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(३१) पल्लमें डालने लगे और कुछका कुछ तोल देने लगे। तात्पर्य कि उस समय नर नारियोंका कुछ विचित्र हाल था। कोई कहता देव है तो कोई कहता कामदेव है, ऐसी हालत हो रही थी।
जब कुमार राजभवन के निकट पहुंचे, तो रत्नलको छोड़दिया और उत्तम वस्त्राभूषण पहिनाकर बोले-"रान् ! मुझे क्षमा करो, मैंने आकर यहाँ आप लोगोंको बहुत दुख दिया।" स्वामीकी यह बात सुनकर रत्नचूल विनय सहित कहने लगा-नाय! आप तो क्षमाघर हैं, कहाँ तक प्रशसा करूँ? मेरा धन्य भाग्य है, जो आप जैसे पुरुषोत्तमके दर्शन मुझ भाग्यहीनको हुए आपके प्रभावसे मै दुराचारसे बच गया। बहुत क्या कहूँ! आप ही मुझे कुगतिमें गिरनेसे रोकनेवाले है। इसलिये नाथ! अब मुझे विशेष लज्जित न कीजिये।" रलचूलके ऐसे दीन बचन सुनकर स्वामीने मिष्ट शब्दोंमें उसे सतोष दिया । राजा मृगांककी रानी स्वामीके आगमनके शुभ समाचार सुनकर म्गल कलश ले सम्मुख आई और राजा मृगांककी पुत्री मंजुल वस्त्राभू णों सहित आकर कुँवरके ऊपरसे निछरावल करने लगी। इस तरह जब स्वामी रनवासमें पधारे, तब रानीने दही अगुरीमें लेकर स्वामीको तिलक किया और गदग्द होकर स्तुति करने लगी- हे नाथ ' मेरा यह सुहाग आन तुम्हींने बचाया हैं । आपहीके प्रतापसे पतिके पुन. दर्शन हुए हैं, आपके जैसा हितैषी हमारा और कोई भीनहीं है। धन्य है आपकी परोपकारता और साहसको कि देश छोड़कर यहॉ पधारे"। इस प्रकार बहुत ही उपकार माना। स्वामीने भी यथायोग्य मिष्ट वचनोसे उत्तर दिया। पश्यात् बटरसयुत विविध प्रकारके भोजन तैयार