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उतके जात न जान ही; यहाँ सुवीतत नांहि ॥ वस्तु जगत सब एकसी; कही गुरू बतलाय । राग द्वेष वश लख परे; भली बुरी अधिकाय ।।"
इस प्रकार कुछ दिन रहकर एक दिन स्वामीके मनमें संसारके चरित्रसे अत्यन्त उदासीनता हुई, जिससे उन्हें सब वस्तुएँ आडंबर रूप दिखाई देने लगीं। सो वे यह विचार कर कि अब नियत दिन पूरे हो गये, अब शीघ्र ही घर पहुँचकर इच्छित कार्य करूँगाभिनदीक्षा धरूँगा, जानेका विचार कर रहे थे। वहाँ विद्याधर यह विचार कर कि यदि स्वामी कुछ दिन और निवास करें तो अच्छा हो, अनेक प्रकार राग रंग करते थे ताकि दिनोंकी गिनती ही याद न आवे । ठीक है
" अपनी अपनी गरजको; इस जगमें नर सोय।
कहा कहा करता नहीं; गरज वावरी होय ॥" परन्तु स्वामी कब भूलनेवाले थे ? उनकी त. अवस्था ही और हो रही थी।
" स्वामी मन वैराग्य अति नभचर मन बह रंग।
अवसर बना विचित्र यहा केर वेरको संग ।।" । उनको तो ये सब रागरंग हलाहल विष और तीक्ष्ण शस्त्रसे भी भयंकर दीख रहे थे सो उन्होंने राजा मृगांकको बुलाकर महा कि आपके कथनानुसार अवधि पूर्ण हो गई, अब हमको विदा कोनिये और रत्नचूलसे कहा कि आप भी अब अपने नगरको पधारें और प्रजाके सुख दुखकी खवर ल तथा मुझपर क्षना करें। ये वचन सुनकर दोनों राजा कहने लगे