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________________ (७) मानस्थमा, जिसके देखनेमात्रमे मानी पुरुषों का मान नाता रहता है, दर्शनकर समवसरणमें प्रवेश किया और तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार कर श्रीजीको पूरा करके मनुष्योंके कोटेंमें जा । और बहुत प्रकारसे स्तुति करके विनती की-" हे नाय! कृपा करके मुझे समारमे पार करनेवाले वर्मा उपदेश दीमिये" तब प्रभुकी दिव्यध्वनि खिरी और तदनुसार गौतमत्वामीने, जो चार ज्ञानके धारी प्रथम गणधर थे, कहा,____ हे राना ! सुनो. इस अनादिनिधन संसारमें यहीय अनादि को वश हुआ वावलेकी तरह चतुर्गतिमें भ्रमण करके नाना प्रकारके जन्म और मरण आदि दुःखीको सहता है। यह जीव मिथ्या भ्रमसे पर वस्तुओंमें आपा मान कर आपको भूल रहा है और अपनी अलख संपत्ति और अविनाशी मुखका अनुभव न कर इन्द्रिय विषयों में आसक्त हो सुखी होना चाहता है, परन्तु जहाँ तृप्णारूपी अनि प्रज्वलित है वहाँ भोग सामग्रीरूप इंधनसे तृप्ति कहाँ ? ज्यों ज्यों यह विषयभोगकी सामग्री मिलती जातो है त्यों त्यों विषय तृष्णाकी इच्छाएँ बहती ही चरी जाती हैं। प्रत्येक जीवको इतनी तृप्णा है कि तीन लोककी सामत्री भी कदाचित् मिल जाय, तो भी इस जीवके माशाली गढेका अलख्यातवॉ भाग भी न भरे परन्तु लोक तो एक, और जीव अनं. तानंत है, और प्रत्येक जीवको इस प्रकारकी तृप्या व इच्छा है सो इनमें मुखकी इच्छा करना, मानो पत्थरपर कमलका लगाना है । तात्पर्य यह-संसार दुःखमयी है, इसमें सुख रंचमात्र भी नहीं है। जिस प्रकार केलाका स्थंभ निसार है, जलको मथनेसे
SR No.009552
Book TitleJambuswami Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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