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(१३) पूछकर श्रीमुनि उस आर्यिकासे पूछने लगे कि इस नगरमें दो ब्राह्मणपुत्र रहते थे सो वे दोनों तो जिनदीक्षा लेकर विहार कर गये थे, उनमसे छोटा लड़का जो तुरत व्याहकर लाई हुई नववधूको छोड़ कर चला गया था, सो उस वधूका क्या हाल हुआ ?
यह सुन वह आर्यिका मुनिका चित्त चंचल होता जानकर बोली- हे स्वामिन् ! हे धीरवीर आप अपने चित्तको शात कीजिये। आप धन्य है जो ऐमा उत्तम व्रत लिया। यह कार्य कायर संसारी पुरुषोंसे नहीं बन सकता । इस योग्य आप ही हो। इत्यादि स्तुति कर कहने लगी
'नाथ! वह स्त्री मैं ही हूँ। आपके चले जाने के पीछे मैने इस स्त्री पर्यायको पराधीन जानकर इससे छूटने के लिये यहाँ आर्थिकाके व्रत लिये जौर घरको तुड़वाकर उसका चन्यालय करचाया
और जो कुछ शेप द्रव्य था वह भी इसी चैत्यालयमें लगा दिया गया है । अब हे मुनिनाथ ! आप नि.शंक होफर तपश्चरण करें ।
यह सुनकर मुनि नि शल्य हो वनमें गये और श्रीगुरुको नमस्कार कर सब वृत्तात कहा । तव श्रीगुरुने भवदेव मुनिकी दीक्षा छेदकर फिरसे व्रत दिये । इस प्रकार वे दोनों भाई मुनि उग्र तप करते हुए विपुलाचल पर्वतपर आये और आयुके अन्तमें समा धिमरण कर सानत्कुमार तीसरे स्वर्गमें देव हुए। वहाँ अतुल पदा देख अवधिज्ञानसे अपना पूर्व भवका वृतात चितवन करके विचारा . कि यह सपत्ति निनधर्मके प्रभावसे ही मिली है, ऐसा जानकर चे धर्ममें तत्पर हुए। अनेक देव देवागनाओं सहित अढाई द्वीप संबंधी तथा सर्व अकृत्रिम तथा कृत्रिम चैत्यालयोंकी वंदना की।