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पराक्रमकी खबर नहीं है । बिना विचारे ढीठ हो बातें करता है । आज ही मै मृगाकको बाँधकर उसकी पुत्रीसे पाणिग्रहण करूँगा।" तब स्वामीने उत्तर दिया-
" अरे राजन् ! अब भी तुम चेत बाथो । जानकर विष खाना अच्छा नहीं है। देखो, काग भी आकाशमें उड़ता है परंतु चाणके लगते ही प्राण खो बैठता है । इससे वो तुम अपनी कुशल चाहते हो, तो इस दुराशाको छोड़कर श्रेणिक राजाके पाप्त जा अपनी क्षम्म मागो, नहीं तो तुम्हारी भलाई नहीं है । "
ऐसी ढीठपने की वातों से रत्नचुसे रहा नहीं गया, और क्रोध कर वोला - " इसने प्रथम तो मेरी विनय नहीं को और फिर सामने निंदा करता है । अभी बाहर ले जाकर इसे मार डालो ।”
यह आज्ञा होते ही सुभट रोग कुमारको लेकर बाहर आये । यह देख दर्शकगण हाय हाय करने लगे कि क्या आज यह सुदर बालक मारा जायगा ? परंतु क्या करें ? राम - आज्ञा शिरोधार्य है। ठीक ही है
" पलित जानवर भार्या नौकर पॅधुआ सोय । पाराधीन इतने रहें; रंच न सुख इन होय || " नौकरको मालिककी हाँ में हाँ करना पड़ती हैं । स्वामी भले ही अन्याय करे, परतु ने करको तो उसे न्याय ही बताना पड़ता है। नौकरी और नकार से तो वैर ही रहता है । यथार्थमें पापके उदय से ही यह नीचातिनीच कृत्य नौकरी करनी पड़ती है । संसारमें कुछ भी सुख है तो स्वाधीनतामें । सो वह स्वाधीनता संसारियों को कहाँ ? वह तो उन परम पुरुषको ही मवस्सर है कि जो तृणवत् इस