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(५८) इसलिये हे भव्य जीवो ! स्वपर पहिचान कर इस धर्मको धारो और स्वपर कल्याण करो। इस प्रकार यह पुण्योत्पादक कथा पूर्ण हुई। जो भव्य जीव मन वचन काय कर पढ़ें, सुनें व सुना, उनके अशुभ कर्मोका क्षय हो ।
ॐ शांतिः! शातिः! ! शांति !!! जम्बूस्वामी चरित जो, पढे सुने मन लाय । मन वांछित सुख भोगके, अनुक्रम शिवपुर जाय ॥ संस्कृतसे भाषा करी, धर्मबुद्धि मिनदास । लमेचू" नाथूराम पुनि, छंदबद्ध की तास । किसनदास सुत मूलचंद, करी प्रेरणा सार । जंबूस्वामी चरितकी, करी वचनिका सार ।। तव तिनके आदेशले, भाषा सरल विचार । लघुमति नाथूगम सुन, दीपचंद परवार ॥ जगत राग अरु द्वेष वश, चहुँ गति भ्रम सदीय । पावे सम्यक रत्न जो, काटे कर्म अतीव ॥ गत संवत् निर्माणको, महावीर जिनराय । एकम श्रावण शुक्ल को, करी पूर्ण होय ॥ अंतिम है इक प्रार्थना, सुनो सुधी नरनार । जो हित चाहो तो करो, स्वाध्याय परचार ॥
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