याऽप्यसम्भवात् । न च कालविशेष एव निमित्तं, अतीन्द्रियकालाङ्गीकारे आत्मानङ्गीकारस्य स्वकदाग्रहमात्र फलत्वात् । तस्मिन्नपि काले क्वचिच्छरीरे प्राणापानाभावस्याऽदर्शनात् । नहि यद् यस्य कारणान्तरनिरपेक्षं अजनकं तत् तन्नोत्पादयति, अकारणत्वप्रसङ्गात् । किन्तु अनन्यगत्या जीवाभावनिमित्तक एव तत्र प्राणापानाभावो भवताऽप्यवश्यं स्वीकरणीय इति कुतः प्राणापाना
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अनुसंधान-२० भावस्यैवोभयसिद्धता, येन लाघवात् प्राणापानाभावादेव मृतशरीरे चैतन्याभावो न तु जीवाभावादिति प्रोच्येत ! 'तद्धेतोरेवाऽस्तु किं तेने'ति न्यायेन प्राणापानाभावनिमित्तकजीवाभावादेव तत्र ‘चैतन्याभावस्य स्वीकरणीयत्वाच्च, अन्यथा गौरवप्रसङ्गात् ।
एतेन-'प्राणापानवज्जीवस्योभयसिद्धत्वं नाऽस्ति-इति परास्तं । जीवमन्तरेण प्राणापानलक्षणपवनस्याऽहेतुकत्वापत्तौ सदाभावादिप्रसङ्गात् । कायाकारस्यैव प्राणापाननिमित्तकत्वे मृतकायेऽपि तदुत्पत्तिः, पुनरुज्जीवनापातात् । अत एव सुप्तप्रबुद्धस्य दृश्यते तावच्चैतन्यं, न च तत् तदन्यचैतन्यपूर्वकं, सुषुप्तावस्थायां चैतन्यस्याऽभावात् । उपलभ्यस्य सतस्तदानीमनुपलम्भात् । तथाऽपि चेत्तत्कल्पना तयतिप्रसङ्गः । न चाऽहेतुकं तत्, सदाऽभावादिप्रसङ्गात् । 'सदा सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात्' इति वचनात् । नाऽप्यन्यनिमित्तं, तस्याऽप्रतीयमानत्वात् । किन्तु कायनिमित्तमिती'ति कस्यचिन्मतमपास्तम् । चैतन्यस्य कायनिमित्तत्वे मृतावस्थायामपि उज्जीवनप्रसङ्गात् ।
न चैवं सुसप्रबुद्धचैतन्यस्य निर्हेतुकत्वे पूर्वोक्तदोषापत्तिरिति वाच्यम् । अस्य सुषुप्तावस्थाभाविचैतन्यपूर्वकत्वेन निर्हेतुकत्वाभावात् । न च सुषुप्तावस्थायां तत्राऽस्त्येव, स्वसंवेदनमात्रस्याऽव्यक्तस्य तदानीमप्यनुभूयमानत्वात् । अविगानेन तथा लोकप्रसिद्धेः । प्रतिपत्तव्यं च नियमात् सुषुप्तावस्थायां चैतन्यमस्तीति, स्मरणान्यथानुपपत्तेः । तथाहि-स्वप्नादिसुषुप्तावस्थाभाविस्वप्नादिचैतन्यविषयं स्मरणमविगानेनाऽनुभूयते । न चाऽननुभूतस्य स्मरणमुपपद्यतेऽतिप्रसङ्गात् । न च कायान्वयहेतुकतैवाऽस्य, तथाऽप्रतीतेः । तत्स्वरूपसंस्पशिस्मृत्यनु(न)नु भूतेः, तथाऽपि चेदेवं कल्पना तर्हि कुतो नाऽतिप्रसङ्गः ? । न च तथास्वभावत्वसामर्थ्यात् कायादेव तस्मरणमिति वाच्यम् । तस्य तथास्वभावसिद्धौ मानाभावात् । तद् युक्तमिदं यदनुभूतसुषुप्तावस्थाभाविचैतन्यविशेषनिबन्धनं तत्स्मरणमिति सिद्धं सुषुप्तावस्थायामपि चैतन्यमपि(पी)ति कुतः सुप्तप्रबुद्धचैतन्यस्य कायनिमित्तकता स्यात् ? !
किञ्च न व्यस्तकायस्य चैतन्यं प्रति हेतुत्वमभ्युपगम्यते भवता, शिरश्छेदेऽपि तदुत्पत्तिप्रसङ्गात्, किन्तु समस्तकायस्य । तच्चाऽयुक्तं, अङ्गुल्यादिछेदेऽपि चैतन्यस्योत्पत्तिदर्शनात् ।
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अपि च, यद्यपि चैतन्यं प्राणापान कायाकारपरिणत भूतेभ्य उत्पद्यते तथाऽपि सहकारिकारणभूतेभ्य एव । तथा चाऽस्योपादानकारणं किञ्चिद् वाच्यं, निरुपादानस्योत्पत्तेरयोगात् । उपादानं च यदि तथाविधभूतसमुदायव्यतिरिक्तं किञ्चिद वस्तु तदा प्रागुक्तस्य 'चैतन्यं तथाविधभूतसमुदायमात्रादुत्पद्यते, तद्भाव एव भावादित्यस्य चैतन्ये भूतकार्यताप्रसाधकस्य प्रमाणस्य स्फुटमसिद्धत्वम्, तथाविधभूतसमुदायभावेऽपि तद्व्यतिरिक्तोपादानाभावे चैतन्यस्याऽभावात् । अथाऽसिद्धिपरिहारार्थं तथाविधभूतसमुदायस्यैव चैतन्यं प्रत्युपादानत्वमङ्गीकुरुषे तर्हि चैतन्यस्य भूतानुरूपता प्रसज्येत, कार्यस्य स्वोपादानकारणानुरूपत्वनियमात् । अन्यथा, कार्यकारणभावव्यवस्थानुपपत्तेः । न चेष्टापत्तिः, मूर्त्यादिविरहितयाऽनुभूयमानस्य चैतन्यस्य मूर्त्यादिमता तथाविधभूतसमुदायेन सहाऽनुरूप
त्वाभावात् ।
अथ प्रागेवोक्तं यत् कार्यं स्वोपादनकारणानुरूपं इति नियमो नास्त्येव, शृङ्गादपि शरस्योत्पत्तेः । न हि शरोऽपि शृङ्गानुरूप इति । तदयुक्तं, शरतया परिणममानस्य शृङ्गैकदेशस्य भूतसमुदायत्वेनाऽनुभूयमानतया भूतसमुदायरूपेण शृङ्गेण सहाऽनुरूपत्वस्यैव सत्त्वात् । न हि चैतन्यमपि भूतसमुदायत्वेनाऽनुभूयते, मूर्त्यादिविरहात् । अथ मूर्त्यादिविरहितमपि चैतन्यं तथाविधभूतसमुदायोपादानकमस्तु, बाधकाभावात् इति चेत्, न तथा सति कार्यस्य कारणधर्माननुगमेन कारणादत्यन्तभेदेऽत्यन्तासत एव तस्योत्पत्तिरभ्युपगता स्यात् । अस्त्वेवमिति चेत्, असत्त्वाविशेषात् पञ्चमभूतस्याऽप्युत्पत्तिरभ्युपगन्तव्या स्यात् । एवमप्यस्तु इति चेत्, असदुपादानकत्वेन कूर्मरोमभ्यो जायमानाया इव रज्जोरसत्त्वमेव तस्य स्यात् । असत्त्वमप्यस्तु इति चेत्, न स्वसंवेदनप्रत्यक्षेणाऽनुभूयमानस्य चैतन्यस्य प्रतिषेद्धुमशक्यत्वात्, शक्यत्वे वा भूतानामपि प्रतिषेधप्राप्तौ शून्यवादस्यैवाऽसमञ्जसत्वापातात् ।
न च शून्यतैवाऽस्तु तत्त्वं प्रतिज्ञाभङ्गप्रसङ्गात् । चार्वाकमत सवत् तन्मतस्याऽपि जैनैर्ध्वसयितुं शक्यत्वात् । तन्नाऽस्त्येव बाधकाभाव इति कथं मूर्त्यादिविरहेऽपि चैतन्यं तथाविधभूतोपादानकं स्यात् ? ।
अथ भूतकार्यत्वेऽपि यथा घटपटादीनां वैचित्र्यं स्वभावकृतं दृष्टं तथा चैतन्यस्याऽपि अन्यकार्येभ्योऽत्यन्तवैलक्षण्यं स्वभावकृतं स्यात् तदा को दोष:
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अनुसंधान-२० स्यादिति चेत्, न, भृतकार्यत्वे चैतन्यस्याऽमूर्त्यादेरनुपपत्तेः । तनाविधस्वभावकल्पने कोशपानादन्यस्य प्रमाणाभावात् । न हि घटादीनामपि वैचित्र्यमेकान्तेन स्वभावकृतं, कार्यकारणभावविलोपापत्तेः । किन्तु कारणवैचित्र्यकृतम् । अत एव नीलतन्तुभ्यो नोल एव पट उत्पद्यते, न शुक्लः, उपादानकारणीभूततन्तुसमुदाये शौक्ल्याभावात् । शुक्लतन्तुभ्यः पुनः शुक्ल एव, न तु नीलः, उपादानकारणीभूतन्तुसमुदाये नैल्याभावात् । तदुभयमपि मूर्ते तु भवत्येव, उभयोपादाने मूतत्वस्य सत्त्वात् ।
तदेवं यदि चैतन्यं भूतोपादानकं स्यात् तर्हि भूतानां मूर्तत्वेन जडत्वेन विषयापरिच्छेदकत्वेन चैतन्यमपि मूर्तं जडं विषयापरिच्छेदकं स्यात् । न चैवम् । तस्मान्न भवत्येव चैतन्यं भूतोपादानकम् ।
न च निरुपादानमपि किञ्चिद् वरिवत्ति । अतो य एतस्योपादानं स आत्मा, तत्तद्रव्यक्षेत्रादिसामग्रीसापेक्षेणाऽऽत्मनैव तस्य तस्य चैतन्यपरिणामस्य जन्यमानत्वात् ।।
___ स्यादेतत्- भूतसमुदायोपादानकमपि चैतन्यममूर्तं भवतु, मूर्तोपादानकस्य मूतत्वमेवेत्यत्र मानाभावात् । न च-प्रत्यक्षमेव मानं मूर्तकपालादिजन्यानां घटादीनां मूतत्वस्यैव विलोकनादिति वाच्यम् । घटादीनां तथात्वेऽपि सर्वत्र तनियमस्याऽसिद्धेः । मूर्तघटाधुपादानकस्याऽपि रूपादेरमूर्तत्वाभ्युपगमात् । रूपादिविशेषो हि मूत्तिरभिधीयते । न हि सा रूपादावपि, रूपादौ रूपादेरनङ्गीकारात् । न चैकान्तेनाऽसतश्चैतन्यस्य कथमुत्पत्तिः स्याद् ? अन्यथा खरविषाणस्याऽपि सा न कथं स्याद्? इत्यपि मुग्धविप्रतारकं वचनं वाच्यम् । सामग्यधीना ह्युत्पत्तिर्वस्तुनः इति खरविषाणं सामग्या अभावान्न भवति, चैतन्यं तु भविष्यति, सामग्याः सत्त्वात् । दृश्यते च दण्डादिसामग्रीसद्भावेऽसन्नेव घट उत्पद्यमानो, न पुनः पटः: दण्डादेः पटसामग्रीत्वाभावात्, पर्यायेण व्यभिचाराच्च । तस्य त्वयाऽप्येकान्तेनाऽसत एवोत्पत्त्यभ्युपगमात् ।
तन्न । मृतघटाधुपादानकस्य रूपादेरकान्तेनाऽमूतत्वाभावात्, उपादेयस्य उपादानात् कथञ्चिदभिन्नत्वेन तन्मूलतया कथञ्चित् तस्याऽपि मूर्तत्वात् । नहि घटादेरुपादानादुपादेयत्वाभिमतं रूपादि एकान्तेन भिन्नं, पवनस्येव घटादेर्नीरूपत्वप्रसङ्गात् पवनस्याऽपि वा घटादेरिव रूपवत्त्वापत्तेः । भिन्नं हि तद्रूपं घटादेरेव, न पुन: पवनस्येत्यत्र किं नियामकं स्यात् ?, उभयत्राऽ ऽपत्तेरविशेषात् ।
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नीरूपाच्च घटाद् यदि तदुत्पत्तिस्तर्हि पवनादपि किं न स्यात् 2, उभयत्र विशेषाभावात् । न च भेदेऽपि समवायो नियामक: इति वाच्यम् । तस्य त्वयाऽनङ्गीकारात् । अङ्गीकृत एवाऽयं नैयायिकैरित्यस्माभिरप्यङ्गीक्रियते । न हि ते न न्यायविद इति चेत्, न तन्निरासोऽपि नाऽस्माकं दुष्करः परं तदर्थमिह न यतिष्यामहे, सिसाधयिषाविषयस्याऽऽत्मलक्षणार्थस्याऽयत्नेनैव सिद्धेः । नैयायिकानां न्यायवित्त्वमङ्गीकुर्वता भवता आत्मनोऽभ्युपगतत्वात् । तस्मान्नैकान्तेन रूपादि स्वोपादानाद् भित्रं किन्त्वभिन्नमपीति सिद्धं मूर्तोपादानकस्य रूपादेरपि मूर्त्तत्वं कथञ्चित् ।
अथ भूतकार्यत्वेऽपि रूपादेर्यथा कथञ्चिन्मूर्त्तत्वं तथा चैतन्यस्याऽप्यस्तु इति चेत् । नूनं उदारान्त: करणोऽसि यदालोच्याऽपि स्वसिद्धान्तहानि न व्यथसे । स्याद्वादं वदन्तो हि जैना एव सदसि राजन्ते न पुनर्भवादृशा एकान्तवादकदाग्रहग्रस्ताः । एवमपि भूतसमुदायाच्चैतन्यस्योत्पत्तेरभावात् । न हि रूपमिव प्रत्येकं भूतेषु सत् चैतन्यं येन तत्समुदायाच्चैतन्यमुत्पद्येत, नीलतन्तुसमुदायान्नीलरूपमिव । न चाऽसदप्युत्पद्यते सामग्र्याः सद्भावादित्यपि वाच्यम् । असत्त्वाविशेषात् सा चैतन्यस्येव खरविषाणस्यैव सामग्री कुतो न स्यात् ? । अवध्यभावेनाऽ नुत्पन्नस्य चैतन्यस्य खरविषाणतुल्यत्वात् । न च दृष्ट एव दण्डादिसामग्य्रा असन्नेव घट उत्पद्यमानो न पुनः पटः, कारणशक्तिनियमादित्यपि प्रागुक्तं किं न स्मर्यत ? इत्यपि वाच्यम् । तदानीमपि घटस्यैकान्तेनाऽसत्त्वाभावात्, घटपर्यायेण तदानीमविद्यमानस्याऽपि मृत्पिण्डरूपेण विद्यमानत्वात् । न हि मृत्पिण्डादेकान्तेन घटस्य भेदो, येन तदानीं न स्यात् । दण्डादिसामग्रीसमावेशेन घटाकारेण परिणममानस्य मृत्पिण्डस्यैव घटशब्देनाऽभिधानात् । न हि पूर्वाकारपरित्यागेनोत्तराकारस्वीकारादेव वस्तुन भेदः, पितृपुत्रव्यवहारविलोपप्रसङ्गात् । जन्मकालीन परिणामापन्नभूतसमुदायाद् यौवनकालीनकायपरिणामापन्नभूत समुदायस्यैकान्तभिन्नत्वेन जन्मकालेऽसत्त्वात् ।
यदि यौवनकालीन एव भूतसमुदायो जन्मकाले परिणामा न्तरेणाऽऽसीदेवेति न तस्य जन्मकालेऽसत्त्वं, तर्हि घटपरिणामापन्नं भूतकार्यं मृत्पिण्डरूपेण पूर्वमासीदेवेति कथमेकान्तेनाऽसत्त्वम् ? ।
तदप्रामाणिकमेवोक्तं यद् दृष्टस्तावद् दण्डादिसामग्र्याऽसत्रेव घट
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अनुसंधान-२० उत्पद्यमान इत्यादि । पटस्तु नोत्पद्यते पटसामग्र्या अभावात्,- तत् तु सत्यमेव, परं यत्राऽप्युत्पद्यते तत्राऽपि कथञ्चित् सनेव, न तु सर्वथाऽसन्नित्यादि स्वयमूह्यम् । एकान्तेनाऽसत उत्पत्तेरेव विरोधात् । न च-पर्यायेण व्यभिचार-इत्यपि वाच्यम् । द्रव्यस्यैवाऽनेकशक्तिसमन्विततयाऽस्य तथा भवनेन तस्य सर्वथाऽसत्वासिद्धेः ।
मृत्पिण्डादेहि द्रव्यस्य तथारूपेण भवनाभावे घटादिलक्षणपर्यायस्याऽदलत्वेनाऽभवनमेव प्रसज्येत । ततो द्रव्यस्य मृत्पिण्डादेरन्यथाभवनमात्रं घटादिपर्यायस्योत्पत्तिरिति न दोषः । न च वाच्यं-यव्यस्याऽन्यथाभवनमात्रं तेन व्यभिचारस्तस्याऽसत एवोत्पादादिति । तस्याऽपि कथञ्चिद् द्रव्येन सहाऽभेदतः सर्वथाऽसत्त्वासिद्धेः । प्रभूतं चाऽत्रं वक्तव्यं, तद् भेदाभेदस्थापनास्थल एव वक्ष्याम इति प्ररूप्यते प्रकृतम् ।
तत् सिद्धमिदं यत् सर्वथाऽविद्यमानं चैतन्यं भूतसमुदायान्नोत्पद्यत एव । दृश्यते चोत्पद्यमानमित्यस्योपादानेन भाव्यं, यत् तत्तत्सामग्रीसमावेशात् तत्तच्चैतन्यपरिणामेन परिणमति । न च भूतसमुदय एवोपादानं, एतस्य जडत्वेन घटादेरिव चैतन्यपर्यायेण परिणमनायोगात् । इति यदेवाऽस्योपादानं स एवाऽऽत्मा, यद्विरहान्मृतशरीरे चैतन्याभाव इति । तदसिद्धिराक्षस्या भक्षितं तद्भाव एव भावादित्यादिकं प्रमाणं कथं स्वसाध्यं साधयेत् ? भूतसमुदायसद्भावेऽपि तदतिरिक्तस्य चैतन्यानुरूपोपादानस्याऽभावे चैतन्यस्याऽभावात् । न च प्राणापानयोरेवोपादानत्वं, तयोरुष्णस्पर्शवत्त्वेन मूतिमत्तया तदुपादानस्य चैतन्यस्याऽपि मूर्त्तत्वापातात् । किञ्च यद् यस्योपादानं तन्महत्त्वे तदुपादेयस्याऽपि महत्त्वं, तदल्पत्वे च तदुपादेयस्याऽप्यल्पत्वं, यथा घटस्य मृत्पिण्डः । भवति हि मृत्पिण्डस्य महत्त्वे घटस्याऽपि महत्त्वं, तदल्पत्वे च तस्याऽप्यल्पत्वम् । एवं च यदि प्राणापानलक्षणा पवनः चैतन्यस्योपादानं स्यात् तर्हि तद्बहुत्वे चैतन्यमपि बहु स्यात् । न चैवं, मरणावस्थायां वैपरीत्यात् । न च तदल्पत्वे चैतन्यस्याऽल्पत्वमपि, योगिषु प्राणापानयोः सर्वथाऽल्पत्वेऽपि चैतन्यस्य बहुत्वात् ।
अनयैव युक्त्या कायोपादानकत्वमपि निरस्यम् ।।
या पुनः बालकादेः शरीरवृद्धो चैतन्यवृद्धिः, सा शरीरस्य चैतन्यं प्रति संसारिदशायां सहकारिकारणतया उदकवृद्धौ अङ्कवृद्धिवत्, न पुनरुपादानतया; तथात्वे नियमेन चैतन्यस्य तद्वृद्ध्यनुविधायित्वापत्तेः । न चेष्टापत्तिः,
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योजनसहस्रप्रमाणशरीराणामपि मत्स्यादीनामल्पतरबुद्धित्वात्, तनुशरीराणामपि केषाञ्चित् श्रीवज्रस्वाम्यादीनामिव सातिशयप्रज्ञाबलशालित्वात् ।
अन्ये तु - पूर्वाकारपरित्यागाजहत्तोत्तराकारोपादानमप्युपादानलक्षणं तनोश्चैतन्यं प्रति नाऽस्त्येव, उपा]दानत्वाभिमतशरीरे प्राक्तनाकारपरित्यागाभावेऽपि प्रादुर्भवन्नानाप्रकारप्रकर्षरूपचैतन्यविकारोपलम्भादिति न चैतन्यं प्रत्युपादानभावोऽपि वपुष: सूपपाद इति । न चाऽनुपादानात् कस्यचित् कार्यस्योत्पत्तिरुपलब्धचरी, शब्दविद्युदादीनामप्युपादानत्वे तत्त्वचतुष्टयानन्तर्भावापत्तेः। देहाधिकस्योपादानस्य चाऽभ्युपगमे निःप्रत्यूहा जीवसिद्धिः, कायसहकृतादात्म-रूपोपादानात् तथाविधचैतन्यपर्यायोत्पादप्रसिद्धेः, दण्डादिसहकृता-स्मृत्पिण्डरूपोपादानाद् घटादिपर्यायोत्पादप्रसिद्धिवत् इत्याहुः ।
___ अथाऽगम्भीरादपि मृत्पिण्डादुत्पद्यते गम्भीर एव घटस्तथाऽबोधरूपादपि तथाविधभूतसमुदायादुत्पद्यतां बोधरूपं चैतन्यं; कार्यस्य सर्वथा स्वोपादानानुरूपत्वं नाऽस्त्येव, घट एव व्यभिचारात् । किन्तु कथञ्चित् स्वोपादानाननुरूपत्वमपि । इष्यते च यदि कथञ्चित् स्वोपादानानुरूपत्वमपि । अन्यथा कार्यस्य सर्वथा कारणधर्माननुगमेन कारणादत्यन्तभेदेऽसत एवोत्पत्तिरभ्युपगन्तव्या स्यात् । सा च न युक्ता, अतिप्रसङ्गात् । दृश्यते च पृथिवीत्वादिना घटेऽपि मृत्पिण्डानुरूपत्वमेवेति मन्यसे, तर्हि सत्त्व-पदार्थत्वा-दिना चैतन्यस्याऽपि तादृशभूतसमुदायानुरूपत्वमेवेति तुल्यम् । उक्तं चैतत् प्रागेवेति ब्रूषे तदप्यमनोरमम्, इह नाम कार्यं केनचिद रूपेण कारणानुरूपं केनचिच्च कारणाननुरूपं च रूपं इति सर्वसिद्ध, घटादौ तथा दर्शनात् । परं तेनैव रूपेणाऽऽनुरूप्यं अनानुरूप्यं च मार्गणीयं यद्रूपं कार्यकारणभावनियामकं भवेत् । न च सत्त्वं चैतन्यस्य भूतकार्यत्वे नियामकं, तस्य सर्वभावसाधारणत्वाद्, अन्यथा भावानामभावत्वप्रसङ्गात् । न च सकलसाधारणो धर्मः कार्यकारणभावनियामकः, मूतत्वस्य घटपटादीनां पार्थिवकार्यत्वे नियामकत्वापातात् । न चैवमेव, जलपरमाण्वादिजन्ये जलसमुदाये पार्थिवकार्यत्वप्रसङ्गात् । पार्थिवकार्यत्वे नियामकत्वेनाऽभिमतस्य मूर्त्तत्वस्य तत्राऽपि सत्त्वात् । किं तर्हि घटपटादीनां कार्यत्वे नियामकं इति चेत् ? पृथिवीत्वमित्यवैहि । तस्याऽबादिषु असत्त्वेन सर्वसाधारणत्वाभावात् । यदि च पृथिवीत्वेनेव घटपटादीनां पार्थिवपरमाण्वादिकार्यत्वे चैतन्यस्याऽपि भूतकार्यत्वे
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अनुसंधान-२० पृथिवी-त्वादिनाऽऽनुरूप्यमिष्यते तहि घटादिष्विव जीवद्देवदत्तशरीरेऽपि चैतन्यस्याऽभाव एव भवेत्, पृथिव्यादित्वस्य काठिन्याबोधादिस्वभावाविनाभावित्वात् ।
ननु न पार्थिवपरमाण्वादिजन्यं चैतन्यं येन पार्थिवत्वाद्यनुगमेन घटादाविव जीवदेवदत्तशरीरेऽपि तस्याऽभावः स्यात्, किन्तु प्राणापानादिजन्यं इति चेत् । न । तस्य प्रागेव निरस्तत्वात् । मूर्तात् प्राणापानादमूर्तस्य चैतन्यस्याऽनुत्पत्तेः, अत्यन्तवैलक्षण्यात् । यत् तूतं- अत्यन्तवैलक्षण्येऽपि कार्यकारणभावो भवत्येव, सूक्ष्माप्रदेशपरमाणुभ्य: स्थूलसप्रदेशघटादेर्दर्शनादिति । तदवारिपात एव रमणीय; प्रासादशिखरस्थसौवर्णाभासान्तस्ताम्राकृतिकलशवत् । तेषां तस्मादत्यन्तवैलक्षण्याभावात् । नहि ते सूक्ष्मा अपि सन्तोऽमूर्ताः, रूपादिस्वरूपात्मकत्वात् । अप्रदेशास्तु न भवन्त्येव, सतः क्वचिदवस्थानसम्भवेन दिग्भागभेदोपपत्तौ नियमतः कथञ्चित् सप्रदेशत्वात् । न चैवं परमाणोः परमाणुत्वं विरुध्येत, तस्य तदन्याल्पतराभावनिबन्धनत्वात् । ततश्चैवं भूतेभ्य: परमाणुभ्यः स्थूलसप्रदेशघटादिकार्यमुत्पद्यत एव, कारणधर्मानुगमेन तस्य तदनुरूपत्वात् । न च द्रवत्वचलत्व - काठिन्यादयो भूतधर्माश्चैतन्येऽपि सन्ति येन तद्भुतोपादानकं स्यादिति यत्किञ्चिदेतत् ।
किञ्च, यदि चैतन्यं कायाकारपरिणतभूतोपादानं तर्हि निपुणतरशेमुषीककृते कायाकारभूतसमुदाये कथं नोत्पद्यते ? न हि मृत्पिण्डोपादानो घटो निपुणतरशेमुषीककृते मृत्पिण्डे नोत्पद्यते । अथ नोत्पद्यते एव सः, यथा तत्र चक्राद्यभावे; तथा स्त्रीकुक्षिलक्षणस्वकारणीभूतस्थानाभावादिदमपि नोत्पत्स्यते इति चेत् । तत् किं खञ्जरीट-यूकामत्कुणेषु चैतन्याभाव इति वक्तुमध्यवसितोऽसि ? कारणत्वाभिमतस्य युवतिकुक्षिलक्षणस्थानस्य तत्राऽजातत्वेन सर्वलोकप्रसिद्धेः । न चैवमेव पुरुषेष्वपि, चैतन्याभावप्राप्तेः । अथ तथाविधपरिणामाभावात् तत्र चैतन्याभाव इति चेत् । जीवाभावादेवेति किं नाऽङ्गीकुरुषे ? न हि तत्र प्रमाणम् ।
यत् तु समुदितेभ्योऽपि मद्याङ्गेभ्यः वचित् तथाविधपरिपाकाभावाद् यथा न मदशक्तिस्तथा कुशलपुरुषकृतादपि कायाकारभूतसमुदायात् छचिन्न चैतन्यमिति तत् कथं ? कुशलत्वविशेषणोपादानेनैव तदाशङ्कानिरासात् । न च कुशलपुरुषकृतात् तथाविधभूतसमुदायादुत्पद्यत एव चैतन्यं, परमेश्वरीकृत स्वशरीरमलपुरुषस्य विनायकत्वेन श्रवणादिति वाच्यम् । तस्य त्वयाऽनङ्गीकारात् ।
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मृतात् कालिकमृतशरीरे चैतन्योत्पादप्रसङ्गाच्च । प्राणादेरपि कायाकारनिमित्तकत्वेन भवताऽभ्युपगतत्वात् तस्य तदानीमपि सत्त्वेन जीवाभावमन्तरेण तदभावानुपपत्तेश्च । तेजोभावादेव तदभाव इति चेद, उपनीते तस्मिन् तत् कुतो न भवेत् ? ।
ननु गाढतरतमःसमूहाच्छादितसदने दीपलक्षणस्य तेजस एव सद्भावाद यदि प्रकाशो भवति तहङ्गारावस्थस्य तस्य सद्भावात् कुतो न भवति ? तेजोविशेषस्यैव तत्र हेतुत्वमिति यदि मन्यसे तदत्राऽपि तुल्यम् । इति चेत् । न, विशेषकमन्तरेण विशेषस्याऽनुपपत्तेः । 'विशेषणं विना यस्मान्न तुल्यानां विशिष्टते'ति वचनात् । न हि विशेषकोऽपि त्वया तदतिरिक्तः कश्चिदभ्युपगम्यते, मया प्रदीप इव प्रत्यक्षसिद्धो ज्वालादिर्यथा, तत्त्वसङ्ख्यानियमव्याघातापातात् ।
____ अस्तु स्वभावकृतं वैशिष्ट्यं, न हि स्वभावेऽपि पर्यनुयोग इति चेत् । न। स्व एव स्वभावः पर्यनुयोगान) यदा प्रमाणसिद्धः, यथा वह्नौ दाहकत्वस्वभावः । अन्यथा सर्वोऽपि वादी तत्र तत्र पर्याकुलितचेताः 'स्वभावादित्थमेवेदं न पुनरन्यथा' - इत्युत्तरं विधाय राजसदसि तव जयपताक (?) एव स्यात् । न चाऽत्र किञ्चित् प्रमाणं यत् स्वभावकृतमेव तद्वैशिष्टयं, न पुनरात्मकृतमिति । न चाऽपश्यन्त आत्मानं विप्रलभेम ।
किञ्चैवं तस्य तेजसोऽभावे किञ्चिदपि चैतन्यमुपलभ्येत, गुडधातक्यादीनामेकतरस्याऽभावेऽपि तदितरसमुदायेऽल्पतरमदशक्तिवत् । न हि तस्यैव त्वया चैतन्यं प्रत्युपादानकारणता स्वीक्रियते येन तदितरसाकल्येऽपि तदभावात् तदभाव एव स्यात्, मृत्पिण्डेतरसकलसद्भावेऽपि मृत्पिण्डाभावे घटाभाववत् । तथाऽभ्युपगमे वा प्रागुक्तदोषस्य दुरुद्धरतैव स्यादिति न तेजोभावादेव मृतशरीरे चैतन्याभाव इति । किं तर्हि ? चैतन्योपादानाभावादेवेति गृहाण ।।
ननु मृतशरीरे चैतन्यं नोत्पद्यते वातादिदोषवैगुण्यादिति चेत् । तन्न चारु । मृतस्य दोषाना(णां) समीभावेन देहस्याऽऽरोग्यलाभात् । तथा चोक्तं___ 'तेषां समत्वमारोग्यं क्षयवृद्धी विपर्ययः' । इति ।
ततश्च पुनरुज्जीवनापातात् । अथ समीकरणं दोषानां(णां) कुतो ज्ञायते इति चेत् ज्वरादिविकारादर्शनादित्यवैहि ।
अथ निवर्तन्तां दोषाः, न हि तत्कृतं वैगुण्यमपि निवर्तते, व्यासेरभावात्; काष्ठादावग्निनिवृत्तावपि तत्कृतश्यामिकाया अनिवृत्तेः, इति चेत् । न। व्याप्तेरभावेऽपि
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अनुसंधान-२०
59 सुवर्णे इव अग्निनिवृत्तौ द्रवतानिवृत्तिवत् वातादिविकारस्य तन्निवृत्तौ निवृत्तेरेवोपपत्तेः। अन्यथा चिकित्साशास्त्रस्य वैयर्थ्यमेव प्रसज्येताऽतो महतोऽपि दौर्बल्यादिविकारस्येव मरणविकारस्य युक्तैव निवृत्तिः ।
अथ चिकित्साप्रयोगादपि दौर्बल्यादिनिवृत्त्युपलब्धेरपनेयविकारत्वं, असाध्यव्याधेरूपलब्धेरनपनेयविकारत्वं चेत्युभयथा दर्शनान्मरणानिवृत्तिः । तदसत् । यत् औषधालाभादायुःक्षयाद् वा कश्चिदसाध्यो विकारो भवति, दोषे तु केवले विकारकारिणि नाऽस्त्यसाध्यता । तथा हि- तेनैव व्याधिना कश्चिन्मियते कश्चिन्नेति नेदं दोषे केवले विकारकारिणि घटते, तस्मात् कर्माधिपत्यमेव सुसूत्रम् । न चैतत् परलोकादागतमात्मानं विनेति ।
स्यादेतत् । कायजमेव चैतन्यं, कायविकारे तद्विकारोपलम्भात् । न चाऽसिद्धिर्जरादौ तथा दर्शनात्, इति चेत् । न । यद् यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत् तद्धेतुकं । न च कायविकारान्वयव्यतिरेकानुविधायि चैतन्यं, कायविकाराभावेऽपि अप्रीत्यस्वास्थ्यादिभावाच्चैतन्यविकारोपलब्धेः । यदि पुन: कायविकारनिमित्तक एव चैतन्यविकारः स्यात् तर्हि अन्यतो न भवेत्, तनिमित्तकस्य तमन्तरेण सकृदपि भवनविरोधात्; अन्यथा निर्हेतुकत्वप्रसङ्गात् । न चयत्राऽप्यप्रीत्यादिभावस्तत्र देहविकार आवश्यको, जरादौ तथा दर्शनादिति-वाच्यम् । देहविकाराभावेऽपि तथाविधसङ्कल्पवशतोऽप्रीत्यादिभावस्य प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रत्यक्षेणाऽनुभवात् ।
वस्तुत(तो) यद्विकारस्य द्वि(वि)कारस्तत् तस्य कार्यमिति व्याप्तिरेव नाऽस्ति । पुत्रशरीरविकारे मातृशरीरविकारोपलम्भेन मातृशरीरस्य पुत्रशरीरकार्यत्वप्रसङ्गात् । सिंहोऽयं, सन्मुखमागच्छति वा, इति वाक्य श्रवणादेव केषाञ्चिच्चैतन्यविकारोपलब्धेस्तच्चैतन्यस्य तद्वाक्यश्रवणनिमित्तकत्वापाताच्च । तत्तत्कायजं चैतन्यं, कायसद्भावेऽपि तदतिरिक्तमुपादानं विना तस्याऽभावात् । यच्चाऽस्योपादानं स आत्मा, अत एव न कायाभावेऽभावोऽप्यस्य, सिद्धेषु तथोपलब्धेः ।
न च सिद्धसिद्धौ न मानं, मोक्षसिद्धौ अभिधास्यमानत्वात् । ननु न हि सर्वेषां वादिनां मते मोक्षः सिद्धोऽस्ति, येन मोक्षदशायां कायाभावेऽपि चैतन्यभावः स्यादिति चेत् । तत् किं सर्ववादिनां मते चैतन्यस्य भूतकार्यता सिद्धा येनैवं वदन्न लज्जसे ? । ततश्च कायसद्भावेऽपि तदतिरिक्तोपादानं विना
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चैतन्यस्याऽभावात् कायाभावेऽपि सिद्धिदशायां तदुपादानसत्त्वे चैतन्यस्य भावात् असिद्ध एव चैतन्यं कायादुपपद्यते, तद्भाव एव भावान्मद्याङ्गभावे मदशक्तिविदिति हेतुरिति सुष्टुक्तं चैतन्यस्य तथाविधभूतकार्यत्वे न किञ्चित् प्रमाणमिति ।
किञ्च योऽयं मदशक्तिदृष्टान्तस्त्वयोच्यते तत्र किञ्चिच्चर्यते । तथाहि, मदशक्तिर्हि किं मद्याङ्गसमुदायरूपे मद्ये उत मद्यभाजने उत तत्पानकर्तरि भवता स्वीक्रियते ? नाऽऽद्यः, तथात्वे मद्यस्याऽपि कदाचिन्मादनप्रसङ्गात् । अत एव न द्वितीयः । तृतीये तु दृष्टान्तस्य साधनविकलतैव, मदशक्तेः पानकर्तृसापेक्षत्वेन यथाकारपरिणतकेवलमद्याङ्गसमुदायादनुत्पत्तेः ।
अथ यथा कुम्भादिगताऽपि देवदत्तसम्बन्धिनी उत्क्षेपादिशक्तिर्देवदत्तस्यैव न तु कुम्भादेः, तथा पानकगताऽपि मद्यसम्बन्धिनी मद्यशक्तिर्मद्यस्यैव, न तु पानकस्येति कथं दृष्टान्तस्य साधनविकलत्वं इति चेद् । एतावताऽपि स्वोपादानादन्यत्रैव मदशक्तिः स्वकार्यं करोतीत्यायातम् । तथा चेष्टसिद्धिरेवास्माकम्, एतद्दृष्टान्तबलेनैव चेतनाया अपि स्वोपादानत्वाभिमतभूतसमुदायादन्यत्रैव स्वकार्यजनकत्वसिद्धेः ।
कथमेतावताऽभीष्टसिद्धिरिति चेत्- | अहो ! बुद्धितैक्ष्ण्यं । भूतसमुदायादन्यस्यैवाऽऽत्मत्वात् ।
हा बुद्धितैक्ष्ण्यं ! न हि पानको मद्यांगसमुदायादतिरिक्तो येनाऽत्र भूतसमुदायादतिरिक्तः कश्चित् सिद्ध्येत्, किन्तु तदन्तर्गत एव । तथा च यथा स्वनिमित्त एव मदशक्तिः स्वकार्यं जनयति, तथा चेतनाऽपीति कथमतिरिक्तस्यैवाऽसिद्धौ आत्मा सिध्येत् ? ।
हन्त ! तथाऽपि सा मदशक्तिः स्वाश्रयान्मद्याद् भिन्न एव गता सती स्वकार्यं करोति तथा चेतनाऽपि स्वाश्रयात् कायाकारभूतसमुदायाद् भिन्न एव गता सती स्वकार्य साधयिष्यतीति कथं नाऽऽत्मसिद्धिः?स्वाश्रयाद भिन्नस्यैवाऽऽत्मत्वात् । न च मदशक्तिः स्वाश्रयाद् भिन्न एव कार्यं करोति, चेतना तु स्वाश्रय एव, स्वभावस्यैव युक्तित्वादिति वाच्यम् । स्वभावस्य विवादास्पदत्वेनाऽयुक्तिताया एव युक्तेः । वस्तुतस्तु मद्ये मदशक्तिर्नाऽस्त्येव, तथा सति तस्याऽपि कदाचिन्मादनप्रसङ्गात् । किन्तु तत्सम्बन्धात् पानकस्यैव । तथा तथाविधभूतसमुदाये नाऽस्त्येव चेतना, किन्तु तत्संयोगात् तदन्यस्यैवाऽऽत्मन
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अनुसंधान-२० इति तत्त्वम् ।
यदपि च देवदत्तसम्बन्धिन्यपि उत्क्षेपणादिशक्तिः कुम्भाधुत्क्षेपणादिगता दृश्यत इत्युक्तं तदप्यसमीचीनम् । तत्राऽपि हि देवदत्तहस्तादिसम्बन्धविशेषभावतः कुम्भादरेवोत्क्षणादिपरिणामशक्तिरुत्पद्यते । यतस्तस्योत्क्षेपणादिपरिणामो भवति । न च सा शक्तिरन्यत्र सङ्कामति । देवदत्तस्याऽपि स्वपरिणामविशेषवशात् सा शक्तिरूपपादि या कुम्भादेरुत्क्षेपणादिशक्तिमुत्पादयितुमुत्सहते । न च साऽप्यन्यत्र सकामति । येन च यस्य यत्परिणामशक्तिराधीयते तेन तस्य स परिणाम: कु(कृ?)त इत्युच्यते; तेन देवदत्तेन कुम्भादिरुत्क्षिप्यते-इत्यादिको लौकिकोऽपि व्यवहार उपपद्यते, यथा मद्येन माद्यत इति । तन्न शक्तेरन्यत्र कथञ्चनाऽपि सङ्क्रमः । सोऽपि चेदभ्युपगम्यते तर्हि प्रतीतिबाधाप्रसङ्गः । न च शक्तेरन्यत्र सक्रमे किञ्चित् प्रमाणमिति न मद्ये मदशक्तिरुत्पद्यते, किन्तु मद्यसंयोगतो जीव एव; दधिसंयोगतो निद्रादिशक्तिवत् । तथा च मदशक्तिदृष्टान्तस्य साधनविकलतैव, केवलमद्याङ्गसमुदयभावे मदशक्तेरभावात् । एवं न भूतधर्मता तत्कार्यता वा चैतन्यस्य । ततश्च पारिशेष्याद् यस्याऽयं धर्मः स आत्मेति प्रतिपत्तव्यम् । तदुक्तम्
अचेतनानि भूतानि न तद्धर्मो न तत्फलम् । चेतनाऽस्ति च यस्येयं स एवाऽऽत्मेति चाऽपरे ।। इति ।
अथ भूतकार्यत्वसाधकं मानं यथा नाऽस्ति तथा तत्प्रतिषेधकं किमपि नाऽस्ति । न च साधकाभाव एव बाधको, वैपरीत्यस्याऽपि सुवचत्वात् इति चेत् । न । जीवच्छरीरं चेतनाशून्यं, भूतफलत्वात्, घटवत्-इति बाधकप्रमाणस्य सत्त्वात् । न चाऽप्रयोजकत्वं, जीवद्देवदत्तशरीरं यदि चेतनाशून्यं न स्यात् तर्हि चेतनावत् स्यात्, यदि च चेतनावत् स्यात् तर्हि भूतकार्यं न स्यात् । कार्यस्य स्वोपादानकारणधर्मानुगमसम्भवव्याप्तत्वेन सचेतनस्याऽचेतनभूतकार्यत्वविरोधात्, -इति विपक्षबाधकसद्भावेनाऽप्रयोजकत्वस्याऽभावात् । यदि कार्य स्वोपादानकारणधर्मानुयायि स्यात् तर्हि रक्ततन्तुकारणक: पटो रक्तो न स्यात् । न चैतद दृष्टमिष्टं वा, प्रत्यक्षबाधात् । भवति च जीवदेवदत्तशरीरं भूतकार्य, तस्माच्चेतनाशून्यं, भूतानामचेतनत्वेन प्रत्यक्षसिद्धत्वात् । न च-दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वं, तत्राऽप्यनभिव्यक्तचैतन्यस्वीकारादिति वाच्यम् । उक्तयुक्तेस्तत्राऽनभिव्यक्तेरेवा
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July-2002 ऽनुपपत्तेः । किञ्च विनाऽपि प्रमाणं यदि तत् तत्र स्वीक्रियते तहि सर्व सर्वत्राऽनभिव्यक्तमस्तीति अतिप्रसङ्ग एव स्यात् । न च प्रमाणमपि तत्र त्वया वक्तुं शक्यम्, अतीन्द्रियेऽर्थे ऐन्द्रियकप्रत्यक्षस्य अविषयित्वात् । अतीन्द्रियस्य च तस्याऽनुमानादेरिव प्रमाणत्वाभावात् । न च कायाकारणाऽपरिणतत्वमुपाधिzतशरीरे साध्याव्यापकत्वात् । कायाकारपरिणामस्याऽपि भूतसमदायमात्रनिबन्धनत्वेन जीवनमन्तरेण तदभावस्याऽप्यनुपपत्तेश्च । भूतानामविशेषेण घटादावपि तदभावप्रसक्तेश्च । न च विशेषको जीवः स्वीक्रियते, विवादपर्यवसानात् ।
___अथ यथा भूतानां विचित्रस्वभावतया घट-पटादीनां भूतकार्यत्वाविशेषेऽपि प्रतिव्यक्ति संस्थानविशेषो भिन्नस्तथा चैतन्यमपि इति चेत् । न । कारणसंस्थानभेदेन तत्र कार्यसंस्थानभेदोपपत्तेः । प्रलम्बपटकारणीभूतेषु तन्तुषु विषमगत्या प्रलम्बत्वस्योपलम्भात् । न च शरीरकारणत्वाभिमतभूतेषु सामान्येन विषमगत्याऽपि चैतन्यमुपलभ्यते, तत्कथमत्रैव स्यान्नाऽन्यत्र ? विनिगमकाभावेन सर्वत्र भावाभावप्रसङ्गात् ।
अपि च, भूतकार्यमपि जीवद्देवदत्तशरीरं चेतनाशून्यं नेत्यत्र किं मानम् ? । न तावत् प्रत्यक्षं, तस्य सन्निहित-सद्भूत-योग्यार्थविषयत्वेन प्रतिषेधप्रवृत्त्ययोगात् । नाऽप्यनुमानं, तथाभूतानुमानाभावात् । भूतकार्यत्वस्य चेतनाशून्यत्वेन व्याप्तेस्तदभावे भूतकार्यत्वभङ्गप्रसङ्गात् । अथाऽस्तु तथाविधाकारोऽनुमानं इति चेत् । न । तस्य चैतन्यं प्रति कारणत्वाभ्युपगमात् । न च कारणमवश्यं कार्यवद् भवति, प्रतिबन्धवैकल्यसम्भवात् । तदुक्तम्- "नाऽवश्यं कारणानि तद्वन्ति भवन्ती"ति । तत्कथं तदनुमानम् ? । नाऽपि सामग्री अनुमानं, जीवसिद्धिप्रसङ्गात्, जीवमन्तरेण तथाविधसामग्र्या एवाऽसिद्धेः।
ननु भोः कोविदकुलशिरोमणे ! जे(जी)वद्देवदत्तशरीरस्य चैतन्यशून्यत्वसिद्धावपि कथमात्मा सिद्ध्यति ? । परिशेषादिति चेत्, न, अप्रसिद्ध धर्मिणि परिशेषस्याऽयुक्तेः । न हि सामुद्रादिके चतुर्विधे नदीपूरेऽप्रसिद्ध तद्गतद्रुतभरणत्वादिषु धर्मेष्वप्रसिद्धेषु तद्दर्शनेन परिशेषानुमानं प्रवर्तते । न चाऽऽत्मनः प्रसिद्धिरस्ति इति चेत् । न ।
न ह्यात्मनो धर्मश्चैतन्यं-इति साधनाय यतामहे येन त्वदुक्तं दूषणं स्यात् । किन्तु अविगानेन प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रमाणसिद्धं हि चैतन्यं नाऽपह्रोतुं शक्यं,
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अनुसंधान-२०
63 धर्मादिस्वरूपं च तत् । न च धर्मो धमिणमन्तरेणोपपद्यत इत्यस्य धर्मी सिद्ध्यति । यश्चाऽस्य धर्मी स न भूतसमुदायः, आनुरूप्याभावात् । किन्तु तदतिरिक्त एव, परिशेषात् । यश्चाऽतिरिक्तः स एवाऽऽत्मेति सिद्धमेतद् यत् स्वानुरूपान्वयिनिमित्तं चैतन्यमिति स्वानुरूपान्वयिनिमित्ताभावे कार्यकारणविभागनियमानुपपत्तेः । प्रयोगश्चचैतन्यं स्वानुरूपान्वयिनिमित्तं, कार्यत्वात्-घटवत् । नहि अत्यन्तासत उत्पादो घटते, अतिप्रसङ्गात्, किन्तु सत एव । तथा च कार्यत्वं हेतोस्तथाभावित्वेन व्याप्यते । तदुक्तं "न तथाभाविनं हेतुमन्तरेणोपजायत" इति । स्वानुरूपान्वयिनिमित्तानङ्गीकारे चाऽसत उत्पादाभ्युपगमप्रसङ्गः । ततो विपक्षाव्यापकविरुद्धोपलब्ध्या व्यावर्तमान कार्यत्वं स्वानुरूपान्वयिनिमित्तत्वेन व्याप्यत इति प्रतिबन्धसिद्धिः ।
स्यादेतत्, अमूर्तस्वानुरूपान्वयिनिमित्तत्वं पक्षे विवक्षितं, घटादौ च कार्यत्वस्य तद्विपरीतसहचारदर्शनात् विशेषविरुद्धत्वं हेतोरिति चेत् । न । हेतोविवक्षितसाध्यविपरीतसहचारमात्रस्याऽदूषकत्वात्, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । न हि हेतोर्मूर्तस्वानुरूपान्वयिनिमित्तकत्वेन व्याप्तिर्येन तथा स्यात्; किन्तु अंविशिष्टेनैव, तस्य च मूर्तत्वाङ्गीकारे बाधात् । तथा च न विशेषविरुद्धत्वं, 'विरुद्धोऽसति बाधन' इति वचनात् । अन्यथा धूमस्याऽपि महानसादौ व्यजनसहकृताग्निसहचार दर्शनात् पर्वते विशेषविरुद्धतया वढ्यननुमापकत्वापत्तेः । न चाऽस्माकमेवमपि क्षतिः, कर्मणा सह लोलीभावेनाऽवस्थानतः कथञ्चिदात्मनो मूतत्वाभ्युपगमात् ।
अथाऽस्तु अनुरूपो धर्मी मातृचैतन्यमिति चेत् । न । तदभावे सुतचैतन्यस्याऽपि अभावप्रसङ्गात् । अन्यथा धर्मत्वविरोधात्, मातृचैतन्यवृत्तितया च सुते तदभावप्रसङ्गात् । न च मा भवतु स धर्मी, कारणं तु भविष्यति, अनुरूपत्वात् । तथा चाऽसिद्धिरेवाऽऽत्मन इति चेत् । न । तत्संस्कारानुवृत्त्यभावेन तत्कार्यत्वविरोधात् । अन्यथा यज्ञदत्तचैतन्यस्याऽपि देवदत्तचैतन्यकार्यत्वप्रसक्तेः । मृत्पिण्डोपमर्देनैव घटोत्पादवत् मातृचैतन्योपमर्देनैव सुतचैतन्योत्पादप्रसङ्गाच्च । यदि पुनर्दीपाद्दीपान्तरोत्पत्तिवन्मातृचैतन्यात् तदुत्पत्तिरविरुद्धा, तदा तस्य सहकारिकारणतया सिद्ध एवाऽऽत्मा; अनुपादानस्य वस्तुनश्चाऽभावेनोपादानस्याऽऽत्मत्वात् । तत्सिद्धौ च स एवोपादेयरूपतया परिणमते, तदप्युत्तरोत्तरभावेन । तथा च सततमनुच्छित्त्या सुरनारकाद्यवस्थालक्षणः परलोकः ।
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किञ्चैवं यूका-मत्कुणादिषु चैतन्याभाव एव स्यात्, लोकप्रतीतिबाधात् ।
अन्ये तु, ज्ञानं क्वचिदाश्रितं, गुणत्वात्-रूपवदित्यनुमानं प्रमाणमाहुरात्मसिद्धौ । न चेन्द्रियाणि तद्वन्ति, करणत्वाद् वासीवत् । करणत्वेऽपि यदि ज्ञानवत्त्वं स्यात् इन्द्रियाणां तदा तेषां स्वस्वविषयमात्रग्रहणशक्तिमत्त्वेन परविषये प्रवृत्त्ययोगाद् रूप-स्पर्शविषयमेकाधारं ज्ञानं न स्यात्, स्पर्शग्राहकस्य स्पर्शनेन्द्रियस्य रूपाग्राहकत्वात् । अन्यथाऽन्धस्याऽपि घटगतकाठिन्यादिस्पर्शज्ञाने नीलादिविज्ञानस्योत्पादप्रसङ्गात् । न च रूप-स्पर्शविषयमेकाधारं ज्ञानमसिद्धं, य एवाऽहं घटं करेण कठिनमनुभवामि स एवाऽहं श्याममपि साक्षात्करोमीत्यनुभवात् । पूर्वानुभूतस्वशरीररूपादेरन्धत्वदशायामस्मरणप्रसङ्गाच्च । नाऽपि शरीरं तद्वत्, जडत्वात्घटवत् । न चाऽप्रयोजकत्वं, शरीरस्य ज्ञातृत्वे बाल्यानुभूतमातृस्तन्यपानादेवृद्धत्वदशायां संस्कारानुदयेन स्मरणाभावप्रसङ्गात् । नह्यननुभूतमपि स्मर्यते, अतिप्रसङ्गात् । न च वृद्धशरीरं अनुभवित, तस्य तदानीमसत्त्वात् । न च तस्याऽपि कथञ्चित् सत्त्वं, जैनमतप्रवेशात् । शरीरस्य भूतसमुदायरूपतया नानात्वेन चैतन्यस्याऽपि नानात्वप्रसङ्गात् । न च भूतसमुदायारब्धमेकमेव शरीरं इति चैतन्यमप्येकं, नैयायिकमत एव तादृशावयविस्वीकारात्; त्वन्मते तु नैवं, 'समुदायमात्रमिदं कलेवरं'- इति वचनात् । ततः परिशेषाद् यत्राऽऽश्रितं ज्ञानं स आत्मा । स च न शरीरविनाशेऽपि विनश्यति, वस्तुतः सर्वथा विनाशाभावात् । अविनाशित्वे च क्वचिदस्याऽवस्थित्या भाव्यमिति सिद्ध एव परलोकः । सुखित्वदुःखित्वरूप: पूर्वकृतकर्मफलोदयवान्-इत्याहुः ।
एतेन - "सदा मद्यादिकं पेय' मित्यादि यदुक्तं तन्निरस्तं, परलोकसिद्धौ जुगुप्सितकर्मणां दुःखहेतुत्वेन विवर्ण्यत्वोपपत्तेः ।।
किञ्च, प्रमाणं विना न कस्याऽपि प्रतिषेधो, भूतानामपि प्रतिषेधप्रसङ्गात् । तथा च किमात्मप्रतिषेधे प्रमाणं? न तावत् प्रत्यक्षं, तस्य सद्भूतयोग्यार्थग्राहकत्वेन प्रतिषेधे प्रवृत्त्ययोगात् । तदुक्तम्
"आहुर्विधातृ प्रत्यक्षं न निषेद्ध विपश्चित" इति ।
अथ प्रत्यक्षं यत्र प्रवृत्तं तत्र प्रवृत्तिव्यवहारं जनयति, यतश्च निवृत्तं तत्र निवृत्तिव्यवहारं इति चेत्, न । प्रतिषेधविषये विवर्तमानं प्रत्यक्षं परमार्थतोऽविद्यमानस् । न चाऽविद्यमानेन वस्त्वभावो गम्यते, खरविषाणस्येवैतस्या
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ऽवगमनिबन्धनत्वाभावात् । उक्तं च- "प्रत्यक्षस्य निवृत्तेरभावनिश्चय इति चेत्तच्च नाऽस्ति, तेन च प्रतिपत्ति' रिति व्याहतमेतदिति ।
ननु वस्त्वन्तरविषयं प्रत्यक्षं नाऽविद्यमानं, किन्त्वात्मानं न गृह्णाति इति आत्मनिषेधकं केवलभूतलविषयप्रत्यक्षस्य घटनिषेधत्ववत् इति चेत् । न। वस्त्वन्तरेण सहाऽऽत्मन एकज्ञानसंसर्गित्वलक्षणसम्बन्धस्याऽभावात् । तस्याऽतीन्द्रियत्वेन । अन्यथा घटस्येव तस्याऽपि देशकालनिषेध एव स्यान्न पुनः सर्वत्र सर्वदा ।
अथाऽऽत्मविषयकप्रत्यक्षाभाव आत्माभावे प्रमाणमिति चेद् । हतो ऽसि । प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति सङ्गरव्याघात् । अभावस्याऽनिश्चयत्वे
नाऽप्रमाणत्वाच्च ।
अथ किमनेन वाग्विलासेन ? यत्प्रत्यक्षेण नोपलभ्यते तन्नाऽस्ति । न च परचैतन्येन व्यभिचार:, चेष्टादिदर्शनेन तस्य प्रत्यक्षेणोपलम्भादिति चेत् । न । मूच्छितादौ चैतन्यस्य प्रत्यक्षेणाऽनुपलम्भेऽपि सत्त्वात् । न च मूर्च्छापगमेऽन्यदेव चैतन्यं कायादुत्पन्नमिति वाच्यं, मानाभावात् । न च समानमेतत् पूर्वानुभूतस्मरणस्यैव मानात् । उपलभ्यते हि मूर्च्छापगमे पूर्वानुभूतस्य स्मरणम्, अविगानेन सर्वेषां तथाऽनुभवात् । चैतन्यं च यदि नैतत्प्राचीनं, कथमेतत्स्मरणं स्यात् ? इदानीमुत्पन्नस्य तदनुभवाभावात् । न चेदं भ्रान्तं विवक्षितमर्थं स्मृत्वा प्रवृत्तस्य संवादोपलब्धेः । न च चेष्टादिना चैतन्यं प्रत्यक्षेणोपलभ्यते, तस्याऽतीन्द्रियत्वात्, चैतन्याव्यभिचारित्वस्य तत्र ग्रहीतुमशक्यत्वाच्च । स्वसंवेदनप्रत्यक्षत एव तस्याः स्वशरीरे चैतन्येन सहाऽव्यभिचारग्रहेऽनुमानप्रामाण्य प्रसङ्गात् । अव्यभिचरितार्थान्तरदर्शनात् साध्यार्थप्रतिपत्तेरनुमितित्वात् ।
किञ्च, 'यन्न दृश्यते तन्नाऽस्ति' इत्येवंरूपोऽविनाभावो न तावत् सिद्धः, सत्यपि वस्तुनि अदर्शनस्य सम्भवात् । कथमन्यथा काष्टाद्यन्तः प्रविष्टा ददृश्याज्ज्वलनाज्ज्वलनश्चन्द्रकान्तान्तर्गताद् वा तोयात् तोयं व्यक्तीभवदभ्युपगतं भवता । न च दृश्यमानेन्दुकान्तादेरेव पार्थिवः ज्वलनोदकाद्युत्पादोऽभ्युपगम्यते । नाऽदृश्यमानादित्यपि वक्तुं शक्यं भवता, सर्वेषां भूम्यादीनामुपादानों पादेयभावप्रसङ्गेनाऽऽर्हताभिमतपुद्गलैकतत्त्ववादापत्त्या तत्त्वचतुष्टयवादविलोपात् । असिद्धौ चाऽविनाभावस्य नाभाव एव, आत्मनः सन्धिग्धविपक्षव्यतिरेकत्वात् । सिद्धश्चेद्
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हा हतं स्वकीयं मतम्, अनुमानस्य स्ववाचैव प्रमाणत्वाभ्युपगमात् । अविनाभावस्मरणसापेक्षं लिङ्गाल्लिङ्गिज्ञानस्याऽनुमानत्वात् ।।
अथाऽप्रमाणमप्यनुमानं आत्मप्रतिषेधकमस्त्विति चेत् । न । अप्रमाणस्याऽयथार्थत्वेन प्रतिषेधकत्वायोगात् । स्यादेतत्, यद्यपि मन्मते नाऽनुमान प्रमाणं, तथाऽपि त्वन्मते तु प्रमाणमेव । ततश्च प्रमाणत्वेनाऽभिमतात् तस्मात् तवाऽऽत्मप्रतिषेधः स्वीकार्यते इति चेत् । न । वस्तुगत्याऽप्रमाणस्य यथावस्थितार्थप्रतिपत्तिनिबन्धनत्वायोगात् । अन्यथा प्रमाण-पर्येषणानर्थक्यप्रसङ्गात्। एतेन परकीयेनाऽपि खड्गेन दृष्ट एव यथा विनिपातस्तथा परमतप्रमाणेनाऽपि आत्मप्रतिषेध इति निरस्तम् । खड्गस्य परिविनिपातनशक्तिसमन्वितत्वेन ततः परविनिपातोपपत्तेः । न ह्यनुमानस्याऽपि वस्तुप्रमापणशक्तिसमन्वितत्वं येन ततो विवक्षितवस्तुप्रतिपत्तिः स्यात् । परेण तथा स्वीक्रियत एवेति चेत् । तत् किं पराभिप्रायानुयायि वस्तु-इति मन्यसे? तथा सति काचस्याऽपि कुतः प्रकाशकत्वं न भवति ? परेण तमसि तस्य रत्नत्वेन गणनात् ।
अथेष्यत एव स्वार्थसिद्ध्यर्थं अनुमानस्याऽपि वस्तुप्रमापणशक्तिमत्त्वं, तहि सिद्धमेवाऽनुमानं प्रमाणं, यथावस्थितार्थवस्तुविषयत्वेन प्रसह्य प्रामाण्योपपत्तेः । न चैवमपसिद्धान्तः, उपचारेण विषयादीनामपि प्रमाणत्वस्वीकारात्, मुख्यवृत्त्या विज्ञानमेव प्रमाणमिति सिद्धान्तात् । वस्तुतस्तु नाऽस्त्येव तदनुमानं यदात्मप्रतिषेधकम्, अनुपलब्धेरन्यस्य प्रतिषेधे व्यापारायोगात् । इति-सिद्ध एवाऽऽत्मा, तत्प्रतिषेधकप्रमाणाभावात् । प्रत्यक्षानुमानयोस्तत्साधकत्वेन भणनाच्च ।
__अथ 'न चाऽनुमान प्रमाणम्, अनुमानविरोधादिदोषसद्भावादिति' प्रागेवोक्तमिति चेत् । न । साध्यार्थान्यथानुपपन्नलिङ्गनिश्चयबलप्रवृत्तेऽनुमाने'नुमानविरोधादिदोषाभावात् । न हि धूमेन पर्वतेऽग्नौ साध्ये नाऽग्निमान् पर्वतः, पर्वतत्वात्तदन्यपर्वतवदित्यनुमानविरोधस्य, तथा पर्वतो निस्तलनिर्वृक्षप्रदेशस्थाग्निमान्, धूमात् महानसवदितीष्टविघातकृत्त्वस्य, पर्वतो नाव्यत्त्या(?)ऽग्निमान्, धूमात्- महानसवदिति विरुद्धाव्यभिचारित्वस्य वा दोषस्याऽवकाशोऽस्ति, एषां प्रत्यक्षबाधितविषयतयाऽनुमानाभासत्वेन विवक्षितानुमानबाधकत्वायोगात् ।
यदप्युक्तं-अनुमानस्य किं सामान्यं विषयो विशेषो वेत्यादि, - तत्रोच्यते। विशेषवत् सामान्यं, अयोगव्यवच्छेदेन प्रदेशविषिष्टस्यैव वह्नः पुरुषप्रवृत्तिः प्रति
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अनुसंधान-२० हेतुत्वात् । न च- देशविशिष्टस्याऽपि वढेर्न साध्यत्वं तेन सममन्वयाभावात् - इत्यपि वाच्यम् । व्याप्तिकाले वह्निमात्रस्यैव विषयत्वेऽपि प्रयोगकाले देशविशिष्टवह्वेरेव विषयत्वात् । प्रतिपाद्यं हि प्रतिपादयता प्रेक्षावता धूमोऽग्निनान्तरीयको दर्शनीयः । यथा यत्र धूमस्तत्राऽवश्यमग्निरिति । स च धूमस्तथा व्याप्तिकाले वह्निमात्रेण व्याप्तः सिद्धः सन् यत्रैव पर्वतादौ स्वयं दृश्यते तत्रैवाऽग्निबुद्धिं जनयति नोदध्यादौ, तेन प्रयोगकाले देशविशिष्टो वह्निर्विषयो निर्दिश्यते । यद्येवं तर्हि प्रयोगकाले न साध्यनिर्देशो युक्तः, सामर्थ्येनैवाऽनन्तरोक्तेन तस्य गतार्थत्वात् । न । अनन्तरोक्तसामर्थ्यपरामर्शशून्यतथाविधपरव्यामोहनिवृत्त्यर्थत्वेम तस्याऽपि सफलत्वात् । अन्यथा हि तन्निर्देशाभावे व्याप्तिवचनान्तरं धर्मिणि पर्वतादौ तस्य दर्शनेऽपि अनन्तरोक्तं सामर्थ्यमनुसत॒मशक्तः सन् कश्चित् व्यामुह्येत । अतः परप्रतिपत्त्यर्थं परार्थानुमान प्रयोगाद्युक्तस्तदपेक्षया प्रतिज्ञाप्रयोग इति युक्तमुक्तं विशेषवत् सामान्यमनुमानस्य विषय इति ।
किञ्चाऽनुमानाप्रामाण्ये प्रत्यक्ष-तदाभासयोरपि प्रामाण्याप्रामाण्यव्यवस्था न स्यात् । तथाहि- चार्वाकोऽपि कश्चित् प्रत्यक्षव्यक्तिविवक्षितार्थक्रियासमर्थार्थप्रापकत्वेनाऽविसंवादिनीरन्याश्च तद्विपरीततया विसंवादिनीरूपलभ्य तल्लक्षणव्याप्त्या तादृशीनां प्रत्यक्षव्यक्तीनां प्रामाण्यमितरासां चाऽप्रामाण्यमुद्घोषयेत् । न च प्रत्यक्षमव्यवहितविद्यमान(ना?)विद्यमानार्थग्रहणपर्यवसितसत्ताकतया पूर्वा-परपरामर्शशून्यं सत् सकलकालभाविनीनां प्रत्यक्षव्यक्तीनां प्रामाण्य-निबन्धनमविसंवादित्वसामान्यमवबोधयितुमीष्टे । तस्मादवश्यंतया परिदृष्ट-प्रत्यक्षज्ञानव्यक्त्यनुसारेण प्रामाण्यनिबन्धनस्याऽविसंवादिसामान्यस्य प्रत्यायकमनुमानं प्रमाणत्वेनाऽऽश्रयणीयम् । अपि च 'अनुमानं न प्रमाणम्'- इति वाक्यस्य सन्दिग्धविपर्यस्तान्यतरं प्रत्यर्थवत्त्वात् तयोश्च परकीययोरप्रत्यक्षत्वात् तदवगमार्थं अनुमानप्रामाण्यस्याऽवश्यमङ्गीकरणीयत्वम् । अन्यथा तदीयसंशय-विपर्यययोरज्ञाने तदवबोधार्थं वाक्यप्रयोगानुपपत्तेः । किञ्च प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यनिमित्तं गृह्यमाणपदार्थान्वयव्यतिरेकानुकरणं, तच्च साध्यप्रतिबद्धलिङ्गज्ञानसामर्थ्यनोदीयमानस्याऽनुमानस्याऽप्यविशिष्टमिति कथं न तत् प्रमाणमङ्गीक्रियते ?
केचित् तु - अथाऽनुमानं न प्रमाणं, गौणत्वात् । गौणं ह्यनुमानम्, उपचरितपक्षादिलक्षणत्वात् । तथाहि
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July-2002 ज्ञातव्ये पक्षधर्मत्वे पक्षो धर्म्यभिधीयते । व्याप्तिकाले भवेद् धर्मः साध्यसिद्धौ पुनर्द्वयम् ॥ इति ॥
अगौणं हि प्रमाणं प्रसिद्ध, प्रत्यक्षवद्-इति चेत् । संपतितस्तव स्वारूढशाखामोटनन्यायः, गौणत्वाद्-इति हेतुं प्रमाणत्वेन स्वीकृत्य पुनस्तस्यैव प्रमाणत्वखण्डनात् । न च पक्षधर्मत्वं हेतुलक्षणमाचक्ष्महे, येन तत्सिद्धये साध्यधर्मविशिष्टे धर्मिणि प्रसिद्धमपि पक्षधर्मत्वं धर्मिण्युपचरेम, अन्यथाऽनुपपत्त्येकलक्षणत्वाद् हेतोः । नाऽपि व्याप्ति पक्षेणैव ब्रूमहे, येन तत्सिद्धये धर्मे तदारोपयेमहि, साध्यधर्मेणैव तदभिधानात् । न चाऽऽनुमानिकप्रतीतौ धर्मविशिष्टो धर्मी, व्याप्तौ तु धर्म : साध्य: - इत्येकत्र गौणमेव साध्यत्वमिति चेत् । मैवं । उभयत्र मुख्यतल्लक्षणभावेन साध्यत्वस्य मुख्यत्वात् । तत् किमिह द्वयं साधनीयम् ? | सत्यं । नहि व्याप्तिरपि परस्य प्रतीता, ततस्तत्प्रतिपादनेन धर्मविशिष्टं धर्मिणम्'अयं प्रत्यायनीयः' इत्यसिद्धं गौणत्वम् ।
अथ नोपादीयत एव तत्सिद्धौ कोऽपि हेतुः, तर्हि कथमप्रामाणिकी प्रामाणिकस्येष्टसिद्धिः स्यादिति नाऽनुमानप्रामाण्यप्रतिषेधः साधीयतां दधाति । नाऽनुमानं प्रमेत्यत्र हेतुः स चेत्, वाऽनुमानताबाधनं स्यात् ? तदा नाऽनुमानं प्रमेत्यत्र हेतुर्न चेत्, तत् क्षऽनुमानताबाधनं स्यात् ? तदेति संग्रहश्लोकः ।
कथं वा प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यनिर्णयः ? यदि पुनरर्थक्रियासंवादात् तत्र निर्णयस्तहि कथं नाऽनुमानप्रामाण्यं ? प्रत्यपीपदाम च
प्रत्यक्षेऽपि परोक्षलक्षणमतेर्येन प्रमारूपता, प्रत्यक्षेऽपि कथं भविष्यति ? न ते तस्य प्रमारूपता''इति,- इत्याहुः ।
चिन्तामणिकारस्तु- अनुमानस्याऽप्रामाण्ये प्रत्यक्षस्याऽप्यप्रमाणत्वापत्तिः, प्रामाण्यस्याऽनुमेयत्वात् । स्वतः प्रामाण्यग्रहे च तत्संशयाद्यनुपपत्तेरित्याह ।
अथ यद्यपि किञ्चित् अनुमानं प्रमाणं, तथाऽपि तज्जातीयस्य तत्पुत्रत्वादेः साध्यार्थव्यभिचारित्वदर्शनेनाऽप्रमाणत्वात् न तत्र प्रामाण्यं इति चेत् । नूनं बहुपुत्रत्वं स्वात्मनोऽभिलषितं त्वया, कुलटाया बहुभर्तृभुक्तत्वेन शीलवत्त्वाभावात्, तज्जातीयतया त्वन्मातुरपि तथात्वात् । नाऽस्त्येव तत्र शीलविश्वास इति चेन्निर्णयेऽपि किं नास्त्येव येन स्वमातुरपि कुलटात्वमङ्गीकुरुषे? । किञ्चैवं प्रत्यक्षमपि न प्रमाणं स्यात्, मरुमरीचिकानिचयविषये जलोल्लेखिनस्तज्जातीयस्य तस्याऽर्थ
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अनुसंधान-२० व्यभिचार-दर्शनेनाऽप्रमाणत्वात् । अथ तत् प्रत्यक्षाभासम्, अतो न तदप्रामाण्ये प्रत्यक्षस्याऽप्रामाण्यं, विजातीयत्वाद् इति चेत् । तर्हि तत्पुत्रत्वादिकमप्यनुमानाभासमिति न तदप्रामाण्येऽप्यनुमानस्याऽप्रामाण्यं, विजातीयत्वादित्यपि तुल्यम् ।
यथाहि यदिन्द्रियसागुण्यादिसामग्रीविशेषसम्पादितसत्ताकं प्रत्यक्षं तत् प्रमाणं, विसंवादाभावात् । इतरत्तु तदाभासम् । न च तद्बाधने व्याधातो, भिन्नजातीयत्वात् । तथा साध्यार्थान्यथानुपपन्नहेतुदर्शनतत्सम्बन्धस्मरणजनितं यदनुमानं धूमादि तत् प्रमाणं, विसंवादाभावात् ।
इतरत् तु यद्धत्वाद्यवयवमात्रजनितं तत्पुत्रत्वादि तत् तदाभासं, तस्य साध्यार्थान्यथानुपपन्नत्वाभावात् । न च तद्बाधने प्रमाणत्वाभिमतस्याऽनुमानस्य कश्चिद् व्याघातो, भिन्नजातीयत्वात् । तत् परिहरणीयमिदानी प्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वं, स्वीकरणीयं वाऽनुमानस्याऽपि तद्-इति दुस्तरा प्रतिबन्दितरङ्गिणी । किञ्च नाऽनुमानं प्रमाणं- इति वाक्यं चेत् प्रमाणं तदाऽपसिद्धान्तः । अथ न प्रमाणं तदा समागतमेतद् यदनुमानं प्रमाणम् । तत्प्रामाण्याच्च ततः सिद्ध आत्मा प्रमाणसिद्ध एवेति तत्वम् ।
न चैतदनागमिकम्, आगमेऽपि जीवसत्ताया भणनात् । "अस्थि जीवे" इत्यादौ तथा दर्शनात् । अथ न चाऽऽगम: प्रमाणमित्यादि प्रागेवोक्तमिति चेत् । अन्यदपि बहूक्तमासीत्, परं तद् यथाऽयुक्तं तथेदमपि । तथा हि - नाऽन्योन्यं वादिनामसङ्गतत्वाभिप्रायमात्रेण वस्तुनोऽभावः; तस्य स्वकारणकलापनिमित्तत्वात् । नहि वस्तु वाद्यभिप्रायनिमित्तं, येन तदसङ्गतत्वेन तदप्यसङ्गतं स्यात् । ततश्चाऽयमप्यागमो यथावस्थितवस्तुप्रकाशनतया स्वयं प्रमाणं सत् परस्परं वादिनामसङ्गतत्वाभिप्रायमात्रेण नाऽप्रमाणं भवितुमर्हति; तदभिप्रायनिमित्तप्रामाण्यानभ्युपगमात् । अन्यथा घटादिप्रत्यक्षमपि प्रमाणं न स्यात्, अद्वैतवाद्यभिप्रायेण तस्याऽपि मिथ्यात्वात् । अथाऽस्मदादीनामभिप्रायेण तस्य सत्यत्वमस्त्येवेति तथैव तद् इति चेत् । तहि-अस्मदादीनामभिप्रायेण तस्याऽपि प्रमाणत्वमत्स्येवेति तथैवेति तदपि तुल्यम् ।
वस्तुतस्तु एवंभूतानामप्यभाव एव स्यात्, तत्राऽपि बहूनां विप्रतिपत्तेः । तस्माद् भूतानां काठिन्यादिस्वरूपस्येवाऽन्योन्यं वादिनां विप्रतिपत्तेर्नाऽऽगमस्य
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प्रामाण्यरूपस्वरूपस्य भ्रंस(श) इति सिद्धं आगमः प्रमाणमिति । एवं चाऽतः सिद्धो जीवोऽपि सुसिद्ध एवेति । यदप्युक्तं-"कथं 'छविहा जीवा पन्नत्ता' इत्यादिकं जीवास्तित्वप्रतिपादकं वचः प्रमाणम् । 'पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानी' त्यादिकं जीवप्रतिषेधकं न प्रमाणं, नियामकाभावात् । तस्मात् सुदृढमेतद यत्नास्ति जीव इति" । तदप्ययुक्तम् ।।
अतीन्द्रिये विषये हि तदेव वच: प्रमाणं यदविसंवादि । अविसंवादश्च तदभिधेयस्याऽर्थस्य प्रत्यक्षस्याऽनुमेयस्य वा प्रत्यक्षेणाऽनुमानेन वा यथाक्रम ग्रहणं परस्परमव्याघातश्च । उपलभ्यते चासौ वीतरागवचसि प्रत्यक्षत्वेन, तदभिहितस्याऽर्थस्य प्रत्यक्षेण ग्रहणात् । यथा ''से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणेऊण तेणं सद्दो त्ति उग्गहिए । नो चेव णं जाणइ के वेस सद्दे ति(त्ति) । ततो ईहं पविसई" इत्यादिना सूत्रेण शब्दादीनां श्रावणावग्रहादिरूपप्रत्यक्षगोचरत्वेनाभिह(हि)तानां तथैव ग्रहणम् । अस्ति चाऽनुमेयत्वेनाऽप्यभिहितस्याऽनुमानेन ग्रहणम् । यथा “सासए असासए जोवे ? । गोयमा ! सिय सासए सिय असासए । से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? । गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासए भावट्ठयाए असासए" । इत्यादिनाऽभिहितस्य नित्यानित्यत्वस्य स्मरणाद्यन्यथानुपपत्त्याऽवस्थाभेदान्यथानुपपत्त्या च ज्ञायमानत्वेनाऽनमेयतयाऽभिमतस्य तथैव ग्रहणम् । परस्पराव्याघातोऽपीह स्फुटोऽस्त्येव, यथा जीवस्य बन्ध-मोक्षावभिधाय नित्यानित्यत्वविधानम्, एकान्तनित्यपक्षेऽनित्यपक्षेऽपि तयोः सर्वधाऽनुपपद्यमानत्वात् ।
तदेवमविसंवाददर्शनादिदं वीतरागस्य वचस्तावत् प्रमाणमेव । न च वाच्यं वीतरागत्वं कस्याऽपि न सम्भवत्येव । रागादयः कस्यचिदत्यन्तमुच्छिद्यन्ते,
अस्मदादिषु तदुच्छेदप्रकर्षापकर्षोपलम्भात्, सूर्याद्यावारकजलद पटलवदित्यनुमानेन तत्सिद्धावसम्भवस्य वाङ्ममात्रत्वात् । तदुक्तम्
देशतो नाशिनो भावा दृष्टा निखिलनश्वराः । मेघपङ्क्त्यादयो यद्वदेवं रागादयो मताः ॥ इति ।
यस्य च निरवयवतयैते विलीनाः स एव वीतराग इति । अनादिरागादिक्षयस्तु तत्प्रतिपक्षभूतरत्नत्रयाभ्यासेन भवत्येव, क्षारमृत्पुटपाकादिना अनादिसुवर्णमलक्षयवत् । क्षीणरागादेश्च केवलज्ञानाव्यभिचारात् सर्वज्ञत्वं, तत्सिद्धौ च
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अनुसंधान-२० प्रमाणं-ज्ञानतारतम्यं वचिद् विश्रान्तं, तारतम्यत्वात्, आकाशपरिमाणतारतम्यवत् । यत्र तद् विश्रान्तं स एव सर्वज्ञः । इति तत्प्रणीतं यद् वचस्तत् प्रमाणमेव, अप्रामाण्यप्रयोजकस्य मोहादेस्तत्राऽभावात् । तदुक्तम्
रागाद्वा द्वेषाद् वा मोहाद् वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात् ? ॥ इति सिद्ध एव आगमादप्यात्मा ।
यत् पुनः 'पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसञ्जा' इति, तदप्रमाणम् । जीवाभ्युपगममन्तरेण पृथिव्यादिष्वेव भूतेषु जीवद्देवदत्तादिशरीर-घटादिरूपेषु दृष्टस्य सचेतनाचेतनत्वरूपस्य वैचित्र्यस्य सर्वथाऽनुपपद्यमानत्वात् । तथैव प्राक् सविस्तरं दर्शितत्वात् । एवं च 'विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य' इत्याद्यपि यथाभिप्रायमुपन्यस्तमप्रमाणमवगन्तव्यम् । यथा पुनरेतदेव वाक्यं विद्वांसो व्याकुर्वन्ति तथा प्रमाणमेव, तथा व्याख्याने दृष्टस्य सचेतनाचेतनत्वलक्षणस्य वैचित्र्यस्य जातिस्मरणादेश्चोपपद्यमानत्वात् । तच्च व्याख्यानं विशेषावश्यकादवसेयम् ।
एवं च यः प्रतिषेधति जीवं स एव जीव इति प्रागुक्तमेव युक्तं, भूतानां अचेतनत्वेन तत्प्रतिषेधकत्वायोगात् ! यदन्वयिनिमित्तता च चैतन्यस्य कार्यत्वेन प्राक् प्रसाधिता स आत्मैव,तस्यैवाऽनुरूपतया चैतन्यं प्रति धर्मित्वाद्युपपत्तेः । स च परिणामित्वात् सुरनारकादिपर्यायरूपेण परिणमते इति आत्मा परलोक्यपि सिद्धः । तथा च यदुक्तं प्राक्- 'आत्मनोऽभावात् परलोकस्याऽप्यभावः' - इति, तन्मन्दबुद्धिविजृम्भितमित्युपेक्षणीयमेव । न चाऽऽत्मनः सुरनारकादिरूपेण परिणमनमयुक्तमिति वाच्यम् - सत एकान्तेन विनाशाभावात् । न हि घटकपालयोरन्तरा एकोऽपि क्षणो भावरूपताशून्य उपलभ्यते येन घटः सर्वथा विनष्टः कपालचाऽसन्नेवोत्पन्न इत्यपि स्यात् । किं तु घट एव कपालरूपेण परिणमते, न तु सर्वथा विनश्यतीति निश्चीयते । न च दीप-तडागोदकादेरपि निरन्वयो विनाशः, तैलादिक्षये दीपस्यैव तमोरूपेण परिणतत्वात् । नहि प्रौढप्रकाशकयावतेजःसंसर्गाभावस्तमो, येन तद्रूपत्वं विरुद्धं स्यात् । तडागोदकादेरपि पवनादिनाऽन्यत्र सञ्चार्यमाणत्वेन परिणामान्तरेण सत्त्वात् । कथमन्यथा जलेनाऽऽर्टीकृतायां मृदि तत्रोपलभ्यते । न हि रूपान्तरेणाऽपि तत्र तन्नाऽस्त्येव, मृदि प्रागिवाऽऽर्द्रत्वा
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July-2002 भावप्रसङ्गात् । तुलायां नत्याधिक्याभावापत्तेश्च । किञ्च घटविनाशस्य भावरूपघटोपादानकत्वेन भावत्वसिद्धौ कथं न प्रमाणबाधितः सर्वतः सर्वथा विनाशः । न चैकान्तेनाऽसत उत्पादोऽपि, असत स्तुच्छरूपत्वेन भवनशक्त्ययोगात्। अन्यथैकान्तेनाऽसत्त्वायोगात्। तथाऽपि चेत् तस्य सत्त्वरूपतया भवनमिष्यते तहतिप्रसङ्गः, खरविषाणस्याऽप्युत्पत्तिप्रसक्तेः, तद्भवनशक्त्यविशेषात् । किञ्च यदि विवक्षितभावोत्पादोऽसदुपादानः स्यात् तर्हि तस्य कूर्मरज्जू(रोमो?)पादान करज्जोरिवाऽसत्त्वमेव स्यात् । एवं च सत: सर्वथा विनाशाभावादत्यन्तासत उत्पादाभावाच्च युक्तं सुरनारकादिरूपेणाऽऽत्मनः परिणमनं, तत्तद्विलक्षणशुभाशुभकर्मरूपसामग्रीसद्भावेन तत्तद्विलक्षणसुर-नारकादिपरिणामोपपत्तेः । एकस्यैव शरीरस्य बाल्ययौवनसामग्रीभेदेन बाल-युवपरिणामोपपत्तिवत् । अत एव न दानादिक्रियाफलस्याऽप्यभावः, परिस्पन्दात्मकचेतनावत् क्रियात्वेन तत्र सफलत्वसिद्धेः । न च सिद्धसाधनं, कीर्त्यादिफलेनाऽदृष्टफलेन फलवत्त्वसाधने सिद्धसाधनाभावात् । न च कृष्यादौ व्यभिचारस्तस्याऽपि पक्षसमत्वेन व्यभिचाराभावात् । कृष्यादिक्रिया यद्यदृष्टफला न स्यात् तहि सर्वमुक्तिरपि स्यात् । पुण्यपापयोरभावेन तन्निबन्धनसंसारस्याऽप्यभावात् । तद्भवसमुद्रान्यथानुपपत्तिरेव कृष्यादिक्रियाया अदृष्टफलवत्त्वे मानम् । किञ्च तुल्योपायसाध्येऽपि कार्ये प्रवृत्तानां दृश्यते तावत् फलविशेषः । स च न कारणविशेषमन्तरेण घटते, कार्यभेदस्य कारणभेदप्रयोज्यत्वनियमात् । अन्यथा शुक्लतन्तुभ्यो रुक्तोऽपि पटः प्रादुःष्यात् । न च दृष्टं कारणं एकत्र विद्यते न पत्रेति अदृष्टमेवैकत्र न विद्यत इत्यकामेनाऽपि स्वीकरणीयम् ।
किञ्च, आगमोऽपि क्रियामात्रस्यैकान्तेनाऽदृष्टफलत्वं बोधयति । यदाह भगवान् श्रीसुधर्मस्वामी भगवत्यने- "जाव णं एस जीवे एयइ वेयइ चलइ फंदइ घट्टइ खुब्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमइ ताव णं एस जीवे सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा । नो चेव णं अबंधए सिय ति" । तच्चाऽदृष्टं द्विविध, पुण्यपापरूपत्वात् । तत्र दानादिक्रियाजन्यं पुण्यं, हिंसादिजन्यं च यापम् । न च वैपरीत्यमेवाऽस्तु इति वाच्यम्, लोकप्रतीतिविरोधात् । न च गगने श्यामताप्रतीतिवदियं भ्रमरूपा, बाधकाभावात् । हिंसादिजन्यं पुण्यं दानादिजन्यं च पापमिति कल्पनाया बाधकसद्भावे
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अनुसंधान-२० नाऽकल्पनीयत्वात् । बाधकत्वं चाऽस्या इत्थं-यदि हिंसादिक्रिया यदि(?)पुण्यजननी स्यात् तर्हि तत्कर्तृणां बहुत्वेन बहुषु सुखित्वोपलम्भः स्यात्, पुण्यस्य सुखं प्रत्येव हेतुत्वात् । दृश्यते चाऽल्पेष्वेव सुखित्वं, ततोऽनुमीयते-दानादिक्रियैव पुण्यजननी, तत्कर्तृणामल्पत्वेन बहुषु दुःखित्वोपपत्तेः । न च दानादिक्रिया कर्तारमन्तरेण भवतीति कर्तृगवेषणायां आत्मैव कर्ता सिद्ध्यति । शरीरस्याऽत्रैव भस्मसाद्भवनेन, तमन्तरेणाऽन्यत्र तत्फलभोक्तृत्वानुपपत्तेः ।
एतेन धार्मिकवचनस्य यदप्रामाणिकत्वमुदीरितं तन्निरस्तं, दानादिक्रियाया अदृष्टफलवत्त्वेन साधनात् । तच्चाऽदृष्टं भवान्तर इहैव वा फलमर्पयति । यदुक्तम् "अवश्यमेव हि(?) भोक्तव्यं, कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥” इति ।
यदप्युक्तं-- 'जातिस्मरणमप्यसिद्धं - तदप्यसमीचीनं, पूर्वभवानुभूतधनवनितादिचिह्नभणनानन्तरं तत्संवादेन तस्य सिद्धः । तत्र च तद्वचनमेव प्रमाणम् । न च विप्रतारकवचनवदप्रमाणत्वमस्य, संवादेन तदुक्तस्य तस्मिन् विप्रतारकत्वाभावात् । दृश्यते च कस्यचिद् बालस्याऽपि जातिस्मरणं-यथा-अमुकस्थाने मया पूर्वभवेऽमुकया सहाऽनङ्गत्रयोदश्यां मध्याह्नसमये कामक्रीडां कुर्वता इत्युक्तं यत्
"स्तनभारनते ! स्तनकोटिगतं तव मौक्तिकदाम कथं विरुचि ? ॥" तदा तयेत्युक्तं यत्उडुचक्रमिदं परिपूर्णविधोविभमस्य पुरो नहि किं भवति ? ॥ इति ।
पृष्टा च सती साऽप्येवमेव जगादेति । संवादोऽयं, न संवादाभासः, बालस्य विप्रतारणबुड्याद्यभावात् । न च क्वचिद् बाष्पादिनाऽपि अग्निमनुमाय प्रवृत्तौ यथा संवादो यादृच्छिकस्तथाऽयमपीति वाच्यं । बाष्पादौ धूमत्वभ्रमानन्तरं ततोऽग्निमनुमाय प्रवृत्तौ वचिद् विसंवादस्याऽप्युपलब्धेः । न च न दृष्ट एव कश्चिदस्माभिर्जातिस्मरणवानिति नाऽस्त्येवेति वाच्यं । प्रपितामहस्याऽप्यभावप्रसङ्गात् । न हि स भवता दृष्टोऽस्ति येन कदाचित् स्वीक्रियते, तदभावाच्च पितामहाद्यभावे तवाऽप्यभावः स्यात् । न हि अकारणं किञ्चिज्जायते, सदा भावाभावप्रसङ्गात् । अथ पितामहादिकार्यान्यथानुपपत्त्या प्रपितामहादेः सत्त्वमवगम्यत इति चेत् । तर्हि पत्तनस्थेन बालेनोक्तं यद् दक्षिणापथे
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July-2002
लक्ष्मीधरग्रामे चतुर्मुखो जिनप्रासादोऽस्ति । न च तस्मिन् भवे तेन सोऽनुभूतोऽस्ति, इति तादृशयथाभूतवस्तुस्मरणरूपकार्यान्यथानुपपत्त्या तस्याऽपि सत्त्वमवगम्यत इति तत् तुल्यम् । अपि चाऽस्ति वृद्धस्याऽपि कस्यचित् तीव्रक्षयोपशमयुक्तस्य बाल्यावस्थानुभूतस्मरणं । तद्वत् पूर्वजन्मानुभूतस्मरणमपि किं न स्यात् ? कस्यचित् तावत्कालविषयस्याऽपि तत्कारणक्षयोपशमविशेषस्य सम्भवात् । न च भूतानां चित्रस्वभावतया स्वप्नज्ञानमिवाऽर्थात्] तथाभवविकलं जातिस्मरणमुत्पद्यत इति वाच्यम् । चैतन्यस्य भूताधर्मत्वेन भूतानां तथास्वभाव त्वासिद्धेः । एतेन यदुक्तमस्माभिर्बालकस्य प्रथमोत्पन्नस्येत्यादि, तत् सर्व समञ्जसमेव । अपि च प्रथमो बालस्य स्तनाभिलाष: अभिलाषपूर्वकः, अभिलाषत्वात्, तरुणस्य भोजनाभिलाषवत्-इत्यनुमानतः सिद्ध्यति योऽभिलाष: स प्राचीनभव एव, इह भव एव तस्य स्वीकारे पक्षीभूतस्य प्रथमत्वाभावेन तस्यैव पक्षत्वापत्तौ तत्प्राचीनस्य पूर्वभव एव सिद्धिः स्यादिति सिद्ध एवाऽऽत्मा परलोकयायी ।
अथ न बहियाप्त्या साध्यं सिद्ध्यति, अतिप्रसङ्गात्, किन्त्वन्तर्व्याप्त्या, सा चेह न, प्रतिबन्धाभावात् । ततः कथं साध्यसिद्धिः ? उक्तं च - "अन्तप्रिसिद्धिर्बहिश्चेद्व्याप्तिस्तस्यां साध्यसिद्धिर्न जातु अन्यव्याप्त्याऽन्यस्य सिद्धिः, यदि स्यात् सर्वस्य स्यात्, सर्वसिद्धिप्रसङ्ग" इति । अपि चैवं सति एवमपि शक्यं वक्तुं-योऽभिलाषः सोऽवश्यमभिलाषान्तरजनको यथा बालस्य प्रथमस्तनाभिलाषः । ततश्चैवमविच्छेदेनाऽभिलाषसन्ततिप्राप्तौ मोक्षाभावप्रसङ्ग इति । तदयुक्तम् । अभिलाषस्य लोभकर्मोदयविपाकजन्यत्वेन, लोभकर्मणोऽपि अभिलाषादिसामग्रीविशेषजन्यतया, प्राग्भवेऽभिलाषाभावाल्लोभकर्मणोऽप्यभावापत्ती तदुदयनिमित्तकस्य प्रथमस्तनाभिलाषस्याऽप्यभावप्रसङ्गेनाऽन्तप्तेः सिद्धेः । न च विशेषविरुद्धत्वं, प्रथमत्वविशेषणेनैव बालाद्यस्तनाभिलाषस्यैहभविकाभिलाषपूर्वकत्वस्य बाधात् । तथा सति प्रथमत्वस्याऽयोगात् । ततश्च कुतो विशेषविरुद्धत्वं ?, 'विरुद्धोऽसति बाधन' इति वचनात् ।
___ यद्वा बालस्य प्रथमं विज्ञानं विज्ञानपूर्वकं, विज्ञानत्वात्, युवविज्ञानवदित्यनुमानमात्मसिद्धौ । न च प्रतिबन्धासिद्धेाप्त्यसिद्धिः इह । न हि नाऽ(?)त्यन्तासत उत्पादो, नाऽपि सतो निरन्वय एव विनाशः, किन्तु कथंचित्
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अनुसंधान-२०
75 सत एव भावान्तररूपतया परिणमनम् । ततो विज्ञानादेर्वस्तुनः स्वरूपं अन्वयेन व्याप्तम् । विज्ञानं चेत् न विज्ञानान्तरपूर्वकं स्यात् तर्हि अन्वयविरुद्धोपलब्ध्या व्यावर्तमानं विज्ञानं विज्ञानान्तरपूर्वकत्वेन व्याप्यत इति प्रतिबन्धसिद्धौ व्याप्त्यसिद्धरसिद्धः । ___यत् पुनः प्रतिनियतालब्धवित्तलाभादिवैचित्र्यस्य नियामकमन्तरेणाऽनुपपद्यमानत्वादित्याद्याशक्य प्रोक्तं-"भूतानामेव तथास्वभावत्वतो वैचित्र्योपपत्तेः, यदुक्तं 'जलबुबुदवज्जीवा' इत्यादि" । तन्न साधीयः । प्रत्युत तस्य जीवसिद्धिनिमित्तत्वात् । तथा हि, न जलमात्रनिमित्तं तद् बुद्बुदवैचित्र्यं, सर्वत्र सर्वदा तद्भावप्रसङ्गात् । ततश्चाऽन्यथाऽनुपपद्यमानं तदात्मनः पवनादि कारणमवगमयति यथा, तथा भूतमात्रत्वाविशेषेऽपि नर-पश्वादिरूपेण प्रत्यात्मवैचियमन्यथाऽनुपपद्यमानमात्मनः कारणमदृष्टमवगमयति । तदपि विचित्रकार्यदर्शनाद विचित्रम् । तदुक्तम्
आत्मत्वेनाऽविशिष्टस्य वैचित्र्यं तस्य यत् कृतम् । नरादिरूपं तच्चित्रमदृष्टं कर्मसञकम् ।। इति ।
भवति हि तत एवाऽलब्धवित्तलाभादिर्न तु भूतानां, तथास्वभावात् । भेदकमन्तरेण तथास्वभावत्वविशेषस्यैवाऽसम्भवात् । भेदकाभ्युपगमे च पर्यायत: कर्मण एवाऽभ्युपगमात् । तस्य च कर्तारं विनाऽनुपपद्यमानतया, तत्कर्तुस्तदन्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानस्य जीवस्य पूर्वभवेऽप्यस्तित्वं सिद्धम् । तस्मादस्त्येव जीवः परलोकगामी । एवं च 'परलोकिनोऽभावात सरनार-कत्वादिलक्षणपरलोकस्याऽप्यभाव' - इत्यादि यदुक्तं तत्सर्वं निरस्तम् । आत्मसिद्धेः प्रमाणमूलकत्वात् ।
अत्र वदन्ति - सिध्यतु आत्मा । तथाऽपि अनादित्वं तस्य कुतः ? । कृत्रिमत्वेन घटादिवत् सादित्वस्यैव सिद्धेः । तच्चिन्त्यम् ।
कृत्रिमत्वं हि न कर्तारमन्तरेण भवति । अतोऽस्य कश्चित् कर्ता स्वीकरणीयः । स च जीवो वा स्यादजीवों वा । यदि जीवस्तहि तस्याऽपि कश्चित् कर्ता वक्तव्यः । सोऽपि च जीव एवेति तस्याऽपि कर्ता इति प्रसरन्ती अनवस्था दुर्निवारा स्यात् । यदि जीवत्वेऽपि तस्य कर्ता नेष्यते तदा कोऽयं मत्सरो भवतो यत् तदन्यजीवानां कर्तेष्यते ? इति जीवत्वाविशेषात् सर्वेऽप्यकृत्रिमा
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एव स्वीक्रियन्ताम् ।
किञ्च न हि प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दधियाऽपि प्रवृत्तिरूपपनीपद्यते इत्यस्य (. इति अस्य) जीवनिष्पादने किं प्रयोजनम् ? । नहि कुम्भकारो घटं घटनिष्पत्तिलक्षणमेव फलमुद्दिश्य निष्पादयति, किन्तु तद्विकयाद् धनलाभादिफलम् । अथाऽसौ कृतकृत्यत्वात् तन्निष्पत्तेरतिरिक्तं फलं नेच्छति । तदा तन्निष्पत्तिमपि न कुर्यात् । अन्यथा कृतकृत्यत्वमप्यस्य कुष्ठिनः पौरन्दररूपवत्त्वतुल्यम् । अथ स्वभाव एवैष तस्य यत् कृतकृत्यत्वेऽपि विचित्रान् जीवान् विधत्त इति चेत् । तर्हि जगन्निर्माणमहाक्लेशकारणमसौ कल्प्यमानो न सुन्दरः महाक्लेशकर्मकारित्वेन भगवतोऽपरायत्तताभङ्गप्रसङ्गात् । न हि तत्सत्तामात्रमपेक्ष्य जीवा भवन्ति, तेषामनादित्वप्रसङ्गात् । तत्सत्ताया आदिश्चेत् स्वीक्रियते तर्हि सोऽपि कादाचित्क एवेति कृत्रिम एव सञ्जात इति तत्कर्तृकल्पने प्रागुक्तैवाऽनवस्था ।
July 2002
अथ तस्य सत्ताऽनादिरेव परं न सा स्वसमकालं जीवोत्पत्तिकारणं, किन्तु कियत्यपि काले गते, अतो जीवानां सादित्वं इति चेत् । तर्हि जगत्कर्तुः पूर्वं जगदकारकत्वं पश्चाच्च तत्कारकत्वमिति स्वभावभेदात् स्फुटमनित्यत्वं अतादवस्थ्यस्याऽनित्यत्वात् । तथा च तस्य प्राप्तमादिमत्त्वमिति विनाशित्वमपि स्यादिति लाभमिच्छतस्तव सञ्जातो मूलस्याऽपि क्षयः ।
अथ स्वभाव एवाऽनित्यो, न तु स्वभाववानपि तस्य ततो भिन्नत्वादिति चेत् । न । स्वभावस्य स्वभाववत एकान्तेन भेदे स्वीक्रियमाणे तस्य स स्वभाव एव न स्यात् । घटवत् अन्यत्राऽप्युपलम्भः स्यात् । न चैतद् दृष्टमिष्टं वा । तस्मातृ कथञ्चिदभिन्न एव स्वीकर्तव्य इति भवति तस्याऽनित्यत्वे स्वभाववतोऽपि कथञ्चिदनित्यत्वं, स्वभावात् कथञ्चिदभिन्नत्वात् ।
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अथ जीवानामेवाऽयं स्वभावो यत् कियत्यपि काले गते जगत्कर्तुः सत्तामपेक्ष्य ते भवन्ति इति चेत् । न । उत्पन्नानां किमयं स्वभावः अनुत्पन्नानां वा ? नाऽऽद्यः, उत्पन्नानां पुनरुत्पादाभावेन तत्स्वभावकल्पनाया निरर्थकत्वात् । न द्वितीयः, अनुत्पन्नानां तुरङ्ग श्रृङ्गतुल्यत्वेन स्वभावाधिकरणत्वाभावात् स्वभावस्य वस्तुधर्मत्वात् ।
किञ्च, वीतरागो ह्यसौ करुणया यदि जीवान् करोति तदा सर्वानपि सुखिन एव कुर्यात्, न पुनर्दुःखिनः । न हि मध्यस्थोऽपि कस्यचिद् दुःखमुत्पादयति,
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अनुसंधान-२० विरोधात् ।
अथ क्रीडया विचित्रान् सत्त्वान् करोतीति चेत्, तर्हि तस्य कौतस्कुती वीतरागता ? | क्रीडाया विचित्रक्रीडनोपायसाध्यक्रियादर्शनाभिष्वङ्गात्मकतया रागस्वभावत्वात् । न च क्रीडान्यथानुपपत्त्या रागादिमत्त्वमपि स्वीक्रियते इति वाच्यम् । अन्योन्याश्रयात् । नाऽपि विचित्रसत्त्वकरणान्यथानुपपत्तिरेव क्रीडा यां मानमिति नाऽन्योन्याश्रय इति वाच्यम् । तस्यैवाऽसिद्धेः । न चाऽऽगम एव मानं, तत्र विप्रतिपत्तेः ।
किञ्च यद्यसौ रागादिमान् स्यात् तर्हि सर्वस्य कर्ता न स्यात्, अस्मदादिवत् । यो हि यस्य कर्ता स तदुपादान-सहकारिकारणानि सम्यग् वेदयिता भवेत् । यथा घटस्य कर्ता कुम्भकारस्तदुपादान-सहकारिकारणानि । न च रागादिमान् पुरुषः सर्वस्य उपादानादिकारणानि जानीयात् । रागादिमत्त्वेन तस्याऽधिष्ठितौदारिकशरीरतया करणग्रामाधीनविज्ञानोदयत्वात् । न च करणविज्ञानं सर्वविषयकं, अतीन्द्रिये करणस्याऽप्रवृत्तेः, 'सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिने'ति वचनात् ।
अथ रागादिमत्वेऽपि तस्य जगत्कर्तृत्वं भवत्येव, कृत्रिमत्वाभावात्इति चेत् । न । कर्तृत्वेऽकृत्रिमत्वस्याऽप्रयोजकत्वात् । तदुपादानगोचरापरोक्षज्ञानचिकीर्षाप्रयत्नानामेव तत्कर्तृत्वे प्रयोजकत्वात् । अन्यथा कालादेरपि सर्वकर्तृत्वप्रसङ्गात् । न च ते तस्य सम्भवन्ति, रागादिमत्त्वात् । रागादिवशगस्य च ज्ञानावरणीयादिकर्मबन्धावश्यम्भावेन सर्वोपादानविषयकज्ञानस्य विरहात् सर्वकर्तृत्वं कुतः स्यात् ? ।
अथ सरागो न कर्मबन्धकारणं, न चैवं तस्य [स] रागत्वमेव न स्यात्, दाहाजनकस्याऽपि वर्वह्नित्वात्, इति चेत् । हन्तैवं विवक्षितवर्तेर्यथा दाहो न भवति तथा तस्मादपि रागादेर्न परमेश्वरस्य कञ्चित् सुखिनं दुःखिनं च कर्तुं प्रवृत्तिर्भूयात् । त्वदुक्तरीत्या तस्य स्वंकार्यजननं प्रति असमर्थत्वात् ।
अथ विवक्षितप्रवृत्तिलक्षणं कार्यं तज्जनयत्येव । तर्हि कर्मबन्धमपि कुतो न जनयेत् ? । न हि रागो जारस्य वक्षःस्थलपीडनाधरखण्डन-शरीरारोहणसुरतादौ प्रवृत्ति जनयन् कर्मबन्धं न जनयति, सर्वेषामपि मुक्तिप्रसङ्गात् ।
स्यादेतत्-तत्तत्कार्याणि कुर्वन्नपि परमेश्वरो न लिप्यते कर्मणा । जलान्त:
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प्रविशन्नपि (प्रविशदपि) यथा पद्मिनीपत्रं जलेन । लिप्यते च तत्र तेन, यथा वस्त्रं तथा अस्मदादिरिति जीवत्वाविशेषोऽपि वस्तुत्वाविशेष इव किं न स्यात् ? | न च पुरुषत्वं जलसंयोगनिमित्तकारणं, तच्च पद्मिनीपत्रे नाऽस्ति ततस्तत् तेन न लिप्यते । कर्मबन्धकारणं तु रागादिरेव, स च परमेश्वरेऽप्यस्तीति स लिप्यत एवाऽस्मदादिवत् कर्मणेति वाच्यम् । तथाविधरागादेस्तत्राऽभावात् । तन्न । स्तोकतरे रागे स्तोकतरप्रवृत्तिर्भविष्यतीति स्तोकतरः कर्मबन्धोऽपि स्यात् । तथा च तदवस्थ एव सर्वज्ञत्वाभावात् सर्वकर्तृत्वाभावः ।
अथैतद्दोषभयात् स्तोकतरोऽपि तत्र रागो नास्तीति प्रोच्यते, तर्हि वीतरागत्वेन सर्वज्ञत्वेऽपि न कञ्चित् सुखिनं दुःखिनं वा स्त्रष्टुमभिलाष उपजायते. इति कुतः क्रीडया विचित्रसत्त्वकरणमुच्यमानं सङ्गतं स्यात् ? ।
वस्तुतस्तु जगत्स्रष्टा नाऽस्त्येव, तत्साधकप्रमाणाभावात् । न च प्रमितं कृचिनिषिध्यते, न पुनरप्रमितं, प्रमितश्च जगत्स्रष्टा, तदा न निषेध इति वाच्यम् । 'खरविषाणं नाऽस्ती'त्यनेनाऽप्रमितस्याऽपि खरविषाणस्य निषेधात् ।
किञ्च, सतो जीवान् स कुरुतेऽसतो वा ? | नाऽऽद्यः, अनवस्थापत्तेः, न द्वितीयः, खरविषाणस्येव तेषां तुच्छत्वेन कर्तुमशक्यत्वात् । घटस्याऽप्युपादानं विद्यत एवेति नैकान्तेनाऽसत एव तस्य करणम् । एवमेव यदि जीवानामप्युपादानमिष्यते तर्हि तज्जीवात्मकमेव वाच्यमिति सिद्धं जीवानामनादित्वम्, अन्यथाऽसदुपादानकत्वेन तेषामसत्त्वमेव स्यात् ।
किञ्च, यदि सर्वं जगत् परमेश्वरः करोति तदा तनिषेधकमपि शास्त्रं तेनैव कृतमिति सत्यमेव तत् स्वीकर्तव्यम् । तथा च स नाऽस्त्येव । यदि पुनरसत्यं तदाऽसत्यशास्त्रकारित्वात् कथं स प्रमाणम् ? |
अथाऽजीवो जीवानां कर्ता इति चेत् । न । अजीवस्य तदुपादानगोचर- . ज्ञानादेरभावेन तत्कर्तृत्वानुपपत्तेः ।
अथ यथा शालिबीजादीनि ज्ञानविकलान्यपि नियतशक्त्युपेततया नियतस्वकार्यकारीणि दृश्यन्ते तथाऽयमप्यजीवस्तथाविधशक्तिसद्भावात् देवनारकादिभेदभिन्नान् जीवान् कुरुते इति चेत् । न । पूर्वोक्तदोषसन्दोहस्याऽत्राऽप्यवतारात् । तथाहि- अयमजीवः किं कृत्रिमो वा स्यादकृत्रिमो वा? । यदि कृत्रिमस्तदा सोऽप्यन्येन कर्तव्य इत्यनवस्था । अथाकृत्रिमस्तर्हि जीवैः किमपराद्धं
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अनुसंधान - २०
यत् तेषामकृत्रिमत्वं न स्वीक्रियते ? । किञ्च यद्यसावकृत्रिमस्तदा तन्निष्पाद्या जीवा अपि तत्सत्ताभवनतुल्यकालत्वादनादय एव प्राप्ता इति गतं विवादेन । अथ नाऽसौ स्वसत्तासमकालमेव जीवान् कुरुते यत् तेषामनादिता स्यात् किन्त्वनन्ते कालेऽतीते इति चेत् । तर्हि तस्याऽनित्यत्वं स्यात् । पूर्वं विद्यमानस्याऽकारकत्वस्वभावस्य प्रच्युत्याऽविद्यमानस्य कारकत्वस्वभावस्योत्पादात् स्वभावस्य च स्वभाविनोऽनर्थान्तरत्वात् । यदि च नाऽस्त्येव स्वभावभेदस्तदा पूर्वमिव पश्चादप्यकारकत्वमेव स्यात् ।
ननु तस्यैक एवेदृश: स्वभावो यदनन्ते कालेऽतीते सति स जीवान् कुरुते नाऽन्यदा । तथा च न तस्य स्वभावभेदो नाऽपि जीवानामनादिता इति चेत् । न । अनन्ते कालेऽतीते सति स तस्य स्वभावो निवर्तते एवेति वाच्यम् । तथा चाऽनित्यत्वमेव तस्य स्वभावभेदस्याऽनित्यत्वलक्षणात् । अन्यथा सर्वादाऽप्यकारकत्वप्रसङ्गात्, करणकालत्वाभिमतकालेऽपि तस्य सत्त्वात् ।
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किञ्च नाऽसौ सतो जीवान् कुरुते, सतोऽपि करणेऽनवस्थानात् । नाऽप्यसतः, एकान्ततुच्छत्वेन तेषां वन्ध्यापुत्रादीनामिव भवनशक्त्ययोगात् । तत्राऽजीवोऽपि जीवानां कर्तेति कारणविरहादनादिरेव जीवः, आकाशवत् तदुक्तं
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अमओ य होइ जीवो कारणविरहा जहेव आगासं । समयं च होअणिच्वं मिम्मयघड - तंतुपडमाई ॥ इति|
अनादित्वाच्चाऽनन्तत्वमपि, सतः सर्वथा विनाशायोगात् । तत् सिद्धमेतत्तृ यद् अस्ति जीव:, अनादिरनन्तश्च । सोऽपि अमूर्तः, अतीन्द्रियत्वात्, गगनवत् । यो हि मूर्त: स कदाचिच्चक्षुरादीन्द्रियग्राह्योऽपि भवति । यथा घटारम्भकपरमाणु समूहो घटावस्थायाम् । न चाऽयं जीवः कर्मविनिर्मुक्तस्वरूपः कदाचिदपि चक्षुरादीन्द्रियग्राह्यो भवति, तेनाऽतीन्द्रियत्वादमूर्त्त एव । एवमन्येऽपि अमूर्त्तत्वसाधने मूर्तिविरह खड्गाद्यभेद्यत्वा ऽसर्वज्ञानुपलम्भादयो हेतवोऽभ्यूह्याः । न चैवं सिद्धान्तविरोधः कथञ्चिन्मूर्त्तत्वस्य संसारिदशायामेवेष्टत्वात् । सिद्धि दशायां तस्य 'अवणे अगंधे' इत्यादिना सूत्रेणाऽऽगमेऽपि अमूर्तत्वेनैव भणनात् ।
अथाऽयं जीवः परिणामी अपरिणामी वा । तत्र परिणामीति जैना: । अपरे पुनरपरिणामीति । तद् विचिन्त्यते । यथा मृत्पिण्डचक्रादिसामग्रीसद्धावाद
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July-2002
घटपरिणाम प्राप्नुवन् परिणामीत्यभिधीयते, तथा जीवोऽपि, तत्तत्सामग्रीसद्भावात तस्याऽपि तत्तत्सुखदुःखादिपरिणामप्राप्तेः । परिणामित्वाच्च नैकान्तेनानित्यो नाऽप्यनित्यः, किन्तु नित्यानित्य एव । अन्यथा सुखादिपरिणामायोगात् । तथा हि-यद्ययमात्मा एकान्तेन नित्यः स्यात् तदा सर्वदा एकस्वभाव एव स्यात् । अप्रच्युतानुत्पन्न-स्थिरैकरूपत्वादेकान्तनित्यस्य । न चैवं, य एव सुखी तस्यैव सुखसामग्र्यभावेऽसुखित्वोपलब्धेः, दुःखसामग्री सद्भावे च दुःखित्वेनोपलब्धेश्च । न च सुखदुःखोभयस्वभाव आत्मा इत्येकस्वभाव एवाऽयं, युगपत् सुखदुःखानुभवप्रसङ्गात् ।
___अथ यदैव नदीमुत्तरता मुनिना चरणयोः शीतलजलसंस्पर्शात सुखमनुभूयते, तदैव लुञ्चिते शिरसि खरतरदिनकरकरतापतो दुःखमपि । अतोऽस्त्येव सुखदुःखवेदकस्वभावत्वमात्मनः इति चेत् । न । कालस्याऽत्यन्तसूक्ष्मत्वेन मनसश्चाऽतीवाऽऽशुसञ्चारितया सतोऽपि क्रमानुभवस्याऽनुपलक्षणात् शतपत्रपत्रशतं मया शूच्यग्रेण युगपद् भिन्नमित्यत्रेव तत्र यौगपद्याभिमानस्य भ्रमत्वात् । युगपच्चेज्ज्ञानमभ्युपगम्यते तदा मन:कल्पना निरालम्बा स्यात्, युगपज्ज्ञानानुत्पत्तेर्मनसो लिङ्गत्वात् । तदुक्तम्
"युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्ग" मिति ।
अथ कदाचिदात्मनः सुखवेदकत्वं कदाचिच्च दुःखवेदकत्वं, तेनाऽयं उभयवेदकस्वभाव इत्युच्यते इति चेत् । तर्हि सुखवेदनकाले तस्य दुःखवेदनस्वभावो निवृत्त इत्यात्माऽपि कथञ्चिन्निवृत्त एव, स्वभावस्य स्वभाववतोऽभिन्नत्वात् । अन्यथा निःस्वभावत्वेन तस्य खरविषाणस्येवाऽसत्त्वं स्यात् । तथा च प्राप्तमात्मनोऽनित्यत्वम् । अथ सुखवेदनकालेऽपि दुःखवेदकस्वभावो न निवर्तते, तदा तदानीं दुःखमपि वेदयेत्, प्रागिव दुःखवेदकस्वभावस्य सत्त्वात् । अथ दुःखवेदकस्वभावोऽपि तदानीं विद्यते, अन्यथा तन्नाशेन कथञ्चिदात्मनोऽपि नाशाभ्युपगमापत्तेः । न चैवं दुःखमपि तदानीं वेदयेदित्यपि वाच्यं । तत्सत्त्वेऽपि दुःखसामग्र्यभावेन दुःखवेदनानुपपत्तेरिति चेत्- हन्तैवमपि उभयसामग्रीसद्भावे उभयमप्येकदा वेदयेत्, उभयवेदकस्वभावस्य सर्वदा सत्त्वात् । न चोभयसामग्रीसन्निधानमेकदा न भवति, स्रक्-चन्दन-वनितादिकसुखसामग्र्या विषशस्त्रप्रहारादिदुःखसामग्र्याश्चैकदा देवदत्ते सन्निधानस्य प्रत्यक्षेणोपलब्धेः । न च
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अनुसंधान २०
वेदयेदेवैकदोभयं प्रागेव निरासात् ।
किञ्च, यां स्रक्- चन्दन - वनितादिकां सामग्रीमवाप्य सुखी भवत्यात्मा, सा किमात्मनः कञ्चिदुपकारं कुरुते न वा ? । यदि कुरुते तर्हि स उपकार आत्मनोऽर्थान्तरं अनर्थान्तरं वा ? | यद्यर्थान्तरं तदा तेन सहाऽऽत्मनः सम्बन्धो न स्यात्, घटवत्, अर्थान्तरत्वात् । तथा च सति तदाऽपि तदवस्थात्वान्नाऽऽत्मा सुखी स्यात् । न चाऽर्थान्तरभूतोऽपि स उपकार आत्मना सह सम्बध्यते, तस्याऽद्रव्यत्वेन संयोगासम्भवात् । संयोगरूपत्वे तु समवायेन सम्बध्यत इत्येव तवाऽभिप्रायः । स त्वभिप्रायो वन्ध्यापुत्रेण सह संभोगाभिप्रायो युवत्यां; समवायसत्त्वे मानाभावात् । तत्साधकत्वेनाऽभिमतस्येह घटे रूपमिति प्रत्ययस्य इह भूतले घटाभावप्रत्ययस्येव समवायासाधकत्वात् । अथाऽनर्थान्तरभूत उपकारः क्रियत इति चेत् । स किं विद्यमानः क्रियतेऽविद्यमानो वा ? | यदि विद्यमानः, कथं क्रियते ? कृतस्य करणायोगात् । क्रियते चेत् तर्ह्यनवस्था, विद्यमानस्याऽपि करणाभ्युपगमे विद्यमानत्वाविशेषात् भूयो भूयः करणप्रसङ्गः । अथाऽविद्यमानो, व्याहतमेतत् सतोऽनर्थान्तरभूतोऽविद्यमानश्चेति विद्यमानाव्यतिरिक्तो हि विद्यमान एव भवति, अन्यथा तदव्यतिरेकायोगात् ।
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अथ किमनेन वाग्जालेन ? सत एव हि वाससो मञ्जिष्ठादि द्रव्येणाऽविद्यमानस्तदव्यतिरिक्तो रिक्तो रक्ततादिरूप उपकारः क्रियमाणो दृष्टः । न च दृष्टेऽप्यनुपपन्नतेति चेत् । तर्हि स्फुटमात्मनोऽनित्यत्वं, आत्मनोऽनर्थान्तरभूतस्योपकारस्य क्रियमाणत्वाभ्युपगमेनाऽऽत्मन एव क्रियमाणत्वापातात् तस्य तदव्यतिरिक्तत्वात् ।
अथ स्रक्-चन्दनादिसामग्री नाऽऽत्मन उपकारं करोति, ततो न दोष इति चेत् । तर्हि किं तेनापेक्षितेन ? उपकाराकारकत्वेन तत इव वस्त्वन्तरादप्यात्मा सुखी वा दुःखी वा स्यात्; वस्त्वन्तरादिव ततोऽपि वा न स्यात् ।
I
अथाऽन्यद् वस्त्वन्तरं न सुखादिजननस्वभावमिति न ततः सुखी दुःखी वाऽऽत्मा सम्भवेत्; स्रक्- चन्दनादि तु तज्जननस्वभावमिति, ततस्तथा तथाऽऽत्मा स्यादेवेति चेत् । ननु यदि तेन कश्चिदुपकारो न क्रियते तदा तत्स्वभाववर्णनमनर्थकमेव स्यात् । न हि परमाणौ च्छेद्ये खड्ग- सर्षपयोः स्वभावविशेषो वर्ण्यमानः सङ्गतिमाप्नुयात्, उभयोरपि तत्राऽकिञ्चित्करत्वेनाऽ
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विशेषात् ।
अथ खड्गस्य छेदका [ दि] स्वलक्षणः स्वभावस्तु वर्तते, सर्षपस्य तु नाऽस्ति इति चेद् वर्ततां नाम, परं परमाणौ छेदितव्ये स वर्ण्यमानोऽनर्थक एव, तत्र द्वयोरप्यकिञ्चित्करत्वात् ।
July-2002
अथाऽऽत्मन एवाऽयं स्वभावो यदनुपकार्यपि स्रक् - चन्दनादिकं प्राप्य सुखी दुःखी वा भवति आत्मा इति चेत् । विवक्षितसहकारिसन्निधानात् प्राक् य आत्मन: स्वभाव: स चेत् सहकारिसन्निधाने न निवर्तते तदा स सुखी वा दुःखी वा न स्यात्, प्राचीनस्वभावत्वात् । अथ निवर्तते तदा प्राप्तमनित्यत्वं, पूर्वस्वभावपरित्यागेनोत्तरस्वभावोत्पादात् ।
अथोच्यते - अन्य एवाऽऽत्माऽन्यच्च सुखादि, अतः कथं सुखादियोगान्यथानुपपत्त्याऽऽत्मनः परिणामित्वम् ? । तन्न । एवं प्रतिप्राणिप्रसिद्धः सुखानुभवः कस्य स्यात् ? आत्मनः सुखान्यत्वेन तदनुभवाभावात् ।
अथ यथा स्फुटिकस्याऽलक्तकयोगाद् रक्तता भवति तथा आत्मनोऽपि सुखादियोगात् तत्प्रतिबिम्बेन तदनुभव इति चेत् । न स्फुटिकोपलस्य हि तत्तदुपधानभेदेन तत्तत्प्रतिबिम्बं युक्तम् । तस्याऽपरापररूपापत्तियोगत: परिणामित्वात् । आत्मा तु त्वयैकान्तो नित्य इष्यते । ततस्तस्य तत्तत्प्रतिबिम्बरूपतापत्तिलक्षणपरिणामशून्यत्वात् सर्वथा सुखादिप्रतिबिम्बमयुक्तम् । यदि च सुखादिसन्निधानात् आत्मनः अपरापरसुखादिप्रतिबिम्बरूपतापत्तिलक्षणः परिणामः स्वीक्रियते तदा प्राप्तमात्मनः परिणामित्वम् । तथा च सति तस्य ह्लादादिस्वभावत्वात् सुखादीनामात्मधर्मत्वप्रसङ्गः । न हि सुखमचेतने, अनुभवविरोधात् । किन्त्वात्मन्येव । न चैकान्तनित्यपक्षे सुखयोगो घटते, सुखसामग्री प्राप्त्यभावप्रसङ्गात् । कदाचित् सुखसामग्रीप्राप्तौ पूर्वस्वभावपरित्यागेन नियमेनाऽऽत्मनोऽनित्यत्वात् ।
किञ्च यद्यात्मा एकान्तनित्यः स्यात् तर्हि प्रतिप्राणिप्रसिद्ध घटपटादिविज्ञानविवर्तोऽपि न स्यात् । किन्तु आकालं घटाद्यन्यतरस्यैव कस्यचिद् विज्ञानं स्यात्, एकस्वभावत्वे भिन्नभिन्नवस्तुविषयक विज्ञानासम्भवात् । क्रमेण भिन्नभिन्नवस्तुविषयविज्ञानं च दृश्यत एवाऽऽत्मनि इति स्वभावभेदात् स्फुटमनित्यत्वम् । अथ विज्ञानं यद्घटपटादिविषयकमुत्पद्यते तदेवाऽनित्यं, न पुनरात्माऽपि,
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________________ 83 अनुसंधान-२० तस्य ततोऽन्यत्वात् / तन्न / ज्ञानं हि यदि एकान्तेनाऽऽत्मनोऽन्यत् स्यात् तहि तस्मादात्मनोऽर्थप्रतिपत्तिर्न स्यात्, तदभावाच्च तदानयनादौ प्रवृत्तिस्तु दूरापास्तैव / नहि देवदत्तसम्बन्धिनो ज्ञानाज्जिनदत्तस्याऽर्थप्रतिपत्ति; लोके मूर्खाभावप्रसङ्गात् / ततः कथञ्चिदभिन्नमात्मनो ज्ञानं स्वीकर्तव्यम् / एवं च यद्यात्मा एकान्तनित्यः स्यात् तर्चेकज्ञानवानेव स्यात् ज्ञानान्तरवत्त्वे ज्ञानाभिन्नत्वेन पूर्वज्ञानविनाशे आत्मनोऽपि कथञ्चिद् विनाशात् / किञ्चैवं हिंसादिपरिणतिरप्यात्मनो न स्यात्, एकान्तनित्यत्वेन सदैकस्वभावत्वात् / दृश्यते च यदि सेति स्वीक्रियते तदा पूर्वमहिंसादिपरिणतिलक्षणस्वभावोपमर्देन हिंसादिपरिणतिलक्षणस्वभावभावादात्मनोऽनित्यत्वं स्यात् / तदभावाच्च बन्धोऽपि कौतस्कुतः स्यात् ? अथैतदोषभयात् सर्वदैव हिंसादिपरिणतिरभ्युपगम्यते तदा मुक्तिः कदाचिदपि न स्यात् / तथा च यमनियमादिकरणमपि दृश्यमानमसङ्गतमेव स्यात्, प्रागवस्थायां तस्य हिंसापरिणतत्वात्, अथ हिंसा-परिणामस्य च त्वया सर्वदाऽभ्युपगमात् / कदाचिदनभ्युपगमे चाऽऽत्मनो भिन्नरूपत्वेनाऽनित्यत्वापातात् / न चैकस्वभावत्वेऽपि कदाचिद् बन्धः कदाचिदबन्ध इति वाच्यं / बन्धाबन्धकाल-भेदेऽभ्युपगम्यमाने आत्मनोऽनित्यत्वापातात् / तथा हि-यदैवाऽस्य न बन्धस्तदा बन्धकारणहिंसापरिणतिस्वभावो जरसेव यौवनमबन्धकारणहिंसाविरतिपरिणामस्वभावेनाऽपनीयते, अन्यथा तत्परिणतिस्वभावभावेन पूर्वकालवद् बलाद् बन्ध एव स्यात् / न हि वह्निरनपगते दहनस्वभावे न दहतीति; तत्परिणतिस्वभावापगमे च नियतमनित्यता / माऽस्तु वा बन्धाबन्धकालभेदः, तथाऽप्यात्मा कथञ्चिदनित्य एव / अन्यथा य एव स्वभावः प्रथमसमये स एव द्वितीये, इति द्वितीयसमयबन्धनीयस्याऽपि कर्मणः प्रथमसमय एव बन्धः स्यात्, तत्कारणस्य स्वभावस्य विद्यमानत्वात्, प्रथमसमयभाविबन्धवत् / ततो द्वितीयादिक्षणेऽबन्ध-कत्वमात्मनः प्राप्तमिति स्वभावभेदादनित्य एवाऽऽत्मेति स्थितम् / किञ्चैवमहिंसादिविरतिपरिणतिरपि न सम्भवति, जीवस्यैकस्वभावत्वेन हिंसापरिणतिविच्युत्यभावात् / न चेष्टापत्तिः, मुक्त्यभावप्रसङ्गात्, तत्कारणहिंसादिविरतिपरिणत्यभावात् / अथ हिंसादिविरतिपरिणतिरभ्युपगम्यते तहि सर्वदा तदेकस्वभावत(वतः) मुक्तिरेव स्यात् /
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________________ 84 July-2002 नन्वयमेव तस्य स्वभावो यत् कदाचिद् बन्धः कदाचिन्मुक्तिः / न चाऽत्र पर्यनुयोगार्हत्वं, स्वभावस्य तथाविधत्वात् इति चेत् / नूनमुन्मत्तोऽसि यदेवं प्रलपसि / यतो बन्धस्य कारणं हिंसादिपरिणतिर्मोक्षस्य पुनरहिंसापरिणतिरनयोश्च परस्परं विरुद्धतया यौवनिकायां शिशुतेव अहिंसापरिणतौ हिंसापरिणतिर्नियतमपगच्छेत् अन्यथा तत्सद्भावेन प्रागिव बन्ध एवेदानीमपि केवलो भवेन्न मुक्तिरिति ध्रुवमनित्य एवाऽऽत्मा / अत्र वदन्ति- हिंसादिपरिणतिस्तद्विरतिपरिणतिर्वा आत्मनोऽवस्था- भूता। अवस्थाश्च अवस्थातुरेकान्तेन भिन्ना, धर्मधर्मिणोरेकान्तेन भेदाभ्युपगमात् / ततोऽवस्थानां विनाशेऽपि नाऽवस्थातुरपि विनाश इति नित्य एवाऽऽत्मा, अविचलितस्वरूपत्वात् इति चेत् / न / एकान्तभिन्नत्वेन ताभ्यां देवदत्तात्मनो बन्धो मोक्षश्च न स्यात् / एवमपि यदि स्यात् ततिप्रसङ्ग एव, सिद्धानामपि तत्फलाप्तेर्भेदाविशेषात् // अथाऽऽत्मा न बध्नाति पुण्य-पापे, अकर्तृत्वात् / नाऽप्यसौ मुक्तो, बन्धाभावात् / न चाऽसौ संसरति, निःक्रियत्वात् / केवलं प्रकृतिरेव सत्लादिसाम्यावस्थारूपा संसरति बध्यते मुच्यते चेति / तदुक्तम् तस्मान्न बध्यते न मुच्यते]नाऽपि संसरति कश्चित् / संसरति मुच्यते बध्यते च नानाश्रया प्रकृतिः // इति / तच्चिन्त्यते __. यदि प्रकृतिरेव बध्यते मुच्यते च, न पुनरात्मा, तस्य सर्वदाऽविकारवत्त्वात्, तर्हि भवजिहासया मुक्तरूपादित्सया च कथं वरतरुणीवक्ष: स्थलशयनं विहाय हिमवच्छिलायां शेषे यमनियमवान् ? भवापवर्गयोरात्मनोऽविशिष्टत्वात् / ननु भ्रान्तिरियं भवताम् / नाऽहं यमादौ प्रवर्तेयं, किन्तु देहेन्द्रियमनोविकारसहिता प्रकृतिरेवेति चेत् / नूनमुदारोऽसि, स्वधनमन्येषां ददासि / यत् प्रकृतेरचेतनत्वेन घयदेरिवाऽऽलोचकत्वायोगात्, मुक्त्यर्थानुष्ठानस्य चाऽऽलोचनापूर्कत्वात् / अथाऽचेतनाऽपि प्रकृतिर्मनोविकारावस्था चेतनसम्बन्धाच्चिद्रूपा भवति,
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________________ अनुसंधान-२० 85 उपाधिसम्बन्धात् / स्फुटिकोऽपि यथोपाधिरूप: / तदुक्तम् पुरुषोऽविकृतात्मैव स्वनि समचेतनम् / मनः करोति सान्निध्यादुपाधिः स्फुटिकं यथा // इति / चिद्रूपं च तत् [आलोचनायां प्रवर्तते इति / तदप्यसमीचीनं / पुरुषस्यैकस्वभावत्वेनेत्थं सदा प्रयोजकत्वापत्तेः / तथा च सति सदैव तद्रूपत्वान्मुक्त्यभावप्रसङ्गः / एतेन यथा चन्द्रः स्वभावेनाऽविकृतात्मा एव सन् चन्द्रोपलस्य पयःक्षरणे कदाचित् प्रयोजकः कदाचिन्न, तथाऽयमप्यात्मा कदाचिदेव प्रयोजको भविष्यति न तु सदेति निरस्तम् / चन्द्रस्याऽपि नित्यानित्यतया सर्वदैवाऽविकृतस्वभावत्वाभावात् / अन्यथा तस्याऽपि सदा प्रयोजकत्वापत्तेरिति / तस्मादात्मन एव बन्धमोक्षौ अभ्युपगन्तव्यौ / तथा च तस्य तदन्यथानुपपत्त्या परिणामित्वमेवेति स्थितम् / ___ अन्यस्याऽपि एकान्तनित्यत्वेन कथं बन्ध-मोक्षौ स्याताम् ? परिणामित्वे च कथं नाऽऽत्मनस्तौ ? प्रकृतेर्मोक्षाङ्गीकारे च तस्याः स्वरूपहानिरेवाऽभ्युपगता स्यात् / यदुक्तम्- "प्रकृतिवियोगो मोक्षः" इति / ततश्च प्रकृतेः प्रकृतित्ववियोगे स्वरूपभ्रंशात् / तथा च कुतो नित्यत्वमस्याः / किञ्चैवं पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राऽऽश्रमे रतः / जटी मुण्डी शिखी वाऽपि मुच्यते नाऽत्र संशयः / / इति सिद्धान्तो मुक्तिप्ररूपको भवतां लुप्तः स्यात्, प्रकृतेर्मुक्त्यभिधानात् / अतो दृष्टादृष्टयोविरोधभावादेकान्तनित्यत्वं नाऽस्त्येव सर्वस्याऽपि वस्तुनः / / नन्वस्तु एकान्तेन तहि अनित्य एवाऽऽत्मा-इति चेद् / उत्सुकोऽसि, परं स्थिरीभव / स्थिरभावमन्तरेण निर्णयानुपपत्तेः / यद्यात्मा अनित्य एव स्यात् तर्हि कथं द्वे अपि सुखदुःखे वेदयते ? / सुखवेदकस्य प्राक्क्षण एव नष्टत्वेन दुःखक्षणेऽनवस्थानात् / न चाऽन्य एव दु:खभोक्ता, सकललोकव्ययवहारोच्छेदप्रसङ्गात् / लोके हि व्यवहारोऽयं- य एवाऽयं प्राग् दुःखी आसीत्, स एवाऽयमिदानीं सुखी / य एवाऽयं सुखसाधनार्थं यतते, स एव किल सुखमाप्नोति / येनैव पूर्वभवे बद्धं कर्म, स एवाऽस्मिन् भवे भुङ्क्ते। य
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________________ 86 July-2002 एवेदानी करोति पुण्यं वा पापं, स एवाऽऽगामिभवे तत्फलं भोक्ष्यति / य एव भवविरक्तः, स एवाऽयं संयमरतो दृश्यते / यौवनावस्थापन्नोऽपि स एवाऽयं मदीयः पुत्रः अहमेव चाऽस्य पिताऽपीति / य एवाऽसौ संसारी स एव वैराग्यादिवशान्मुक्त इति / येनैव प्राग् घटादिकमनुभूतं स एव स्मरति न त्वन्यः, अननुभूतस्य स्मरणायोगादित्यादिः / स चैकान्तक्षणिकत्वे आत्मनः कथं स्यात् ? शुभाशुभकर्तुस्तदानीमेव नष्टत्वेन तत्फलभोक्तुरन्यत्वात् / चेत् कोऽस्त्ययं य एतादृशं वचनमवादीत् ? / अहमस्मि बुद्धशिष्य इति चेत् / वाक्योच्चारणक्षणमात्रवृत्तितया क्षणिकस्त्वं कथमद्याप्यसि ? असि चेत् कथं क्षणिकः ? / तत्क्षणनाशेऽपि तव सम्प्रति विद्यमानत्वात् / अथाऽहं नाऽस्मि, किन्त्वन्य एवाऽयं वदति-इति चेत् / तर्हि असन् त्वं कथं वदसि 'अहं नाऽस्मि किन्त्वन्य एवाऽयं वदति' इति ? / नासत् शशशृङ्गं कदाचिदप्यहं नाऽस्मीति वदति, अविद्यमानस्याऽर्थक्रियाकारित्वाभावात् / कथं वा नष्टेन त्वयाऽन्योऽयं वदतीति निश्चीयते ? अन्याऽस्तित्वक्षणे तव सर्वथाऽप्यभावात् / तस्मादस्येव त्वमिदानीमपीति कथमात्मा क्षणिक: स्यात् ? / किञ्चैवं बाल्यावस्थानुभूतपांशुक्रीडादिस्मरणं वृद्धस्य न स्यात्, क्रीडानुभवितुर्बालात्मनस्तत्क्षण एव नष्टत्वात् / इदानीन्तनवृद्धात्मनस्तदानीमभावेन क्रीडानुभवितृत्वाभावात् / न चाऽननुभूतस्याऽपि स्मरणं संगच्छते, तव मदनुभूतस्य विद्यानगरादिनिवासस्य स्मरणापत्तेः / अथ भूत-भवद्-भविष्यत्क्षणप्रवाहरूपारूपात् (प्रवाहरूपात्) सन्तानात सर्वोऽपि स्मरणादिको व्यवहार उपपद्यते / तदुक्तम् यस्मिन्नेव हि सन्ताने आहिता कर्मवासना / फलं तत्रैव सन्धत्ते कसे रक्तता यथा // इति / / इति चेत् / न / स सन्तानः सन्तानिभ्योऽन्यो वा स्यात् ? अनन्यो वा ? यद्यन्यस्तर्हि किं नित्यो वा स्यात् ? क्षणिको वा ? | आद्ये "क्षणिकाः सर्वसंस्कारा" इति प्रतिज्ञाव्याघात: / द्वितीये कथं स्मरणादिको व्यवहार उपपद्यते ? सन्तानस्य तत्क्षण एव नष्टत्वात् / अथ सन्तानिभ्योऽनन्य एव सन्तानस्तर्हि सन्तानिन एव, न कश्चित् सन्तानः, तदव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवत् / तथा च तदवस्थ एव पूर्ववत् व्यवहारविलोपप्रसङ्गः /
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________________ अनुसंधान-२० 87 __ अथ न पूर्वापरक्षणप्रवाहमानं सन्तानो नाऽपि तद्व्यतिरिक्तः कश्चिद् वस्त्वन्तरभूत:, किन्तु य एवेह पूर्वोत्तरक्षणानामुपादानोपादेयभावः स एव सन्तानस्ततश्च सर्वोऽप्यनन्तरोदितो व्यवहार इत्यदोष इति चेत् / न / विवक्षितैकतमकारणक्षणाद् यथा सन्तानान्तरवर्ती क्षणो भिन्नस्तथा कार्यक्षणोऽपि भिन्न एव, सर्वथा कार्ये कारणधर्मानुगमाभावात् / ततो यथा देवदत्तजिनदत्तयोरत्यन्तं भिन्नत्वादेककर्तृकः स्मरणादिको व्यवहारो न सङ्गतिमश्नुते तथा विवक्षितेष्वपि पूर्वोत्तरक्षणेषु / नहि भिन्नसन्तानान्तरवर्तिनः क्षणादस्य कार्यक्षणस्य कश्चिद् विरोधो यन्निबन्धनोऽत्र सर्वोऽपि पूर्वोक्तो व्यवहारः प्रवर्तेत, नेतरत्रेति स्यात् / न च भिन्नसन्तानान्तरवर्तिनः क्षणात् कार्यक्षणस्याऽस्त्येव वैशिष्ट्यं, कार्यकारणभावात् / न हि यथैकसन्तानवर्तिप्रथमक्षणस्य यथा स्वोत्तरक्षणस्तस्य कार्य, स्वयं च तस्य कारणं, तथा भिन्नसन्तानान्तरवर्ती स्वोत्तरक्षणोऽपीति वाच्यम् / एकान्तक्षणिकपक्षे कार्यकारणभावस्याऽसिद्धेः क्षणिकं हि कार्यत्वाभिमतं वस्तु पूर्वक्षण एव निरन्वयनष्टं सत् कथमुत्तरक्षणे(ण) जनयेत् ? / नह्यभावाद् भावोत्पत्तिः, पूर्वकारणक्षणात् पूर्वमेव कार्योत्पत्तिप्रसङ्गात् / तदभावस्य प्रागपि विद्यमानत्वात् / अथ कारणप्रध्वंसाभावादेव कार्यं न तु तत्प्रागभावादपीति नोक्तदोष इति चेत् / न / अभावस्य सर्वोपाख्याविकलत्वेन विशेषाभावादेवं व्यवस्थानुपपत्तेः / न हि केन[चि] दपि विशेषणेन विशेषयितुं शक्योऽभावः, खरविषाणवत् सकलशक्तिशून्यत्वेन कर्मत्वशक्त्ययोगात् / अथ कारणादेव कार्य, तदाऽन्वयसिद्धिप्रसङ्गः, कारणभावाविच्छेदेन कार्यस्य भावाभ्युपगमात्, भावाविच्छेदस्यवाऽन्वयत्वात् / नन्वन्य एव कारणभावोऽन्यश्च कार्यभावस्तत्कथमिह भावाविच्छेदेऽपि अन्वयापत्तिरिति चेत् / न / तत्त्वतो भेदकाभावेन एकान्तेनाऽन्यत्वाभावात् / क्षणयोहि पूर्वापरयोस्तद्भेदकत्वं स्यात् / न च तयोविवक्षितपूर्वापरभावयोरन्यत्वम्, अक्षणिकत्वप्रसङ्गात् / तदपरक्षणभावेऽनवस्थापातात् / अनवस्थाप्रसङ्गाभावेऽपि न तयोः क्षणयोर्भेदकत्वमेव, उभयोरपि भावयोर्भावरूपताया अविशेषात् / आकारादिभेदाद् विशेषसिद्धिरिति चेत् / न / आकारादिभेदवत् अविशेषेण भावरूपताया अपि प्रतीयमानत्वात् / न चाऽ(नन्व)धिकृतघटजन्यकपालवत् घटान्तरजन्यकपाले ऽपि
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________________ 88 July-2002 मृत्वादिलक्षणा भावरूपता यथा प्रतीयते तथाऽत्राऽपि, तथा चाऽस्तु तत्रेवाऽत्राऽपि अन्वयाभाव इति / तन्न, तद्रूपशक्तिगन्धपरिमाणादिसङ्गताया भावरूपताया अन्वयसिद्धिनिबन्धनत्वेनाऽधिकृतघटजन्यकपाल इव घटान्तरजन्यकपालेऽन्वयानापत्तेः / तत्रेवाऽत्र तथाभूताया अस्या अननुभवात् / अथ यस्मिन्नेव क्षणे कारणं विनश्यति तस्मिन्नेव क्षणे कार्य जायते / अतो नाऽभावाद् भावः, कारणादेव कार्योत्पादात् / नाप्यन्वयापत्तिः, कारणस्य निरन्वयनाशात् / तन्न / कारणकार्ययोर्विनाशोत्पादौ न कारणकार्ययोभिन्नौ / तथा सति तत्सम्बन्धित्वाभावप्रसङ्गात्, अर्थान्तरगतविनाशोत्पादवत् / किन्त्वभिन्नौ / तथा च नाशोत्पादयोः कार्यकारणभावः स्यात्, कारणकार्याव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवत् / न चैतद् युक्तम्, विवक्षितयोः कारणकार्ययोर्युगपद्भावित्वेन युवतिकुचयोरिख कार्यकारणभावानुपपत्तेः / युगपद्भावश्च तयोरभिन्नकालनाशोत्पादाभिन्नत्वाभ्युपगमात् / __ अथैते उत्पादविनाशादयो न पारमार्थिकाः किन्तु कल्पिताः / न हि वस्तूनां तदतिरिक्ता काचित् क्रिया इति चेत् / तथाऽपि नाशोत्पादौ तावत् प्रतिप्राणि प्रत्यक्षेणोपलभ्येते / तौ च तुल्यकालाविति कथं भेदाभेदोद्भवा दोषाः परिहार्याः ? / ननु क्षणस्थितिधर्मा भाव एव नाशो न तु तदन्यः कश्चित् / तदुक्तम्"क्षणस्थितिधर्मा भाव एव विनाश" इति / तत् कथमन तत्कल्पनेति चेत् / तथाऽपि कारणसत्ताक्षण एव कारणविनाशक्षणः, स एव चेत् कार्योत्पादक्षणस्तदा समकालभावितया कमलनयनानयनयोरिव कथं तयोः कार्यकारणभावः स्यादिति चिन्त्यम् / अथ यदि कारणतन्नाशयोधर्मधर्मभावः परिकल्पित एवेति ब्रूषे तदा हेतुफलभावोऽपि कुत: ? कल्पितस्याऽपरमार्थतो सत्त्वेनोभयस्याऽपि धर्मिधर्मलक्षणस्याऽभावात् / न च धर्ममिव्यतिरिक्तं किञ्चिद् वस्त्वस्ति यद् हेतुः फलं वा भवेत् / न च धर्मिधर्मभावः कारणं तद्विनाशः कार्यं तदुत्पाद इत्येवंरूपो यः स एव परिकल्पितो न तु धर्म्यपि कारण कार्यलक्षणः / तन्न हेतुफलाभावाभावरूपो दोष इति चेत् / न / यदि उत्पादविनाशरूपो धर्मः परिकल्पितस्तदा कार्यकारणलक्षणो धर्मी कुतः पारमार्थिकः स्यात् ? / धर्मरहितस्य नि:स्वभावतया
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________________ अनुसंधान-२० 89 खरविषाणस्येव धमित्वानुपपत्तेः / स्वभावाभ्युपगमे च स्वभावस्य धर्मत्वात् अशक्य: पारमार्थिको धर्मधर्मभावोऽपाकर्तुम् / स्यादेतत्-सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्तं निरंशमेवैकं स्वलक्षणं पारमाथिकं, व्यावृत्तयश्च परिकल्पिताः, ताश्च भेदान्तरप्रतिक्षेपविवक्षायां भिन्ना इव परतन्त्रतया निर्दिश्यमाना धर्मा इति व्यपदिश्यन्ते / तस्माद् धर्मधर्मिभाव एव कल्पितो न तु धर्मी / तन्न कारणस्य कार्यस्य वाऽभावप्रसङ्गः / तथा च सति यदि पूर्वं स्वलक्षणं विशिष्टं प्रतीत्योत्तरं स्वलक्षणमुत्पत्स्यते ततः को दोष इति चेत् / मैवम् / विशिष्टं कारणं प्रतीत्य कार्यमुत्पद्यते, प्रतीयते च तत् यदुपकारि भवति / यदाह भवदाचार्यः - "उपकारीत्यपेक्षः स्यात् " इति / निरंशं च स्वलक्षणं किं करोति ? / किं कार्याभावविनाशं? किं वा कार्यम् ?, किमुभयं वा ?, किं वाऽनुभयम् ? / न तावत् कार्याभावविनाशं स्वलक्षणं कुरुते, विनाशस्य भवताऽहेतुकत्वेनाऽभ्युपगमात् / “अहेतुत्वाद् विनाशस्य" इति वचनात् / अभ्युपगमे वा स कार्याभावविनाशः किं कार्याभावाद् भिन्नः स्यादभिन्नो वा ? यदि भित्रस्तहि स विनाशस्तस्य न स्यात्, वस्त्वन्तरविनाशवत् / अथाऽभिन्नस्तदा कार्याभाव एव कृतः स्यात् / स च प्रागेवाऽस्तीति किं तेन कृतं; कार्याभावाभिन्ने च कार्याभावविनाशे कृते सति न कार्यभावः स्यात्, प्रागिव कार्याभावस्यैव सत्त्वात् / ___अथ कारणकृतेन नाशेन कार्याभावस्य विरोधान्नास्तित्वे सति कार्यस्य सामर्थ्यादस्तित्वं भवत्येव, भावाभावयोरेकतरप्रतिषेधस्याऽपरविधिनान्तरीयकत्वात् / तदा तत्कार्य निर्हेतुकमेव स्यात्, कारणस्य तदभावनाशे व्यापृतत्वात् / निर्हेतुकत्वे च कार्यस्य सदा भावाभावप्रसङ्गो, “नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा हेतोरन्यानपेक्षणात्" इति न्यायात् / न चैतद् दृष्टमिष्टं वा / अथ नैवाऽन्यः कश्चित् कार्याभावः, किन्तु कारणमेव / करोति च तत् कार्यं विवक्षितं नाऽन्यदिति चेत् / कस्मात् तत् कारणं कार्यं तदेव कुरुते नाऽन्यदिति ? / अथ स्वहेतुभ्यस्तत्कारणं तत्स्वभावमेवोत्पन्नं यत् तदेव कार्य कुरुते नाऽन्यदिति चेत् / तत् किं सत्स्वभावं कार्यं जनयेत् ? असत्स्वभावं वा?, आहोस्विदुभयस्वभावं ?, अनुभयस्वभावं वा ? ! नाऽऽद्यः, सतोऽपि करणेऽनवस्थापातात् / न द्वितीयः, असत्स्वभावस्य खरविषाणस्येव केनाऽपि कर्तुमशक्यत्वात् / न तृतीयः, एकान्तवादहानिप्रसङ्गात् /
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________________ 90 July-2002 जैना हि एवमुपदिशन्तो विदितयथास्थितवस्तुस्वरूपाः सदसि विराजन्ते / यदुत- कारणावस्थायां कार्यं द्रव्यात्मतया सत्स्वभावं पर्यायात्मकतया चाऽसत्स्वभावमित्युभयस्वभावमिति न चतुर्थः, सम्भवाभावात् / न ह्येव सम्भवोऽस्ति यथा न सत्स्वभावं कार्यं नाऽप्यसत्स्वभावमिति एकतरस्वभावप्रतिषेधे सामर्थ्यादन्यतरस्वभावविधिप्रसक्तेः / न च तत्कारणं यदैव कार्यमुत्पद्यते तदैव सत्स्वभावकार्यजननस्वभावमिति वक्तुं युक्तं, व्याघातात् / यदि प्रागसत्स्वभावं कार्यं तदा कथमधुना सत्स्वभावं? / व्योमकमलादीनामपि तथाभावप्रसङ्गात् / एतेन प्रागुक्तं किमुभयं वा करोति ?, अनुभयं वेति विकल्पद्वयं निरस्तम् / अथोत्पन्नं वस्तु भावशब्दाभिधेयं, भावत्वादेव च चिन्ताविषयो नाऽन्यथा। दृश्यते चाऽथ तद् वस्तु प्रत्यक्षेण / ततो निरथिका चिन्ता, दृश्यस्याऽपह्रोतुमशक्यत्वात् / अदृष्टस्य चाऽनुत्पन्नत्वेन चिन्तातीतत्वात् / इति चेत् / न / सत्यम् / किन्तु 'इदं उत्पनत्वं दृश्यमानं कथं घटते ?' इत्येवं युज्यते चिन्ता / यतः प्रत्यक्षेण दृश्यमानमपि गुणक्रियावयव्यादि तव युक्तिरूपया चिन्तया बाधितं तन्न दृष्टमेव प्रत्येतव्यं, दृष्टस्याऽपि ऐन्द्रजालिककण्ठच्छेदस्य युक्त्या बाधितत्वात् / किञ्च, कार्य हि किं कारणसत्तामात्रमपेक्ष्य भवति, कारणक्रियां वा ? यद्याद्यस्तर्हि कारणकाल एव कार्यं स्यात्, उपरिक्षणे कारणसत्ताया अभावात् / अस्त्वेवमिति चेत् / एकक्षणभावितया सव्येतरगोविषाणयोरिव हेतुफलभावानुपपत्तेः / न द्वितीयः / कारणक्रिया हि तदुत्पत्तिरेव / "भूतिर्येषां क्रिया सैव, कारणं सैव चोच्यत" इति वचनात् / तथा च तत्सत्तामात्रपक्षोक्तो दोषः / अथ कारणाभावमपेक्ष्य कार्यं भवति तदा त्वभावाद् भावोत्पत्तिरिति कारणसत्ताप्रथमक्षणेऽपि तदुत्पत्तिः स्यात् / कारणाभावस्य च कारणाभिन्नत्वेन कारणक्षण एव तदुत्पत्तेरयुक्तत्वात् / मनु कारणसत्तामपेक्ष्यैव यतो भवति कार्यं तत एवाऽनन्तरक्षणे भवति / अन्यथा तदपेक्षैव न स्यात्, तस्य सर्वात्मना निष्पन्नत्वात्, इति चेत् / तर्हि अनित्यत्वं कृतकत्वमात्रसत्तानिबन्धनं न स्यात्, द्वितीयेऽपि क्षणे कारणस्याऽनुवर्तमानत्वात् / कथमन्यथा कार्यमुत्पद्यमानं तत्कारणमपेक्षते ?, तस्य सर्वथा विनाशात् /
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________________ 91 अनुसंधान-२० अथ कृतकत्वानित्यत्वयोरभेदादनित्यत्वं कृतकत्वमात्रानु-बन्ध्येवाऽन्यथा पश्चाह्नवदनित्यत्वं कारणान्तरसापेक्षतया भिन्नहेतुत्वात् कृतकत्वाद् भिन्नं न स्यात् / इत्यनित्यत्वं कृतकत्वानुबन्ध्येव इति चेत् / तर्हि द्वितीयक्षणे कारणापेक्षाया अभ्युपगमो न सुन्दरः स्यात् / तदा तस्य विनष्टत्वेन कार्यस्य तदपेक्षाया अनुपपत्तेः / अथैष एव कारणस्य स्वभावो यत् तस्याऽनन्तरक्षणे कार्यं भवति / कार्यस्याऽपि चैष एव स्वभावो यत् कारणक्षणानन्तरं मयोत्पत्तव्यमिति, ततो न दोष इति चेत् / तथाऽपि कार्यस्य कारणानन्तरक्षणभवने कारणस्वभाव एव निबन्धनम् / अन्यथा प्रागपि तदुत्पत्तिप्रसङ्गात् / न द्वितीयक्षणे कारणस्वभावः, तस्य क्षणिकत्वात् / तत् कथं तद्भावः स्यात् ? / भावे वा तस्य तत्स्वभावोपेक्षितया न कारणस्य क्षणिकत्वं स्यात् / नाऽप्यसत: कार्यस्य स्वभाव: कल्पयितुं शक्यः, स्त भाविनोऽभावे स्वभावस्याऽप्यभावात् / जातस्य तस्य स तथा कल्प्यत इति चेत् / किमिदानीमनेन कर्तव्यं ? कार्यस्य प्रागेवोत्पत्तेः / अथ स स्वभावः परिकल्पित इति चेत् / न / तथा प्रतीत्यभावात् / एतेन यदुक्तं प्राक्- "विशिष्टं कारणं प्रतीत्य कार्यमुत्पद्यत" इति / तत् सप्रपञ्चमपास्तम् / वस्तुतस्तु क्षणिकत्वेनाऽस्त्येव कारणस्य वैशिष्ट्यम् ! युगपद भाविनां परिनिष्पन्नत्वेन परस्परमनाधेयातिशयत्वेन विशेषणाभावात् / न च- मा भूत् सहजानां परिनिष्पन्नत्वेन परस्परमतिशयाधानं, द्वाभ्यां पुनरूपादानसहकारि-- कारणाभ्यां प्राक्तनाभ्यामेकीभूय विशिष्टं तदुत्पादितम् / ततः सिद्धं वैशिष्ट्यमिति-वाच्यम् / उत्पाद्यविशिष्टकारणापेक्षया भिन्नाद्धानां सहकारिणां सम्बन्धी कुत: विशेषः स्यात् ? उपादानस्य विशेषभावमन्तरेण विवक्षितसहकारिसनिधानात् प्रागिव तत उपादानतो विशिष्टफलानुपपत्तेः / अथ विवक्षितफलसम्बन्धिन उपादानस्य विशेषभावः सहकारिभिः क्रियमाण आश्रीयत इति चेत् / न / समकालभावित्वेन तस्याऽप्युपादानकारणस्य सहकारिभ्यो विशेषानुपपत्तेः / न हि समकालभाविनोऽन्यतो भवतः सहकारिणाकरणादन्यत एव भवत उपादानकारणस्य विशेषभावो युज्यते / स्यादेतत्- उत्पाद्यविशिष्टक्षणोपादानस्य विवक्षितोपादानसहकार्युपादानैस्तदुपादानोपादानानामपि तदुपादानोपादानविशेषभाव आधीयते / तथा च न दोषः / अनादित्वाच्चोपकार्योपकारकपरम्पराया नाऽनवस्थाऽपीष्टा बाधिका
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________________ 92 July-2002 इति / मैवम् / अनादिपक्षोऽपि विशेषभावस्येष्यमाण उपकार्योपकारकाणां युगपद्भावित्वमयुगपद्भावित्वं वाऽन्तरेण न भवति / तत्र चोक्तो दोष इति / अथोपादानक्षणस्य स्वहेतुत एष एव स्वभाव उत्पेदे यदकिञ्चित्करमपि सहकारिकारणं प्राप्य उपादेयक्षणे विवक्षितविशिष्टकार्यजननसमर्थं विशेषं करोति / ततो घटत एव वैशिष्ट्यमिति चेत् / न / मानमन्तरेण स्वभावः कल्प्यमानो वस्तुव्यवस्थानिबन्धनं न भवति, अनिष्टस्याऽपि भावान्तरस्य कल्पनापातात् / अपि च विवक्षितफलोपादानोपादानस्याऽस्थानपक्षपातोऽयं यत् स्वकार्य विशिष्टस्वफलसाधनप्रवृत्तमत्यन्तानुपकारिणः सहकारिणोऽपेक्षायां नियुक्तमिति / एवं च सहकारिकृतस्य विशेषस्य सर्वथाऽनुपपद्यमानत्वेन विशिष्टं कारणं न संगच्छत एव / किञ्च विवक्षितघटक्षणादनन्तरं तदुत्तरक्षणवत् अविशेषेण सकल लोकभाविनां पटादिक्षणानां भावे सति कुतोऽयं नियमो निश्चीयते यदस्य विवक्षितघटक्षणस्येदमेव विवक्षिततदुत्तरघटक्षणलक्षणं कार्यं न त्वन्यदिति ? / अथाऽस्ति विवक्षितं कारणं विवक्षितफलजननस्वभावं नाऽन्यत् / कार्यमपि च तदेव विवक्षिततत्कारणजन्यस्वभावं नेतरत्, स्वभावसामर्थ्याद्, अतो निश्चीयते नियम इति चेत् / न / कारणत्वेनाऽभिमतस्य घटक्षणस्य पटादिक्षण इव तदुत्तरघटक्षणेऽपि अनुगमविशेषसम्पादनारहितस्य न विवक्षितफलजननस्वभाव: स्तोक श्रद्धाया विषयः, सर्वथा कारणगतधर्मानुगमविशेषाभावाविशेषात् / नैवाऽसौ स्वभावः परिकल्प्यमानः कथंचिदप्युपपद्यते / असति च कारणान्तरकृतकार्य इव विवक्षितेऽपि कार्ये तद्रूपरसगन्धशक्तिपरिणामानुगमादिरूपेण प्रकारेणोपकारे कथं कार्यमपि विवक्षितं तत्तत्कारणजन्यस्वभावं ? / कार्यान्तरवत् उपकारभावाविशेषात् / अथ विवक्षितघटक्षणस्य विवक्षितकार्यमेवोपकारो न त्वनुगमरूप इति ब्रूषे तर्हि पटादिकमुपकारः कुतो न भवेत्, विशेषाभावात् ? / विवक्षितकारणजन्यस्वभावत्वाभावात् पटादेोपकारत्वमिति चेद् / विवक्षितकार्यस्य विवक्षितकारणोपकारत्वे प्रयोजकं विवक्षितकारणजन्यस्वभावत्वं, तच्च किंकृतमिति वाच्यम्। किमत्र प्रष्टव्यं ?, हेतुस्वभावकृतमेव तत् इति चेत् / कस्तस्य हेतोः स्वभावो यबलात् कार्यस्य तत्स्वाभाव्यमुपजायते ? / नन्वयमेव स्वभावो यत् तत्कार्यं तदनन्तरमेव भवति / हेतोः स्वहेतुशक्तितस्तादृश एव स्वभाव उत्पेदे येन
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________________ अनुसंधान-२० 93 तदनन्तरमेव तद् विवक्षितं कार्यं भवति / तथा च तत्कृतं कार्यस्याऽपि तत्स्वाभाव्यमिति चेत् / पटादेरपि तत्स्वाभाव्यं कथमेवं न भवेत्तस्याऽपि तदनन्तरमेव भवनात् / ननु विवक्षितमेव तदुत्तरघटक्षणलक्षणं कार्यं विवक्षित घटक्षणलक्षणकारणानुकारं, न त्वन्यत् पटादिक्षणलक्षणं कार्यम् / तेन तदेव तस्य कार्य नेतरदिति चेत् / न / पटादेरप्येवं तत्कार्यत्वापातात्, वस्तुत्वादिना तस्याऽपि तत्प्राचीनघटानुकारित्वात् / अपि च तद्धर्मानुगमविरहे कार्यस्य कथं तदनुरूपत्वं भवेत् ?| घटादेरपि वा कुतो न भवेत् ? / प्रमाणाभावस्योभयत्राऽपि सत्त्वात् / कारणधर्मानुगमाभावाविशेषेऽपि चेदमेवाऽस्य कार्यं नाऽन्यदित्यत्र न कोशपानं विना मानमस्ति / इति कथं त्वदुक्तं विना वल्लभं कोऽप्यङ्गीकुर्यात् ? / किञ्चेदं कारणमपेक्ष्य इदं कार्य जायत इत्यत्र न किञ्चिन्मानम् / कारणक्षणवर्तिनो ज्ञानस्य तदैव विनष्टत्वेन कार्यग्रहणासमर्थत्वात्, कार्यक्षणवर्तिनश्च ज्ञानस्य कार्यग्रहण एव सामर्थ्यात्, कारणस्य नष्टत्वेन तद्ग्रहणानुपपत्तेः / __ अपि च भवन्मते कार्यकारणभावः कदाचिदनुपलम्भपुर:सरेण प्रत्यक्षेणाऽवगम्यते / यदुवाच धर्मकीर्तिः "येषामुपलम्भे तल्लक्षणमनुपलब्धं सत् उपलभ्यत इति तल्लक्षणम्" इति उपलब्धिलक्षणप्राप्तम् / एतेन चोपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलम्भेन तस्मिन् देशे तस्य धूमादिकार्यस्य स्वहेतोः सन्निधानात् प्रागपि सत्त्वम् / तथा तस्य कार्यस्य सत एवाऽन्यतो देशादागमनं प्रागवस्थितकटकुड्यादिहेतुकत्वं चाऽपाकृतमवसेयम् / तथा कदाचित् प्रत्यक्षपुरःसरेणाऽनुपलम्भेन गृह्यते / यत उक्तम्- "तत्रैकाभावेऽपि नोपलभ्यते तत् तस्य कार्य" मिति / तच्च कथं संगच्छते ? / कार्यकारणप्रत्यक्षादीनां क्षणिकत्वेन परस्परवार्तानभिज्ञानात् / अथ कारणं वह्नयादि धूमादिजननस्वभावमिति तथास्वभावतयैव तद् गृह्यते प्रत्यक्षेण, नाऽन्यथा / कार्यमपि च धूमादि वह्नयाद्दिकारणजन्यस्वभावमिति दृष्टं सत् तत् तथैव गृह्णते, नाऽन्यथा / तेन तदग्रहणप्रसङ्गात् / तत्सामर्थ्यप्रभवश्च विकल्पोऽपि तथैव प्रवर्तत इति युक्तः प्रत्यक्षानुपलम्भादिना कार्यकारणभावावसायः / भवति हि धूमजननस्वभावानलग्राहकं विज्ञानमनलजन्यस्वभावधूमविज्ञानं प्रति कारणम् / अन्यथाऽनलग्राहकेन विज्ञानेनाऽनलस्य धूमजननस्वभावतैव न
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________________ 94 July-2002 गृहीता स्यात् / ततश्चेत इदं भवतीति प्रत्यक्षत एव सिद्धे सति नाऽन्यदाऽन्यत्राऽन्यस्मादपि शक्रमूर्धादेवूमादि कार्यं भविष्यतीत्येवाऽसिद्धिः कार्यकारणभावस्याऽऽशङ्कनीया / प्रतिनियतादेव कुतश्चिदग्न्यादेः प्रतिनियतस्य धूमादेरुत्पत्तेः / अन्यथा धूमाद्यहेतुकमेव स्यात् / तथाहि-यद् यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत् तद्धेतुकम् / अन्यदा(था) चेदन्यस्मादपि धूमादि कार्यं भवेत् तर्हि न तद अग्न्यादिव्यतिरेकानुविधायि स्यात् / तथा च न तस्याऽग्न्यादिर्हेतुः स्यात् / अग्न्यादेश्च भवतो धूमादिकार्यस्य न घटादिव्यतिरेकानुविधायित्वमिति न तदपि तस्य हेतुर्भवेत् / एवं चोभयस्याऽपि तद्धेतुत्वाभावात् धूमादिकमहेतुकमेव प्राप्नोति, अहेतुकत्वाच्च सदा भावादिप्रसङ्गः / इति यद् यत एकदा भवद् दृष्टं तत् सर्वदा तत एव नेतरस्माद्- इति किमत्र न युक्तम् ? इति चेत् / न / कारणधर्मानुगमाभावाविशेषात् सर्वस्य सर्वकार्यत्वप्रसङ्गात् / अथ स्वभाव एवाऽतिप्रसङ्गदोषप्रतिषेधं करोतीति चे [त्]......