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(४१) पास माकर अपने भवांतर पूर्छ । मुनिने उसके पूर्वभवका वृत्तांत कह दिया जिसे सुनकर वह विद्याधर घर गया और स्त्रीसे सब हाल सुनाकर कहने लगा कि में एक बार पहाइपरसे गिरा सो बंदरसे मनुष्य हुआ और अब जो गिरूंगा तो देव होऊंगा। लीने बहुत समझाया, पर वह मूर्ख न समझा और हठ कर पर्वतसे गिर पड़ा। " स्वग हटकर गिरिसे गिरा, बन्दर हुआ निदान । त्यों स्वामी हठ करत हो, आगे दुःख निदान ॥" "हे नाथ ! हठ भली नहीं है, प्रसन्न होओ।"
तव स्वामी बोले-"सुनो ! विंध्याचल पर्वतपर एक बन्दर रहता था वह बड़ा कामी था सो अपने सब साथियोंको मारकर अकेला विषयासक्त हो वनमें रहने लगा | गो कुछ सन्तान होती थी, उसे भीवह तुरत ही मार डालता था । एक वार किसी वन्दरीसे एक बन्दर उत्पन्न हो गया और उसकी खवर बूढे चन्दरको न होने पाई। निदान वह बन्दर जवान हुआ और यह कामी वन्दर बूढा हुमा और इसकी इन्द्रियाँ शिथिल हो गई सो किसी समय वे दोनों बन्दर आपसमें लड़ गये । वह वृद्धबन्दर हार कर भागा और प्यास लगनेसे पानी पानेको दल दलमें घुसा सो कीचमें फंसकर वहीं मर गया । सो ए सुन्दरी !"कपि तृष्णा कर भोगकी, पायो दुःख यकस्य । में चहुँ गति जब ड्रवि हों, काढ़न को समरथ ॥"
यह कथा सुनकर जब कनकनी निरुत्तर हुई, तब विनयश्री तीसरी स्त्री कहने लगी- "हे स्वामिन् ! सुनिये, किसी प्राममें एक लकड़हारा रहता था जिसने आतिशय परिश्रम करके