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(१८) तृप्त करो। आपको आनंदित देखकर ही हम लोगोंको आनन्द होता है । सो ठीक है"क्रीडा करत वाल लख सोई,मातु पिता मन अतिसुख होई।"
तव संसारसे पराडमुख स्वामी अपने माता पिताके इन स्नेहयुक्त वचनोंको सुनकर बोले-“हे पिता ! ये इन्द्रियभोग तो हमने अनादि कालसे भोगे हैं। जब हम इंद्रादिके विभवको भी भोगकर तृप्त नहीं हुए, तब इस क्षुद्र आयुवाले मनुष्य भवमें क्या तृप्त होगे? इसमें तो वह अपूर्व काम करना चाहिये जो कि न तिर्यंच, न नारकी और न देव ही कर सकते है। इन्द्रिय विषय तो चारों ही गतियों में प्राप्त हो सकते है, परंतु अतीन्द्रिय सुखकी प्राप्तिका साधन सिवाय इस मनुष्य पर्यायके अन्य किसी भी पर्यायमें नहीं हो सका है। इसलिये हे पिता ! अब मुझे शीघ्र ही उस अखंड़, अविनाशी, चिरस्थायी, सचा, आत्मिक सुख प्राप्त करनेकी (जिन दीक्षा लेनेकी) आज्ञा दीजिये, क्योंकि प्रथम तो इस कालमें आयु ही बहुत थोड़ी है, और उसमेंसे भी बहुतसा भाग चला गया है और शेष भी पल घड़ी दिन पक्ष ऋतु करके निकलता चला जा रहा है। और गया हुआ समय फिर नहीं आता है इसलिये अब विलम्ब करना उचित नहीं है। आज्ञा दीजिये, मै आज ही दीक्षा लूँगा।"
यद्यपि स्वामीके ये वचन अत्यन्त हितरूप थे और स्वामीको तो क्या संसारी जीवोंको संसारके बंधनसे निकालनेवाले थे, परंतु मोहवश ये माता पिताके हृदयमें तीरका काम कर गये । सो ठीक है"लख न परत हित अनाहत कोई, जाके उदय मोह अति होई॥"