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(२८ रत्नधूलको खड़ा किया । वस, फिर क्या था ! रत्नचूलको बधा देख उसकी सब सेना इधर उधर भागने लगी। स्वामीन सबको दिलाशा देकर शांत किया और अभयवचन क।
जब राजा मृगाकने ये जीतके समाचार सुने, तो उनमानि तुरंत ही आकर स्वामीको नमस्कार कर विनयपूर्वक कहा-“हे नाथ! आपके ही प्रसादसे आज मेरी यह विपत्ति दूर हुई । आन मेर आपके हो प्रतापस शुभ उव्व हुआ। धन्य है आपका साइम और पराक्रम!' इस प्रकार राना स्तुति करने लगे और 'जय जय' ध्वनि चारों तरफ होने लगी। दुंदुभि वाजे बनने लगे। पुष्पवृष्टि होने लगी। यहॉ तो यह खुशी हो रही थी, वहॉ स्वामी कुछ और ही विचार कर रहथे, कि डाय! हाय ! नत्र एक ही जवि मारने का बहुत पाप है, फिर तो मैने आज अगणित जीव मार डाले ।
वहॉपर विद्याधर इनकी प्रशंसा कर रहे थे। इतनेम गगनगति रत्नचूलकी ओर इंगित करके वोले-" देखो, आम नृगांकने तुमको जीत लिया कि नहीं? यह सुनकर ही रत्नलको कोष आया और बेला
" राव मृगांक स्याल सम में गज सम तर अग्र।
सिहरूप रवामी भये, जीते सुभट समग्र ।।"
तव मृगाक कोप कर कहने लगा-मनमें कुछ रह गई हो तो अब सही, आ जाओ। तब रत्नचूल स्वामीसे प्रार्थना कर कहने लगा-"नाथ ! कृपा कर थोड़ी देरके लिये मुझे छोड़ दीमिये, इसे अभी इसका मजा चखा दृ? यह सुन स्वामीने उसे छोड़ दिया। फिर उन दोनोंमें पुन युद्ध हुमा । अंतमें रत्नचूलने नागपॉस डाल राजा मृगांकको बाँध लिया और घरको लेजाने लगा।