Book Title: Jambuswami Charitra
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * . ೨ 4A * * * re' CES *** 3 ) & 2ಣಿ , ” ತಮ್ಮ ೬೬ *eth : 441' * * * ಒs & ೬ h +'? * sd x-* * * * ಮw - - ಓ ಓ ' -s-fascinEWS $LLYಜತೆ # (6c {vft | | ತಕಾತರ್ನಾರ್ಕೆRಷಾ 6 | ........... ------ ............XTags:೩vg * SufiMgLalji? WgRfunilHUKSu!RASHASRUi_HIS!1fHEYUTHARU'Raalugataneg!Bus_SHERMAL ! UgliHhh Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IrZsA JA Sentry ॐ sa श्रीवीतरागाय नमः श्रीजम्बूस्वामी चरित्र | अनुवादक---- पं० दीपचदजी वर्णी, नरसिंहपुर नि० ཐུགས་ प्रकाशक मूलचंद किसनदास कापडिया, दि. जैन पुस्तकालय, चंदावाडी - सूरत. - तृतीवृति ] वीर ६० २४५३ [ प्रति १००० जैन विजय प्रि प्रेस- सुर में मूलचंद निदाउ परिवा मुद्रित किया । मूल्य - चार आने | 12:৬७७२४७° Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्तव्य यह हस्तप्राप्त पुस्तक किसी सस्कृत ग्रन्थके आधारपर श्री गिनदास कविने हिन्दी भाषामें अनुवादित की थी मिसे कटनी-मुड़वारानिवासी मुन्सी नाथूराम की लमेचूने सन् १९०२ में प्रकाशित किया था, लेकिन वह अनुवाद एक तो छन्दोवद्ध था, दूसरे साधारण व्यक्ति उससे सुगमतया लाभभी नहीं उठा सक्ते थे। अतः आवश्यकता थी कि इसका एक ऐसा सरल अनुवाद प्रकाशित हो जिसे सर्वसाधारण अच्छी तरह पढ़ लिख लें। इस आवश्यकताको ध्यानमें रखकर उक्त अनुवादकं आधारपर पं. दीपचनी वर्मा नरसिंहपुर नि• ने यह अनुपाद किया है। हम आपके बहुत आभारी हैं कि जिन्होंने यह अनुवाद हमें बिना किसी स्वार्थक कर दिया है। पुस्तककी कथा रोचक है और जनशाओं के अनुसार है। कोई भी विषय जैनशास्त्रस प्रतिकूल नहीं होने पाया है। नीति वरवक्त काम आसकती है वह कवितामें दीगई हताकि पाठक उसे कंठ थ करके सदाचारी और व्यवहारकुगल बन सकें। यह अनुवाद प्रथमवार " दिगम्बर जैन " के उपहारमें हमारी वर्गवासिनी भगिनी नानीव्हेनके स्मरणार्थ बॉटा गया था। हप है कि समाजने इसे एमा अपनाया कि हमें इसका दूसरा स्करण वीर सं. २ ४ ४३ में निकालना पड़ाया और वह भी खत्म हो जानेसे यह तीतरी आवृत्ति प्रकट की जाती है। वीर स. २४५३ । मूलचंद किसनदान कारड़िया। ज्येष्ठ पुत्री ७ ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धेभ्यः । श्रीजंबुस्वामी - चरित्र | प्रथम प्रणमि परमेष्ठि गण, प्रणमों शारद प्राथ । गुरु निर्ग्रन्थ नमो सदा, भव भव सुखदाय ॥ धर्म दया हिरदे धरूँ, सब विधि मंगलकार | जंबूस्वामी - चरितकी, करूं वचनिका सोरें ॥ अथ वचनिका प्रारंभ । मध्यलोकके असंख्यात द्वीप और समुद्रों के मध्य एक लाख योजने के व्यासवाला थालोके आकार सदृश गोल मंबू नामका द्वीप है | जिसके मध्य में नाभिके सदृश शोभा देनेवाला एक सुदर्शन 1 नामका पर्वत पृथ्वी से ९४००० योजन ऊँचा है और दिलकी बड़ पृथ्वी में १०००१ योजनकी है । इस पर्वतपर चार वन हैभद्रसाल, नंदन, सौमनस और पाहुक । इन चारों वनों में चहुँ ओर चार २ अकृत्रिम - विना बनाये - अनादिनिधन जिनचैत्यालय हैं, जहॉ पर देव, विद्याधर तथा इन्हीं की सहायता पाकर अन्य पुण्यवान् पुरुष दर्शन, पूजन, ध्यान करके अपना आत्मकल्याण करते है । अंतके पांडुकवनमें चहुँ दिन चार अर्द्धचन्द्राकार शिलाएँ है, जिनपर इन्द्र श्रीतीर्थंकर देवका जन्म कल्याणके समय विराजमान कर १००८ क्षीरसागरके नीरके कलशोंद्वारा अभिषेक करता है । इस पर्वत की तलहटीमें चारों और चार गजदंत ( हाथोंके दॉतोंके सदृश माकारवाले) पर्वत है, इनपर भी अकृत्रिम चैत्यालय है । १ योजन=४००० मात्र अर्थात् २००० कोन. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) ___ इस पर्वतके उत्तर और दक्षिणमें हिमवन् , महाहिमवन्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी ऐसे छह महापर्वत दण्डाकार पूर्वस पश्चिम समुद्र तक आड़े फैले हुए है, जिनके कारण जंबूद्वीपके स्वाभाविक सात भाग हो गये है। सुदर्शनमेतके आसपासके देना जो पूर्व से पश्चिम समुद्र तक दो महावतोंके मध्यम पड़ा हुआ है, नाम विदेहक्षेत्र है। यहाँपर सैदव बोस यकर विद्यमान रहते है। गिनके अनादिले ये ही नाम होते आये है-सीमंघरै, युगमंघर, बाहु, सुबाहु, समता, स्वयंप्रनु, ऋष्मानन, अन्तवीर्य, संग्प्रभु, विशालकीर्ति, देवर, चन्द्रानन, द्रबाहु, भुगम, ईश्वर, नेमिप्रेम, वीरपण, महाभद्र, देववेश, अतिवीर्य । यहाँके मनुप्णके आयु, नाय, वल, वीयदि सदैव इथे कालके मनुष्यों के प्रमाग होते है तथा सदैव इस क्षेत्रसे भीक को नामकर मोन प्राप्त कर सकता है। अर्थात् न्हाँपर जान को मिरन नहीं है इसीसे इनका नाम विद क्षेत्र हुआ। कतो उन महार्वतोंके दोनों ओर भरत, एरावत, हमवत् , हरि. स्क, हेण्यवत् , ऐसे पटूक्षेत्र और है। इनमेंसे ऐरावत उत्तरकी मेर और भरत नामका क्षेत्र दक्षिगको जोर बिलकुल समुद्र तटपर है। इन दोनों मध्यमें एक एक वैताड्य पर्वतके पहनाने दोदो भाग हो गये हैं और महापर्वतास दो दो महान्दो निकल कर उत्तर दक्षिण सन्द्रमें गाकर मिली है, जिससे एक भागके तीन तीन भान हो गये हैं। इन सबको मिलाकर दोनों क्षेत्रके छह म्ह भाग हर अर्थात् छ ऐरावतके और छ भरतके इन छह छह खंडास अत्यन्त उत्तर और दक्षिण भागमें समुद्र से मिला हुआ एक एक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) मार्यखंड है और इसकी तीनों दिशाओं में पाँच पाँच म्लेच्टड है। इन्हीं आर्यखंडों में त्रेट शलाकादि उत्तम पुरुषों की उत्पत्ति होती है और इन्हीं खटोंमें अवसर्पिणी, उत्सर्पिणीके उपमानुपा यादि छ' काकी फिरन होती है । इस ही भरतक्षेत्र आर्यखंडमें एक मगघ नामका देश और रागृही नामकी नगरी हैं । इसीके पास उदयगिरि, सोनागिरि, खंडगिरि, रत्नागिरि और विपुलाचल नामकी पंच पहाड़ियाँ हैं । इन पहाड़ियों के कारण यह स्थान अत्यन्त मनोग्य मालूम होता है । पूर्व समय में इस नगरी की शोभा अवर्णनीय थी । नाना प्रका रके वन, उपवन, कुबे, बावड़ी, तालाब, नदी आदि से शोभित थी । चारों ओर बडे बड़े उत्तंग गगनचुंबी महल और ठौर ठौर जिनमंदिर ऐसे बन रहे थे, मानों अकृत्रिम चत्यालय हो हों। वे मंदिर नान प्रकार के चित्रोंसे चित्रित थे -कहीं तो स्वर्गकी संपत्ति दृष्टिगत होनी थी, तो कहीं नरककी वेदना दिख रही थी, कहीं तियंचगरि दुःखों का दृश्य दिखाई दे रहा था, तो कहीं रोगी, वियोगी, शोकी नरनारियोंका चित्र खिंच रहा था, कहीं भव-भोगोंसे विरक्त परम दिगंबर ऋषि अपनी ध्यान-मुद्रामें मन हुए तीन लोककी संपत्तिको तृणवत् त्यागे हुए निश्चल ध्यानयुक्त बैठे हुए मालम हो रहे थे, कहीं श्रीजिनेन्द्रकी परम वीतरागी मुद्राको देखकर तीव्रक्रपायों भी १, म्लेच्छखट उसे कहते है जहाँ रोग स्वेच्छाचारी अ--- ज्ञानरहित हों। इन सड़ों में भी कालचकी फिरन नहीं है । २. यह नगरी विहार स्टेशन से अनुमान १० कोलपर है। 35 समय विलकुल उजाड़ हो रही है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव शात हो बैठा था। अर्थात् जहाँ संसार दशाका भले प्रकारअनु. भव होता था, ऐसे मिनमंदिर तोरन पताकादि कर शोभायमान थे। ऐसी अनेक शोभाकर संयुक्त वह नगरी थी, जहॉ भिक्षुक, भयवान् व दरिद्री पुरुष तो दृष्टिगोचर ही नहीं होते थे। यहॉका महामंडलेश्वर राजनीतिनिपुण, न्यायी, यशस्वी और महाबली राजा अणिक राज्य करता था। जिसकी बहुतसे मुकुटबंध राजा आज्ञा मानते थे। एक समय जब कि राजा श्रेणिक रानसभामें बैठे थे कि उस समय वनमालीने आकर छहों ऋतुके फल फूल राजाको भेंट करके विनय की-भो स्वामिन् । विपुलाचल पर्वतपर अंतिम तीर्थकर श्रीमहावीर जिनका समवसरण आया है, जिसके प्रभावसे ये सब ऋतुओंके फल फूल फल फूल गये है। वापी, कुवे, तालाव आदि सब भर गये हैं। राजा यह समाचार सुन अत्यानन्दित हुआ और तुरंत हो सिंहासनसे उतर सात पैड़ चलकर प्रभुकी परोक्ष वंदना को। पश्चात् मुकुटको छोड़कर शेष सब वस्त्राभूषण नो उस समय उनके शरीरपर थे, उतारकर वनमालीको दे दिये और नगरीमें घोषणा कराई कि वीर प्रभु जिनका समवसरण विपुलाचल पर्वतपर आया है, इसलिये सर्व नगरके नर-नारी वंदनाको चलो । घोषणाको सुनकर पुरजन बहुत हर्षित हो स्वशक्तिप्रमाण अष्ट द्रव्य ले लेकर वंदनाको चले। उस समय राजा प्रजा सहित जाता हुआ ऐसा मालूम होता था मानों इन्द्र ही सेनासहित दर्शनको आया हो। जब वे समवसरणके , निकट पहुंचे, तब रथसे उतर पॉव प्यादे चलने लगे। सो प्रथम ही Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) मानस्थमा, जिसके देखनेमात्रमे मानी पुरुषों का मान नाता रहता है, दर्शनकर समवसरणमें प्रवेश किया और तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार कर श्रीजीको पूरा करके मनुष्योंके कोटेंमें जा । और बहुत प्रकारसे स्तुति करके विनती की-" हे नाय! कृपा करके मुझे समारमे पार करनेवाले वर्मा उपदेश दीमिये" तब प्रभुकी दिव्यध्वनि खिरी और तदनुसार गौतमत्वामीने, जो चार ज्ञानके धारी प्रथम गणधर थे, कहा,____ हे राना ! सुनो. इस अनादिनिधन संसारमें यहीय अनादि को वश हुआ वावलेकी तरह चतुर्गतिमें भ्रमण करके नाना प्रकारके जन्म और मरण आदि दुःखीको सहता है। यह जीव मिथ्या भ्रमसे पर वस्तुओंमें आपा मान कर आपको भूल रहा है और अपनी अलख संपत्ति और अविनाशी मुखका अनुभव न कर इन्द्रिय विषयों में आसक्त हो सुखी होना चाहता है, परन्तु जहाँ तृप्णारूपी अनि प्रज्वलित है वहाँ भोग सामग्रीरूप इंधनसे तृप्ति कहाँ ? ज्यों ज्यों यह विषयभोगकी सामग्री मिलती जातो है त्यों त्यों विषय तृष्णाकी इच्छाएँ बहती ही चरी जाती हैं। प्रत्येक जीवको इतनी तृप्णा है कि तीन लोककी सामत्री भी कदाचित् मिल जाय, तो भी इस जीवके माशाली गढेका अलख्यातवॉ भाग भी न भरे परन्तु लोक तो एक, और जीव अनं. तानंत है, और प्रत्येक जीवको इस प्रकारकी तृप्या व इच्छा है सो इनमें मुखकी इच्छा करना, मानो पत्थरपर कमलका लगाना है । तात्पर्य यह-संसार दुःखमयी है, इसमें सुख रंचमात्र भी नहीं है। जिस प्रकार केलाका स्थंभ निसार है, जलको मथनेसे Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । (८) कुछ भी नहीं निकलता, उसी प्रकार संसार असार है। नो भव्य जीव सुखके अभिलाषी हैं वे इसे त्यागकर धर्मका सेवन करें। धर्म दो प्रकारका है- एक सागार (गृहस्थों का) जिसे अणुव्रत या देशत्रत कहते हैं। दूमरा अनागार (साधुओंका) मिसे महाव्रत या सकलव्रत भी कहते है। पहिला परम्परा सच्चे सुख-मोक्षका साधन है। दूसरा साक्षात् मोक्षका साधन है।" इस प्रकार स्वामीने संक्षेपसे संसार दशाका स्वरूप वर्णन करके दो प्रकारके धर्मका स्वरूप वर्णन किया। इनमें एक देव वहां आया और नमस्कार कर अपनी सभामें गबैठा। उसकी अपूर्व काति देखकर राना श्रेणिक बड़े आश्चर्यमें होकर पूछने लगे-हे स्वामिन् ! यह देव कौन है ? तव स्वामीने कहा-'यह विद्युन्माली नाम देव है और अब इसकी आयु तीन दिनकी शेष रह गई है" तव पुनः राजाने पूछा-“हे प्रभो। देवोंकी आयुके जब छह महीना बाकी रह गते है, तव माला मुरझा जाती है और जब इस देवकी आयु केवल तीन ही दिनकी रह गई है तब भी इसकी काति अनुपम है, सो हे प्रभो ! कृपाकर इसका वृत्तांत कहिये।" तब गौतमस्वामीनीने इस प्रकार कहना प्रारंभ किया-"ऐ राजन् ! सुनो, इसी देशमें वर्धमानपुर नामका एक सुन्दर नगर है, जहांका रानामहीपाल अत्यन्त धर्मधुरंधर और न्यायनीतिनिपुण था और जहाँ अनेक सेठ वास करते थे। ऐसे उत्तम नगरमें एक ब्राह्मण रहता या, जो कि महामिथ्यात्वी था और लोगों को निरंतर मिथ्या उपदेश देकर व्याह, श्राद्धादि नाना कोद्वारा अपनी आजीविका करता था उसके भदेव और भावदेव नामके दो पुत्र विद्यामें Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत ही निपुण थे, परंतु पिताके अनुसार वे भी मिथ्यात्वसे न बच सके। कुछ समय पीछे वह ब्राह्मण कालवा से अपने किये हुए मिथ्यात्व काँका प्रेरा हुआ दुर्गतिको चला गया और ये दोनों हिजपुत्र उसी प्रकार अपना कालक्षेप करने लगे। भाग्योदयसे एक दिन महातपस्वी श्रीदिगंवर मुनि नगरक उद्यानमें बिहार करते ए आये। तब द्विरपुत्र और सब नगरलोक मुनिकी वंदनाको गये और वंदना कर श्रीगुरुके मुखमे धर्मोपदेश सुना! सब लोगोंने यथाशाक्त व्रतादिक लिये और वह द्विापुत्र भावदेव भी बड़ा था संसारका स्वरूप मुन कर विषय भोगासे विरक्त हो यह विचारने लगा कि यह समय वीत मानेपर फिर हाथ नहीं आयगा, काल अचानक ही आकर इस लेगा और फिर मर विचार यहॉके या ही पड़े रह जायेंगे । संसारमै सप स्वार्थ के सगे है। यदि हित कोई संसारमें है तो ये ही श्रीगुल है, जो निष्प्रयोजन भवसागरम दूबते हुए हम लोगोको हस्तावलंबन दे कर पार लगाते हैं। सब वस्तुए भगभंगुर है। जब हमारा शरीर हो नागवान है तो इसके सम्बन्धी पदार्थ अवश्य ही नागवान है। इसलिये अवसर पाकर हाथसे जाने नहीं देना चाहिये । ऐसा विचारकर श्रीगुरुके निकट मिनदीला धारण कोई ठोक है-'शठ सुधरहिं सत्संगति पाई, लोह कनक हे पारस पाई महामूढ मिथ्यात्वी भी सत्सगके प्रभावसे चतुर विहान हो जाता है। देखो, वह भावदेव ब्राह्मणका पुत्र जो परम्परासे तीव्र मिथ्यात्वी धा, उसनेभो श्रीगुरुके मुखसे सच्चा कल्याणकारीउपदेश सुनकर वैराग्यको प्राप्त कर निनदीक्षा ले ली। वे भावदेव मुनि अपने गुरु तया संबके Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) साथ अनेक देशोंमें विहार करते हुए वारह वर्ष पश्चात् पुनः इसी वर्धमानपुरके उद्यानमें आये। एक दिन भावदेव मुनिने मनमें विचारा कि मेरा छोटा भाई भवदेव जो तीव्र मिथ्यात्वमें फंस रहा है, उसे किसी प्रकार समझाना चाहिये । यह विचार कर श्रीगुरुको आना ले नगरमे जाकर अपने भाईके मकानमें प्रवेश किया । तब इनका छोटा भाई अपने बड़े भाईका आगमन देख अपना घन्य जन्म मान कर प्रफुल्लित हो स्तुति करने लगा। ठीक है-"छोटोको बड़ाकी विनय करना ही उचित है। " फिर उच्चासन देकर कुशल समाचार पूछा। ___ तव मुनि धर्मलाभ देकर कहने लगे, कि जो पुरुष निशदिन मिन भगवानके चरणों में आसक्त रहता है, उसके सदैव ही कुशल रहती है। इसके पश्चात् मुनिवरने सभामंडप, कंकण, केशरिया वागा आदि सामग्री, और स्त्रियोंको मंगल गान करते देख कर भवदेवसे पूछा-'यह सब क्या है ?" तब भवदेवने कहा-आज रात्रिको मेरा व्याह हुआ है इसीका यह सब उत्सव है । तब मुनिराजने कहा कि यह तो सब कर्मनंजाल है, किंतु तुम्हें कुछ धर्मका भी ख्याल है या नहीं? तवभवदेवने धर्मश्रवणकर श्रीमुनिवरसे अणुव्रत ग्रहण किये और मुनिने संघकी ओर विहार किया। सो मुनिवर तो नीची दृष्टिकर ईर्यापथ सोधते हुए धर्मध्यानमें तल्लीन हुए जा रहे हैं और भवदेव केवल लोकरीतिके अनुसार पीछे पीछे यह विचारता हुआ भरहा है कि बड़े भाई मुझे कव पंछे फिरनेकी आज्ञा दें और मैं कब शीघ्र ही घर जाकर अपनी नव विवाहिता स्त्रीसे मिल। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) इस प्रकार वे दोनों अपने २ ध्यानमें मग्न नगरसे लगभग १ कोस बाहर निकल गये, परंतु मुनिराजने भवदेवको पीछे लौटनेको न कहा। भवदेवमनमें विचारने लगा कि एक कोस तो आ गये, अब न मालूम भाई कितनी दूर जायेंगे? जो मुझे आज्ञा दे देते तो मैं घर चला जाता। आगे जाकर भी क्या जाने ये मुझे पीछे आने देंगे कि नहीं ? इत्यादि संकल्प करते चला जा रहा था। मुनिराज न तो इसे कहते थे कि साथमें आओ और न पीछे ही जानेकी आज्ञा देते थे। वे तो मौनावालंबन किये चले ही जारहे थे । वे मनमें विचारते थे कि यदि भवदेव गुरुके पास पहुँचकर इस असार संसारका परित्याग कर दे तो अच्छा हो, क्योंकि इसकी आत्माने जो मिथ्यात्वकेवशवर्ती होकर अशुभ कर्मका बंध किया है सोजिनेश्वरी तपश्चरणसे छूट जायेंगे और उत्तम सुख प्राप्त हो नायगा। अहा ! भ्रातृस्नेह इसीका नाम है कि भव-समुद्रमें गोते खाते हुए अपने भाईको निकालकर सच्चे सुख मार्गमें लगाना । संसारमें और ऐसे भाई विरले ही होते है, जो विषय कषायोंसे छुड़ावें। फंसानेवाले तो अनेक है। भावदेवने मरदेवके साथ नो सच्चा प्रेम प्रगट किया वह अनुकरणीय है। इसी प्रकार अपने २ विचारों में निमग्न हुए वे दोनों भाई नगरसे अनुमान तीन कोस दूर वनमें जा पहुंचे, हाँ श्रीगुरु संघसहित तिष्ठे थे। दोनोने थयायोग्य गुरुको विनयसंयुक्त नमस्कार किया और निज निन योग्य स्थानमें बैठ गये। तब सपके दूसरे मुनियोंने पूछा-' यह दूसरा आपके साथ कौन है?" मावदेव मुनिने उत्तर दिया-" यह हमारा छोटा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) भाई है, जो श्रीगुरुके दर्शनको आया है। यह गुरुके प्रसादसे सच्चे मार्गमें लग जायगा। यह सुन सब मुनि सराहना कर कहने लगे-'हे मुने! यह तुमने बहुत ही अच्छा किया जो मसार सागरमें वहते हुएको पार लगाया। अब इसे जिनेश्वरी दीक्षा लेना चाहिये, ताकि कर्मीको काटकर अविचल अविनाशी सुख प्राप्त करे।' यह बात सुनकर भवदेव विप्र विचारने लगा- हे विधाता! यह क्या हुआ ? अब मै क्या कल? जो दोक्षा ले ल. तो आनको व्याही स्त्री क्या कहेगी ? और वह कैसे जीवन व्यतीत करेगी ? लोग मुझे क्या कहेंगे ? और जो घर जाऊँ तो भाईकी बात नाती है। ये साथके मुनि उनका हास्य करेंगे कि इनका भाई, इतना कायर है। ये ऐसे कापुरुषको क्यों लाये ? इत्यादि। ऐसा विकल्प करते २ उसने यह निश्चय किया कि इस वक्त तो भैसा ये लोग कह वैसा ही कर लूं और कुछेक दिन मुनि ही बनकर रहूँ फिर ज्यों ही कोई मौका हाथ लगा कि त्यों ही तुरत भागकर घर चला जाऊँगा, यह सोच मिनदीक्षा ले ली। श्रीगुरुने उसे भव्य जानकर कि यद्यपि अभी इसके मनमें दुर्ध्यान है परतु पीछे यह मुनिनायक होगा, दीक्षा दे दी। पश्चात् यह मुनिसंघ कई देशों में विहार करता और अनन्त भव्य जीवोंको संबोधन करता हुआ, बारह वर्ष पीछे फिर उसी वनमें आया। तव भवदेवने मनमें यह विचार कर कि अब जाकर अपनी स्त्रीको देखना चाहिये, गुरुको नमस्कार कर नगरकी ओर चले । सो ईर्यापथ सोधते हुए मिनालयमें पहुंचे और प्रभुकी वाना कर बैठे। इतनेमें वहाँ एक आर्यिकाको देख। परस्पर रत्नत्रयकी कुशल Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) पूछकर श्रीमुनि उस आर्यिकासे पूछने लगे कि इस नगरमें दो ब्राह्मणपुत्र रहते थे सो वे दोनों तो जिनदीक्षा लेकर विहार कर गये थे, उनमसे छोटा लड़का जो तुरत व्याहकर लाई हुई नववधूको छोड़ कर चला गया था, सो उस वधूका क्या हाल हुआ ? यह सुन वह आर्यिका मुनिका चित्त चंचल होता जानकर बोली- हे स्वामिन् ! हे धीरवीर आप अपने चित्तको शात कीजिये। आप धन्य है जो ऐमा उत्तम व्रत लिया। यह कार्य कायर संसारी पुरुषोंसे नहीं बन सकता । इस योग्य आप ही हो। इत्यादि स्तुति कर कहने लगी 'नाथ! वह स्त्री मैं ही हूँ। आपके चले जाने के पीछे मैने इस स्त्री पर्यायको पराधीन जानकर इससे छूटने के लिये यहाँ आर्थिकाके व्रत लिये जौर घरको तुड़वाकर उसका चन्यालय करचाया और जो कुछ शेप द्रव्य था वह भी इसी चैत्यालयमें लगा दिया गया है । अब हे मुनिनाथ ! आप नि.शंक होफर तपश्चरण करें । यह सुनकर मुनि नि शल्य हो वनमें गये और श्रीगुरुको नमस्कार कर सब वृत्तात कहा । तव श्रीगुरुने भवदेव मुनिकी दीक्षा छेदकर फिरसे व्रत दिये । इस प्रकार वे दोनों भाई मुनि उग्र तप करते हुए विपुलाचल पर्वतपर आये और आयुके अन्तमें समा धिमरण कर सानत्कुमार तीसरे स्वर्गमें देव हुए। वहाँ अतुल पदा देख अवधिज्ञानसे अपना पूर्व भवका वृतात चितवन करके विचारा . कि यह सपत्ति निनधर्मके प्रभावसे ही मिली है, ऐसा जानकर चे धर्ममें तत्पर हुए। अनेक देव देवागनाओं सहित अढाई द्वीप संबंधी तथा सर्व अकृत्रिम तथा कृत्रिम चैत्यालयोंकी वंदना की। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) इस प्रकार वे देव स्वर्गमें सागरों पर्यन्त सुख भोग वहाँसे चय,भावदेवका जीव अपरविदेह पुंडरीकिणी नगरीम वज्रदंत राजाकी पट्टरानीसे सागरचन्द्र नामका पुत्र हुआ, और भवदेवका जीव वीतशोकपुरमें महापद्म चक्रवर्तीके यहाँ वनमाला रानीके गर्भसे शिवकुमार नामका पुत्र हुमा । सो वे दोनों निग निन म्यानमें वृद्धिको प्राप्त होकर अनेक प्रकारकी विद्याओंका अभ्यास करने लगे। एक समय पुंडरीकिणी नगरीके उद्यानमें मुनिवरका आगमन जानकर सागरचंद्र राजपुत्र वंदनाको गया और श्रीगुरुको नम-स्कार कर धर्मका स्वरूप पूछा । तव स्वामीने मुनि और श्रावकके व्रत और संसारकी क्षणभंगुरताका वर्णन किया, तथा सागरचन्द्रके पूवभव भी वर्णन किये। यह सुनकर सागरचद्र संसार देह भोगोंसे विरक्त हो मुनि हुमा और निरतर जप तप संयममें उत्तरोत्तर अधिक तत्पर रहने लगा। वहुत समय पंछ सागरचन्द्र मुनि गुरु सहित विहार करके वीतशोकपुर नगरके उद्यानमें आये और यह शरीर तप व्रतादिका साधन है सो आयु प्रमाण स्थिर रहे और धर्मध्यानमें किसी तरह शिथिल न होने पावे, जैसे चाकमें तेल देनेसे गाड़ी बेरोक चली जाती है, इसी तरह यह भो शिथिल हुए बिना मोक्ष नगरके द्वार तक अरोक चला जाय, ऐसा चितवन कर उदासीन वृत्तिसे नगरमें चर्या निमित्त प्रयाण किया श्रावकगण द्वाराप्रेक्षण कर हो रहे थे, सो उन्हें नवधा भक्ति सहित पड़गाहन कर मुनको आहार दिया। मुनिरानने 'अक्षयदान हो" ऐसा कह दिया। सो मुनिदानके प्रभावसे वहॉ पंचाश्चर्य (रत्नवृष्टि,पुष्पवृष्टि, गंधोदककी वृष्टि,मंद सुगंध पवन और देवदुंदुभि) हुए। इससे नगरके सब लोगों को आश्चर्य हुआ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) और वे यह कौतुक देखनेको वहाँ एकत्र हो आये । इसी समय शिवकुमार नाम राजपुत्र भी वहां बाया और मुनिको देख मोहयुक्त हो विनय सहित नमस्कार कर मोह उत्पन्न होनेका कारण पूछा। तब उसे स्वामीने पूर्व भवका वृचात सुनाया । सुनते ही राजपुत्रको मूर्छा आ गई। यह वृत्तात मंत्रियोंने जाकर राजासे कहा और राजपुत्रको उपचार वर सचेत किया । राजा रानी सहित तुरंत ही वहाँ आये, और पुत्रको घर ले जाने लगे । तब शिवकुमार बोले - " हे पिता ! ये भोग भुजंगके समान है, क्षणभंगुर हैं। मैं अब घर न जाऊँगा, किन्तु महात्रत लेकर यहाँ ही गुरुके निकट स्वात्मानुभव करूँगा । " तत्र राजा बोले- 'पुत्र ! अभी तुम्हारी बाल्यावस्था हैं, कोमल शरीर है, जिनदीक्षा अतिदुर्धर हैं, इसलिये कुछेक दिन राज्य कर हमारे मनोरथोंको पूर्ण करो। पीछे अवसर पाकर व्रत लेना । यह अवस्था तप करनेकी नहीं है । इत्यादि नाना प्रकार राजाने समझाया परंतु जब देखा कि कुमार मानते हो नहीं तब लाचार हो कहने लगे पुत्र ! यदि तुम्हें ऐसा ही करना है, तो मुनिद्रत न लेकर क्षुल्लक के ही व्रत लो और यदि ऐसा न करोगे तो मैं प्राणत्याग करूँगा । तब शिवकुमारने माता पिताके वचनानुसार शुलक के व्रत लिये । घरमें ही रहकर चौसठ हजार वर्ष तक केवल भात और पानीका आहार कर निरतर धर्मध्यानमें काल व्यतीत किया और सागरचन्द्र मुनि यहाँसे विहार करके उम्र तप करते हुए समाधिमरणकर ब्रह्मोत्तर छटवें स्व में देव हुए और शिवकुमार क्षुल्लक भी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवसर पासमाधिमरणकर उसी ब्रह्मोत्तर स्वर्गम देव हुए और पूर्वतपके प्रभावसे नाना प्रकार सुख भोगने लगे। सो हे रानन् ! यह विद्युन्माली देव पूर्व तपन्याके प्रभावसे ऐसा अद्भुत कांतिवान् हुआ है।" तब राना श्रेणिकने विनययुक्त हो पूछा-'हे प्रभो । इनका विशेष हाल सुनाना चाहता हू सो कृपा कर कहो। तब स्वामी बोले 'अग देशमें चंपापुरी नामकी एक नगरी है, वहाँ सूरसेन नामका सेठ रहता था। उसके अतिरूपवती चार मियाँ थीं। एक समय किसी पूर्व पापके उदयमे सेठको वायुरोग हो गया जिससे वह वावलेकी तरह बकने और त्रियोंको नाना प्रकारसे कष्ट देने लगा। यहाँतक कि उसने चारों स्त्रियों के नाक, कान भी काट डाले इससे वे अतिदखित होकर वासुपूज्यन्वामी के चैत्यालयमें जाकर माथिका हो गई और समाधिमरण करके इस हो छठवें स्वर्ग में चारों देवी हुई है। सो जंबूस्वामी, विद्युत्चर और ये देवियों यहाँसे चय साथ ही दीक्षा लेवंगी।" इसका विशेष वर्णन इस प्रकार है सो सुनो-"हस्तिनापुरके राना दुरदन्दके शिवकुमारका जीव छठवें स्वर्गसे चयकर विद्युतचर नामका पुत्र हुआ, सो महाबलवान्, प्रतापी और सर्व विद्याओं में निपुण हुआ। यहाँ तक कि उसने चोरी भी सीख ली सो प्रथन ही उसने रामभंडार चुरानेको प्रवेश किया ही था कि उसे कोटवालने पकड़ कर रागके सन्मुख उपस्थित कर दिया। राजा पुत्रकी यह दशा देख बहुत दुखी हुए और कहने लगे-“हे बालक! तू यह सब राजभडारले, परतु चोरी करना छोड़ दे क्योंकि इच्छित वस्तु Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) प्राप्त होनेपर कोई चोरी नहीं करता । परंतु विद्युतचरने एक न मानी। रोगीको कुपथ्य हो मला मालूम होता है, पंछे चाहे प्राण ही क्यों न चले गावें । निदान राम अत्यन्त खेदित हो कहने लगे-"जो तुम यह दुष्ट सत्य नहीं छोड़ोगे तो किसी न किसी दिन अवश्य ही तुम्हारे प्राण जायगे और बहुत दुख उठाओगे।" तब विद्युतचर बोला-"पितानी ! मुझसे यह कृत्य नहीं छूटेगा। मैं तो चोग करके राव राज्यको लूट लट कर खाजगा अथवा आपला राज्य छोड़ विदेशमें चला जाऊँ ।' यह सुन रामाने लाचार हो देशसे निकल जानेकी आना दे दो। सत्य है न्यारी पुरुषोंका यही धर्म है कि चाहे अपना पुत्र हो व पिता अथना कैसा ही स्नेही क्यो न हो, उसको अपराध करनेपर अवश्य ही योग्य दण्ड देते है-पक्षपात कदापि नहीं करते। - विद्युतचर राजपुत्र वहां से निकलकर कई दिनोंमें रामगृही आया और कमला वेश्याके यहाँ रहने लगा। वहॉ वह सब नगरसे चोरी कर २ के वेश्याका घ भरने और इस तरह कालोय करने लगा। इसी रामगृही नगरीमें अहंदास नामका सेट था, उसके निनमती. नामकी महा गीलवती स्त्री थो । सो यह विद्युत्वेग देव जिसकी तीन दिनको आयु शेष रह गई है वर्गसे चयकर उसके पुत्र होगा और तप करके भव ल तोड स्वारमातुभूतिरूप सच्चा मुख प्राप्त करेगा। गौतमत्वामी के मुखसे यह कथन हो ही रहा था कि एक यज्ञ वहाँ गदगद हो नाचने लगा तब गाना अंणिकने विस्मित होकर Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) पूछा - "हे स्वामिन् ! यह यक्ष क्यों नाचता है ?" स्वामीने उत्तर दिया कि - " अर्हदासका सहोदर भाई रुद्रदास था, सो महा कुरूप, व्यसनासक्त था । एक दिन वह अपना सब धन जुआ में हार गया तत्र उधार लेकर खेला, और जब वह भी हार गया. और घरमें भो कुछ न रहा तब उधार लिया हुआ ऋण दे कहाँसे ? निदान साथके खिलाड़ी दूसरे जुआरियोंने, गिनसे उसने ऋग लिया था उसे बाँधकर बहुत ही मारा, यहाँतक कि उसे बेसुध कर दिया । जब यह खबर अर्हदासको मिली तो तुरंत ही उसने रुद्रदासको खाटपर रखाकर घर भगाया और अतिम वेदना जानकर सन्यास मरण कराया । सो यह उस दासका जीव सन्यासके योगसे यक्ष हुआ ह और अब अपने वंशमे मोक्षगामी पुरुषकी उत्पत्ति सुनकर हर्पित हो नाच रहा है । " यह वृत्तांत गौतमस्वामी के मुखसे सुनकर सभा ननोंको भत्यानन्द हुआ और अर्हास तथा उनकी सेठानीके तो आनन्दका पार हो नहीं रहा। जैसे भिक्षुकको कुबेरकी संपत्ति पानसे होता है, उसी प्रकार सर्व नगर में आनन्द ही आनन्द भर गया । घरोघर मंगल गन होने लगा । एक दिन सेठानी जिननती शयनगृह में सुखनंद ले रही थी कि उसी समय वह विद्युतवेग देव ब्रह्मोत्तर वर्गसे चयकर सेठानीके गर्भमें आया । सेठानीने यह शुभ स्वप्न पिछली रात्रमें देखा और आने पतिले उक्त स्वमका फल पूछा । ठीक है - "सती स्त्रियाँ लाभ अलाभ जो कुछ भी हो, सच्चा हाल अपने पति से हो कहती है " तब लेटने स्वामी के - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) मुखसे सुने हुए वृत्तांतको स्मरणकर तथा निमित्तशास्त्रद्वारा स्वप्नका फल विचार कर कहा___"प्रिये ! तुम्हारे गर्मसे त्रैलोक्यतिलक मोक्षगामी पुत्र होगा। यह सुनकर सवको अतिहर्ष हुआ और समय जाते हुए भी कुछ मालूम न हुआ। पूर्ण दस मास बीत जानेपर अईदास सेठके घर पुत्ररत्नको प्राप्ति हुई, घरोघर मंगल गान होने लगे, याचकोंको इच्छित दान दिया गया और स्वजन मुहृद इत्यादि पुरुषोंका भी यथायोग्य सन्मान किया गया। यह बालक दिन प्रतिदिन ऐसा बढ़ने लगा, मानों चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं सहित विस्तारको प्राप्त हो रहा हो। ज्योतिषियोंने लग्न विचारकर शुभ नाम 'जंबूस्वामी' रखा। इनका ऐसा अनुपमरूप था कि जिसे देखकर नगरवासी राजा प्रना सबके चित्तको आनन्द होता था। नव स्वामी दस वर्षके हुए, तब वस्त्राभूपग धारणकर अपने संगके बालकोंमें खेलते हुए ऐसे मालूम होते थे मानों तारागणोंमें चन्द्र ही है। नगरके लोग धन्य धन्य कहकर आशीर्वाद देते थे। नहॉमिस रास्तासे स्वामी निकल जाते, वहींपर लाखों आदमियोंकी भीड़ हो जाती थी। यहाँ तक कि नर-नारी अपने आवश्यक कामोंको भी विस्मरण कर जाते थे। एक दिन राजा क्रीडा निमित्त बनमें गये थे और सब पुरजन भी आनंदमें मन थे कि अचानक राजाका पट्टवध हाथी छूट गया और नगरमें जहाँ तहाँ ऐसा घोर उपद्रव करने लगा मानो प्रलय काल ही भा गया हो। नर-नारी अत्यंत भयभीत हो पुकारने लगे। वाट और हाट सब बंद हो गये। काई भी निकल Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) नहीं सकता था। यह खबर रानातक पहुंची और वहॉसे बड़े र योद्धा भी आ गये, परन्तु कुछ फल न हुआ। इसी समय स्वामी जंबूकुमार अपने मित्रों सहित कहीं जा रहे थे कि हाथी सूड उठाकर इनकी तरफ आया, मानों वह सूंड़ उठाकर स्वामीको नमस्कार ही करता था। यह देख साथी तो सब डरकर भाग गये, परतु स्वामी उस हाथीकी चेष्टा देखकर हँसे । नगरके लोग तो हाय हाय करके पुका. रने लगे कि अब क्या जानें यह हाथी इस वालकको छोड़ेगा या नहीं? दोडियो २ बचाइयो २ इत्यादि कहकर चिल्लाने लगे परंतु स्वामीने किंचित् भी भय न किया, और हाथीके सम्मुख आ कपड़ेको अमेठ कर जोरसे हाथीको मारा कि वह हाथी चीस मार भागने लगा। तब स्वामीने उसे पूंछ पकड़के रोक लिया और उसपर चढकर सात वार यहाँ वहॉ खूब दौड़ाया। नगरके लोग व राना यह कौतुक देख हर्ष और आश्चर्ययुक्त होगये। स्वामीको हाथीपर बैठे हुए घर आये देख माता पिता झट से गोदमें ले मुख चूममे और क्लेया लेने लगे तथा निछरावल कर पूछा-'पुत्र ! ऐसे कोमल पल्लवसमान हाथोंसे तुमने किस तरह ऐसे मदोन्मत्त हाथीको पकड़ लिया ? स्वामीने विनयपूर्वक उत्तर दिया-"पिताजी ! आपके चरणोके प्रसादसे हो, पकड़ा है। ठीक है " बड़े बड़ाई ना करें; करें अपूरव काम । हीरा मुखसे ना कहे; लाख हमारो दाम"॥ इतनेमें स्वामीको बुलानेके लिये राजदूत आया और बड़े स नगनसहित राज्य दरबार में ले गया। स्वामीको दरबारमें आते देख सभागनोंने उटकर नमस्कार किया और रानाने भी उठकर अगवानी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) की, तथा अर्ध सिंहासनपर बैठाया। पश्चात् बहुत प्रीतिसहित बातचीत होनेके बाद रानाने कहा-"कुमार ! मैं चाहता हूँ कि आप नित्यप्रति दरवारमें आया करें," तब स्वामीने वह स्वीकार किया। पश्चात् राजाने छत्र, चमर,स्थ, पालकी आदि देकर इन्हें विदा किया। एक दिन अहंदास सेठ अपने घरमें सुखासनपर बैठे थे कि बहुत द्रव्यवान् चार सेठ आकर विनती कर कहने लगे-"हे साहु हमारे घर चार अति ही रूपवती और गुणवती कन्याएँ हैं, सो हम आपके चिरंजीव जंवृकुमारको देना चाहते है, आशा है कि आप यह तुच्छ भेट स्वीकार कीमियेगा। तय अर्हदास सेठ आगन्तुक सेठोंको आदर सहित बैठाकर अपनी प्रिया जिनमतीके पास ना सव वृत्तांत कहने लगे। सो सुनकर सेठानी अतिहर्षित हो वोली-"स्वामिन् ! यह व्यवहार उचित ही है; अवश्य ही करना चाहिये । इस प्रकार पति-पत्नीने सम्मतिपूर्वक शुभ मुहूर्तमें सगाई (वाग्दान) कर दी और उत्साह मनाया। स्वामी नियमानुसार नित्य राजदरवारमें जाने लगे। एक दिन अंगकीट नाम पर्वतका रहनेवाला गगनगति नाम विद्याधर सभामें आकर कहने लगा-"हे नरपाल ! इसी मगकीट पर्वतपर केरलपुर नाम नगर है । वहाँ राना मृगाक को कि मेरा वहनोई सुखसे राज्य करता है, उसके मंजु नामको एक कन्य है सो एक दिन रानाने मुनिसे पूछा-पुत्रीका वर कौन होगा? तब मुनिवरने कहाकि "राजगृहकिा राजा श्रेणिक होगा। यह सुनकर राजाने वह कन्या आपको देना निश्चय किया किन्तु जब यह खबर Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) राजा रत्नचूलको लगी, तब उसने राजा मृगांकके पास दूत भेजा, कि तुम्हारी कन्या मंजु, जो अपनी कुशल चाहते हो तो मुझे, दो। राजा दूतके वचन सुन चिंतातुर हुआ और क्रोध कर दूतसे कहा कि जाकर अपने स्वामीसे कह दे कि कन्या तो रामा श्रेणिकको दे चुका सो अब दूसरेको नहीं दी जा सकती है। तब इतने पोछे आकर सब हाल राजा रत्नचूलसे कहा। अव रत्नचूलने आकर केर. लपुर घेर लिया है और आपकी मॉग लेनेको दवाव डाल रहा है। नगरमें बहुत ही विघ्न कर रहा है, इसलिये महाराज ! अपने श्वसुरकी सहायताको चलो।" यह बात सुनकर राग श्रेणिक विचारने लगे, क्या करना चाहिये ? जो जाता हूँ तो वह विद्याधर और मै भूमिगोचरी हूँ और मार्ग भी विषम है, किस प्रकार पार पड़ेगी ? और नहीं जाता तो मॉग, जो कि एक गरीवकी भी कोई नहीं ले सकता है, जाती है यह बड़ी लज्जा तथा कायरपनकी बात है । इस प्रकार दुचित्ते हो राजा चिंतातुर हो रहे थे कि वह विद्याधर फिर कहने लगा-“हे राम्न् ! वह रत्नचूल बहुत ही पराक्रमी और बलवान् है, सेना भी बहुत साथ है, सिवाय इसके वह विद्याधर है ! रास्ता अति ही विषम है । भूभिगोचरी वहाँपर जा नहीं सकता है।" यह सुनकर स्वामी जंवूकुमार बोले "अरे मूर्ख ! तू क्या वचन बोल रहा है ? सभाके मध्य रत्नचूलकी प्रशंसा करके राजा श्रेणिकको छोटा बता रहा है। काम पड़े विना हे अनान ! तूने कैसे जान लिया कि राजा श्रोणिककी गम्य नहीं है। चुप रहो, ऐसे वचन फिर समामें न कहना।" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) तब विद्याधर कहने लगा-" हे कुमार ! तुम अभी बालक हो । युद्ध के विषय में नहीं समझते. इसलिये शीघ्रता करना उचित नही है । व्यर्थ खेद मत करो । " यह सुनकर स्वामीने कहा - " अनिका एक कण तो काष्ठके समूहको क्षणभर में ही भस्म कर देता है, सिंहका बालक ही क्षणमात्रमें मदोन्मत्त हाथीका कुंभस्थल विहार डालता है। देखो लगाम और अंकुश तो छोटे २ ही होते है परंतु घोड़े और हाथीको वश कर लेते है । रामचंद्र, लक्ष्मण भूमिगोचरी ही थे, सो रावण प्रतिहरिको जीतकर सीताको ले आये और लंका वन की इससे रे विद्याधर ! छोटी वस्तुको हीन न समझना " । ऐसा विद्याघर से कह रानाके प्रति प्रार्थना की- हे नाथ ! यह कोई कठिन कार्य नहीं है। आज्ञा हो तो मैं जाकर अन्यायीका मद चूर्णकर उस कन्या - को ले ܕܕ आऊ राजाने स्वामीकी बात सुनकर प्रसन्न हो कुँवरको बीड़ा दे दिया और विद्याघरसे कहा-" कुँवरको कुशलपूर्वक ले जाओ । " विद्याधर ने सहर्ष स्वीकार किया ! स्वामीने वहाँसे घर आ अपने माता पिताकी आज्ञा लेकर प्रयाण किया सो थोड़ी ही देर में विद्याधर के साथ विमानद्वारा केरलपुर में पहुँचे और वहाँका सब वृत्तांत पूछनेपर मालूम हुआ कि मृगांक तो किलेमें डरके मारे बैठ रहे है और चहुँ ओर रत्नचुलका दल फैल रहा है । यह हाल सुन स्वामी दूतका भेष घर रत्नचूलकी सेनामें गये और भलीभाँति देखकर ड्योढीपर पहुॅचे। द्वारपालसे कहाराजाको खबर करो कि राजा मृगाकका दूत आया है और आपसे Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) व्याहके सम्बन्धम कुछ कहना चाहता है। बारपालने राजासे जाकर विनय की और शीघ्र ही स्वामीको अन्दर ले गया। स्वामीने अन्दर जाकर रागको नमस्कार नहीं किया और यों ही खड़े हो गये। राजाने यह ढिठाई देखकर कहा- अरे अमान ! तुझे दूत किस मुर्ख बनाया है ? तुझे दृतका व्यवहार तो कुछ भी मालूम नहीं हैं। तूने आकर नियमानुसार नमस्कार क्यों नहीं किया ?" यह वचन सुनकर स्वामीने थोड़ा मोटार कहा-"जो राजा अनीति करता है उसे नमस्कार कैसा ?" राजा बोले-"अरे बालक! तुझे क्या हवा लग गई है भला, कह तो सही मैने क्या अनीति की है ? वालक जानकर मैं तो तुझसे कुछ कहता नहीं हू, परन्तु तू उलटा हनहीको दाप देता है।" तव कुमारने हँसकर कहा कि "आपको अपनी अनीति नहीं दीखती है ? ठीक है-"अपने माथेचा तिलक सीधा है या टेढ़ा, यह विना दर्पण अपनेको दृष्टि नहीं पड़ता।" सुनिये, आपकी यह अनीति है कि "जास मॉग सोही बरे देश देश यह रीति । भोणिक मॉग न तुम चहों, वही तु महा-अनीति॥" इसलिये ऐ विद्याधर-राजन् ! इस खोटी हठको छोड़ निन देशमें जाओ और सुखसे राज्य करो। देखो, पहिले रावण, कीचक वगैरह नो अनीतिवान् परत्रिय लंपटी राजा हुए हैं, वे इस भवमें भी दुःख और अपकीर्ति सह कर नरकादि कुगतिको प्राप्त हुए हैं। इसलिये यह हठ अच्छा नहीं है। यह सुन राना क्रोध कर बोला-"लड़कपन मत कर। अभी तुझे मेरे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) पराक्रमकी खबर नहीं है । बिना विचारे ढीठ हो बातें करता है । आज ही मै मृगाकको बाँधकर उसकी पुत्रीसे पाणिग्रहण करूँगा।" तब स्वामीने उत्तर दिया- " अरे राजन् ! अब भी तुम चेत बाथो । जानकर विष खाना अच्छा नहीं है। देखो, काग भी आकाशमें उड़ता है परंतु चाणके लगते ही प्राण खो बैठता है । इससे वो तुम अपनी कुशल चाहते हो, तो इस दुराशाको छोड़कर श्रेणिक राजाके पाप्त जा अपनी क्षम्म मागो, नहीं तो तुम्हारी भलाई नहीं है । " ऐसी ढीठपने की वातों से रत्नचुसे रहा नहीं गया, और क्रोध कर वोला - " इसने प्रथम तो मेरी विनय नहीं को और फिर सामने निंदा करता है । अभी बाहर ले जाकर इसे मार डालो ।” यह आज्ञा होते ही सुभट रोग कुमारको लेकर बाहर आये । यह देख दर्शकगण हाय हाय करने लगे कि क्या आज यह सुदर बालक मारा जायगा ? परंतु क्या करें ? राम - आज्ञा शिरोधार्य है। ठीक ही है " पलित जानवर भार्या नौकर पॅधुआ सोय । पाराधीन इतने रहें; रंच न सुख इन होय || " नौकरको मालिककी हाँ में हाँ करना पड़ती हैं । स्वामी भले ही अन्याय करे, परतु ने करको तो उसे न्याय ही बताना पड़ता है। नौकरी और नकार से तो वैर ही रहता है । यथार्थमें पापके उदय से ही यह नीचातिनीच कृत्य नौकरी करनी पड़ती है । संसारमें कुछ भी सुख है तो स्वाधीनतामें । सो वह स्वाधीनता संसारियों को कहाँ ? वह तो उन परम पुरुषको ही मवस्सर है कि जो तृणवत् इस Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) संसारको त्यागकर सच्चे स्वाधीन अतीन्द्रिय सुखोंका अनुभव कर रहे है। यथार्थमें वे ही धन्य हैं ! नौकर भी इस प्रकार पराधीनताकी निंदा करते हुए कुमारको ले चले। । जब मृत्यु क्षेत्रमें ले जाकर उन्होंने स्वामीके ऊपर शस्त्र-प्रहार किया, तब स्वामीने वज्रदण्डसे, जो इनके करमें था अपना बचाव कर, उसीसे फिर उन्हें लौटकर मारा । दश वीस सुभट तो यहॉ वहाँ गदको तरह लुढक गये। फिर तो क्या था ! स्वामीने मानों सिहरूप ही धारण कर लिया हो, इस प्रकार लड़ने लगे। इस कारण संपूर्ण सैना स्वामीके ऊपर एकदम टूट पड़ी, सो कितने ही तो कुमारके मुष्टिप्रहारसे ही प्राणत्याग कर गये, कितनेक घायल हुए, कितने ही भागकर पीछे रत्नचूलके पास गये और कहने लगे कि यह रही आपकी नौकरी, जीते बचेंगे तो बहुत कमा खॉयगे, इस प्रकार कोई कुछ और कोई कुछ कहते थे। तात्पर्य कि बातकी बातमें स्वामी ने आठ हमार सैनाको तितर बितर कर दिया। तब राजा रत्नचूल, स्वामीका अतुल पराक्रम और अपनी सेनाको दुर्दशा देखकर स्वयं स्वामीके सन्मुख आया। उधरसे गगनगति विद्याधर जो स्वामीको ले आया था, आ गया और अपना विमान स्वामीको दे दिया तथा और कितने ही दिव्य शस्त्र लाकर दिये। दोनों में धमसान युद्ध होने लगा। एक तरफ तो स्वामी अकेले और दूसरी तरफ सव सैन्यसहित राजा रत्नचूल लड़ने लगे। यह कौतुक राजा मृगांकके दूतोंने, जो गढ़के उपरसे देख रहे थे जाकर सब हाल मृगांकसे कहा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) "हे राजन् ! नहीं मालम एक कौन अतिवलधारी पुरुष, भो देवों से भी न जीता जाय, महारूपवान, तेजस्वी, अल्पवयस्क सुभट कहाँसे आया है, जो राजा रत्नचूलकी आठ हजार सेनाको तहस नहस कर उसके सामने लड़ रहा है । एक ओर तो वह वीर अकेला है, और दूसरी ओर रत्नचूल अपने सम्पूर्ण सैन्यसहित है। क्या गने यह अनीति देख कोई देव ही आया है, या राग श्रेणिकने सहायतार्थ किसीको भेना है" यह समाचार सुनकर राजा मृगांकने भी शीघ्र ही अपने सेन्य सहित युद्ध क्षेत्रको प्रयाण किया और देखते ही आश्चर्यवंत होकर स्वामीसे प्रार्थना की- हे नाथआप तो रत्नचूलका सामना करें और सन्यको में देखता है। यहॉ रत्नचूलने मृगाककी सेना आते देखी, सो विस्मयवान् हो पूछा-"अरे मंत्री ! यह किसकी सेना आरही है ?" मंत्रीने उत्तर दिया-"महारान! यह राजा मृगाक सहाय पाकर सैन्य सहित आ रहा है।" इसझे पश्चात् सेना परस्पर बड़े आवेगसे भिड़ गई और घमसान युद्ध होने लगा। हार्थासे हाथी, घोड़ेसे घोडे, प्यादेसे प्यादे लड़ने लगे, रथोंसे रथ जुटने लगे, वीरोंको जोश बढ़ने लगा और कायरोंके हृदय फटने लगे । इस प्रकार नीतिपूर्वक युद्ध होने लगा। स्वामी भी रत्नचूलके सम्मुख युद्ध करने लगे । सो थोड़ी देरमें रत्नचूलका रथ तोड़ भूमिपर गिरा दिया और ज्यों ही रत्न चूल उठ कर दूसरे स्थपर चढ़नेवाले थे कि स्वामीने आकर जोरसे मुष्टि-प्रहार किया सिसे वह अररर' कर भूमिपर गिर गया। तब कुमारने उसकी छातीपर लात देकर दोनों हाथ वॉधकर Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८ रत्नधूलको खड़ा किया । वस, फिर क्या था ! रत्नचूलको बधा देख उसकी सब सेना इधर उधर भागने लगी। स्वामीन सबको दिलाशा देकर शांत किया और अभयवचन क। जब राजा मृगाकने ये जीतके समाचार सुने, तो उनमानि तुरंत ही आकर स्वामीको नमस्कार कर विनयपूर्वक कहा-“हे नाथ! आपके ही प्रसादसे आज मेरी यह विपत्ति दूर हुई । आन मेर आपके हो प्रतापस शुभ उव्व हुआ। धन्य है आपका साइम और पराक्रम!' इस प्रकार राना स्तुति करने लगे और 'जय जय' ध्वनि चारों तरफ होने लगी। दुंदुभि वाजे बनने लगे। पुष्पवृष्टि होने लगी। यहॉ तो यह खुशी हो रही थी, वहॉ स्वामी कुछ और ही विचार कर रहथे, कि डाय! हाय ! नत्र एक ही जवि मारने का बहुत पाप है, फिर तो मैने आज अगणित जीव मार डाले । वहॉपर विद्याधर इनकी प्रशंसा कर रहे थे। इतनेम गगनगति रत्नचूलकी ओर इंगित करके वोले-" देखो, आम नृगांकने तुमको जीत लिया कि नहीं? यह सुनकर ही रत्नलको कोष आया और बेला " राव मृगांक स्याल सम में गज सम तर अग्र। सिहरूप रवामी भये, जीते सुभट समग्र ।।" तव मृगाक कोप कर कहने लगा-मनमें कुछ रह गई हो तो अब सही, आ जाओ। तब रत्नचूल स्वामीसे प्रार्थना कर कहने लगा-"नाथ ! कृपा कर थोड़ी देरके लिये मुझे छोड़ दीमिये, इसे अभी इसका मजा चखा दृ? यह सुन स्वामीने उसे छोड़ दिया। फिर उन दोनोंमें पुन युद्ध हुमा । अंतमें रत्नचूलने नागपॉस डाल राजा मृगांकको बाँध लिया और घरको लेजाने लगा। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह हाल देखकर स्वामी बोले-"अरे दुष्ट ! तू मेरे देखते हुए इसे कहाँ लिये नाता है ? छोड़ छोड़ और भो अपनी कुशलता चाहे तो मृगाकको नमस्कार कर " यह सुनकर रत्नचूल अपने पूर्व बंधनकी सुध भूल क्रोधित हो स्वामीके सम्मुख युद्धके लिये आया । ठीक है "होनहार मिटती नहीं, लाख करो किन कोय । करी उदय आवे जिसो, तैसी बुद्धी होय ॥" इससे पुन. वोर संग्राम होने लगा। निदान थोडी देरहीमें स्वामीने रत्नचलको फिरसे बॉध लिया, तब पुष्पवृष्टि होने लगी, देवदुमि याने बनने लगे। मृगांककी सेनामें हर्प और रत्नचूलकी सेनामे शोक फैल गया । स्वामीने राजा रत्नबुलको भागती हुई मयमीत सेनाको ढाढम दिया। पश्चात् राग मृनांकने स्वामी सहित हाथीपर आरूढ होकर नगरमें प्रवेश किया। उस समय राजा मृगक स्वामीके ऊपर छन किये और चार बोरते हुए चले जाते थे। मगर अच्छी तरह सजाया गया था और घरोघर आनंदबधाई हुई। इस समयकी शोभाका वर्णन नहीं हो सकता है। नारियोंके समूहके समूह जहाँ तहा मंगल कला लिये खड़े थे। एक तो जीतका हर्ष और दूसरे स्वामीके अपूर्व दर्शनका लाभ, फिर भला खुशीका क्या पार था। लोग अपने अपने भाग्यकी सराहना करते थे-" अहो अन्य भाग्य ' आन हमें ऐसे महान् पुरुषका दर्शन हुआ । अहा धाय है इनको माता! निसने ऐमा तेजस्वी पुत्र पैदा किया और धन्य हैं इनके पिता ! जिनने इन्हें लाड़ प्यारसे पाला। धन्य है वे गुरु ! निनने यह अपूर्व Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) विद्या सिखाई। धन्य है वह भूमि जहाँ ये पग रखते हैं। वे वस्त्राभूषण पवित्र होगये, जिन्हें स्वामीने पहिर लिये वे नदी-नाले धन्य हैं, न्हाँ स्वामो जलक्रीडा करते है । " . इस प्रकार नगरके नर नारी सराहना करते, और आशीर्वाद -देकर स्वामी के ऊपर पुष्पवर्षा करते थे। इस प्रकार स्वामी नगरजनोंको हर्षायमान करते और उनके द्वारा सन्मान पाते तथा सबको यथोचित पुरस्कार देते हुए चले जा रहे थे, मानों देवों के मध्य इन्द्र ही जा रहा है। इनके अनुपम रूपको देखकर नर नारी अत्यन्त विह्वल हो जाती। कोई स्त्री वालकको दूध प्याती थीं सो स्वामीके आनेकी खवर सुन एकदम दौड़ पड़ी, वालक पृथ्वीपर जा पड़ा, उसकी उनको कुछ भी सुध न रही। कितनी अंगन दे रहीं थीं, सो एक ही ऑखमें ऑजने पाई थी, कि सवारीकी आवाज सुनकर अंजनकी डिब्बी हाथमें लिये और एक अगुली में श्याम अनन लगाये यों ही दौड़ आई। कोई पतिको परोश रही थीं सो हाथमें करछी रिये हुए ही दरवाजेसे वाहिर चली आई। कोई वस्त्र बदल रही थी सो आधा वन पहिरे उसे संभालती हुई आगई। कोई घर वुहार रही थीं सो बुहारी लिये ही चली आई। कोई: पानी भरने जा रही थीं सो रास्तेमें ही अटक रही । जो पानी भर रही थी, सो कुएमें घड़ा डाले हुए यों ही खड़ी रह गई। जो पुरुष दूकानों में बैठे हुए रोकड़ गिन रहे थे, सो स्वामीको देख एकदम उठकर खड़े हो गयेसब रोकड़ बिखर गई, पर उन्हें कुछ भी ध्यान नहीं रहा। जो तोल रहे थे सो ऐसे विह्वल हो गये कि आटेके बदले बाट ग्राहकोके Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) पल्लमें डालने लगे और कुछका कुछ तोल देने लगे। तात्पर्य कि उस समय नर नारियोंका कुछ विचित्र हाल था। कोई कहता देव है तो कोई कहता कामदेव है, ऐसी हालत हो रही थी। जब कुमार राजभवन के निकट पहुंचे, तो रत्नलको छोड़दिया और उत्तम वस्त्राभूषण पहिनाकर बोले-"रान् ! मुझे क्षमा करो, मैंने आकर यहाँ आप लोगोंको बहुत दुख दिया।" स्वामीकी यह बात सुनकर रत्नचूल विनय सहित कहने लगा-नाय! आप तो क्षमाघर हैं, कहाँ तक प्रशसा करूँ? मेरा धन्य भाग्य है, जो आप जैसे पुरुषोत्तमके दर्शन मुझ भाग्यहीनको हुए आपके प्रभावसे मै दुराचारसे बच गया। बहुत क्या कहूँ! आप ही मुझे कुगतिमें गिरनेसे रोकनेवाले है। इसलिये नाथ! अब मुझे विशेष लज्जित न कीजिये।" रलचूलके ऐसे दीन बचन सुनकर स्वामीने मिष्ट शब्दोंमें उसे सतोष दिया । राजा मृगांककी रानी स्वामीके आगमनके शुभ समाचार सुनकर म्गल कलश ले सम्मुख आई और राजा मृगांककी पुत्री मंजुल वस्त्राभू णों सहित आकर कुँवरके ऊपरसे निछरावल करने लगी। इस तरह जब स्वामी रनवासमें पधारे, तब रानीने दही अगुरीमें लेकर स्वामीको तिलक किया और गदग्द होकर स्तुति करने लगी- हे नाथ ' मेरा यह सुहाग आन तुम्हींने बचाया हैं । आपहीके प्रतापसे पतिके पुन. दर्शन हुए हैं, आपके जैसा हितैषी हमारा और कोई भीनहीं है। धन्य है आपकी परोपकारता और साहसको कि देश छोड़कर यहॉ पधारे"। इस प्रकार बहुत ही उपकार माना। स्वामीने भी यथायोग्य मिष्ट वचनोसे उत्तर दिया। पश्यात् बटरसयुत विविध प्रकारके भोजन तैयार Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) किये गये, सो स्वामी जीमकर शयनागारमें शयन करने चले गये। इस प्रकार एक दिन राजा मृगांकके यहाँ वे रहे, फिर दूसरे दिन कहने लगे-" मेरी इच्छा है कि अब मै राजगृही जाऊँ" स्वामीके ऐसे वचन किसको अच्छे लगते ? वे सब हाथ जोडकर वेले-“हे नाथ! आप कुछ दिन तो और हम दीनोंके यहाँ ठहरें। अ.पके रहनेसे हम लोगोंको परम शाति मिलती है। पश्चात् आपकी इच्छाप्रमाण जो आज्ञा होगी सो ही करेंगे। हॉ! आज एक दूतके द्वारा सब कुशल समाचार रामगृही भेने देते हैं, ताकि आपके माता पिता और राना प्रजा सवको शाति मिले।" स्वामीने यह बात स्वीकार की । राजा मृगांकने तुरंत सुवुद्ध नाम दूतको वुल कर कहा-'दूत! तुम रामगृती जाओ और वहाँ के राजा श्रेणिक तथा स्वामांके पिता अर्हदास श्रेष्ठी और माता जिनमतीसे यहॉक सब कुशल समाचार कहो और कहना कि दश दिन पछे स्वामी भी पधारेंगे" यह कहकर उनके यग्य स्वशक्ति प्रमाण भेट बनाभूषण आदि भी भेने। रात रत्नचूल यह सुनकर बोले-" हे राजन् ! जैसी आपको सुता, वैसी हो वह अब मेरी भी सुता है सो मेरे और आपके यहाँ जो जो सार वस्तुएँ में सो सब उन्होंकी है। ऐसा दोनों रानाओंने विचार कर बहुतसे विद्याधर सेवकोंको वुलवाया और उनके हाथ बहुतसी संपत्ति देकर विदा किया। वे विद्याधर स्वामीकी आज्ञा पाकर शीघ्र ही वाकी तरह आकाश मार्गसे एक क्षण मात्रमें रामगृही आ .ये, और राना श्रेणिकके सम्मुख नमस्कार कर अल्प भेंट जो लाये थे सो अर्पण करके केवलपुरकी जीत और स्वा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) मोके आगमन के समाचार कह सुनाये। राजा यह सुनकर अतिप्रसन्न हुए और तुरंत ही ये समाचार और वह भेटकी सामग्री श्रेष्ठी अर्हदास के पास भेा । सेठ और सेठानी अति ही प्रसन्न हो उन आगन्तुक विद्याधरोंसे पूछने लगे कि - 'आप लोगोंने हमको कैसे पहिचान लिया ?" " तव नभचर कर जोर कर कही सुनो हम व.त । विश्व-विभूषण तुम रानय; जगत भये विख्यात ||" ठोक ही है - सूर्यके ऊपर चाहे हजारों ही वादल क्यों न आ जायँ तथापि उसे लोप नहीं कर सकते है । हे मातापितामी । आपके पुत्र, कुल नहीं, देश नहीं, परंतु विश्वके भूषण हैं, फिर मला, आपको कौन न पहचानेगा ! जिस दिशा से सूर्यका उदय होता है, उसे ऐसा कौन अजान होगा जो न जाने ? अर्थात् सब ही जानते हैं । 2 यह वार्ता सुनकर सब पुरजन तथा वे चारों सेठ, जिन्होंने स्वामी को अपनी कन्या देना स्वीकार किया था सो बहुत आनन्दित हुए और सब लोग कुमारके आनेकी घड़ी घड़ी गिनने लगे कि कब हम लोग स्वामीका दर्शन करें ? समय तो अरोक चला ही जाता है। केरलपुर में तो दग दिन दग घड़ीके समान निकल गये परंतु राजगृहीमें दश दिन दश वर्षसे भी अधिक प्रत हुए और बड़ी कठिनता से पूरे हुए। सां ठीक है 2 66 जात न जाना जात है; मुखमें सागर काळ | एक पलक भी ना करे; दुःख वियोगमें हाल || दिवस नगर राजगृही; अरु केरलपुर माँहि । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतके जात न जान ही; यहाँ सुवीतत नांहि ॥ वस्तु जगत सब एकसी; कही गुरू बतलाय । राग द्वेष वश लख परे; भली बुरी अधिकाय ।।" इस प्रकार कुछ दिन रहकर एक दिन स्वामीके मनमें संसारके चरित्रसे अत्यन्त उदासीनता हुई, जिससे उन्हें सब वस्तुएँ आडंबर रूप दिखाई देने लगीं। सो वे यह विचार कर कि अब नियत दिन पूरे हो गये, अब शीघ्र ही घर पहुँचकर इच्छित कार्य करूँगाभिनदीक्षा धरूँगा, जानेका विचार कर रहे थे। वहाँ विद्याधर यह विचार कर कि यदि स्वामी कुछ दिन और निवास करें तो अच्छा हो, अनेक प्रकार राग रंग करते थे ताकि दिनोंकी गिनती ही याद न आवे । ठीक है " अपनी अपनी गरजको; इस जगमें नर सोय। कहा कहा करता नहीं; गरज वावरी होय ॥" परन्तु स्वामी कब भूलनेवाले थे ? उनकी त. अवस्था ही और हो रही थी। " स्वामी मन वैराग्य अति नभचर मन बह रंग। अवसर बना विचित्र यहा केर वेरको संग ।।" । उनको तो ये सब रागरंग हलाहल विष और तीक्ष्ण शस्त्रसे भी भयंकर दीख रहे थे सो उन्होंने राजा मृगांकको बुलाकर महा कि आपके कथनानुसार अवधि पूर्ण हो गई, अब हमको विदा कोनिये और रत्नचूलसे कहा कि आप भी अब अपने नगरको पधारें और प्रजाके सुख दुखकी खवर ल तथा मुझपर क्षना करें। ये वचन सुनकर दोनों राजा कहने लगे Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) " आज्ञा सुनत कुमारकी; वोले द्वय खगनाथ । राजगृही तक हम उभय; चाल है तुम्हरे साथ ||" तब स्वामीने कहा- जो चलना है तो अब विलंब न कीजिये शीघ्र ही चलना चाहिये, क्योंकि समय अनमोल है । जाते हुए जाना नहीं जाता और गया हुआ फिर पीछे नहीं मिलता है इसलिये उत्तम पुरुषों को चाहिये कि जो कुछ कार्य करना हो, शीघ्र ही कर लिया करें । स्वामीकी आज्ञाप्रमाण वे दोनों विद्यावर राजा अपने अपने रनवास सहित योग्य भेंट तथा पुत्रीको साथ लेकर आकाश मार्ग से क्षणभर में राजगृही आये । राजा श्रेणिक तथा पुरजन लोग स्वामीका आगमन सुनकर अगवानीको आये और सबने परस्पर भेंट मिलाप किया । परस्पर 'जुहारु' कहके कुशल समाचार पूछे । सबने मिलकर नगरमें प्रवेश किया । अहा "निरखत कुँवर सवहि हर्षाये, मनहु अंब फिर लोचन पाये ।" सबसे पहिले वे राजमहल में आये, तो राजा श्रेणिकने उनको अर्द्ध सिंहासन पर बैठाया तथा और सबको भी ययायोग्य स्थान दे सन्मानित किया, कुशलक्षेम पूँछी, बाद राजा स्वामीकी नम्र वचनोंसे स्तुति करने लगे "हे कुमार ! आपके प्रभादसे हमको अलभ्य वस्तुकी प्राप्ति हुई | धन्य है आपको कि जो कार्य अगम्य था उसे भी आपने सुगम कर दिया । " तब स्वामीने भी शिष्टाचार पूर्वक यथोचित उत्तर दिया और फिर रामासे सब खगराजाओं का, जो आये थे, परिचय कराया। सभी परस्पर 'जुहारु' कहके प्रीति सहित मिले, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) और स्वामीका उपकार मानने लगे कि ओपहीके प्रभावसे हम सब मिले हैं, इत्यादि प्रशंसा योग्य वचन कहें । फिर राना श्रेणिकका व्याह राजा मृगांककी पुत्रीके साथ बहुत ही आनन्दसे हुआ। स्वामी उदासीनरूपसे घर में रहने लगे और अवसर विचारने लगे कि कब वह समय आवे जव कि मैं जिनदीक्षा लेकर इस संसारके झगड़ेको मिटाऊँ। कुछ दिन तक सब लोग रहे और फिर माज्ञा लेकर अपने २ निवासस्थानोको पधार गये । राना श्रेणिक भी निःशंक होकर सुखसे काल व्यतीत करने लगे। इस प्रकार कुछ दिन बीते । एक दिन राना सभामें बैठे थे कि वनपालने वाकर विनती की "हे नाथ ! इस नगरके सभीप एक महामुनिनाथ पधारे हैं, जिससे वनकी शोभा अतिशय हो रही है। सर्प और नौला, मूसा और बिलाव, सिंह और अग आदि जातिविरोधी जीव भो परस्पर मैत्री भावसे निकट बैठे हैं।" यह समाचार सुन रामाने वनपालको वहुत द्रव्य देकर संतोपित किया और मब पुरजन सहित कुमारक. लेकर मुनिकी बंदनाको चले । जव निकट पहुँचे, तव वाहनसे उतरकर पॉव प्यादे सन्मुख जाकर साष्टांग नमस्कार किया । मुनिने 'धर्मवृद्धि' दी और सबको धर्मका स्वरूप समझाया तब स्वामीने गुरुकी स्तुतिकर नमीभूत हो पूछा-" हे नाथ ! मेरे भवातर कहो।" सो वे अवधिज्ञानी मुनि जवूस्वामीके भवांतर कहने लगे। स्वामीको भवातर सुनकर अत्यन्त वैराग्य हुआ। ठेक है Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) 46 पहिलेहिसे जो विरक्त थे, तापर मुन भवसार । फेर धर्म उपदेश सुन, अब को रोकनहार ? || " स्वामी तुरंत ही कहने लगे (( 'हे नाथ ! मैंने इस थोड़े से ही जीवनमें घोर कर्मो का चंच किया है । ययार्थमें यह संसार मरुस्थिल समान असार है और आप कल्पवृक्षके समान सुखदाता है, अनादि काल से मोहनींद में सोये हुए जीवोंको जगानेवाले है, सच्चे करुणासागर हैं। मुझे अपना सेवक बनाइये और दीक्षा देकर पार उतारिये । " स्वामी के ऐसे वचन सुनकर मुनिवर बोले - " वत्स ! अभी तुम्हें दीक्षा देंगे ।" गुरुके ये 66 तुम घर जाओ, पीछे आना, तत्र वचन सुनकर राजा हर्षित हुए और सराहना करने लगेधन्य धन्य गुरु राय तुम, सवदीको मुख दैन । परमविवेकी समय लख, कहे उचित ये वैन ||" और उठकर गुरुको नमस्कार किया, विदा हुए और स्वामीका हाथ पकड़कर साथ ही रथमें बैठाकर नगरको ले चले। यद्यपि स्वामीको नगर में जाना अच्छा नहीं लगता था परंतु गुरु• नोंकी आज्ञा लोपना भी ऊचित नहीं है, ऐसा समझकर नगरकी ओर प्रयाण किया । ठोक है " " चाहे मन भावे नहीं, तहाॅ गुरुजनकी सीख । कबहुं भूल नहिं लोपिय, लोपें मांगे भीख ॥ स्वामीको घर आये देख माता पिता बहुत सुखो हुए, और स्नेहपूर्वक कहने लगे - "पुत्र 1 उठो, महलोंमें पधारो, ये मोगोपभोगकी सामग्रियाँ तैयार हैं सो भोगो, तथा हम लोगोंके नेत्रोंको Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) तृप्त करो। आपको आनंदित देखकर ही हम लोगोंको आनन्द होता है । सो ठीक है"क्रीडा करत वाल लख सोई,मातु पिता मन अतिसुख होई।" तव संसारसे पराडमुख स्वामी अपने माता पिताके इन स्नेहयुक्त वचनोंको सुनकर बोले-“हे पिता ! ये इन्द्रियभोग तो हमने अनादि कालसे भोगे हैं। जब हम इंद्रादिके विभवको भी भोगकर तृप्त नहीं हुए, तब इस क्षुद्र आयुवाले मनुष्य भवमें क्या तृप्त होगे? इसमें तो वह अपूर्व काम करना चाहिये जो कि न तिर्यंच, न नारकी और न देव ही कर सकते है। इन्द्रिय विषय तो चारों ही गतियों में प्राप्त हो सकते है, परंतु अतीन्द्रिय सुखकी प्राप्तिका साधन सिवाय इस मनुष्य पर्यायके अन्य किसी भी पर्यायमें नहीं हो सका है। इसलिये हे पिता ! अब मुझे शीघ्र ही उस अखंड़, अविनाशी, चिरस्थायी, सचा, आत्मिक सुख प्राप्त करनेकी (जिन दीक्षा लेनेकी) आज्ञा दीजिये, क्योंकि प्रथम तो इस कालमें आयु ही बहुत थोड़ी है, और उसमेंसे भी बहुतसा भाग चला गया है और शेष भी पल घड़ी दिन पक्ष ऋतु करके निकलता चला जा रहा है। और गया हुआ समय फिर नहीं आता है इसलिये अब विलम्ब करना उचित नहीं है। आज्ञा दीजिये, मै आज ही दीक्षा लूँगा।" यद्यपि स्वामीके ये वचन अत्यन्त हितरूप थे और स्वामीको तो क्या संसारी जीवोंको संसारके बंधनसे निकालनेवाले थे, परंतु मोहवश ये माता पिताके हृदयमें तीरका काम कर गये । सो ठीक है"लख न परत हित अनाहत कोई, जाके उदय मोह अति होई॥" Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३९ ) वे स्वामीसे कहने लगे - "पुत्र ! ऐसे बचन क्यों कह रहे हो ? जैसे अंबेको लकड़ीका सहारा होता है, वैसे ही हम लोगों को आपका सहारा है । यह बाल्य अवस्था है। अभी आपका शरीर तप करने योग्य नहीं है। कुछ दिन भोग करके पश्चात् योग लीजिये । यद्यपि स्वजन और पुरजन जो लोग इस खबर को सुनकर आये थे, सो सभी नाना प्रकारसे स्वामीको समझाने और विषयोंमें फॅसांनकी चेष्टा करते थे तथापि कुमारके चित्तपर कोई कुछ भी असर नही डाल सकता था । ठीक है " अनुभव के अभ्याससे, रच्यो जो आतम रंग । कहु ताको त्रैलोकमें, कौन कर सके भंग ! " जब अर्हदास सेठने देखा कि स्वामी किसी प्रकार भी नहीं मानते, तब उन्होंने उन चारों सेठोंको, जो अपनी कन्यायें स्वामी को व्याहना चाहते थे, ये समाचार भेजे। उन लोगोंने ये समाचार सुनकर और अत्यन्त व्याकुल होकर अपनी २ पुत्रियोको बुलाकर कहा - 'ए पुत्रियो ! जंबूकुमार तो विरक्त हुए है और आज ही दीक्षा लेना चाहते हैं इसलिये अब जो हुआ सो हुआ, हम लोग तुम्हारे लिये और कोई उत्तम रूपदान् वर सोघ लावेंगे ।" तब वे कम्यायें अपने पिताओं के इस कुत्सित वाक्यको सुनकर बोलीं- पिता ! इस भवमें हमरे पती, होगे जब्रूस्वामि । 66 और सकल नर आप राम, मानो वच अभिराम । " इसलिये अब आप पुनः ये वचन मुॅहसे न बोले । बड़े पुरुषोंकी कुलीन कन्यायें इन शब्दोंको सुन नहीं सकती है । प्राण जाने से भी अत्यन्त दुःखदायक, घृणित, लज्जाननक ये अप Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (80) शब्द, हे पिताजी ! आपको कहना उचित नहीं हैं। क्या कुलवती कन्यायें कभी स्वप्नमें भी ऐसा कर सक्ती हैं कि एक पुरुषके साथ जब उनका सम्बन्ध निश्चित होगया हो और जब उन्होंने उसे अपने मनसे व्याहनेका संकल्प कर लिया हो, तो फिर वे किसी दूसरे से अपने पुनर्विवाह संबन्धकी बात को भी कानसे सुनें ? क्या आपने राजमती आदि सतियोंका चरित्र नहीं सुना है ? इसलिये और कल्पनाको छेड़ दंत्रिये और इसी समय जम्बूस्वामी के पास जाकर उनसे ये वचन ले आइये कि आप आमतो हमारी कन्याओं से व्याह्न करें और कल प्रातःकाल दीक्षा ले लें । इसमें हम लोग अपने २ कर्मकी परीक्षा करेंगी । जो हमारे उदयमें सुख या दुख आनेवाला है उसे कौन रोक सकता है ? बस, अब यही अंतिम उपाय है ! आप जायें, देर न करें । यद्यपि ये सेठ लोग कन्याओं के इस कथन से संतुष्ट नहीं थे, परंतु करें ही क्या ? कुछ वश नहीं रहा। वे निरुतर हो स्वामीके पास आये और आद्योपात सब वृत्तांत कहकर विनती की - ' हे नाथ ! अब हम लोगोंको यही भिक्षा मिलना चाहिये कि आज तो हमारी कन्याओं को व्याहिये और आप प्रभाव दीक्षा लीजिये | स्वामीको यद्यपि क्षण क्षण भारी हो रहा था, तथापि सेठों को अत्यन्त नम्र और दुखित देख स्वामीने ऐसा करना कबूल किया और उसी समय वराव लेकर व्याहको चले । सो उन कन्याओंको व्याह कर शामके पहिले ही विदा कराकर लौट आये । गृहव्यवहार जो थे, सो हुए । जब एक पहर रात्रि बीत गई तब दासीने सेज्या ( बिछौना ) तैयार की और स्वामी भी यथायोग्य स्वननोंसे विदा लेकर पलॅगपर जा लेटे ! Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) चारों स्त्रियाँ भी सलाह कर वहाँ गई और अपनी २ चतुराईसे स्वामीका मन चंचल करने और स्त्रीचरित्र फैलाने लगी। सो चारों से प्रथम ही पन्नाश्रीने अपना जाल फैलाना आरम्भ किया। वह कहने लगी-"ए प्रीतम ! जो आप मेरे कहनेको न मानोगे तो मैं अपनी सखियों में इस तरह कहूँगी कि मेरा पति महामूर्ख है । मेरी तरफ देखता ही नहीं है ! वइ शृगाररसको विलकुल नहीं जानता है, न हास्यरस ही उसमें है। कला चतुराई तो समझता ही नहीं है, और कोकशास्त्रका तोनाम ही उसने नहीं सुना है। नायकामेद तो वैचारा क्या समझे अरी बहनो! उठो, इनके मनहीकी सही । तप कर लो, चलो दल्दीसे, जिसमें स्वर्ग मिल जाय। देखो तो इनकी वादि कहॉ गई है कि सरोवर (इन्द्रिय विषय) का छोड़कर ओसकी बूंद (स्वर्ग) की आशा करते हैं। मला, जो गोदको छोड़कर गर्भकी आस करे, उसके सिवाय और मूर्ख कसा होता है ? तब तीनों बोलीं-"वहिन ! तू कई जसा तब पुनः पद्मश्री कहने लगी-"किसी ग्राममें एक कृषिक काछी रहता था, सो उसके घर एक कमाऊ पुत्र और स्त्री थी । काल पाकर स्त्री मर गई । तब उस काछीने और व्याह किया। जब वह नई काछिन आई, तो पतिसे प्रसन्न न हुई । पतिने कारण पूछा, तो कहा कि-"तुम अपने लड़केको मार डालो तो मैं प्रसन्न होऊँगी क्योंकि नव मेरे उदरसे चालक होगा तव यह उसे दासके समान समझेगा और बहुत दुःख देगा, इत्यादि ।" Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) तब काछीने कहा - "प्यारी ! जो उसे मै मारूँ, तो राजा दंड दे, स्वनन और जातिके पंच मुझे बाहर कर दें, इसलिये यह अधम कार्य मैं कैसे करूं ?" तब स्त्री वोली - " मैं तुमको उपाय बताती हूँ सो करो कि सवेरे आप दो इल लेकर खेतमें जाना और उनमें से एक हल पुत्रको दे कर आगे कर देना और मरखाहा बैल अपने हलमें लगा कर आप पीछे पीछे हल चलाना और आँख बचाकर वैलको ढीला कर देना सो वह जा कर उसे सींग मार देगा । बप्स, पीछेसे आप उसे मारने लगना और चिल्ला देना, कि दौड़ियो २ बलने मेरे लड़केको मार डाला । इस प्रकार कार्य हो जायगा और कोई न जान सकेगा । तब वह कामांध काछी इस बातपर राजी हुआ, परंतु यह सब बात किसी तरह उसके पुत्रने सुन लो । जव सवेरा हुआ तो काळाने लड़केको आज्ञा दी कि हल लेकर खेत जोतने चल । लड़केने वैसा हीं किया । जब वह हल लेकर खेतमें गया तो धानका जो फूला फला हुआ खेत था उसीमें वह हल फेरने लगा । इतने में काछी आया और क्रोष कर कहने लगा- 'अरे मूर्ख ! तूने यह क्या किया कि चार महीने की कमाई खो दी। लड़का बोला- 'पिताजी ! इसमें क्या धान होगा ? अब जोत कर गेहूँ चना बोलेंगे, सो वैशाखमें खाना । " तब काछी बोला- 'बेटा! तू अत्यन्त मूर्ख है । हालका पका हुआ खेत तो मट्टी में मिलाता है और आगेकी आशा करता है । आगे क्या जाने क्या हो ? ' यह सुन बेटा बोला- " 1 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिताजी!ठक है, फिर मुझे मार कर आपको पुत्र होगा या नहीं, या कैसा होगा, इसका आपने क्या भरे सा कर लिया है ?" यह सुन काछी लजित हुआ और दोनों मिलकर घर गये इसलिये स्वानिन् ! प्रसन्न होओ। क्यों हँसी कराते हो? इस प्रकार पद्मश्नो क्व अपनी चतुराई कर चुकी, तब स्वा. मीने कहा-"ए सुन्दरी ! सुनो, महा नदीक वटपर कोई हाथी मरा पड़ा था। उसे बहुतसे कौए नौच र कर खा रहे थे। अचानक लहर आनेसे वह मृतक कलेवर पानीपर वहने लगा सो बहुतसे कौए तो उड़ गये परंतु एक अतिशय लोभी के आ उसे खाता हुआ उसीके साथ वहने लगा। इसी प्रकार यह दश बारह कोश तक निकल गया इतनेमें एक बड़ा मगर निकला और उस कलेवरको निगल गया। तब वह लोभी का उड़ा और चाहा कि कहीं निकल जाऊँ, पर जावे कहाँ ? चारों ओर तो पानी ही पानी भर रहा था। वह बहुत इवर उवर भटका पर कहीं जान सका। निदान लाचार हो उसी नदीके प्रवाहमें गिरकर वह वह गया। सो यदि वह कौआ अधिक लोभ न करके दूसरे के ओंके समान उड़ गया होता तो इस तरह प्राण क्यों खोता ? __" वायस जो तृष्णा करी, वूड़ो सागर मांह। मो बूड़तको कादि है, सो तुम देहु वताय ।।" यह कथा सुन पद्मश्री निरुत्तर हुई । तब कनकधी-दुसरी स्त्री कहने लगो-“हे नाथ ! सुनो, एक पहाड़पर काई बन्दर रहता था सो एक समय अचानक पाँव चूक नानेसे नीचे पत्थरपर गिरकर मर गया और कर्म संयोगसे विद्याघर हुआ। एक दिन उसने मुनिके Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) पास माकर अपने भवांतर पूर्छ । मुनिने उसके पूर्वभवका वृत्तांत कह दिया जिसे सुनकर वह विद्याधर घर गया और स्त्रीसे सब हाल सुनाकर कहने लगा कि में एक बार पहाइपरसे गिरा सो बंदरसे मनुष्य हुआ और अब जो गिरूंगा तो देव होऊंगा। लीने बहुत समझाया, पर वह मूर्ख न समझा और हठ कर पर्वतसे गिर पड़ा। " स्वग हटकर गिरिसे गिरा, बन्दर हुआ निदान । त्यों स्वामी हठ करत हो, आगे दुःख निदान ॥" "हे नाथ ! हठ भली नहीं है, प्रसन्न होओ।" तव स्वामी बोले-"सुनो ! विंध्याचल पर्वतपर एक बन्दर रहता था वह बड़ा कामी था सो अपने सब साथियोंको मारकर अकेला विषयासक्त हो वनमें रहने लगा | गो कुछ सन्तान होती थी, उसे भीवह तुरत ही मार डालता था । एक वार किसी वन्दरीसे एक बन्दर उत्पन्न हो गया और उसकी खवर बूढे चन्दरको न होने पाई। निदान वह बन्दर जवान हुआ और यह कामी वन्दर बूढा हुमा और इसकी इन्द्रियाँ शिथिल हो गई सो किसी समय वे दोनों बन्दर आपसमें लड़ गये । वह वृद्धबन्दर हार कर भागा और प्यास लगनेसे पानी पानेको दल दलमें घुसा सो कीचमें फंसकर वहीं मर गया । सो ए सुन्दरी !"कपि तृष्णा कर भोगकी, पायो दुःख यकस्य । में चहुँ गति जब ड्रवि हों, काढ़न को समरथ ॥" यह कथा सुनकर जब कनकनी निरुत्तर हुई, तब विनयश्री तीसरी स्त्री कहने लगी- "हे स्वामिन् ! सुनिये, किसी प्राममें एक लकड़हारा रहता था जिसने आतिशय परिश्रम करके Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन दिनभर भूखा मरके एक अंगूठी वनवाई और उसे यह सोचकर जमीनमें गाड़ दो कि यह विपत्तिमें काम आयगी । एक दिनकी बात है कि कोई वटोही जिसके पास कुछ द्रव्य था, परदेश जाते समय ऐसे ही विचारसे अपना द्रव्य टसी गलमें गाढ कर चला गया। उसे इस लकड़हारेने देखकर खोदा तो बहुत द्रव्य मिला सो प्रसन्न होकर अपनी अंगूठी भी उसीके साथ गाढ़ दी। उसे गाड़ते हुए किसी और ही बटोहीने देख लिया और वह द्रव्य वहाँसे उखाड़कर ले गया। जब लकड़हारा वहाँ आया तो भूमि खुदी हुई देखी और द्रव्य न पाया, सो हाय हाय करने और पछताने लगा कि वह लक्ष्मी गई सो गई परतु मेरी गॉठकी अंगूठी भो साथ ले गई। सो ठीक है"जो नर वह तृष्णा करे, चौरे परका वित्त । सो खो वेटें आपनो, सायहि परके वित्त ॥" इम प्रकार के स्वामिन् ! "परिपूरण धन होत भी, भोगे दुःख अपार । तिस सम नाथ न कीजिये, करूँ दिनय हितकार।" यह वार्ता सुनकर स्वामी वोले-" सुन्दरी ! सुनो, किसी भयानक वनमें एक वटोही चला जा रहा था, उसे हाथीने देखा अर वह उसके पीछे लगा सो भागते २ एक कुएके किनारे झाड़ देख उसकी नड पकड़ कर कुएमें लटक रहा । उस कुएके नीचे तली में एक अमगर मुँह खोले बैठा था । वालमें चारों ओर चार साँप फग उठाये हुए फुसकारते थे। उसकी जड़को सफेद और Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( ४६ ) काले दो रंग चूहे काट रहे थे । झाड़पर मधुमक्खियोंका छाता लग रहा था सो हाथीने आकर झाड़को हलाया और मक्खियाँ उड़ कर उस टोह के शरीर से चिपट गई। इतने में शहदकी एक बूँद उस बटोहोके मुँहमें पड़ गई, वह उसे बड़े प्रेमसे सब दुःख भूलकर चाटने लगा। इतनेमें एक विद्याधर आया और समझाकर कहने लगा- हे बन्धु ! यदि तू कई तो मैं तुझे इस दुःखकूप से निकाल लूँ | तब बटोही बोला-'मित्र! बात तो भली है, परन्तु एक बूँद और आ जाने दो फिर मैं तुम्हारे साथ चलूँगा' ऐसा कह वह फिर ऊपरको बूँदकी ओर देखने लगा । यहाँ विद्याधर भी अपने मार्ग चला गया । वहाँ चूहोंने जड़ काट डाली, इससे वह बटोही बात की बात में अनगरके मुखमें जा पड़ा। इसलिये ऐ सुन्दरी । । पंथी इन्द्रिय विषय वश, अजगर सुख गयो सोय । मैं जु पहूँ भवकूपमें, तो काढ़ेगा कोय || भव वन, पंथी जीव, गज; काल, सर्प गति जान । कुआ गोत्र, माखी स्वजन, आयू जड़ पहिचान ॥ निगोद अजगर है महा, घोर दुःखकी खान । विषय स्वाद मधु बूँद ज्यों, सेवत जीव अज्ञान || सम्यक् रत्नत्रय सहित, संवर करें निदान | विनयश्री ! इम जानियो, सोई पुरुष प्रधान || " यह कथा सुन विनयश्री निरुत्तर हुई तव चौथी स्त्री रूपश्री कहने लगी- 'स्वामिन् ! आपने हमारी तीनों बहिनोंको ठग लिया । अब मुझे टगो तब आपकी चतुराई है। इस प्रकार गर्वयुक्त हो कहने लगी-'हे नाथ! सुनो एक वार जब बहुत पानी वरसा तो बिल वगेर: में Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) भी पानी भर गया सो एक विलवासी नीव दुःखी होकर निकल भागा । उसे देखकर एक सांप पोछे लगा। जब वह जीव विलमें घुसा, तो साथ ही वह सांप भी घुसा और जाते ही उस जीवको अपना भक्ष्य बनाया, परंतु इतनेसे उस सांपकी तृष्णा न मिटी, तब वह इधर उधर और जानवरोंकी खोज करने लगा कि अचानक वहां एक नौला मिल गया उसने सांपको पकड़ कर उसके टुकड़े टुकड़े कर डाले, सो हे स्वामिन् ! "नाग लोभ अतिशय कियो, खोये अपने प्राण । तातें हट स्वामी तनो, तुम हो दया निधान ॥ तव स्वामी यह वार्ता सुन कहने लगे-"ए सुंदरी ! किसी वनमें एक बहुत भूखा गीदड़ फिरता था। एक दिन वह उस नगरके समीप किसी मरे हुए बैलके सड़े कलेवरको देखकर मक्षण करने लगा । जव खातेर सवेरा होगया और नगर के लोक सब वाहर निकले, तो भी वह लोभी गांदड़ तृप्णावश वहीं बैठा खाता रा। नगरवासियों ने नव उस वहा देखा तो उन्होंने तुरत नाकर उसे पकड़ लिया और किसीने उसकी पूंछ काट ली, किसीने कान काट लिये, किसीने दात उखाड़ लिये और जव इन लोगोंने उसे छोड़ा तो कुत्तोंने उसका पीछा किया और चीयर कर उसे मार डाला । यदि वह गीदड़ अपनी मूखके अनुसार खा करके कहीं भाग गया होता और तृप्णा न करता तो अपने प्राण अवश्य बचा सकता था, सो ऐ सुन्दरी ! "जैसे वह गीदड़ मुबो, तृष्णावश निर्धार । - तैसे मुझ भव जलधिसे, कोन उतारे पार ।। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) इस प्रकार स्वामीको अपनी चार स्त्रियोंको निरुत्तर करते २० सवेरा होगया । सब लोग उठ कर अपने काममें लगने लगे । स्वामी की माताको रात में निद्रा नहीं आई । वे चिंतातुर बैठी थीं, इतने में दरवाजेके निकट एक चोरको खड़ा देखा। माताने पूछा"ऐ भाई ! तू कौन है और किस हेतु यहां आया है ?" तब चोर बोला - " हे माता ! मै चोर हूं और आपके घर से बहुत द्रव्य कई चार चुरा ले गया हूं। मेरा नाम विद्युतचर है। मैं राजपुत्र हू परन्तु बाल्यावस्थासे मुझमें चोरीकी कुटेव पड़ गई है इसलिये देश छोड़कर यहां आया हूं ।" तब माता अपना खजाना दिखाकर वेली - ' हे भाई! ये सब धन सम्पत्ति रत्नराशि है, इसमेंसे जितना चाहे ले जा ।" चोर ने कहा - ' ए माता ! तू क्षणेक घरमें जाती है और क्षणेक आंगन में आती है तथा इसतरह बिलकुल निष्टह होकर द्रव्य के जानेकी आज्ञा देती है सो इसका क्या कारण है ?" तब माताने कहा - "भाई ! अभी प्रातःकाल मेरा पुत्र दीक्षा ले जायगा और उसकी ये चारों स्त्रियां जो समझा रही हैं अभी कल ही व्याह कर आई है । पुत्र आज दीक्षा लेगा तब इस द्रव्यको कौन भोगेगा ? सो तू भला आया । अब इसे तू ले जा, यह भाररूप ही है । मैं इसी चिंतामें बाहर जाती हूं और भीतर आती हू, कहीं भी चैन नहीं पड़ता है ।" 1 चोर बोला- "माता ! मुझे अब धनकी इच्छा नहीं है, आप अपने पुत्रसे मेरी भेंट करा दो। मैं उन्हें वनमें जानेसे Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) विचर रहे है इसलिय जानबूझकर ऐसे भयंकर स्थानमें रहना वुद्धिमानोंको उचित नहीं है । समय पाकर व्यर्थ खो देना उचित नहीं। सच्चे माता पिता व गुरुमन वे ही है, जो अपनी सन्तानको उच्च स्थानपर देखकर खुशी होते है और जो उन्हें फंसाकर कुगतिमें पहुँचाते हैं वे हितू नहीं, उन्हें शत्रु कहना चाहिये । इसलिये हे गुरु जनो! आप लोगोंका कर्तव्य है कि अब मुझे और अधिक इस विषयमें लाचार न करें और न मेरा यह अमूल्य समय व्यर्थ गमा। जब विद्युतचरने ये बचन सुने और देखा कि अब समझाना व्यर्थ है, अर्थत्कुछ सार नहीं निकलेगा,तब अपना परिचय दे कहने लगा "स्वामी ! मै आपसे बहुत झूठ वेला ! मैं हस्तिनापुरके राजा दुरद्वन्दका पुत्र हूँ। बाल्यावस्थासे चोरी सीखा, सो पिताने देशसे निकाल दिया, तब बहुत देशोंमें जागर चोरी के और वेश्याके यहां देता रहा । आज भी चोरीके निमित्त यहां आया था परन्तु यह कौतुक देखकर चोरी करना भूल गया अर अब अतिशय विरक्त हुआ हूँ। बड़े पुरुष जिस मासे चलें, उसी मार्गसे चलना श्रेष्ठ है। अब हे स्वामिन् ! आपसे एक भचन मांगता हूँ सो दीजिये कि मुझ दीनको भी अपना चरणसेवक बना लोन्येि अर्थात् साथ ले चलिये।" तब स्वामीने यह स्वीकार किया और तुरंत ही उठकर खड़े होगये। यह देख सब लोग विलखत वदन हुए, परन्तु चित्राम सरीख रह गये कुछ मुंहसे शब्द नहीं निकलता था । सबके मनमें यही लग रही थी, कि कुवर घरहीमें रहें और दीक्षा न लें। नगर भरमें क्षोभ होगया, सब लोग रामा प्रना दौड़ आये। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (..) यों तो संसारमें और बहुतसे लोग हैं, सो कौन किसे समाने जाता है ? परंतु तुम हमारे घरके लड़के हो सो गुरु जनोंका कहना मानना ही उचित है । देखो, जो बहुत तृष्णा करता है वह अवश्य दुःख पाता है। सुनो, एक कथा कहता हूं कि किसी जंगल में एक ऊट चरनेके लिये गया था सो कुएके निकटके एक वृक्षकी पत्ती तोड तोड़ कर खाने लगा। खाते खाते ज्यों ही पत्ती तोडनेको ऊपरकी ओर मुंह किया कि अचानक आइपरसे मधुके छत्तमेसे मधुकी बूद आकर गिरी, सोमीठा मीठा स्वाद अच्छा लगा, तब और भी इच्छुक होकर ऊपरको देखने लगा और नव बहुत समय तक बूद न बाई, तो मुंह ऊपरको बढ़ाया, पर छचा ऊंचा होनेसे मुह वहां तक न पहुचा । तब ऊपरको उछाक मारी और उछलते ही कुएमें जा गिरा और वहीपर तड़फ तड़फ कर मर गया। इसलिये हे वाल! तृष्णा परभवका तजो, भोगो मुख भरपूर । वर्तमान तन आगवत, देखें सो नर कूर ।। तन धन यौवन सुहद जन, घर मुन्दर वर नार । ऐसा सुख फिर नहिं मिले, वर कोटि उपचार ॥" तब स्वामीने कहा- 'मामा! सुनो, एक कथा करता हूं कि एक सेठ परदेश जारहा था। राहमें प्यास लगो, सो वह आतुर होकर एक वृक्षके नीचे जा बैठा। वहांपर उसे चोरोंने घेरा और उसका सब धन लूट लिया सो प्रथम तो प्यास और फिर धन लुट गया, उसे दुःख दूना हुआ। वह वहां उदास हो पड़रहा और किसी प्रकार निद्रा आ गई सो सो गया। उसने स्वप्नमें एक निर्मल ल का भरा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) गंभीर समुद्र देखा, सो तुरंत पानी पीनेके लिये जीभ चलाने लगा । इतने में नींद खुली तो वहा कुछ भी न देखा तब विह्वल हो इधर उधर भटकने लगा, परन्तु पानी न मिलनेसे और भी दुःखी होगया । सो ऐ मामा ! ये स्वप्न के समान इन्द्रिय मोग हैं, इनमें सुख कहाँ ? इस प्रकार स्वामीने और भी अनेक प्रकार कथा कहकर संसारकी असारता वर्णन की ।" 2 तत्र मामा कहने लगे - 'हे नाथ ! क्यों हम लोगों को दुःखित करते हो ? शात चित्त होकर घर रहो। ऐसा कहकर अपनी पगड़ी उतारकर कुमारके सन्मुख रख दी और मस्तक झुकाकर नम्र हो कहने लगा, - तुमको तुम्हारी माताकी कसम है । अरे ! मेरे आनेकी लाज तो रख लीन्येि । माता पितादि गुरुजनों के वचनानुअर चलना यही कुलीनोंका कर्तव्य है, परन्तु यहां तो वही दशा थो " ज्यों चिकने घट ऊपरे, नीर बूँद न रहाय । त्यो स्वामीका अचल मन, कोई न सकत चलाय ॥" सो जब बहुत समय होगया और सवेरा हुआ, तत्र स्वामीने कहा - हे स्वजन वर्गो ! पत्थरपर कमल, जलमें माखन और बालू में स्वजनवर्गो जैसे तेल पाने की इच्छा करना व्यर्थ है, उसी प्रकार अब वीतरागके रंगे हुए पुरुषको रागी बनाना असंभव है। ये तीन लोकोंकी वस्तुएँ मुझे तृगके समान तुच्छ दिख रही हैं और विषयभोग काले नाग 'समान भयकर मालूम होते हैं। ये रागरूप वचन विषैले तीर के समान लगते हैं। घर कारागारके सदृश है । स्त्री कठिन ही है। संसार बड़ा भारी भयानक वन है। उसमें स्वार्थी जीव सिंह व्याघ्रादिके सदृश Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) विचर रहे हैं इसयि जानबूझकर मकरन्यान रखनाद नानक उचित नहीं है। समय पाना व्यर्थ देना उचित नहीं। सच्चे माता जिव गुलान वे ही हैं. कोकनी सन्तान उन स्थानवर देर बुशी है. हैं और उन्हें विनर कुर्ग टेने पहुंचाते हैं। हिन्दू नहीं, उन्हें त्रुहना चई इगे हे गुरु ज्नो ! कर लोगेका कर्तव्य है कि मुझे और न इस विग्ने लचर नरें और न नेगव्हजन्य स्काव्यर्थ गमा। स्त्र विद्युताने ये वचन ने और देगनिज मन्झना व्यर्थ है, न कुछ सार नहीं निकलेगावसानपरियदे ऋने मा___ वानी ने भारले हुन छल में इन्वनःपुग्ने राल दुहन्दन्ना पुत्र है। कल्यावको गहना ने गिनाने देशले निकाल दिया नत्र हुन जमकर चीक और वेश्यले यहां देता रहा । भान मी चनिने निमित वहां आया श परन्तु यह दुक देखकर चेरी करना नूल गया और लव मंतिमय विरल हुआ है. वह दमिनी , सी नागम जलना श्रेट है। सत्र हे वनन् : अपर मन बन मांगता हूँ मोदनिये कि नुझदेन भी करना चाणसेवक बना केन्दि च्यान् मय ले बलिये." व बानीने यह चार भिया जैतुल हो उठकर खड़े होगय ! यह देख स्व लंग दिलतत ददन हुए, परन्तु चित्रान मत रह गये-कुछ नुहले कद नहीं निकलना था। सबके मनम यही लग रही यो, कि कुवर वाहीम म्हें और दीशनले। नगर नरमें कोम होगया, स्त्र लोग राग प्रना दौड़ जाये। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) नरनारियोंकी अपार भीड़ हो गई, लोग नानातरहके विचारोंकी कल्पना करने लगे। कोई कहते-अहो धन्य है यह कुमार को विषयसे मुंह मोड संसारसे नाता तोड़ जा रहा है। कोई कहतेमाई कुमारका शरीर तो केलेक झाड सरीखा कोमल है और यह मिनेश्वरी दीक्षा खड्गकी धार है, किस प्रकार सहन होगी ? काई माताकी दशा देख कहते थे “एक प्रत जन्मो री माय । घर मूनो कर तपको जाय ॥" इत्यादि मनके अनुसार बोलते थे, परन्तु स्वामीका ध्यान तो बनम मुनिके चरणकमलों में लग रहा था। सब लोग क्या करते और कहते हैं, इस ओर कुछ भी ध्यान नहीं था ! जब स्वामीक प्रयाण करनेका निश्चय ही हो गया तव रानाने ग्लजड़ित पालकी मंगाई और स्वामीको स्नान कराकर केशर चन्दनादि सुगन्धित पदाथोंसे विलेपन किया तथा पाटम्बरादि उत्तमोत्तम वस्त्र और सर्व आभूषण पहिराये । अहा! इस सम्य स्वामीके गरीरकी कांति कैसी अपूर्व थी कि सूर्य मी भरमा जाता था। राजाने स्वामीको पालकीपर चढ़ाकर एक ओर आप स्वयं लगे, दूसरी जोर सेठ लग ग्य। इस प्रकारसे पालकी लेकर वनको चले। आगे आगे बाने वनते हुए जा रहे थे। इसी समय माताने जाकर ये समाचार बहुओंसे कह दिये, सो वे सुनते ही मूर्छित हुई । जव सखियोंने गीतोपचार कर मूर्छा दूर की, तब वे चारों अपनी सुध भूलकर गिरती पडती दौड़ी और स्वामीकी पालकांके चारों पाये चारोंने पकड़कर कहा-. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (98) "सुनो प्रभो ! गुण खान, कीनो बहुत मुलाहजो । अब हम तजें सुप्राण, जो आगेको चाल हो ॥" यह सुनकर और उन स्त्रियोंकी यह दशा देखकर स्वामीने पालकी ठहरा दी और दयालु चित्त हो अमृत वचनों से समझाने लगे - " ए सुन्दरियो ! विचारो ! यह जगत् क्या है और किसके पिता पुत्र है ? किसकी माता और किसकी स्त्री ? यह तो सब अनादि कर्मी संतति है । अनेक जन्मों में अनेकानेक सम्बन्ध हुए हैं, जिनका कुछ भी पारावार नहीं है । मैंने मोहवश इस संसार में अनादिकाल से अनेकवार जन्म मरण किया परन्तु किसीमें बचानेकी सामर्थ्य नहीं हुई । अब यह अच्छा समय है कि जिसमें इन चार गतिकी बेड़ी छूट सकती है। अब विघ्न मत करो । मोहवश अपना और हमारा बिगाड़ मत करो चलो तुम भी गुरुके पास चलकर इस पराधीन पर्यायसे छूटकर स्वाधीन सुख पाने का उपाय पूछो " । + यह सुनकर माता और चारों स्त्रियोंका चित्त फिर गया और पालकी छोड़ दी। वे सब चलते चलते जिस वनमें सुधर्मस्वामो तप कर रहे थे पहुंचे, और बिनय सहित साष्टांग नमस्कार कर बैठे । मुनिनाथने ' धर्मवृद्धि ' दी । तब स्वामीने हाथ जोड़कर प्रार्थना की- " हे नाथ ! इस अगम अथाह अतट ससारसे पार उतारिये । तब गुरु बोले - " हे कुमार ! अब तुम भेषको छोड़ दो । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) यह सुन स्वामीने मुदित मन होकर तुरन्त ही वस्त्रादि आभूषण उतार दिये और अपने कोमल करोंसे केशोंको घासकी तरह उखाड़ डाले, और गुरुके सन्मुख नम्र भूत हो व्रतोंकी याचना को। परम दयालु, कर्म-शत्रुओंसे छुड़ानेवाले गुरुमी कुमारको दीक्षा देकर मुनियोंके आचारका व्यौरा समझाने लगे, सो, सनकर स्वामीकी माता बिनमती और चारों स्त्रियां भी भवभोगसे विरक्त हुई और पांचोंने गुरुके समीप आर्यिकाके व्रत लिये । विद्युतचरने भी उसी समय समस्त परिग्रहका त्याग कर मुनिव्रत लिया और नगरके नरनारियोंने शक्यनुसार मुनिव्रत तथा श्रावकवत लिये । फिर राना तथा अन्यान्य गृहस्थ अपने स्थानको गये। जम्बूस्वामी तपश्चरण करने लगे। मब उपवास पूर्ण हुआ तब गुरुकी आज्ञा लेकर नगरकी ओर भिक्षाके अर्थ पधारे। सो नगरके नरनारी देखनेको उठे। कोई कहते, अरी सखी । यह चही बालक है, नो राजाका पट्टबद्ध हाथी छूटा था सो पकड़ लाया था। कोई कहे, यह वहीं कुमार है, जो रत्नचूलको बांधकर मृगांकको छुड़ाकर उसकी पुत्री श्रेणिक रानाको परणवाई थी। कोई कहे, यह वही कुंवर है जिसने व्याहके दूसरे ही दिन देवा. गना समान चारों स्त्री त्याग कर दी थी। परन्तु स्वामी तो नीची दृष्टि किये जूड़ा प्रमाण भूमि शोधते हुए चले जारहे थे, सो मिनदास सेठने पड़गाह कर नवधा भक्ति सहित आहार दिया। तक स्वामीने 'अक्षयनिधि' कह दिया, सो देवोंने वहां पंचाश्चर्य किये। इसप्रकार वे आहार लेकर वनमें गये और दिनोंदिन उपर तपकरने लगे, सो शुक्लध्यानके प्रभावसे केवलज्ञान प्राप्त हुआ। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) महा ! वह दिन (ज्येष्ठ सुदी ७) कैसा ही उत्तम था कि कंबूस्वामीको केवलज्ञान हुओं, और सुवस्वामीको निर्वाणपद प्राप्त हुआ! धन्य हैं वे जीव जिनको ऐसा अवसर देखनेको मिल ! फिर स्वामीने कईएक दिन विहारकर अनेक भव्य जीवोंको प्रतिबोध किया, और स्वर्ग नरकादि चारों गतियोके दुःख-सुख तथा मुनि श्रावकके व्रत, तत्वका रवरूप, हेय ज्ञेय उपादेय आदिका स्वरूप भले प्रकार समझाया और विहार करते २ मथुरा नगरी आये, सो वहांके उद्यानमें शेष अघात। कर्म नाश कर परमपदको प्राप्त हुए । अईदास सेठ सन्यास मरण कर छठवें स्वर्ग देव हुए । निन· मतो सेठानी भी स्त्री लिंग छेदकर उसी रवर्गमें देव हुए। चारों पद्मनी आदि स्त्रियोंने भो तपके प्रभावसे स्त्री लिंग छेदकर उसी ब्रह्मोचर स्वर्गमें देव पर्याय पाई । विद्युतचर नामके महातपस्व' मुनिराय विहार करते करते मथुराके वनमें आये, सो एक वनदेवी आकर बोली-"हेस्वामिन् ! इस वनमें एक दानव रहता है सो बड़ा दुष्ट रवभावी है, और जो कोई यहां रहता है उसे रात्रिको आकर सपरिवार घर दुख देता है इसलिये हे स्वामिन् । आप रुपाकर यहासे अन्य क्षेत्रमें ध्यान घरें। तब स्वामी विद्युतचर कहने लगे कि जो डरले कायर है, उन मुनिये का सिइवृति गुण, (सिसे तप व्रतकी रक्षा होती है। नष्ट होनाता है और स्यारवृत्तिले वे तपसे भ्रष्ट हो नीच गतिको पाते है। आज तो हमारे प्रतिज्ञा है सो हम यही ध्यान करेंगे, बोहोनहार होगी सो होगी, ऐसा कह योग ध्यान धरा । जब आधी रात वीउ गई, तब - वह दानव आया और घोर उपसर्ग करने लगा | नाना प्रकारके रूप Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) घरधरकर डराने लगा। इस समय स्वामीने घोर उपसर्ग जानकर सन्यास धारण किया । निदान जब वह दानव थक गया और स्वामीको न चला सका, तब अपनो माया संकोचकर स्वामीक पास क्षमा मांगकर चला गया। नव सवेरा हुआ तो नगर नरनारी समाचार सुनकर देखनेको आये और मस्तक झुकाकर स्तुति की परंतु स्वामी तो मेरुके समान अचल ध्यानमें मौन सहित तिष्ठे रहें । इस प्रकार वे विद्युतचर महामुनिराय बारह वर्ष तक तपश्चरण कर अंतमें समाधिमरण कर सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुए। वहांसे चय मनुष्य जन्म ले शिवपुरको जावेंगे । और भी जिन मुनियोंने जैसा २ तप किया उसी प्रकार उत्तम गतिको प्राप्त हुए । सो इस प्रकार वे ब्राह्मणके पुत्र महामिथ्यात्वी जिन धर्मके प्रभावसे माक्ष और सर्वार्थमिद्धिको प्राप्त हुए । देखो, भवदेव ! छोटा भाई बड़े भाईका मान रखने के लिये और वे सेठकी चारों स्त्रियां जो पतिके वावले होजानेसे और पतिके द्वारा नाक कान आदि आंगोपांग छिदनेसे दुखित हो आर्यिका हो गई थीं सो भी इस जिन धर्मके प्रभावसे भवदेव तो सर्वार्थसिद्धि और वे चारों स्त्रियां छठवें स्वर्गम स्त्रीलिंग छेदकर देव हुई। और बड़े भाई भावदेव बूस्वामी होकर मोक्ष गये । देखो, जिन्होंने भय, लज्मा व मानवश भी धर्म अंगी. कार किया था वे भी नरसुरके उत्तम सुख भोगकर सदतिको प्राप्त हुए, तो जो भव्य नीव सच्चे मनसे व्रत पालें और भावना भावे उन्हें क्यों न उत्तम गति प्राप्त हो ? अर्थात् अवश्य ही हो । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) इसलिये हे भव्य जीवो ! स्वपर पहिचान कर इस धर्मको धारो और स्वपर कल्याण करो। इस प्रकार यह पुण्योत्पादक कथा पूर्ण हुई। जो भव्य जीव मन वचन काय कर पढ़ें, सुनें व सुना, उनके अशुभ कर्मोका क्षय हो । ॐ शांतिः! शातिः! ! शांति !!! जम्बूस्वामी चरित जो, पढे सुने मन लाय । मन वांछित सुख भोगके, अनुक्रम शिवपुर जाय ॥ संस्कृतसे भाषा करी, धर्मबुद्धि मिनदास । लमेचू" नाथूराम पुनि, छंदबद्ध की तास । किसनदास सुत मूलचंद, करी प्रेरणा सार । जंबूस्वामी चरितकी, करी वचनिका सार ।। तव तिनके आदेशले, भाषा सरल विचार । लघुमति नाथूगम सुन, दीपचंद परवार ॥ जगत राग अरु द्वेष वश, चहुँ गति भ्रम सदीय । पावे सम्यक रत्न जो, काटे कर्म अतीव ॥ गत संवत् निर्माणको, महावीर जिनराय । एकम श्रावण शुक्ल को, करी पूर्ण होय ॥ अंतिम है इक प्रार्थना, सुनो सुधी नरनार । जो हित चाहो तो करो, स्वाध्याय परचार ॥ समान EिRS Page #60 -------------------------------------------------------------------------- _