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बहुत ही निपुण थे, परंतु पिताके अनुसार वे भी मिथ्यात्वसे न बच सके। कुछ समय पीछे वह ब्राह्मण कालवा से अपने किये हुए मिथ्यात्व काँका प्रेरा हुआ दुर्गतिको चला गया और ये दोनों हिजपुत्र उसी प्रकार अपना कालक्षेप करने लगे।
भाग्योदयसे एक दिन महातपस्वी श्रीदिगंवर मुनि नगरक उद्यानमें बिहार करते ए आये। तब द्विरपुत्र और सब नगरलोक मुनिकी वंदनाको गये और वंदना कर श्रीगुरुके मुखमे धर्मोपदेश सुना! सब लोगोंने यथाशाक्त व्रतादिक लिये और वह द्विापुत्र भावदेव भी बड़ा था संसारका स्वरूप मुन कर विषय भोगासे विरक्त हो यह विचारने लगा कि यह समय वीत मानेपर फिर हाथ नहीं आयगा, काल अचानक ही आकर इस लेगा
और फिर मर विचार यहॉके या ही पड़े रह जायेंगे । संसारमै सप स्वार्थ के सगे है। यदि हित कोई संसारमें है तो ये ही श्रीगुल है, जो निष्प्रयोजन भवसागरम दूबते हुए हम लोगोको हस्तावलंबन दे कर पार लगाते हैं। सब वस्तुए भगभंगुर है। जब हमारा शरीर हो नागवान है तो इसके सम्बन्धी पदार्थ अवश्य ही नागवान है। इसलिये अवसर पाकर हाथसे जाने नहीं देना चाहिये ।
ऐसा विचारकर श्रीगुरुके निकट मिनदीला धारण कोई ठोक है-'शठ सुधरहिं सत्संगति पाई, लोह कनक हे पारस पाई महामूढ मिथ्यात्वी भी सत्सगके प्रभावसे चतुर विहान हो जाता है। देखो, वह भावदेव ब्राह्मणका पुत्र जो परम्परासे तीव्र मिथ्यात्वी धा, उसनेभो श्रीगुरुके मुखसे सच्चा कल्याणकारीउपदेश सुनकर वैराग्यको प्राप्त कर निनदीक्षा ले ली। वे भावदेव मुनि अपने गुरु तया संबके