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गंभीर समुद्र देखा, सो तुरंत पानी पीनेके लिये जीभ चलाने लगा । इतने में नींद खुली तो वहा कुछ भी न देखा तब विह्वल हो इधर उधर भटकने लगा, परन्तु पानी न मिलनेसे और भी दुःखी होगया । सो ऐ मामा ! ये स्वप्न के समान इन्द्रिय मोग हैं, इनमें सुख कहाँ ? इस प्रकार स्वामीने और भी अनेक प्रकार कथा कहकर संसारकी असारता वर्णन की ।"
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तत्र मामा कहने लगे - 'हे नाथ ! क्यों हम लोगों को दुःखित करते हो ? शात चित्त होकर घर रहो। ऐसा कहकर अपनी पगड़ी उतारकर कुमारके सन्मुख रख दी और मस्तक झुकाकर नम्र हो कहने लगा, - तुमको तुम्हारी माताकी कसम है । अरे ! मेरे आनेकी लाज तो रख लीन्येि । माता पितादि गुरुजनों के वचनानुअर चलना यही कुलीनोंका कर्तव्य है, परन्तु यहां तो वही दशा थो
" ज्यों चिकने घट ऊपरे, नीर बूँद न रहाय । त्यो स्वामीका अचल मन, कोई न सकत चलाय ॥" सो जब बहुत समय होगया और सवेरा हुआ, तत्र स्वामीने कहा - हे स्वजन वर्गो ! पत्थरपर कमल, जलमें माखन और बालू में
स्वजनवर्गो
जैसे तेल पाने की इच्छा करना व्यर्थ है, उसी प्रकार अब वीतरागके रंगे हुए पुरुषको रागी बनाना असंभव है। ये तीन लोकोंकी वस्तुएँ मुझे तृगके समान तुच्छ दिख रही हैं और विषयभोग काले नाग 'समान भयकर मालूम होते हैं। ये रागरूप वचन विषैले तीर के समान लगते हैं। घर कारागारके सदृश है । स्त्री कठिन ही है। संसार बड़ा भारी भयानक वन है। उसमें स्वार्थी जीव सिंह व्याघ्रादिके सदृश