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तब विद्याधर कहने लगा-" हे कुमार ! तुम अभी बालक हो । युद्ध के विषय में नहीं समझते. इसलिये शीघ्रता करना उचित नही है । व्यर्थ खेद मत करो । "
यह सुनकर स्वामीने कहा - " अनिका एक कण तो काष्ठके समूहको क्षणभर में ही भस्म कर देता है, सिंहका बालक ही क्षणमात्रमें मदोन्मत्त हाथीका कुंभस्थल विहार डालता है। देखो लगाम और अंकुश तो छोटे २ ही होते है परंतु घोड़े और हाथीको वश कर लेते है । रामचंद्र, लक्ष्मण भूमिगोचरी ही थे, सो रावण प्रतिहरिको जीतकर सीताको ले आये और लंका वन की इससे रे विद्याधर ! छोटी वस्तुको हीन न समझना " । ऐसा विद्याघर से कह रानाके प्रति प्रार्थना की- हे नाथ ! यह कोई कठिन कार्य नहीं है। आज्ञा हो तो मैं जाकर अन्यायीका मद चूर्णकर उस कन्या - को ले
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राजाने स्वामीकी बात सुनकर प्रसन्न हो कुँवरको बीड़ा दे दिया और विद्याघरसे कहा-" कुँवरको कुशलपूर्वक ले जाओ । " विद्याधर ने सहर्ष स्वीकार किया ! स्वामीने वहाँसे घर आ अपने माता पिताकी आज्ञा लेकर प्रयाण किया सो थोड़ी ही देर में विद्याधर के साथ विमानद्वारा केरलपुर में पहुँचे और वहाँका सब वृत्तांत पूछनेपर मालूम हुआ कि मृगांक तो किलेमें डरके मारे बैठ रहे है और चहुँ ओर रत्नचुलका दल फैल रहा है ।
यह हाल सुन स्वामी दूतका भेष घर रत्नचूलकी सेनामें गये और भलीभाँति देखकर ड्योढीपर पहुॅचे। द्वारपालसे कहाराजाको खबर करो कि राजा मृगाकका दूत आया है और आपसे