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ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।
श्रीजंबुस्वामी - चरित्र |
प्रथम प्रणमि परमेष्ठि गण, प्रणमों शारद प्राथ । गुरु निर्ग्रन्थ नमो सदा, भव भव सुखदाय ॥ धर्म दया हिरदे धरूँ, सब विधि मंगलकार | जंबूस्वामी - चरितकी, करूं वचनिका सोरें ॥
अथ वचनिका प्रारंभ ।
मध्यलोकके असंख्यात द्वीप और समुद्रों के मध्य एक लाख योजने के व्यासवाला थालोके आकार सदृश गोल मंबू नामका द्वीप है | जिसके मध्य में नाभिके सदृश शोभा देनेवाला एक सुदर्शन 1 नामका पर्वत पृथ्वी से ९४००० योजन ऊँचा है और दिलकी बड़ पृथ्वी में १०००१ योजनकी है । इस पर्वतपर चार वन हैभद्रसाल, नंदन, सौमनस और पाहुक । इन चारों वनों में चहुँ ओर चार २ अकृत्रिम - विना बनाये - अनादिनिधन जिनचैत्यालय हैं, जहॉ पर देव, विद्याधर तथा इन्हीं की सहायता पाकर अन्य पुण्यवान् पुरुष दर्शन, पूजन, ध्यान करके अपना आत्मकल्याण करते है ।
अंतके पांडुकवनमें चहुँ दिन चार अर्द्धचन्द्राकार शिलाएँ है, जिनपर इन्द्र श्रीतीर्थंकर देवका जन्म कल्याणके समय विराजमान कर १००८ क्षीरसागरके नीरके कलशोंद्वारा अभिषेक करता है । इस पर्वत की तलहटीमें चारों और चार गजदंत ( हाथोंके दॉतोंके सदृश माकारवाले) पर्वत है, इनपर भी अकृत्रिम चैत्यालय है । १ योजन=४००० मात्र अर्थात् २००० कोन.