Book Title: Jain Padarth Vigyan me Pudgal
Author(s): Mohanlal Banthia
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल लगा मोहनलाल वाठिया, बी० काम० गरितादी नारोह के लमिन्टन में प्रकाशित Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक श्री जैन श्वेताम्बर तेरापथी महासभा ३, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट कलकत्ता-१ प्रथमावृत्ति . १५०० मई १९६० ई० वि० स० २०१७ मूल्य • एक रुपया पच्चीस नये पैसे मुद्रक मिश्रा एण्ड कम्पनी १२, प्रान्ट लेन, कलकत्ता-१२ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैन तत्त्व-जान माला का यह पहला ग्रथ है । इस पुस्तक में पट द्रव्यो में मे पुद्गल द्रव्य का मुन्दर विवेचन है। इसके लेखक श्री मोहनलान बांठिया, बी० काम, अच्छे विद्वान और परिश्रमी अनुमवित्सु है। पाठको के लिए यह पुस्तक अच्छी जानवर्द्धक मावित होगी। तेगपन्य द्विशताब्दी ममारोह के अभिनन्दन में इन पुस्तक का प्रकाशन महामभा की माहित्य प्रकागन योजना का एक अग्रगामी पादन्याम है। आगा है पाठक इमका अन्छा स्वागत करेंगे। तेग० द्विगताब्दी ममारोह व्यवस्था उप-समिति श्रीचन्द रामपुरिया ३, पोयगीज चर्च स्ट्रीट, व्यवस्थापक कनकत्ता नाहित्य-विभाग २५-५-10 Page #8 --------------------------------------------------------------------------  Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जैन दर्शन में पट् द्रव्य कहे गये है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, काल और जीवास्तिकाय । द्रव्य का अर्थ है 'सत्' वस्तु अर्थात् वह वस्तु जिसमें अवस्थान्तर भले ही हो पर जो मूलत कभी विनाश को प्राप्त नहीं होती। इन द्रव्यो का अस्तित्व तीनो काल में होता है। अस्तित्व का अर्थ है अपने स्वभाव व व्यक्तिगत गुण के साथ हमेशा विद्यमान रहना । लोक इन्ही छ द्रव्यो से निष्पन्न माना जाता है। वह पट् द्रव्यात्मक कहा गया है। लोक की सीमा के बाहर अलोक है। वहां केवल आकाशास्तिकाय है, अन्य द्रव्य नहीं। धर्मास्तिकाय, अवर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय सख्या में एक-एक है। पुद्गलास्तिकाय, काल और जीवास्तिकाय अनन्त है। उपर्युक्त द्रव्यो में प्रथम पांच अजीव है। उनमें चैतन्य नहीं होता। जीवास्तिकाय चैतन्य द्रव्य है। उसमे ज्ञान, दर्शन होता है। पाँच अचैतन्य द्रव्यो में पुद्गलास्तिकाय रुपी है। उसके वर्ण, गध, रस और स्पर्श होते है, अत वह रूपी है-इन्द्रिय-ग्राह्य है। अवशेप अचैतन्य द्रव्य अरुपी है। वे इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं । जीवास्तिकाय भी अरूपी है। पुद्गलास्तिकाय की रचना अन्य द्रव्यो से भिन्न है। पुद्गल का सूक्ष्म से सूक्ष्म टुकडा, जिमका और खण्ड नहीं हो सकता, जो Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल अन्तिम अविभाज्य होता है परमाणु कहलाता है। परमाणुत्रो में परम्पर मिलने और विछुडने का सामार्थ्य होता है। इस गलनमिलन गुण या स्वभाव के कारण परमाणु मिल कर स्कदरुप हो जाते हैं और स्कद मे विछुडकर पुन परमाणु स्प हो जाते है। पुद्गलास्तिकाय के अतिरिक्त चार अस्तिकायो के खण्ड नही क्येि जा सकते। वे ऐमे द्रव्य है जिनकी शरीर-रचना में वधन, नाच, गांठ जैसी कोई वस्तु नही होती। जैसे धूप और छाया में नाथ आदि नहीं होती वैने ही ये निरवन्व द्रव्य है । परमाणु पुद्गल द्रव्य की परम सूक्ष्म, अन्तिम, अखण्ड इकाई है। इस इकाई रूप में परमाणु अन्य द्रव्यो के माप का सावन माना जाता है। एक परमाणु जितने म्यान को रोकता है उसे प्रदेश कहते है। परमाणु मिल कर स्कव रूप धारण करते है। यदि एक पुद्गल का माप निकालना हो तो परमाणु मे मापने पर वह अमख्यात प्रदेनी होगा। इनी तरह अन्य अस्तिकाय भी परमाणु ने मापे जा मक्ते हैं। इन माप से धर्म, अधर्म, आकाश और जीव मग. अनस्यात, अमस्यात और अनन्त प्रदेगी है। ___ उपर्युक्त छ द्रव्यो में काल के मिवा वाकी पाँच के माथ 'अस्तिकाय' मना है। प्रश्न है इन की अस्तिकाय मना क्यो? जो द्रव्य अपने गुणों के माथ त्रिकाल में अवस्थित रहता है और जो बहुप्रदेगी होता है उसे अस्तिकाय कहते है। यह ऊपर बताया जा चुका है कि परमाणु के माप मे किन तरह धर्म, अधर्म, आकाग, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका पुद्गल और जीव द्रव्यो के असत्यात या अनन्त प्रदेश होते है । ___'काल' को अस्तिकाय नहीं कहा गया, उमका कारण यह है कि वह बहुप्रदेशी द्रव्य नहीं है। 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य' इस त्रिपदी की कमौटी पर वह द्रव्य तो ठहर जाता है क्योकि उसका अस्तित्व है और उसमें उत्पाद और व्यय रूप पर्याय या अवस्यान्तर होता है फिर भी वह अस्तिकाय नही। काल की इकाई 'समय' है। 'समय' से सूक्ष्मतम काल और नहीं होता। जिस तरह माला का अगुलियो के बीच में रहा हुअा मनका पूर्व के मनका के साथ श्रावद्ध नहीं होता और न वाद के मनका के साथ आवद्ध होता है उमी तरह वर्तमान समय अतीत और अनागत समय के साथ प्रावद्ध नही होता है। इस तरह काल कभी प्रदेशो का समूह नही हो सकता। वह काय-रहित होता है। इसलिए काल द्रव्य 'अस्तिकाय' नहीं कहलाता। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य ध्प और छाया की तरह लोक में मर्वत्र विस्तृत है। जीव स्वदेह प्रमाण होता है, वह स्वदेह में मर्वत्र फैला होता है। पुद्गल द्रव्य भी लोक में सर्वत्र है पर वह धर्म आदि की तरह विस्तीर्ण द्रव्य नही है। काल का क्षेत्र ढाई द्वीप है। वह मारी दिशायो में वर्तन करता है। जैन दर्शन के अनुसार लोक अनादि अनन्त है और वह इन्ही पट् द्रव्यो से निर्मित है-निप्पन्न है। इन द्रव्यो की संख्या में हानि-वृद्धि नहीं होती। लोक के बाहर केवल अकाशास्तिकाय है, अन्य द्रव्य नही। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल इस लोक में जो जीव है वे प्रसिद्ध कहलाते है। वे अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं होते, विकृत होते है। विकृत का अर्थ यह है कि वे स्वतत्र नहीं होते। चैतन्य होने पर भी जड पुद्गल से बचे हुए होते है। इन जीवो के आत्मप्रदेशो में पुद्गल वैसे ही भरे रहते है जिस तरह कुप्पी में काजल। इसका परिणाम यह होता है कि जीव का शुद्ध सम्पूर्ण चैतन्य प्रस्फुटित नहीं होता और अपनी मलिनता के कारण जीव को ससार-भ्रमण करना पडता है-वार-बार जन्म-मरण करना पड़ता है। जीव तभी शुद्ध चैतन्य रूप में प्रगट होता है जब आत्म-प्रदेशो के साथ वधे हुए कर्म-पुद्गलो से उसका पूर्णत छुटकारा होता है। कर्मपुद्गल से यह मुक्ति ही जैन धर्म में मोक्ष कहा गया है । सासारिक प्राणी पुद्गलो के वधन के कारण उसी प्रकार रागद्वेप के भावो से तरगित होता रहता है जिस तरह समुद्र का जल उसमें ककड फेंकने से तरगित होता है। राग-द्वेप भाव से तरगित आत्मा नये कर्म-पुद्गलो को ग्रहण करती रहती है। और इन तरह ममार बढता जाता है। नया वधन रोक देने पर ससार नही वढता। पुराने वधन को तपादि से दूर कर देने पर आत्मा क्रमश कर्मों से मुक्त होती है। जीव और पुद्गल गतिशील द्रव्य हैं। उनमे गति की क्षमता या सामर्थ्य है। अवशेप द्रव्यो में गति-सामर्थ्य या गति नहीं होती। गतिशील द्रव्य जीव और पुद्गल जव गमन करते है तव स्पिर धर्मास्तिकाय उनकी गति में उदासीन सहायक रूप से Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका राय करती है। गतिमील द्रव्य जीव और पुद्गल जब स्थिर होना चाहते है तो स्थिरता प्राप्त करने में उदासीन सहारक स्थिर अधर्मास्तिकाय होती है। पापाग नव द्रव्यों को स्थान देता है। काल नव द्रव्यों पर वर्तन करता है-टनमें नये पुगने का भाव पैदा करता है। याध्यात्मिक दृष्टि से विचार करें तो गतिगीर पुदगर चचल जीव के प्रदेगी में धर्मास्तिवाल के महारे पहुंचता है । अधर्मास्तिवाय के महारे न्यिा होता है। प्राकागान्तिकाय के सहारे स्थान पाता है। काल के आधार से यिति प्राप्त करता है। यह वधन की प्रक्यिा है। मुक्ति की प्रक्रिया ठीक इसके विपरीत __ इस तरह यह प्रगट है कि मनार-बधन और ममार-मुक्ति की कडी पुद्गल के अस्तित्व के कारण है। पदार्य-विज्ञान की दृष्टि से पुद्गल का अध्ययन करना जिनना महत्वपूर्ण है उतना ही प्राध्यात्मिक दृष्टि ने उसका ज्ञान प्राप्त कग्ना परमावश्यक है। वनानिक दृष्टि में पुद्गल अनन्त शक्ति सम्पन्न है। प्राच्यात्मिक दृष्टि मे उसकी प्रामक्ति पोद्गलिक वधन का कारण है जो परम्परा भव-भ्रमण का कारण होता है। इन छोटी-मी पुस्तक में पुद्गल का जो विवेचन है वह दोनो दृप्टियों में अध्ययन करने में महायक होगा। भौतिकवादी वैज्ञानिक को यह जन-विज्ञान पुरम्मर पुद्गल विषयक गभीर जान देगा और यात्मवादी को नागवान पुद्गल के वास्तविक स्वम्प Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल की जानकारी। पुस्तक छोटी होने पर भी इस दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है और परिश्रमपूर्ण शोध-खोज का परिणाम है। विषय जटिल है पर लेखक की विश्लेषणात्मक पद्धति से वह काफी स्पष्ट हुआ है। श्रीचन्द रामपुरिया १५, नमल लोहिया लेन कलकत्ता २५-५-६० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका १-प्रथम अध्याय पुद्गल की परिभाषा पृ०३-८ १. पुद्गल शब्द को व्युत्पति तया अर्य, पृ०५, २. पुद्गल की परिभाषा और व्याख्या, पृ० ५-६ २-द्वितीत अध्याय पुद्गल के लक्षणो का विश्लेपण पृ०९-४० १ पुद्गल द्रव्य है, पृ०६, २ पुद्गल नित्य तया अवस्थित है, पृ० ११, ३ पुद्गल अजीव है, पृ० १३, ४. पुद्गल अस्ति है, पृ० १३, ५. पुद्गल कायवाला है, पृ० १४, ६ पुद्गल रूपी है तथव मूर्त है, पृ० १५, ७ पुद्गल क्रियावान् है, पृ० १५, ८ पुद्गल गलन मिलनकारी है, पृ० २५, ६ पुद्गल परिणामी है, १० २६, १० पुद्गल अनन्त है, पृ० ३१, ११ पुद्गल लोक प्रमाण है, पृ० ३२, पुद्गल जीव-प्राह है, पृ० ३२, पुद्गल के उदाहरण, पृ० ३७; अन्य द्रव्य और पुद्गल के गुण, पृ० ३८ ३-तृतीय अध्याय . पुद्गल के भेद विभेद, पृ० ४१-५० पुद्गल का एक भेद, पृ० ४२, परमाणु तथा स्कघ, पृ० ४३, दो भेद-सूक्ष्म तथा बाहर, पृ० ४३, दो भेद ग्राह्य तथा अग्राह्या, पृ० ४४, तीन भेद-प्रयोग परिणत, मिश्र Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणत, वित्रता परिणत, पुद्गल के चार भेद-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु, पृ० ४५; पुद्गल के ६ भेद - सूक्ष्म सूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्म बादर, चादर सूक्ष्म, वादर और वादरचादर, पृ० ४६, पुद्गल के २३ भेद, पृ० ४७; पुद्गल के ५३० भेद, पृ० ४७, जाति अपेक्षा से श्रनन्त भेद, पृ० ४८, भाव गुणाश से अनन्त भेद, पृ० ४६, पर्याय अपेक्षा से अनन्त भेद, पृ० ५० ४ - चतुर्थ अध्याय परमाणु पुद्गल पृ० ५१-५८ कारण अणु और अनन्त अणु, पृ० ५२, परमाणु पुद्गल के गुण, पृ० ५४, पुद्गल परिभाषा की कसौटी पर, पू० ૫૬ ५ - पंचम अध्याय विभिन्न अपेक्षाओ से परमाणु पुद्गल, पृ० ५६-५८ नाम अपेक्षा, पृ० ५६, द्रव्य अपेक्षा, पृ० ५६, क्षेत्र अपेक्षा, पु० ५६, काल-प्रपेक्षा, पृ० ५६, भाव-अपेक्षा, १० ५६, नित्यानित्य- अपेक्षा, पू० ५६, श्रवस्थित अपेक्षा, पृ० ६०, श्रस्ति अपेक्षा, पृ० ६०, रूप अपेक्षा, पृ० ६०, प्राकार अपेक्षा, पृ० ६०, परिणाम अपेक्षा, पू० ६१; अगुरु-लघु अपेक्षा, पृ० ६१, शाश्वताशाश्वत अपेक्षा, पृ० - ६२, चरमाचरम- अपेक्षा, पृ० ६२, जीव-प्रपेक्षा, पृ० ६२, तचित्त चित्त अपेक्षा, पृ० ६२, श्रात्मा-अपेक्षा, ६३, प्रदेश अपेक्षा, पृ० ६३ क्षेत्र प्रदेश- अपेक्षा, पृ० ६३, क्षेत्र Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवस्यान में संगो, पृ० १४, जेयत्व अपेक्षा, पृ०६४, वर्णअपेक्षा, पृ० ६४, रस-प्रपेक्षा, पृ० ६५, गन्ध-अपेक्षा, १० ६५, स्पर्श-अपेक्षा, पृ० ६६ जाति-अपेक्षा, पृ० ६६ स्पता-अपेक्षा, पृ० ६७, द्रव्य-स्परांता-अपेक्षा, पृ० ६८, त्रिया तया गति अपेक्षा, पृ० ६६, प्रतिघाती प्रप्रघाती अपेक्षा, पृ०७४, पूर्ण स्वतनता और प्रप्रतिघातित्व, पृ० ७५, प्रनिघाती का विवेचन, पृ० ७६ ६-पप्टम अध्याय परिभाषा के नत्र, पृ०७६-८० Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ - विज्ञान में पुद्गल Page #20 --------------------------------------------------------------------------  Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय पुद्गल की परिभाषा "ममार क्या है तथा इसमें क्या है?" इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का विवेचन मसार के प्राय सभी महान् विचारको ने किया है। जैन-तीर्थंकरो ने इम विषय में जो विचारणा या परिकल्पना की है, वह एतद्विपयक मभी विचारणाओ या परिकल्पनामो से निराली है। जैन-आगमो में इम विपय पर विशद् विवेचन किया गया है। इस तरह का विपद एव सूक्ष्म विवेचन किमी अन्य धर्म, दर्शन या विचारक ने नही किया है। जैन मनीपियो ने प्रश्नोत्तर के रूप में, इस प्रश्न से सम्बन्वित तथा उसमे उत्पन्न होनेवाले अधिकाश पहलुओ तथा आशकायो को सुलझाया है। जैन-मिद्धान्त के अनमार लोक-मसार पट् द्रव्यात्मक है। उसके अनुसार इस मसार में आकाश, धर्म, अधर्म, पुद्गल, जीव और काल-ये छ द्रव्य है। कोई अन्य द्रव्य या वस्तु नही। इस ससार का माप सर्व दिशा में अनन्तानन्त है तथा इस अनन्तानन्त ससार में सम्पूर्ण भाव से सर्वत्र व्याप्त केवल श्राकाग द्रव्य ही है। १-गोयमा ६ दन्वा पण्णता, तजहा-धम्मत्यिकाए, अधम्मत्यिकाए, पागासत्यिकाए, पुग्गलत्यिकाए, जीवत्यिकाए, अद्धासमये य। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल वह सम्पूर्ण ससार में मर्वत्र अवगाढ है-फैला हुआ है। आकाश द्रव्य का क्षेत्र सर्वव्यापी है अर्थात् ससार आकाशमय है। इस अनन्तानन्त आकाशमय समार के मध्य भाग में वाकी पाँच द्रव्य भरे हुए है। ससार के जिस मध्यवर्ती भाग में ये छ द्रव्य है, उस भाग को लोक तथा शेप भाग को, जिसमें केवल आकाश-द्रव्य है, 'अलोक" कहते है। सम्पूर्ण मसार गोलाकार है। अलोक मध्य में पोले गोले की तरह है। आधुनिक विज्ञान ने जैन-विज्ञान कथित इन छ द्रव्यो में से चार-पाकाश, पुद्गल, जीव तथा काल को स्वीकार किया है। उसने धर्म तथा अधर्म के सम्बन्ध में कोई निश्चयात्मक निर्णय नही किया है तथा उपर्युक्त चार स्वीकृत द्रव्यो के सिवाय अन्य किसी द्रव्य १-किमिय भते ! लोएति पवुच्चइ ? पचत्थिकाया, एसण एवतिए लोएति पव्वुच्चइ-तजहा-धम्मत्यिकाए अधम्मत्यिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए। --भगवतीसूत्र १३ ४ १३ २-अनन्तानताकाशवव्यस्य मध्यतिनि (लोक) आकाश पूर्वोक्त पञ्चानाम् (द्रव्यानाम्) समुदायस्तदाधारभूत लोकाकाश चेति षड्द्रव्यसमूहो लोको भवति ।। --प्रवचनसार अ० २ गा० ३६ को तात्पर्यवृत्ति ३-स्वलक्षण हि लोकस्य षडद्रव्यसमवायात्मकत्व, अलोकस्य केवल आकाशात्मकत्वम् । --प्रवचनसार अ० २ गा० ३६ की प्रदीपिकावृत्ति ४-गोयमा। अलोए-झुसिर गोलसठिए पण्णते। -भगवतीसूत्र ११ १० १० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय पुद्गल की परिभाषा ५ के होने का प्ररुपण या निस्पण नही किया है। इन छ द्रव्यों में से हम यहाँ केवल 'पुद्गल' द्रव्य का अध्ययन करेगे, प्रथमत जैनसिद्धान्त के अनुसार, फिर तुलनात्मक नया समालोचनात्मक दृष्टि से । __•१ "पुद्गल" शब्द की व्युत्पत्ति तथा अर्थ "पुद्गल" शब्द जैन-धर्म का पारिभापिक शब्द है। यह शब्द बौद्ध-साहित्य में भी व्यवहृत हुआ है लेकिन सर्वथा भिन्नार्थ में। जैन-धर्म का "पुद्गल" आधुनिक विज्ञान के "जड पदार्थ" (matter) शब्द का ममवाची है। ___ “पूरणगलनान्वर्थमनत्वात् पुद्गला'". पूर्ण होना अर्थात् मिलना, बद्ध होना, गलना अर्थात् पृथक् होना--विछुढना। जो मिले नथा जदा हो वह पुद्गल । विष्णु-पुगण में भी कहा है "पूरणात् गलनात् इति पुद्गला परमाणव"-पुद्गल परमाणु मिलते है तथा विलग होते है। मघवद्ध होना-स्कन्धम्प होना, बिछुडना-पृथक् होना-यह पुद्गल द्रव्य का स्वभाव या प्रकृति है। पुद्गल द्रव्य का यह नामकरण उसके इन्ही गुण के कारण हुआ है। २ पुद्गल की परिभाषा और व्याख्या किमी वस्तु के जिस यथातथ्य वर्णन मे उस वस्तु का मम्यक, निवत, अमन्दिग्ध निश्चय किया जा सके वह यथार्थ वर्णन उम १-जीव, पात्मन प्रादि अर्थ में। २-सनातन जैनग्रन्यमाला का "तत्त्वार्य राजवात्तिकम" पृ १६० ३-न्यायकोष पृ० ५०२ Page #24 --------------------------------------------------------------------------  Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय पुद्गल की परिभाषा पुद्गल क्या है ? १-द्रव्य है', नित्य तथा अवस्थित द्रव्य है। २-अजीव है। :-अस्ति है। पुद्गल कमा है ४-कायवाला है,'। ५-स्पी है तथव मर्त है। ६-क्रियावान् है। ७-गलन-मिलनकारी है। ८-परिणामी है। १-अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गला। द्रव्याणि जीवाश्च । -तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ सूत्र १, २ २-नित्यावस्थितान्यरूपाणि च। रूपिण पुद्गला । तत्त्वार्यसूत्र प्र० ५ सूत्र ३, ४ ३-पच अस्थिकाया पण्णता-तजहा- Y x पोग्गलत्यिकाए। -भगवतीसूत्र श० २ उ० १० ४-(क) रुपिण पुद्गला ।-तत्त्वार्यसूत्र ० ५ सूत्र ४ (ख) पुग्गल मुत्तो रुवादिगुणो । वृहद् द्रव्य संग्रह गाथा १५ का अश। ५-पुद्गलजीवास्तु क्यिावन्त-तत्त्वार्यसूत्र अ०५ सूत्र का भाप्य। ६-पूरणाद्गलनाच्च पुद्गला ।-तत्त्वार्यसूत्र अ० ५ सूत्र १ पर सिद्धिसेनगणि टीका। ७-परिणामपरिणामिनो जीवपुद्गलौ स्वभावविभावपर्यायाभ्या कृत्वा, शेषचत्वारि द्रव्याणि विभावव्यजनपर्यायाभावान्मुख्यवृत्त्या पुनरपरिणामीनीति । बृहद् द्रव्य सग्रह पृ० ६७ रायचन्द जैन ग्रन्यमाला Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गल कितना है? पुद्गल कहाँ है ? पुद्गल में परद्रव्य सम्बन्धी क्या गुण है ? जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल - अनन्त है' । १० - लोकप्रमाण है । ११ - ग्रहणगुणी है । जीव-ग्राह्य है । जीव का सुख-दुख जीविन-मरण, उपकारी है । शरीर-वाक्-मन-प्राणापण इन भेदवाद्विविध उपकारो को करता है । चार-चार १- दव्वण पोग्गलत्थिकाए प्रणताइ दव्वाह । -भगवतीसूत्र श० २ उ० १० २- खेत्तो लोएप्पमाणमेत्ते । ३ -सकषायत्वाज्जीव कर्मणो ४- शरीरवाडमन प्राणापाना जीवितमरणोपग्रहाश्च । - भगवतीसूत्र श० २ उ० १० योग्यान पुद्गलानादत्ते । - तत्त्वार्थसूत्र श्र० ८ सू० २ पुद्गलानाम्, सुखदुख --तत्त्वार्थ सूत्र श्र० ५ सू० १६ Pard Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय पुद्गल के लक्षणों का विश्लेषण पुद्गल की सामान्य परिभाषा करते हुए उसके सम्बन्ध में जिन ११ वातो का उल्लेख किया गया है उनकी विस्तृत व्याख्या इस प्रकार है १ पुद्गल द्रव्य है . द्रव्य किसे कहते है? जिसके गुण और पर्याय हो उसे द्रव्य कहते हैं। द्रव्य में गुण और पर्याय दोनो का होना आवश्यक है। जो द्रव्य में रहते है, स्वय निर्गुण है, वे ही गुण कहलाते है। शक्ति विशेषो का ही नाम गुण है। लक्षणो को भी गुण कहते है। जिससे वस्तु की पहचान हो वह गुण है। ऐसा कोई द्रव्य नही जिसमें किसी तरह का गुण नहीं हो। गुण ध्रुव होता है। द्रव्य के गुण भदा द्रव्य में रहते है, मदा युगपद--स्थायीभाव से रहते है। द्रव्यो का स्वरूप गुणो में जाना जाता है। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से विभेद उनके कतिपय गणो की १-गुणपर्यायवद्व्य म् । -तत्त्वार्थसूत्र अ० ५ सूत्र ३७ २-द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा । --तत्त्वार्यसूत्र प्र० ५ सूत्र ४० Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ - विज्ञान में पुद्गल विभिन्नता से जाना जाता है । 'गुण' शब्द आधुनिक विज्ञान के 'Properties' शब्द का समवाची है । सज्ञान्तर तथा भावान्तर को पर्याय कहते है ' । गुण अविनाशी और सदा सहभावी है तथा पर्याय क्रमभावी है'। श्रत गुण ध्रुव होता है, और पर्याय उत्पादव्यय होता है । इसीसे द्रव्य को उत्पादव्यय धौवयुक्त कहा जाता है' । वास्तव में गुण और पर्याय एक ही है । गुण का विश्लेपण ही पर्याय है । गुण का क्रमविकास भाव ही पर्याय है । क्रमविकासभाव का पारिभाषिक नाम "परिणमन" है । प्रत्येक द्रव्य में कतिपय गुण क्रमभावी या परिणामी होते हैं और इम परिणमन शक्ति से द्रव्य की — उस गुण अपेक्षित-मजा या भाव में जो अन्तर या परिवर्तन होता है, उसे पर्याय कहते है । उदाहरण – सोने का ढला तथा चूडी । मोने का पीत आदि सहभावी गुण सोने के ढेले तथा सोने की चूडी दोनो में है। आकार ( सस्थान ) ग्रहण करने का सोने का जो क्रमभावी या परिणामी गुण है उससे सोना कभी ढेला, कभी चूडी का आकार ग्रहण कर सकता है। यह आकार परिवर्तन परिणमन है तथा ग्राकार-पर्याय है। ढेले का आकार १० १- भावान्तर सज्ञान्तर च पर्याय । - तत्त्वार्थसूत्र श्र० ५ सूत्र ३७ का भाष्य । २ - अनन्तस्त्रिकालविषयत्वाद् अपरिमिता ये धर्मा सहभाविन क्रमभाविनश्च पर्याया । - स्याद्वादमजरी श्लोक २२ की व्याख्या | ३ - उत्पादव्ययधीव्ययुक्त सत् । - तत्त्वार्यसूत्र श्र० ५ सूत्र २६ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय पुद्गल के लक्षणों का विश्लेषण ११ पर्याय व्यर होकर चूडी का आकार-पर्याय-उत्पन्न होता है । इनीमे पर्याय को उत्पादन-यय-भावी कहा जाता है । ढेले से चूडी होकर भी सुवर्णत्व ध्रुव रहता है। अपने स्वभाव को बिना छोडे, उत्पादव्यय-धोधमाहित, गुणात्मक, पर्यायमहित जो है उसे द्रव्य क्ने है। २ पुद्गल नित्य तथा अवस्थित है नित्य तथा अवस्थित यह दोनो गुण नभी द्रव्यों में युगपद् स्थायी भाव में रहते हैं। जिसके स्वभाव का व्यय नहीं हो तथा जो सर्वथा विनष्ट नही हो, वह नित्य है । जो मल्या में कमते या बढ़ने नहीं है, जो अनादि निधन है, जो सदा स्वम्वरूप में रहते हैं नया जो न दूसरे को अपने स्प में परिणमाते है । वे अवस्थित है। १-अपरित्यक्तस्वभावेनोत्पादव्ययध्रुवत्वसयुक्तम् । गुणवच्च सपर्याप यत्तद्रव्यमिति ध्रुवति ।। --प्रवचनसार अ० २ गाथा ३ २-तद्भावाच्ययं नित्यम् । तत्त्वार्यसूत्र अ० ५ सूत्र ३० ३-अवस्थित ग्रहणादन्यूनाधिकत्वमाविर्भाव्यते, अनादिनिधनेयत्ताभ्यां न स्वतत्व व्यभिचरन्ति । -तत्वार्यसूत्र अ०५ सूत्र ३ सिद्धिसेन गणि टीका Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जना जैन पदार्थ-विज्ञान में पुदगल पुद्गल अनन्त अतीत में लगातार था, वर्तमान काल में लगातार है, तथा अनन्त भविष्यत्काल में लगातार रहेगा। पुद्गल (गुण पर्यायवाला) नित्य तया अवस्थित द्रव्य है। अत यह कभी सर्वथा नष्ट नहीं होगा तथा कभी अन्य द्रव्य में परिणत नहीं होगा। पुद्गल पुद्गल ही रहेगा। अनन्त अतीतकाल में जितने पुद्गल द्रव्य ये, वर्तमान काल (नमय) मे उतने ही है तथा अनन्त पानेवाले काल में उतने ही रहेंगे। न कभी कोई पुद्गल-द्रव्य विलुप्त हुआ, न वर्तमान समय में विलुप्त हो रहा है तथा न कभी अनागत काल में विलुप्त होगा। अनन्त अतीत में न कोई नवीन पुद्गल द्रव्य वना था, न वर्तमान समय में कोई नवीन पुद्गल द्रव्य बनता है तथा न अनन्न भविष्यकाल में कोई नवीन द्रव्य बनेगा। द्रव्यार्थिक नय से पुद्गल मदा नित्य तथा अवस्थित है। १-पोग्गले अतीतमणत, सासय समय भुवीति वत्तव्व सिया। पोग्गले पड़प्पण्ण, सासय समय भवीति वत्तव सिया। पोग्गले प्रणागयमणत, सासय समय भविस्सतीति वत्तव सिया। --भगवतीसूत्र शतक १ उद्देशक ४ २-न जातु चिदनादिकालप्रसिद्धिवशोपनीता मर्यादामतिकामति, स्वलक्षणव्यतिकरो हि निर्भेदताहेतु पदार्थनाम्, प्रत स्वगुणमपहाय नान्यदीयगुणसम्परिग्रहमेतान्यातिष्ठन्ते, तस्मादवस्थितानीति। - लत्त्वार्थसूत्र अ० ५ सू० ३ के भाष्य पर सिद्धिसेन गणि टीका Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय पुदगल के लक्षणो का विश्लेषण १३ ३ पुद्गल अजीव है : जिसमें जीवत्व का अभाव हो वह अजीव है। पुद्गल जीव से सर्वथा विरुद्ध जड है, चैतन्यविहीन है, एव उपयोगरहित है। जीव का लक्षण उपयोग कहा गया है। अत पुद्गल उपयोग लक्षण रहित होने के कारण जीव नही है। पुद्गल जीव नहीं, अजीव ४ पुद्गल अस्ति है सत् है। मरीचिका या माया नही है। कालव्यतिरेक पुद्गलसह पांच द्रव्यो का "अस्तित्व" ही मृल गुण हैं। अस्तित्व, विभाव-गुण नही, स्वभाव-गुण हैं। यह (यानी द्रव्य का अस्तित्व) गुण पर्याय सहित है तथा उत्पादव्ययध्रुवत्व १-उपयोगो लक्षणम् । तत्त्वार्थसूत्र अ० २ सूत्र ८ २--जीवादन्योज्जीव Xx सतएव वस्तुनोऽभिमत , विधिप्रधानत्वात्, अतस्तुत्यास्तित्वेव, भावेषु चैतन्यनिषेधद्वारेण धर्मादिप्वजीवा इत्यनुशासनम् । ३-जीवो न भवतीत्यजीव । ४-इह विविध लक्षणाना लक्षणमेक सदिति सर्वगत । --प्रवचनसार अ० २ गाथा ५ पूर्वाद्ध छाया। ५-अस्तित्व हि किल द्रव्यस्य स्वभाव ।-प्रवचनसार अ० २ गा० ४ को प्रदीपिकावृति। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल मयुक्त है। पुद्गल अवास्तव नही है। कल्पना मात्र नहीं है। उपचार से अवतिष्ठित नही है। विद्यमान है। त्रिकालवर्ती अस्ति है। ५ पुद्गल कायवाला है काल को छोडकर, वाकी पांच द्रव्य "अस्तिकाय" कहलाते है'। चीयते इतिकाय । 'काय' शब्द से शरीर अवयवी ग्रहण होता है। काय से प्रदेश का प्राशय भी लिया जाता है। जिसमे शरीर की तरह बहुत से अवयव या प्रदेश पाये जायें, वह कायवाला कहा जाता है। स्कन्ध पुद्गल के एकाधिक अनन्त यावत् अवयवी प्रदेश होते हैं। अत पुद्गल कायवाला है। पुद्गल परमाणु एक प्रदेशी है, लेकिन परमाणु मिलकर बहुप्रदेशी स्कन्ध होता १-सद्भावो हि स्वभावो गुण सह पर्ययश्चित्र । द्रव्यस्य सर्वकालमुत्पादव्ययध्रुवत्व । --प्रवचनसार अ २ गा ४ की छाया। २-अस्ति इत्यय निपात कालत्रयाभिधायी। -भगवतीसूत्र श २ उ १० को टीका में ३-उत्तकालविजुत्तणादन्वा पच अत्यिकायादु। -वृहद् द्रव्यसग्रह सूत्र २३ ४-काय प्रदेशराशय । -भगवतीसूत्र श २ उ. १० की टीका में ५-फाया इव बहु देसा तह्मा या काय अत्यिकाया य।। बृहद् द्रव्यसग्रह सूत्र २४ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय पुद्गल के लक्षणों का विश्लेषण १५ है। अत परमाणु पुद्गल को उपचार से काय कहा है। ६ पुद्गल रूपी है' तथैव मूर्त है' . रुपादि स्पर्श, रस, गन्व, वर्ण सस्थान। गुणो में परिणमन के कारण पुद्गल रूपी तदर्थ मूर्त कहा जाता है। वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्ण-ये रूप परिणामी गुण पुद्गल के लक्षण गुण हैं: जो गुण दूमरे में नहीं हो वह गुण लक्षण-गुण कहलाता है। जिससे लक्ष्य निर्दिष्ट किया जा सके वह लक्षण है। लक्षणगुण से ही एक वस्तु को दूसरी वस्तु से पृथक् किया जा सकता है। छ द्रव्यो मे केवल पुद्गल ही रूपी है। अन्य द्रव्य स्पी नहीं है। १-एयपदेसो वि अणु णाणाखधप्पदेसदो होदि बहुदेसो उवयारा तेण य कानो भणति सन्चएह ।। -बृहद् द्रव्यसग्रह सूत्र २६ २-रूपिण पुद्गला।-तत्त्वार्यसूत्र अ५ सू ४ रूपे मूर्ति सूत्र ३ के भाष्य में। ३-रूपशब्दस्याग्नेकार्थत्वे मूर्तिपर्यायग्रहण शास्त्रसामर्थ्यात् । -राजवार्तिक ५ ५.१ ४-रूपादिसस्थानपरिणामो मूर्ति । -तत्त्वार्यराजवार्तिक “रूपिण पुद्गला" सूत्र की व्याख्या में। ५-स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त पुद्गला । -तत्वार्थसूत्र अ ५ सू. २३ ६-स्पर्श रस गन्ध वर्ण इत्येवंलक्षणा पुद्गला. भवन्ति । --उपरोक्त सूत्र का भाष्य । ७-लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम् । सिद्धिसेन गणि वक्तव्य ।। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल जो रूपी है वही मूर्त है। वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श के विशिष्ठ परिणामो से मूर्तित्व होता है। जो रूपी है वही पुद्गल द्रव्य है। कोई भी पुद्गल अरूपी अर्थात् वर्ण, रम, गन्ध, स्पर्श रहित नही हो सकता है। रूपत्व कभी पुद्गल से अलग या भिन्न नही होता है। जिसमें रूपत्व नही, वह पुद्गल नहीं है। वर्ण, रस, गन्ध तथा स्पर्श के समवाय को रूपत्व कहते है। इन चारो की ममप्टि को पुद्गल का स्पत्वगुण कहते हैं। केवल वर्ण या तथा मस्थान को रूपत्व या मूर्तत्व नही कहते । जहाँ रुप (वर्ण) है वहाँ स्पर्श, रस तथा गन्ध जरूर है। ऐसा कोई पुद्गल नही है जिसमे इन चारो मे से केवल कोई तीन, कोई दो, या कोई एक ही हो । अन्य द्रव्यो मे इनमे से कोई १-रूपरस गन्धस्पर्शा एव विशिष्ट परिणामानुगृहीत सतो मूर्तिव्ययदेशभाजो भवन्ति। तत्वार्यसूत्र ५३ के भाष्य की सिद्धिसेनगणि टीका में। २-पुद्गला एव रूपिणो भवन्ति । --तत्त्वार्थसूत्र अ ५ सू ४ का भाष्य । ३-न मूर्तिव्यतिरिकेण पुद्गला सन्ति। --तत्त्वार्थसूत्र ५ ४ के भाष्य पर सिद्धिसेनगणि टीका। ४-अरूपा पुद्गला न भवन्ति । -तत्त्वार्थसूत्र ५ ४ को सिद्धिसेनगणि टीका। ५-यत्र रूप परिणाम तत्रावश्यन्तया स्पर्शरसगन्धरपि भाव्यम्, अत सहचरमेतच्चतुष्टयम् । --तत्त्वार्थसूत्र ५३ की भाष्योपरि सिद्धिसेनगणि टीका। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ दूमरा अध्याय पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण एक, कोई टो, या कोई तीन या चागे नहीं पाये जा सकतेहै । मव पुद्गलो में-चाहे परमाणु, चाहे स्कन्द हो-वर्ण, रस, गन्ध तथा स्पर्श ये चागे ही अवश्य होने है। पुद्गल की नर्व अवस्थानी में ये चारो ही पाये जाते है चाहे व्यक्त हो या अव्यक्त। मस्थान भी वर्ण, रम, गन्ध, स्पर्ग के सिवाय-मृर्तत्व का एक लक्षण हैं। मस्थान का अर्थ आकृति या प्रकार है। सम्यान को पुद्गल का गलन-मिलनकारी म्वभावजन्य कहा जा सकता है। धर्ण के पाँच भेद काला, नीला, लाल, पीला और मादा । रम के पांच भेद तीखा, कडवा, कपाय, बट्टा श्रीर मीग। गन्ध के दो भेद सुगन्ध और दुर्गन्य। म्पर्श के आठ भेद कठिन, मृदु, गुरु, नघु, गीत, उष्ण, स्निग्य और रूक्ष। मम्थान के पांच भेद परिमण्डल, वृत, अयन, चतुग्न और प्रायत। १-रूपादिसस्यानपरिणामो मूत्ति । तत्त्वार्य राजावातिकम् ५५१ की व्याख्या में। २-तत्रस्पर्शोऽष्टविध कठिनो मृदुर्गुरुलंघ शीतउष्ण स्निग्धोरुक्ष इति। रस पचविध-तिक्त कटु फपायोऽम्लोमपुर इति । गन्धो द्विविध -सुरभिरसुरभिश्च । वर्ण पचविध-कृष्णोनीलो लोहित पीत शुक्ल इति । -तत्वार्यसूत्र ५ • २३ का भाष्य । ३-अयाजीवपरिगृहीत वृत्त-व्यस-चतुरसायतपरिमण्डल भेदात् -तत्त्वार्थसूत्र ५ २४ भाष्य टीका । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल ___ स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण इन चारो का पणिमन सर्व पुद्गलो में होता है। ७ पुद्गल क्रियावान् है (१) उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तसत्', यह मसार का प्रथम या मूल नियम कहा जा सकता है। सभी द्रव्य, सहभावी गुणो से ध्रुव है, तथा क्रमभावी पर्यायो से उत्पादव्यय रूप है। गुणो की अपेक्षा से सभी द्रव्य निष्क्रिय है। द्रव्याथिक नय की प्रधानता एव पर्यायाथिक नय की गौणता से द्रव्य को निष्क्रिय कहा जा सकता है। पर्यायो के उत्पाद-व्यय की अपेक्षा सभी द्रव्य सक्रिय है। पर्यायाथिक नय की प्रधानता तथा द्रव्याथिक नय की गौणता से - १-स्पर्शादय परमाणुषु स्कन्धेषु च परिणामजा एव भवन्ति । ---तत्त्वार्थसूत्र ५ २४ का भाग्य । २-पुद्गल जीवास्तु कियावत । -तत्त्वार्थसूत्र ५ : ६ का भाष्य । ३--तत्त्वार्थसूत्र ५ २६ ४-भगवानपि व्याजहार प्रश्नत्रयमात्रेण द्वादशाङ्ग प्रवचनार्थ सकलवस्तु सग्राहित्वात् प्रथमत. किल गणधरेभ्य -- "उप्पणेतिवा विगमेतिवा धुवेतिवा।" --तत्त्वार्थसूत्र ५ . ६ सिद्धिसेनगणि टीका। ५-पर्यायाथिकगुणभावे द्रव्यार्थिफप्रधान्यात् सर्वेभावा अनुत्पादा व्ययदर्शनात् निष्क्रिया नित्याश्च । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण १६ द्रय को सक्रिय कहा जा सकता है। सभी द्रव्य गुण पर्यायवत् है। अन मभी द्रव्य निष्क्रिय भी है, नक्रिय भी है। इस प्रकार गुणो की ध्रुवता को निस्क्रियता तथा पर्याय के उत्पाद व्यय को क्रिया कहा जा सकता है।। (२)पर्याय अनन्न है। अन क्रिया के भी अनन्त भेद या भाव है। नावारण भाव से पर्याय के दो भेद होते है --अर्थ-पर्याय और व्यजन-पर्याय । अर्थ-पर्याय मत्र द्रव्यों में होता है। द्रव्य के मामान्य परिणामिक भाव ने मभी द्रव्यो में एक समयवर्ती अर्य-पर्याय होती है। अर्थ-पर्याय का उत्पाद-व्यय प्रति समय होता है। (३) व्यजन-पर्याय (म्वभाव एव विभावद्विविव ) केवल जीव व पुद्गल में होता है। व्यजन-पर्याय ममारी जीव तथा पुद्गल के विगेप पारिणामिन भाव तथा परिम्पन्दन निमित्त से होता है। इन पर्यायों की उत्पाद-व्यय क्रिया कभी होती है, कभी नहीं भी होती है। प्रति समय होने का ही इसका नियम नही है। प्रति १-द्रव्यायिकगुणभावे पर्यायायिकप्रधान्यात् सर्वेभावा उत्पादव्यय दर्शनात सक्रिया अनित्याश्चेति । -राजवातिकम् ५ ७ २५ उपरोक्त द्वयम् । २-प्रतिममयपरिणतिरूपा अर्यपर्याया भण्यन्ते । ३-परिणामात् एकममयतिनोऽयपर्याया । -प्रवचनसार तात्पर्यवृति अ २ गा ३७ ४-धर्माधर्माकाश कालानाम् मुख्य वृत्यकसमयतिनोऽर्थपर्याया एव जीवपुद्गलानाम् अर्थपर्याया व्यजन पर्यायाश्च । --प्रवचनसार अ० २ गा० ३७ तात्पर्य वृत्ति Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ विज्ञान में पुद्गल समय हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है । - (४) द्रव्य मे दो तरह का भाव बताया गया है - परिस्प न्दात्मक और अपरिस्पन्दात्मक' । धर्म, अधर्म तथा आकाश अपरिस्पन्दात्मक है । इनमे परिस्पन्दन करने की शक्ति बिल्कुल नही है । जीव स्वभाव से अपरिस्पन्दात्मक है लेकिन जीव मे परिस्पन्दन करने की शक्ति अन्तर्निहित होती है तथा पुद्गल के सयोग से— पोद्गलिक मन, वचन, काय इन तीनो योगो के निमित्त सेजीवात्मा के प्रदेश परिस्पन्दन करते हैं । पुद्गल अपरिस्पन्दात्मक तथा परिस्पन्दात्मक दोनो स्वभाव का कहा गया है । 'राजवातिक' में परिस्पन्दन को क्रिया तथा अपरिस्पन्दन को परिणाम कहा है । प्रवचनसार की प्रदीपिका वृति में परिस्पन्दन को क्रिया तथा परिणाम मात्र ( पर्याय परिणमन) को भाव कहा है ' । सिद्धसेनगणि ने परिणाम की व्यवस्था में 'परिस्पन्द इतर भाव को २० १ - द्रव्यस्य हि भावो द्विविध परिस्पदात्मक अपरिस्पदात्मकश्च । - राजवार्तिकम् ५ २२ २१ २ - निष्क्रियाणिच तानीति परिस्पंद विमुक्तित. । — तत्त्वार्यश्लोक वार्तिकम् ५ ७.२ ३- योग आत्म प्रदेश परिस्पद । - राजवार्तिकम् २ २५ ५ ४ - परिस्पदात्मक कियेन्याख्याते, इतर परिणाम । — राजवातिकम् ५ . २२ २७ - ५- परिणाम मात्र लक्षणोभाव परिस्पदन लक्षणा क्रिया । -प्रवचनसार २ • ३७ को प्रदीपिका वृति । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूनन अध्याय पुद्गल के लक्षणों का विश्लेषण २१ परिणाम कहा है। (५) नत्लायंत्र के नाप्य में "पुद्गल जीवात्नु क्रियाबन्त" इस पद ने पुदगल नया जीव को क्रियावान् कहा गया है नया "निरिठयाणि" सूत्र में वर्म, अरमं नया आकाश की जो निस्त्रिय कहा गया है वह पग्न्यिन्दनजन्य क्रिया निमित्त मे कहा गया है अर्यात धर्म, अयम नया पात्राय यह नीनो पग्व्यिन्दनजन्य देशान्तर प्राप्नि आदि क्रिया विप नहीं कर सकते है। वाद-व्ययादि मामान्य श्यिा का प्रनियंत्र टन मूत्र में नहीं हैं। अर्थ-पर्याय का उत्पायर तो उनमें भी होता है। जीवात्मा भी बनात्र ने निरिथ्य है, क्योकि अग्न्यिन्दात्मक है। वर्म-नोकर्म निमिन में, कार्माग गर्न सम्बन ने जीवात्मा के प्रदद्या में परिम्पन्दन होता है, इसलिए जीव को गिन्यावन्न न्हा Tा है। अष्टविक्रम-श्रय हो जाने में काम गर्ग का - - १-द्रव्यन्य स्वजान्यपरित्यागेन परिन्यदेनर प्रयोगन पर्यार बनाव परिणाम। २-पुदान जीवनिनी या विशेष प्रिन्या देशान्तर प्राप्ति लक्षणानन्या. प्रतियोऽयम्, नोत्पादादि सामान्य गिन्याया -नवार्यमूत्र ५. ६ की सिद्धिमेनीय टीका में। ३ नत्त्वार्य राजवातिकम् ५वा अन्याय के सूत्र के १८चे पद की व्याख्या में। फार्मण गरोगनबनात्मप्रदेन परिम्पदन ल्पा किया। ---तत्त्वार्य लोक वातिक २:२५ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल वियोग घटने से जीवात्मा "अपरिस्पन्दात्मक निष्क्रिय" हो जाता है। कार्माण शरीर विमुक्त-अशरीरी-जीवात्मा के स्वाभाविक ऊर्ध्व गति होती है। उसीसे जीवात्मा सिद्ध स्थान में पहुंचती है। सक्रिय जीवात्मा को मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती है। मुक्त जीवो में प्रदेश सकोच श्रादि जो परिस्पन्दात्मक-क्रिया होती है उसे पूर्व प्रयोग से उत्पन्न कहा जाता है। मुक्त जीवो में अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अचिन्त्य सुखानुभव का अर्थ पर्याय रूप उत्पाद-व्यय तो प्रति समय होता ही है। जब तक जीवात्मा सक्रिय है तब तक वह मोक्ष नही पा सकती क्योकि जब तक जीवात्मा क्रिया करती रहती है तब तक जीवात्मा के कर्म का पुद्गल के माथ बन्धन होता रहता है। (६) क्रिया को परिस्पन्दन लक्षणवाली कहा गया है। परिस्पन्दन पुद्गल का स्वभाव है। परिस्पन्दन स्वभाव से ही पुद्गल मे क्रिया होती है। परिस्पन्दन शक्ति (गुण) से ही पुद्गल क्रिया में समर्थ है । अत पुद्गल क्रियावन्त है। पुद्गल स्वसामर्थ्य से १-भगवतीसूत्र २-जाव चरण भते! अय जीवे एयात वेयति चलति फदति ताव चरण णाणावरणिज्जण जाव अतराएण वझवित्ति? हता गोयमा॥ ३-परिस्पदन लक्षणा क्रिया--प्रवचनसार २ • ३७ की प्रदीपिका वृति। ४-प्रवचनसार २ ३७ की प्रदीपिका वृति। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण २३ नप्रिय है। प्रान्यन्नर में निया--परिणामगक्तियुक्त है। पुद्गल नर्वथा अचन, स्थिर, निक्रिय नहीं है। पुद्गल मवक्षेत्र, मर्वकाल, नवं अवम्या में क्रियावान् ही हो, ऐना भी नहीं है। कभी प्रिया करना है, कभी नहीं भी बग्ना। एक पावाश प्रदेग में म्बिर रहकर भी, पुद्गल-मिया (म्पन-क्रिया) करता है। परिस्पन्दन-जनित क्रियायें निरन्तर नही आकस्मिक होती है। प्रथमन किया के अनन्त पर्यायों की अपेक्षा, अनन्त भंद हो सकते है। नामान्यत निन्या के अनेक भेद होते है लेकिन विशेष अपेक्षाग्रा ने निम्ननिम्विन भेद ही मक्ने है (क)निमित्त-प्रोक्षा में-(१)वनमिक प्रीन(२)मायांगिक । पान्यन्न क्रिया परिणामयुक्न पुद्गल में जो किया स्वत या अन्य पुद्गल के सहयोग में होती है उसे वैत्रमिक तथा अन्य द्रव्य - - १-सामर्यर्यात् मत्रियो जीव पुद्गलानिति निश्चय । -तत्वार्य श्लोक यातिकम ५.७ २ २-परमाणु पोग्गले-सिय एयति, वेयति, जाव-परिणति, सिय णो एयति जाव णोपरिणति। --भगवतीमत्र ५ ७ ३-एगपएसोगाढे पोग्गले मेए तम्मि वा ठाणे, अनम्मि वा ठाणे, जहणेण एग समय, उक्कोसेण प्रानलियाए अससेज्जइ भागचिर होइ। -भगवतीसून ५ ७ ४-क्रियानेक प्रकारा हि पुद्गलानामिवात्मना। तत्त्वार्य श्लोक वातिकम् ७ ४६ ५-पुद्गलानामपि द्विविधा मिया विनसा प्रयोगनिमित्ताच ।। -तत्त्वार्य राजवार्तिकम् ५ ७ १७ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल यानी जीव के द्वारा पुद्गल में जो क्रिया होती है उसे प्रायोगिक कहते है। (ख) स्वस्प-अपेक्षा से--(१) गति (एक क्षेत्रस्थित गति और देशान्तर प्राप्ति क्षेत्रात्क्षेत्रान्तर-ति) और (२)वन्ध भेद । ____ 'भगवतीसूत्र' में एक क्षेत्रस्थित गति (क्रिया) के लिए 'एअई' (सस्कृत 'एजने', अर्थ कम्पन) शब्द का प्रयोग हुआ है। इस किया के दो भेद है-ममिति और विविध । देशान्तर प्राप्ति गति के कुछ भेद इस प्रकार है (१)अनुश्रेणी नया विवेणी, अविग्रहा तथा विग्रहा और ऋजु तथा कुटिला; (२) प्रतिघाती तथा अप्रतिघाती, (३)म्पृष्ट तथा अस्पृष्ट, और (४) ऊर्ध्व-अव -तिर्यम्। क्रिया के (ससारी जीव की क्रिया के रूप में कुछ भेद 'भगवती' सूत्र में इस प्रकार कहे गये है -(१) समिन एअइ (समित कम्पन), (२) वेअई (विविध कम्पन), (३) चलइ (चलना-गमन), (४) फन्दड (स्पन्दन),५ घट्टइ (मघटन), (६) क्षुव्यई (प्रवलतापूर्वक प्रवेश करना) और (७) उदीरड (प्रवलतापूर्वक प्रेरण-पदार्थान्तर प्रतिपादन)। क्रिया अनेक प्रकार की है। अभयदेव मूरि ने 'भगवती नूत्र के शतक दूसरे उद्देश्य तीसरे (जीव की क्रियानो के वर्णन) की टीका में अन्यान्य क्रियाओ का भेद सग्रह करने को कहा है। गति क्रिया के कुछ नियम इन प्रकार है - (१) अनुश्रेणि गति , Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा श्रध्याय पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण (२) एकसमयो विग्रह, लोकातप्रापिणि अपि, (३) परमाणेरनियता, २५. (४) चाल (क) जघन्य - एक समय में एक प्रदेश (ख) उत्कृष्ट — एक समय में लोकान्त से लोकान्त । -- (५) कम्पन क्रियाकाल -- ( क ) जघन्य - एक समय । (ख) उत्कृष्ट —— अविलि के प्रसखेय भाग, और (६) निष्कम्प ( निष्क्रिय) काल - (क) जघन्य -- एक समय । (ख) उत्कृष्ट --- प्रसख्येय काल । नियम सामान्य से पुद्गल की "देशान्तर प्रापिणि गति” अनुश्रेणी होती है। लेकिन प्रयोग परिणामवशात् विश्रेणी भी हो सकती है। पुद्गल की लोकान्तप्रापिणि गति नियम से अनुश्रेणी ही होती है । (देखो तत्वार्थं सूत्र अ २ सूत्र २७ तथा २६, तथा २७ की सिद्धसेन गणि टीका । पुद्गलानामपि गति स्थितीति । ) पुद्गल गलन मिलनकारी है . पुद्गल का नाम पुद्गल हुआ है' । वस्तु का नाम रखा भी जाता है। (१) पूरण (मिलन) तथा गलन स्वभाव के कारण ही स्वभाव तथा क्रिया के अनुसार पूरण का अर्थ मिलना और ८ १- पुद् गलशब्दस्यार्थी निर्दिष्ट पुगिलनात् पूरण गलनाद्वा पुद्गल इति । -- राजवार्तिकम् ५.१६.४० २ - पूर्यन्ते गलन्ति च पुद्गला घातोस्तदर्थातिशयेन योग मयुर भ्रमरादिवत् । - श्रुतसागरी वृति । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल गलन का अर्थ अलग होना है। दूसरे शब्दो मे, पुद्गल सघबद्ध होता है तथा फिर अलग होता है। पुद्गल का प्रथम (कारण) स्वरूप परमाणु है। एक परमाणु पुद्गल का दूसरे परमाणु पुद्गल के साय म्पर्श होने से कितने ही नियमो में अनुवर्ती होकर कभी सघवद्ध (एकीभाव) होता है तथा मघवद्ध होकर फिर कभी भिन्न होता है। __ इस प्रकार उन्ही (मघात भेदादि स्निग्ध स्मादि प्रयोग विस्त्रमादि) नियमो के अनुवर्ती होकर एकाधिक अनन्त तक परमाणु पदुगलो के साय मघवद्ध (एकभाव) होता है अथवा सघवद्ध अवस्था से भेद होता है। परमाणु पुद्गलो का इस प्रकार बद्ध होना तथा भेद होना पुद्गल के पूरण-गलन स्वभाव से होता है। परमाणु पुद्गल इम प्रकार बद्ध होकर एकत्व रूप परिणमन करते है। इस एकभाव स्प का नाम स्कन्ध है', स्कन्ध समवाची है। __ परमाणु पुद्गल की तरह, एक स्कन्ध का दूसरे एक या एकाधिक स्कन्व के माथ वन्धन हो मकता है। उन्ही नियमो के अनुवर्ती स्कन्ध का भेद होने से केवल परमाणु रूप मे ही पृथक्करण नहीं होता, केवल स्कन्ध रूप में भी पृथक्करण हो सकता है तया स्कन्ध एव परमाणु ऐसे मिश्र रूप में भी पृथक्करण हो सकता १-कारण भेद तदन्त्य सूक्ष्मो नित्यश्चभवति परमाणु । . -तत्त्वार्यसूत्र ५ २५ का भाष्य । २-परिप्राप्तवन्ध परिणामा स्कघा । ---राजवातिकम् ५ . २५ १६ Page #45 --------------------------------------------------------------------------  Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैन पदार्य-विज्ञान में पुद्गल पुद्गल से, रूक्ष-स्पर्श पुद्गल का रूक्ष-स्पर्श पुद्गल से बन्धन होता है। स्पर्श-गुण के भेदो से पुद्गल के स्निग्ध तथा रूक्ष-गुण होते है। इन स्निग्ध-रूक्ष स्पर्श-गुणो में तारतम्यता होती है अर्थात् स्निग्ध-गुण की स्निग्धता-शक्ति में कमी-वेसी होती है। सर्व परमाणु पुद्गलो की स्निग्धता या रुक्षता एक समान नहीं होती है। अविभाग परिच्छेद शक्ति को 'गुण' व अश कहते है। पुद्गल परमाणु में स्निग्धता या रुक्षता की तीव्रता या माणता इस "निविभागी अश" के पूर्णक गुणनफलो से होती है। जैसे १ अश स्निग्धता, २ अश स्निग्धता, २५ अश स्निग्धता इत्यादि अनन्त अश तक । इम अश का भिन्न नहीं होता। इसलिए परमाणु पुद्गल में डेढ अश, २३ अश, ४५ अश इत्यादि स्निग्धता या रूक्षता नही होती है। उपर्युक्त तीन बन्धन योग्यता नियम तत्वार्थ सूत्र' के ३३॥३४॥ ३५वें सूत्रो में (पचम अध्याय) में अवस्थापित किये गये है। इन तीन बन्धन योग्यता नियमो के उपनियम या विश्लेषण, नियमो का विवेचन अन्य अध्याय में आगे होगा। वन्ध होने से दो या अधिक अनन्त तक परमाणु पुद्गल एक आकाश-प्रदेश में भी रह सकते है या दो प्रदेश मे या दो प्रदेश से अधिक असख्य प्रदेशो में अवगाह कर सकते है। लेकिन बन्धन प्राप्त परमाणु पुद्गल निज की संख्या से अधिक प्रदेश में अवगाह नही कर सकते। अनन्त परमाणुओ का परिप्राप्त वन्ध परिणामस्कन्ध असख्य प्रदेश से अधिक प्रदेशी नही हो सकता है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय पुदगल के लक्षणो का विश्लेषण २६ यह लक्ष्य रखने की वस्तु है कि अनेक परमाणु पुद्गल विना वन्ध परिणाम को प्राप्त हुए भी एक आकाश क्षेत्र में एक काल में स्पृश या अस्पृश होकर रह सकते है। वन्य दो प्रकार का होता है -प्रायोगिक और वित्रमा। वित्रसा के दो भेद होते है-सादि और अनादि। अनादि विनसा धर्म, अधर्म तथा आकाश का होता है। अन्य दृष्टि से वन्ध के और दो भेद होते है -देश-वन्ध और सर्व-बन्ध। एक प्रदेश का दूसरे प्रदेशो के माय सम्बन्ध देग-बन्ध है। एक प्रदेश में दूसरे प्रदेशों का समा जाना तथा एक प्रदेश-स्प हो जाना सर्ववन्ध है। मादि विलसा वन्य तीन प्रकार का होता है-वध प्रत्ययिक, भाजनप्रत्ययिक तथा परिणामप्रत्ययिका स्मस्निग्ध गुणों के कारण जो बन्धन होता है वह प्रत्ययिक है। भाजन आधार के निमित्त जो वन्धन होता है वह भाजनप्रत्ययिक है। उदाहरण ---एक वरतन (भाजन) में रही पुरानी शगव का मघट्ट होना। परिणाम प्रत्ययिक-परिणमन के निमित्त जो बन्धन होता है वह परिणाम प्रत्ययिक है (देखो भगवती सूत्रशतक ८ उद्देश्यः) __ भेद पाँच तरह से होता है --(१) खण्ड, (२) प्रतर, (३) चूणिका, (४) अनुतटिका तथा (५) उत्करिका। एकत्व परिणित द्रव्य के विश्लेपण को भेद कहते है। ६ पुद्गल परिणामी है पुद्गल परिणमन करता है। पुद्गलके परिणाम होता Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैन पादार्य-विज्ञान में पुद्गल है। एक अवस्था (पर्याय) को छोडकर दूसरी अवस्था (पर्याय) को प्राप्त करने को परिणमन कहते है। कोई द्रव्य न तो सर्वथा नित्य है, न सर्वथा विनाशी है, इसलिए प्रत्येक द्रव्य का परिणाम स्वीकार करना इप्ट है। पातजलयोग के टीकाकार व्यास ने भी कहा है --"अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्व धर्म निवृतीधर्मान्तरोत्पत्ति परिणाम "-अवस्थित द्रव्य के प्रथम धर्म के नाश होने पर दूसरे धर्म की उत्पत्ति को परिणाम कहते है। द्रव्य की निज की जाति या निज के स्वभाव को छोडे विना प्रयोग या विस्रसा से उद्भावित विकार को परिणाम कहते हैं। परिणाम से क्रिया को अलग दिखाने के लिए-सिद्धसेन गणि ने-परिस्पन्दन इतर प्रयोगज पर्याय स्वभाव को परिणाम कहा है । 'तत्त्वार्थसूत्र' में द्रव्यो के निज-निज के स्वभाव में वर्तने को परिणाम कहा है। 'भगवती' मूत्र में पुद्गल के परिणाम पाँच तरह के बताये गये है। ---वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श तथा सस्थान, जो पुद्गल को रूपी बनाते है। - - १-परिणामोश्वस्थान्तर गमन न च सर्वथा ह्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाश परिणामस्तद्विदाभिष्ट । स्याद्वाद मजरी। २-द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोग विस्त्रसा लक्षणोविकार. परिणाम । -राजवातिकम् ५ २२ • १० ३-द्रव्यस्य स्वजात्यापरित्यागेन परिस्पदेतरप्रयोगजपर्याय स्वभाव. परिणाम । -तत्वार्थसूत्र अ५स २२ सिद्धिसेन गणि । ४-तद्भाव परिणाम ।-तत्त्वार्थसूत्र ५ ४२ ५-पचविहे पोग्गल परिणामे पण्णत्ते-तजहा-वन्न, गन्ध, रस, फास, संठाण परिणामे। ---भगवतीसूत्र श ८ उ १० Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय पुद्गल के लक्षणों का विश्लेषण ३१ 'प्रज्ञापना' सूत्र में अजीव के दम परिणाम बताये है जो सब पुद्गल में लागू होते है। इन दम में ५ तो उपरोक्त 'भगवती' सूत्र में कथित (वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और सस्थान) ही है तथा अवशेप इस प्रकार है-चन्व, भेद, गति, शब्द तथा अगुरु-लघु।। ___ काल की अपेक्षा से परिणाम बताया गया है अनादि, सादि'। पुद्गलो का परिणाम आदिमान है। पुद्गल परमाणु स्वअवस्था में गति तथा अगुरु-लघु यह दो परिणमन ही करेगा। अन्य परमाणु के या स्कन्ध के माथ वन्व होने से ममगुण वाला समगुण को लेकिन विमदृश को परिणमन कर सकता है। अधिक गुणवाला हीन गुणवाले को परिणमन करेगा। पुद्गल का आदिमान परिणाम अनेक प्रकार का है। परिणाम मे निमित्त अपेक्षा से तीन भेद है --प्रयोग परिणति, मिश्र परिणति और विसमा परिणति। १० पुद्गल अनन्त है पुद्गल का प्रथम स्वरूप परमाणु है, जो अनन्त है। अत १-अनादिरादिमाश्च ।-तत्वार्थसूत्र ५ ४२ २-रूपिष्वादिमान । -तत्त्वार्थसूत्र ५ ४३ ३-बधे समाधिको परिणामिको।-तत्त्वार्यसूत्र ५ ३६ ४-रूपिषु द्रव्येषु आदिमान् परिणामोऽनेकविध ।। -तत्त्वार्थसूत्र ५ ४३ का भाष्य । ५-तिविहा पोग्गला पण्णता-पयोगपरिणया, मीससा परिणया, विससा परिणया। --भगवतीसूत्र श ८ उ १ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा मे पुद्गल अनन्त है। जीव से पुद्गल अनन्त गुण है। दो, दम, नस्यात, असख्यात, अनन्त परमाणुओ का परम्पर में वन्वन होकर जो स्कन्व बनते हैं, वे स्कन्व भी अनन्त ११ · पुद्गल लोक प्रमाण है पुद्गल लोक प्रमाण है अर्थात् पुद्गल लोक मे ही है, तथा परमाणु अनन्त है। अत द्रव्य की अपेक्षा पुद्गल अनन्त है। जीव से पुद्गल अनन्त गुण है। दो, दम, मत्यात, असत्यात, अनन्त परमाणुनो का परम्पर में वन्वन होकर जो स्कन्व बनते हैं वे स्कन्च भी अनन्त हैं। १२ पुद्गल जीव-ग्राह्य है जीव द्वारा ग्रहण होना यह पुद्गल का लक्षण है। पुद्गल में जीव को ग्रहण करने की कोई नक्ति या गुण नहीं है, केवल जीव द्वारा प्रहित होने का गुण है। जीव ही पुद्गल को आकर्षित करके ग्रहण करता है तथा ग्रहण करके पुद्गल के माय बन्धन को प्राप्त होता है। जीव का यह पुद्गल ग्रहण स्वक्षेत्र स्थित पुद्गलो का ही होता है अन्य क्षेत्र में स्थित पुद्गलो का नहीं। जीव का यह पुद्गल ग्रहण जीव के अपने कापायिक परिणामो मे होता है। सर्व जीव पुद्गल को ग्रहण नही करते हैं केवल नमारी जीव-मकपायी Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण ३३ यानी कापायिक परिणामो से युक्त होने के कारण-कर्म-योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है। पुद्गलो के (मन, वचन, काय योग रूप पुद्गलो के)' सयोग से और भी कर्म-योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है। दूसरे शब्दो में जीव पुद्गल को ग्रहण करके ग्रहीत पुद्गलो के साथ वन्वन को प्राप्त होकर-उन पुद्गलो की मन, वचन, काया रूप में भी परिणमन करता है तथा फिर मन, वचन, काय योग परिणत पुद्गलो के सयोग से जीव और कर्म-योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है। कर्म-योग्य पुद्गल ही जीव द्वारा ग्रहीत होते है। सव तरह के पुद्गल जीव द्वारा ग्रहीत नही होते हैं। परमाणु रूप में पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है। सव तरह की स्कन्ध अवस्था में भी नही। पुद्गल स्कन्धो के समास में जो २२ भेद हैं उन्ही भेदो में कार्माण-वर्गणा तथा नौकाणि-वर्गणा नाम के जो भेद हैं, वे ही पुद्गल-स्कन्ध जीव के द्वारा ग्रहीत होते हैं। जिन पुद्गल-स्कन्धो से (वर्गणाम्रो से) ज्ञानावरणादिक आठ कर्म बनते है उनको कार्माण-वर्गणा-स्कन्व कहते है। जिन पुद्गल-स्कन्वो से शरीर-पर्याप्ति तथा प्राण वनते हैं उनको नोकर्म-वर्गणा-स्कन्ध कहते हैं। नोकर्म-वर्गणास्कन्धो के चार भेद है -(१) आहार-वर्गणा, (२) भापा-वर्गणा, (३) मनो-वर्गणा तथा (४) तेजस्-वर्गणा। इन कर्म-नोकर्म योग्य पुद्गल वर्गणाओ से ससारी जीव के पाँच शरीर (श्रीदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्माण), वचन तथा प्राणापनि वनते । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल है । कार्माण-वर्गणा से कार्माण शरीर बनता है । आहार-वर्गणा से श्रदारिक, वैक्रिय, आहारिक शरीर तथा प्राण- प्रपान वनता है । भाषा वर्गणा से वचन बनता है । मनो वर्गणा से मन बनता है । तेजस - वर्गणा से तेजस शरीर बनता है । इस तरह पुद्गल जीव द्वारा ग्रहीत होकर ससारी जीव का चार प्रकार का उपकार करता है अर्थात् ससारी जीव के शरीर, वचन, मन और प्राणापान रूप में परिणत होकर जीव के काम आता है, अत उपकार करता है। इस प्रकार शरीरादि रूप में परिणत होकर पुद्गल चार प्रकार से उपग्रह के रूप में जीव का और भी उपकार करता है । चार उपग्रह इस प्रकार है -सुख उपग्रह, दुख उपग्रह, जीवित उपग्रह और मरण उपग्रह । जो ग्रहीत पुद्गल इप्ट हो उनसे जीव को सुख होता है । जो पुद्गल अनिष्ट हो उनसे जीव को दुख होता है। जिन ( यथा स्नान भोजनादि में व्यवहृत) पुद्गलो से आयु का अपवर्तन हो वे जीवित उपग्रह - उपकार करते हैं अर्थात् जीव के वर्तमान शरीर से जीव का सम्वन्ध चालू रखने में सहायता करते हैं। जिन पुद्गलो से ( यथा विपशस्त्र अग्नि श्रादि से ) आयु का अपवर्तन हो वे पुद्गल मरण उपग्रह - उपकार करते हैं अर्थात् जीव के वर्तमान शरीर से जीव का सम्बन्धविच्छेद करते हैं । जीव के द्वारा ग्रहीत होने पर, पुद्गल का जीव के साथ जो सम्बन्ध स्थापित होता है वह जीव तथा पुद्गल का सम्बन्ध घनिष्ट है, गाढतर है, स्पृष्ट है, स्नेह से प्रतिबद्ध है, समुदाय रूप है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अव्याय: पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण ३५ अर्थात् ससारी जीव तथा पुद्गल परस्पर में घनिष्ट भाव से (अन्नमन्नवद्धा)वद्ध हैं, गाढतर भाव से (लोलीभावगता) बद्ध है, (अन्नमन्न पूछा) सर्व स्पृप्ट है, सर्वदेश में बद्ध (अन्नमन्न प्रोगाठा) हैं, स्नेह से प्रतिवद्ध (अन्नमन्न मिणेह पडिवद्धा) हैं तथा परस्पर में जीव तथा ग्रहीत पुद्गल समुदाय रूपमें रहते है (अन्नमन घडताए चिति)। पुद्गल जीव के द्वारा ग्रहीत होकर ही नहीं रह जाता है। ग्रहीत होकर वह जीव के साथ वन्व को प्राप्त होता है तथा परिणाम को प्राप्त होता है। जीव के साथ उसका यह वन्ध चार तरह का होता है प्रकृति वन्य, स्थिति वन्व, अनुभाव वन्य तथा प्रदेश वन्य । ग्रहण की हुई कार्मण-वर्गणामो में अपने-अपने योग्य स्वभाव या प्रकृति के पड़ने को प्रकृति वन्य कहते हैं। जिस कर्म-योग्य पुद्गल की जैमी प्रकृति, आवरण , इप्ट, अनिप्ट, अन्तराय आदि की प्रकृति होती है वह उसीके अनुसार प्रात्मा के गुणो की घात प्रादि रूप परिणमन किया करता है। एक समय में बंधनेवाले कर्म-योग्य पुद्गल आत्मा-जीव के साथ कवतक सम्बन्ध रखेंगे, ऐसे काल परिमाण को स्थिति कहते है । उन बँधनेवाले पुद्गलो में स्थिति बंध जाने को स्थिति बन्ध कहते हैं। वचने वाले कर्म-योग्य पुद्गलो में फल देने की शक्ति के तारतम्य के पड़ने को अनुभाव या अनुभाग वन्य कहते हैं। ववनेवाले कर्म-योग्य पुद्गलो की वर्गणाओं का जीवात्मा के प्रदेशो के साथ जो वन्ध होता है, उसे प्रदेश वन्य कहते है। यह जीवात्मा के प्रदेशो के साथ कर्मयोग्य पुद्गलो की वर्गणाओ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल का प्रदेश वन्य आठ प्रकार का होता है-यथा-(१) नाम प्रत्यय, (२) मर्वत , (३) योग विशेपात्, (४) सूक्ष्म, (५) एकक्षेत्र अवगाढ, (६) स्थित, (७) सर्वात्मप्रदेशी तथा (८) अनन्तानन्त प्रदेशी। जिस नाम की कर्म प्रकृति का प्रदेश वन्वन हो वह उस नाम का प्रदेश वन्वन होता है। ऊर्ध्व-अध -तिर्यक् सर्व दिशाओ से जीव पुद्गल को ग्रहण करता है। अत इस अपेक्षा से जीव पुद्गल के प्रदेश बन्धन को सर्वत प्रदेश वन्धन कहते है। मन, वचन, काय के निमित्त से आत्मा के प्रदेशो का परिस्पन्दन होता है, इसे योग कहते है। इस योग की विशेष चेष्टा तथा तीव्र-मन्द आदिक परिणाम से जो प्रदेश बन्धन होता है उसे योग विशेपात् प्रदेश वन्धन कहते है। सूक्ष्म परिणामवाले कर्मयोग्य पुद्गलो का ही जीवात्मा के प्रदेशो के साथ वन्वन होता है। इस अपेक्षा से सूक्ष्म प्रदेश वन्वन कहा जाता है। एक आकाश प्रदेश में अवस्थित पुद्गलो तथा जीव का वन्धन होता है तथा वन्वन होकर जीव पुद्गल एक ही क्षेत्र में अवगाह करनेवाले होते है । अत इस अपेक्षा से एक क्षेत्र अवगाह प्रदेश वन्वन कहा जाता है। स्थित पुद्गल कर्म-नोकर्मवर्गणाओ के साथ ही जीव का वन्वन होता है। गतिमान पुद्गलो के साथ जीव का वन्धन नही होता है । इस अपेक्षा से स्थित प्रदेश वन्वन होता है। सर्वात्म प्रदेश से सर्व प्रकृति के पुद्गलो का आत्मा के सर्व प्रदेशो से बन्धन होता है इस अपेक्षासे सर्वात्मप्रदेशी प्रदेश वन्वन कहते है। अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कन्ध ऐसे अनन्त स्कन्धो Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय • पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण ३७ का आत्मा के एक ही प्रदेश के माय वन्वन होता है । इस अपेक्षा से अनन्तानन्त प्रदेशी वन्य कहते हैं । जीव को छोडकर अन्य चार द्रव्यो का कोई उपकार पुद्गल नही करता है । अन्य द्रव्यों से उपकार ग्रहण करता है । श्राकाश ने अवगाह में धर्म से क्रिया या गति में, अवर्म से स्थित या निष्कम्प होने में, तथा काल से परिणमन में उपकार ग्रहण करता है । क्योकि सर्व परिणमन या क्रिया ममय सापेक्ष है । उपचार से यह कहा जा सकता है कि उपकार ग्रहण करके पुद्गल इन चार द्रव्यो को स्व-स्वभाव में परिणमन करने में सहाय करता है । अन्य द्रव्यो का पुद्गल को यह ( अवगाहनादि ) उपकार - सहकार सक्रिय नही है । बल्कि पुद्गल निज के परिणमन के निमित्त उनके उपकार या महकार को ग्रहण करता है । चय, उपचय, अपचय, श्रायु, अन्तरकाल, अगुरुलघु, सूक्ष्म-स्थूल, सूक्ष्म-वादर भेद-उपभेद इत्यादि विपयो को हमने परिभाषा में नही रखा है उनका विवेचन पीछे करेगे । पुद्गल के उदाहरण इस परिभाषा की कसौटी पर कसे हुए कुछ पुद्गलो के उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं । हम सामान्य उदाहरणो को नही दे रहे हैं बल्कि वे ही उदाहरण दे रहे है जिन पुद्गलो को अतीत में अन्य धर्मो ने पुद्गल वोलकर मान्य नही किया था वल्कि श्राधुनिक Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल विज्ञानने जिनमें से कुछ को पौद्गलिक वस्तुओ के रूप में ग्रहण कर लिया है। उदाहरण - (१) मन, (२) शब्द, (३) तम, (४) छाया, (५) तापआताप,(s)उद्योत-प्रकाश, (७) विद्युत, (८) उष्ण रश्मि, और (६) शीत रश्मि । शेप दोनो तेजस् लब्धि शरीर के भेद है। ये सब पौद्गलिक हैं। इनमें से मन को आधुनिक विज्ञान ने पौद्गलिक वोलकर घोपित नहीं किया है। क्योकि मन की गुण-दोष विचारणिका सम्प्रवारणा को पौद्गलिक मानने में आधुनिक विज्ञान को निश्चित प्रमाण नहीं मिला है। यह वात उल्लेख योग्य है कि आधुनिक विज्ञान मन-चेतनाको अभी तक विभिन्न गण्य करता है। अन्य द्रव्य और पुद्गल के गुण पुद्गल की परिभाषा में दिये गये गुणो में से२ - क-प्रथम गुण. द्रव्य-नित्य-अवस्थित। सभी द्रव्यो में १-परिणामी जीव-मुत्त सपदेत एय-खेत्त-किरियाय णिच्च कारणफत्ता-सन्बगदमिदरहियंपवेले ॥ दुणिय-एय-एय-पच-त्तिय-एय-दुण्णि-चउरोय पच य एयं-एवंएदेसं-एय-उत्तर-णेय ॥ -नवतत्त्व में तया वृहद् द्रव्यसग्रह में चूलिका रूप में। २-वृहद् द्रव्यसंग्रह में दी हुई उपरोक्त चूलिका की व्याख्या (संस्कृत) देखें। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा अध्याय : पुद्गल के लक्षणो का विश्लेषण ३६ पाया जाता है। ख-दूसरा गुण अजीव । आकाश, धर्म, अधर्म तथा काल मे भी पाया जाता है। __ गतीसरा-चौथा गुण अस्तिकाय। काल को छोड कर वाकी पांच द्रव्यो में पाया जाता है। घ-छठा गुण क्रियावान् । जीव में भी पाया जाता है। च-पाठवां गुण परिणामी। जीव और पुद्गलो में कहा गया है। छ-नवां गुण अनन्त द्रव्य अपेक्षा । जीव भी द्रव्य-अपेक्षा से अनन्त है। - ज-दसवाँ गुण लोक प्रमाण। धर्म, अधर्म, जीव भी लोकप्रमाण है। झ-पाँचवाँ गुण रूपी। केवल पुद्गल में ही होता है। ट-सातवाँ गुण गलन-मिलन-सस्थान। पुद्गल का स्वभाव गुण है, केवल इसीमें पाया जाता है। ठ-उपरोक्त दम गुण पर-द्रव्य सम्वन्धित नही है लेकिन ११वां गुण पर-उपकार गुण है तथा जीव द्रव्य से सम्बन्धित है। इस गुण के कारण जीव पुद्गल को ग्रहण कर सकता है या कहिये जीव और पुद्गल का वन्ध हो सकता है। दूसरे द्रव्य भी निजनिज स्वभाव के अनुसार जीव का उपकार करते है। हमने पुद्गल के पारिणामिक फलात नियमो का वर्णन परिभापा में नही किया है क्योकि पुद्गल के परिणमन करने के नियम "वन्धे Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल सामाधिको पारिणामिकौ च " । ( तत्त्वार्थ सूत्र ५। ३६ ) के सिवा अन्य नियम हमारे लक्ष्य में अभी नही आये है । परिणमन से जो पौद्गलिक विचित्रता उत्पन्न होती है उसके नियम जरूर होने चाहिएँ, क्योकि जैन का जगत् सुनियंत्रित है, विश्वखलित ( choas ) रूप नही । आधुनिक विज्ञान को भी पारिणामिक कलातो के नियम उपलब्ध नही हुए हैं। उदाहरण --- ऑक्सीजन तथा हाईड्रोजन गैसो के वन्व को प्राप्त होने से फलान्त परिणाम पानी होता है । ऑक्सीजन तथा हाईड्रोजन की प्रापरटीज (गुण) फलान्त पानी की प्रापर्टीज (गुणो ) से विल्कुल भिन्न है । वन्वन प्राप्त होकर पूर्व गुणो से विचित्र - विभिन्न गुणों में यह परिणमन किन नियमो से होता है, इस प्रश्न का उत्तर अभी तक हमारे लक्ष्य में जैन - शास्त्रो में नही आया है तथा प्राधुनिक-विज्ञान को भी इस फलान्त परिणमन के नियम नही मिले है | ४० Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय पुद्गल के भेद-विभेद पुद्गल अनन्त है। अनेक अपेक्षाओं में भी पुद्गल अनन्त है। द्रव्यत पुद्गल अनन्त है। गर्व पुद्गल प्रव्य देग गे अनन्त है। क्षेत्र देश गे भी, माल देश रो भी, भाव देग रो भी गव पुद्गत अनन्त है। इग द्रव्याथं गे अनन्त पुद्गल के भेद भी अनन्त है। यह अनन्त पुद्गल जाति-अपेक्षा गे अनन्त प्रकार के है। यह अनन्त पुद्गत भावार्थ से भी अनन्त प्रकार के है। यह अनन्त पुद्गल पर्यायार्थ में भी अनन्तानन्त प्रकार को है पयोकि पर्याय अनन्नानन्त है। अनेकान्तवादी जैन गिन-भिन्न अपेक्षायी गे १-चव्यानो ण पोग्गलत्यिकाए अणताइ दयाह । -भगयतीसूम २:१०:५७ २-दथ्य सेण सव्ये पोग्गला सपएसा वि अप्पाएसा चि, अणता; खेत्ता वेसेण वि एव चेव; फाल सेण यि, भाव देसेण यि एवं चेय। -भगवतीसूत्र : ८ . २ २-अनन्त भेवापि पुद्गला। --राणयातिकम् ५ : २५ : ३ ४-जात्याधारानन्तभेव ससूचनार्थ घयचन (अणय. रफान्धाश्च) नियते। -तत्त्यार्थसूत्र ५.२५ पर राजवातियाम् टीका पब ३ ५-भगवतीसय २५.४:४१ ६-भगवती सुम २५ : ४ : ६६, प्रज्ञापना सूत्र पव ३। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्य-विज्ञान में पुद्गल इन द्रव्यार्य से अनन्त पुद्गलो का कई तरह से भेद करता है। इन अनेक प्रकार के भेदो को मानने में किसी प्रकार से भी परस्पर विरोव या वैषम्य नहीं आता वल्कि पुद्गल के सब भावो का समन्वय ही होता है। आधुनिक प्रत्यक्ष मिद्धवादी विज्ञान भी बहुत दूर तक इन भेदो को मानता है। जैन-दर्शन की तरह अन्य भारतीय या अभारतीय दर्शनी में पुद्गल के भेद-विभेद विस्तार से या कहिये सक्षेप से भी नहीं मिलते। जड पदार्थ (पुद्गल) सम्वन्वी इतना विगद विवरण एव नाना अपेक्षामो से उसकी जानकारी जितनी जैन-दर्शन में मिलती है उतनी अन्य किसी प्राचीन या अर्वाचीन दर्शन में नहीं मिलती। शब्द, आताप आदि को जोजनोद्वारा पुद्गल माने गये थे और अन्य दर्शनो द्वारा अवमानित थे, आधुनिक विज्ञान ने भी पुद्गल (Matter) सिद्ध कर दिया है। पुद्गल के भेदो का सामान्य विश्लेपण - पुद्गल का एक भेद-व्यक्तिगत भाव से सर्व पुद्गल परमाणु हैं। किसी दूसरे पुद्गल के नाय अवह अवस्था में पुद्गल परमाणु रूप है । अत परमाणु के स्वल्प की अपेक्षा मे पुद्गल का एक ही भेद “परमाणु" होता है। पुद्गल का एकान्त भेद केवल एक परमाणु है। निश्चय नय से सर्व पुद्गल परमाणु हैं। १-परस्परेणासयुक्ता परमाणव.। --तत्वार्य सूत्र ५ - २५ के भाष्य पर सिद्धिसेन गणि टीका। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय . पुद्गल के भेद-विभेद ४३ परमाणु तथा स्कन्ध-परमाणु-परमाणु परस्पर में वन्वन को प्राप्त होकर जिन समवाय या समुदाय को प्राप्त होते हैं, उसे स्कन्द कहते हैं। उपर्युक्त व्यक्तिगत परमाणु तया स्कन्वनामीय परमाणुसमवाय की अपेक्षा ने पुद्गल के दो भेद-परमाणु तथा स्कन्व होते है। इसको सक्षिप्त भेद कहा गया है। समवाय रूप में पुद्गल स्कन्ध है तया भिन्न-भिन्न रूप में परमाणु हैं। दो भेद-सूक्ष्म तथा बादर-पुद्गल के सूक्ष्म, वादर भेद तीन अपेक्षा से होते हैं यद्यपि फल एक ही होता है। एक अपेक्षा है इन्द्रियो द्वारा शेयता। वे पुद्गल जो इन्द्रियो द्वारा जाने नहीं जा सकते हैं उनको सूक्ष्म पुद्गल कहते हैं। सर्व परमाणु पुद्गल सूक्ष्म ही होते हैं एव इन्द्रियो द्वारा अज्ञेय है। स्कन्यो में भी कितने ही प्रकार के स्कन्वो का संगठन (Construction)ऐसा है कि इन्द्रियो द्वारा वे जाने नहीं जा सकते है । उनको भी सूक्ष्म पुद्गल कहते हैं। वे पुद्गल स्कन्ध जो १-समस्त पुद्गला एव द्विविधा.-परमाणव. स्कन्वाश्चेति । -तत्त्वार्थ सूत्र ५ . २५ की सिद्धिसेन गणि टीका। २-स्कवास्तु वढा एवेतिपरस्पर सहत्या व्यवस्थिता। तत्त्वार्य सूत्र ५. २५ के भाष्य पर सिद्धिसेन गणि टीका। ३-ते एते पुद्गला समासतो द्विविधा भवन्ति-अणव. स्कन्वाश्च । तत्त्वार्य सूत्र ५ . २४ का भाग्य तया ५ • २५ सूत्र । ४-एगत्तण पहत्तेण, खज्या य परमाणु य। -उत्तराध्ययन ३६ . ११ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल इन्द्रियो द्वारा ज्ञेय हैं उनको वादर पुद्गल कहते है। दूसरी अपेक्षा है-स्पर्शता गुण। द्विस्पर्शी, चतु स्पर्शी तथा सूक्ष्म परिणामी अष्टस्पर्शी पुद्गल सूक्ष्म होता है। अवशेप अष्टस्पर्शी पुद्गल स्कन्ध वादर होते है। तीसरी अपेक्षा प्रदेशात्मक है। अप्रदेशी वा एक प्रदेशी, दो, दस यावत् सख्यात प्रदेशी, असख्य प्रदेशी, तथा सूक्ष्मपरिणामी अनन्त प्रदेशी पुद्गल सूक्ष्म कहे जाते है। अनन्तप्रदेशी वादर परिणामी पुद्गल स्कन्ध बादर कहे जाते है। क्षेत्रप्रदेश अवगाहना की अपेक्षा से भी सूक्ष्म वादर भेद कहा जा सकता है। निर्णय चारो अपेक्षा से एक ही होता है। दो भेद-प्राह्य तया अग्राह्य--पुद्गल जीव के द्वारा ग्रहण किया जाता है तथा परिणमाया भी जा सकता है। लेकिन पुद्गल सब अवस्था में जीव द्वारा ग्राह्य नही है। परमाणु पुद्गल जीव द्वारा ग्राह्य नही है। द्विस्पर्शी, चतु स्पर्शी पुद्गल-स्कन्ध जीव द्वारा अनाह्य है। केवल कितनी ही प्रकार का प्रष्टस्पर्शी पुद्गल स्कन्ध जीव द्वारा ग्राह्य है। इस जीव-प्राहिता अग्राहिता की अपेक्षा से पुद्गल के ग्राह्य तथा अग्राह्य दो भेद कहे गये है। तीन भेद-(१)प्रयोग परिणत, (२) मिश्र परिणत (३)विनसा परिणत। (१) वे पुद्गल जिनको जीवो ने ग्रहण करके परिणमन १-तिविहा पोग्गला पण्णत्ता-पयोग परिणया, मिससा परिणया, विससा परिणया। -भगवती सूत्र ८ . १ : १ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय पुद्गल के भेद - विभेद ૧ किया है उनको प्रयोग परिणत पुद्गन कहते है । आधुनिक विज्ञान इनको 'Organic Matter' कहना है । (२) वे पुद्गल जो जीव द्वारा परिमित हुए हैं लेकिन अव जीवरहिन होकर या जीव द्वारा निर्जरित होकर वन परिमित हो रहे हैं उनकी मित्र परिणत पुद्गन कहते हैं। जहां पुद्गल में म्यून समय की अपेक्षा ने जीवद्वारा परिणमन तथा स्वकीय परिणमन (Self-transformation or modifications) एक नाथ हो रहे हैं वहाँ पुद्गल में मित्र परिणमन कहा जा सकता है। (३) वे पुद्गल जिनमें स्वकीय अपेक्षा में परिणमन हो रहा है या जिसके परिणमन में किमी जीव का महाय्य नही है उनको विनमा परिणत पुद्गल (11organic matter) कहते हैं । पुद्गल के चार नंद-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु युद्‌गल के परमाणु तया स्कत्व दो नेद बताये गये है | यहाँ स्कन्व के तीन विभेद (कन्व-देश-प्रदेश) करने तथा परमाणु को मिलाकर चार नेट कहे गये हैं । (१) परमाग्री के बद्धसमवाय अर्थात् वन्धन प्राप्त समुदाय को स्वन्ध कहते है । (२) कन्व का वह भाग जो फिर से विभाजित किया जा सके उसको देन कहते हैं। अन हिप्रदेशी से अनन्त प्रदेशी स्वत्व विभाग की देश कहने है । (३) जितने परमाणुओं का वन्व होकर स्कन्य वना हो १ - जे स्त्री ते चरन्त्रिहा पण्णत्ता-खन्ध, खन्वदेमा, खन्धपएसा, परमाणु योग्गला । -भगवती सूत्र २.१० : ६६ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल उस स्कन्ध के उतने प्रदेश है । स्कन्धवद्ध होते हुए भी जो परमाणु प्रमाण निर्विभाज्य स्कन्ध का विभाग है, उसको प्रदेश कहते है । अविभाज्य पुद्गल को परमाणु कहते है । स्कन्ध, देश, प्रदेश, परमाणु को स्थूल भाव से इस प्रकार भी बतलाया जाता है । सर्वांश में पूर्ण परमाणुश्री के वद्ध समुदाय को स्कन्ध कहते हैं । उस स्कन्ध के प्राघे भाग को देश कहते है । उससे आधे भाग को प्रदेश कहते है । प्रविभागी भाग को परमाणु कहते है । पुद्गल के ६ भेद --- सूक्ष्म सूक्ष्म, सूक्ष्म, सूक्ष्म वादर, वादर सूक्ष्म, बादर और वादर वादर' । (ग) मे पुद्गल के सूक्ष्म वादर ये दो भेद कहे गये है | यहाँ इन दो भेदो का विश्लेषण कर ६ भेद कहे गये है । (१) सूक्ष्मात् सूक्ष्म-परमाणु ( ultimate atom ) को सूक्ष्म सूक्ष्म कहा गया है क्योकि प्रथमत यह अन्त्य सूक्ष्म है --- इससे सूक्ष्म और कोई पुद्गल नही है । द्वितीयत इसको प्रत्यक्ष से परमावधिज्ञानी तथा केवलज्ञानी ही जान सकते है । अन्य जीव कार्यलिंग की अपेक्षा अनुमान से जान सकते है । (२) उन सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धो को जो अतीन्द्रिय (ultrasensual matters ) है सूक्ष्म कहते है । (३) सूक्ष्म-वादर नेत्र को छोड़कर चार इन्द्रियो के विपयभूत पुद्गल स्कन्ध को (ultravisible but intrasensual - १- वादर बादर, बादर, बादरहम च सुहुमथूल च । सुम च सुहुमसुम च धरादिय होदि छन्भेय ॥ -गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ६०२ । Page #65 --------------------------------------------------------------------------  Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल रस को मुख्य तथा अन्यो को । गौण मानकर ५ (५+२+५+५)= १०० भेद। गन्ध को मुख्य तथा अन्यो को गीण मानकर २ (५+५+ +५)== ४६ भेद । स्पर्श को मुख्य तथा अन्यो जो गौण मानकर ८ (५+५+२+६+५)=१८४ भेद । सस्थान को मुख्य तथा अन्यो को गौण मानकर ५ (५+५+२+८)=१०० भेद । ___ कुल ५३० भेद। ये भेद "परिस्थूर" न्याय की अपेक्षा से वताये गये हैं। जाति अपेक्षा से अनन्त भेद'--जाति अपेक्षा से परमाणु पुद्गल तथा स्कन्ध पुद्गल दोनो के अनन्त भेद होते हैं। परमाणु मव एक ही प्रकार के नहीं होते। वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श के सब उपभेद एक परमाणु में नहीं होते। एक परमाणु में कोई एक वर्ण, कोई एक रस, कोई एक गन्व तथा (उष्णशीत, स्निग्ध-रुक्ष में से) कोई दो अविरोधी स्पर्श होते हैं। जिन परमाणुप्रो मे एक ही तरह का वर्ण, रस, गन्ध तथा दो स्पर्श हो उन परमाणु पुद्गलो को एक जाति का कहेंगे। इस प्रकार वर्ण, रस, गन्व, स्पर्श के उपभेदो के सम्भाव्य मयोगो (Combinations) के कारण परमाणु भिन्न-भिन्न जाति के होते है। इसी १-राजवातिकम् ५ : २५ • ३ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय पुद्गल के भेद-विभेद ४६ प्रकार स्कन्ध पुद्गल भी तरह-तरह की जाति के होते है। 'तत्त्वार्थ सूत्र के ५२२५ "प्रणव स्कन्धाश्च" सूत्र पर टीका करते हुए राजवातिक प्रणता ने लिखा है-"उभयात्र जात्यापेक्ष बहुवचनं-- अनन्त भेदा अपि पुद्गला अणुजात्या स्कन्धनात्या"। "अणव", "स्कन्या" इन बहुवचनात्मक शब्दो का व्यवहार इस सूत्र में जाति-अपेक्षा से किया गया है। अणु-जातियो, स्कन्ध-जातियो की अपेक्षा पुद्गल अनन्त भेदवाले होते है। उन्होने आगे लिखा है--"वैविध्यमापद्यमाना सर्वे गृह्यत इति तदजात्यावानन्तभेदससूचनार्थ बहुवचन क्रियते"। अणु तथा स्कन्ध इन दो भेदो में सभी पुद्गल ग्रहण हो जाते हैं, लेकिन इन दो भेदो की जातियों के आधार पर अनन्त भेदो को बतलाने के लिए ही मसूचनार्थ ही उपरोक्त तत्त्वार्थसूत्र में बहुवचनो का प्रयोग किया गया है। भावगुणाश से अनन्त भेद-पुद्गल के वर्ण, रस, गन्व, स्पर्श धर्मों में शाक्तिक तारतम्यता होती है। जैसे काले वर्णवाले पुद्गलो में कालापन सव में समान नही होता है। कोई एक गुण काला होता है (एक गुणकाला माने सव से हल्का कालापन, जिससे हलका कालापन फिर नहीं हो सकता है-अविभागप्रतिच्छेदी कालापन)। यह कालापन, ऐकिक (Untary) होता है। कोई दोगुण काला होता है। कोई दसगुण काला होता है। कोई सख्यात्गुण काला, कोई असख्यात्गुण काला, कोई अनन्तगुण काला हो सकता है। यह गुणो की तारतम्यता परमाणुओ तथा स्कन्धो दोनो में होती है। इस Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल - प्रकार प्रत्येक वर्ण - काला, नीला, लाल, पीला, सफेद के गुणाशो की तारतम्यता की अपेक्षा पुद्गल के ग्रनन्त भेद होते हैं । इसी प्रकार गन्ध, रस, स्पर्श के गुणाशी की तारतम्यता की अपेक्षा पुद्गल के अनन्त अनन्त भेद होते हैं । पर्याय अपेक्षा से अनन्त भेद--पुद्गल परिणामी है। सघातभेद के निमित्त वन्ध-भेद को प्राप्त होकर पुद्गल वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, सस्थान में परिणमन करता है तथा इस प्रकार अनन्त व्यजन पर्यायो को धारण करता है । इन अनन्त पर्यायों की अपेक्षा पुद्गल के ग्रनन्त भेद जैसे शब्द, श्रातप, उद्योन, अन्धकार, पानी, पृथ्वी, वादल आदि होते हैं | Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय परमाणु-पुद्गल परमाणु - परम श्रणु अर्थात् सब से छोटा अणु । जिसका विभाग नही हो सके वा जिससे छोटा और कोई नही हो वही परमाणु कहलाता है । परमाणु चार तरह का कहा गया है' । क्षेत्र (१) द्रव्य - परमाणु - "पुद्गल परमाणु" । ( २ ) परमाणु - "श्राकाश-प्रदेश ।" काल-परमाणु - "समय" । (४) भाव-परमाणु - "गुण" । (३) भाव परमाणु चार तरह का कहा गया है वर्णगुण, गन्ध गुण, रसगुण और स्पर्शगुण । इसके उपभेद १६ हैं" (१) एक गुण काला, (२) एक गुण नोला, (३) एक गुण लाल, (४) एक गुण पीला, (५) एक गुण सफेद, (६) एक गुण सुगन्ध, (७) एक गुण दुर्गन्ध, (५) एक गुण खट्टा, (६) एक गुण मीठा, (१०) एक गुण कडवा, (११) एक १ - चउविहे परमाणु पण्णत्ते-तजहा- दव्व परमाणु, खेत्त परमाणू, काल परमाणू, भाव परमाणू । -भगवतीसूत्र २०५. १२ २- भगवतीसूत्र २० ५. ३- भगवतीसूत्र २० ५ १६ १ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल ५२ गुण कपाय, (१२) एक गुण तीखा, (१३) एक गुण उष्ण, (१४) एक गुण शीतल, (१५) एक गुण रूक्ष और (१६) एक गुण स्निग्ध । कारण अणु और अनन्त अणु I द्रव्य परमाणु को सामान्य रूप से "परमाणु पुद्गल" या सक्षेप में "परमाणु" कहा जाता है । सर्व पुद्गल निश्चयनय से ( From definite aspect ) परमाणु हैं । लेकिन परमाणु पुद्गल सदा परमाणु रूप में नही रहता है। अपने गलन - मिलन के स्वाभाविक धर्म के अनुसार दूसरे परमाणु या परमाणुत्रो के साथ, जीव के व्यापार से (प्रायोगिक) या विना जीव के व्यापार से (वैस्रसिक) - कितने ही नियमो के अनुवर्ती जो बन्ध होता है उससे उत्पन्न स्वरूप को स्कन्ध कहते हैं । इस स्कन्ध में वृद्ध कभी ‘भेदात्' किंवा 'सघात् भेदात् ' -- नियम फिर निज निज परमाणु स्वरूप हो सकता है । निज-निज के परमाणुओ का दल धनुवर्ती होकरवन्धन - अपेक्षा से परमाणु पुद्गलो को "कारण श्रणु" तथा भेद-प्रपेक्षा से " श्रनन्त श्रणु" ( Ultimate Particle) कहा जा सकता है । परमाणु पुद्गल की परिभाषा किसी प्रवीण श्राचार्य ने "परमाणु पुद्गल" की अनुपम सक्षिप्त परिभाषा इस प्रकार पदवद्ध की है। - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय परमाणु-पुद्गल ५३ "कारणमेव तदन्त्य सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणु । एकरम गन्ववर्णों द्विम्पर्य कालिंगश्च ॥" इन पद को ग्वेताम्बर-दिगाम्बर-दोनो मतो के आचार्यों ने उद्धृत किया है तथा इस पर टीकाएं की है। इस पद के अनुसार परमाणु पुद्गल (१) "कारण है" अर्थात् स्कन्ध पुद्गलो के बनने का कारण या निमित्त है। (२) "अन्त्य है" यर्थात् स्कन्ध पुद्गलो का भेद करते-करते अन्त में परमाणु निकलता है। (3) "सूक्ष्म है" अर्थात्-चरम क्षुद्र है। (४) "नित्य है" अर्थात्-परमाणु का कभी विनाश नहीं होता है। स्कन्ध स्प परिणमन होकर भी इसका व्यक्तित्व (Indviduality) नष्ट नहीं होता है। (५) “एक रन गन्ध वर्ण वाला है" अर्थात्-परमाणु के पाँच ग्मो में से कोई एक ही ग्म होता है, दो गन्यो में से एक ही गन्च होता है और पांच वर्षों में मे कोई एक वर्ण होता है। - १-तत्वार्य पर सिद्धिसेन गणि टीका ५ २५ । तत्त्वार्य राज वार्तिकम् ५ २५ १५ २-भगवतीसूत्र १४ ४५ ३-भगवतीसूत्र १८ ६ ५ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल (६) "द्विस्पर्शी है" अर्थात्-रूक्ष, स्निग्य, शीत और उप्ण ---इन चार स्पर्शों में से परमाणु मे कोई दो अविरोधी स्पर्श होते है । परमाणु या तो रूक्ष-शीत, या रुक्ष उष्ण, या स्निग्ध-गीत या स्निग्ध-उप्ण होता है। (७) "कार्यलिंग है"। परमाणु के सामूहिक कार्यों को देखकर ही इसका अनुमान किया जाता है। परमाणु के धर्मों का भी स्कन्ध पुद्गलो के मूल धर्मों को देखकर अनुमान किया जाता है। साधारण ज्ञान वाले जीव के लिए "परमाणु पुद्गल" उसके कार्यों से ही अनुमेय है। केवल ज्ञानी तथा परमावधि-ज्ञानी ही इसको भाव से जानते व देखते है। परमाणु पुद्गल के गुण "परमाणु पुद्गल" अविभाज्य, अछेद्य, अभेद्य, और अदाह्य है। किसी भी उपाय, उपचार या उपाधि से परमाणु का भाग नही हो सकता है। वज्र पटल से भी परमाणु का विभाग या भाग नहीं हो सकता है। किसी शस्त्र सेतीक्ष्णातितीक्ष्ण से भी इसका १-भगवतीसूत्र १८ ६ ५ २-भगवतीसूत्र १८ ८ ७ ३-भगवतीसूत्र १८ •८ ११ तया १२ ४-भगवतीसूत्र २० ५. १२ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय परमाणु-पुद्गल ५५ क्रमण या भाग नहीं हो सकता है। परमाणु तलवार की धार या उनसे भी तीक्ष्ण धारवाले गस्त्र की धार पर रह सकता है। नलवार या क्षुर की तीक्ष्ण धार पर रहे हुए परमाणु-पुद्गल या टेदनभेदन नहीं हो सस्ता है या किया जा सकता है। परमाणु पुद्गल अग्निकाय के बीच में प्रवेग करके जलता नहीं है। पुष्कर मरत महामेघ के बीच में प्रवेग पर भीगता या आद्र नहीं होता है। गगा महानदी के प्रतियोत में मीत्रता से प्रवेश कर नष्ट नहीं होता है। उदक वन या उदव विन्दु में प्राथय लेकर विलोप नहीं होता है। "परमाणु पुद्गल" अनय है, अमत्र्य है, अप्रदेशी है, नावं नही है, नमव्य नहीं है, सप्रदेगी नहीं है। परमाणु पुद्गल का श्रादि भी नहीं है, अन्न भी नहीं है, मध्य भी नहीं है। यह मूक्ष्मातिमूक्ष्म है। परमाणु को न लम्बाई है, न चौटाई है, न गहगई है, यदि है तो इकाई रप है। यह माण्डलिक विन्दु (Spherical point) कहा जा सकता है। परमाणु निरागी है। यह सूक्ष्मता के कारण स्वय आदि, स्वय मध्य, स्वय ही अन्त है। १-भगवतीसूत्र ५ • ७ ६ २-भगवतीसूत्र ५ ७ ६ ३-भगवतीसूत्र ५ ७ ८ ४-भगवतीसून ५ ७ ६ ५-सोक्षम्यादात्यादयः प्रात्ममध्या प्रात्माताश्च । -राजवातिकम् ५:२५ १ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल अन्य एक प्राचार्य ने कहा है "प्रतादि अतमज्या अतते पेव इन्दिएगेज्या। ज दव प्रविभागी त परमाणु विण्णाणादि ।। जिसका आदि मध्य अन्त सव एक ही है, जो इन्द्रिय-ग्राह्य नही है, जो अविभागी है, ऐसे द्रव्य को परमाणु जानो। पुदगल परिभाषा की कसौटी पर (१) परमाणु पुद्गल द्रव्य है। इसका नाम ही द्रव्य परमाणु है। (१क) यह नित्य तथा अवस्थित है क्योकि यह स्कन्ध रूप परिणमन करके भी अपने व्यक्तित्व तथा स्वजाति को परित्याग नही करता है। यह "Law of Conservation of mass" को पालन करता है क्योकि कोई भी परमाणु नष्ट या विलोप नही होता है तथा न कोई नया परमाणु पुद्गल लोक में उद्भव होता है। जितने परमाणु थे, उतने ही है, उतने ही रहेंगे। (२) यह अजीव है। जीवत्व के लक्षण-गुण इसमे नही है। (३) इसका अस्तित्व है। परमाणु पुद्गल का अस्तित्व अनुमेय है। (४) परमाणु काय नही। वह कायरहित (Massless) है क्योकि यह ऐकिक (Unitary)है। लेकिन दूसरेपरमाणु Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय परमाणु-पुद्गल ५७ के साथ वन्य को प्राप्त होकर कायत्व ग्रहण कर सकता है। अत परमाणु पुद्गल को उपचार से काय वाला कहा जा सकता है। (५) परमाणु पुद्गल में स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण चारो ही होते हैं। लेकिन यह सस्थान-रहित है। इसके आकार को माण्डलिक विन्दु (Sphencal point) मात्र कहा जा सकता है। इसकी लम्वाई, चौडाई व गहराई कुछ नही है। द्वि-क्षेत्र प्रादेशिक वन्वन से ही सस्थान (इस दशा मे आयात) प्रारम्भ होता है। ६) परमाणु पुद्गल क्रिया करने में समर्थ है। यह देशान्तर प्रापिणी क्रिया तथा अन्यान्य क्रिया कर सकता है। लेकिन परमाणु पुद्गल की क्रियायें अनियत (Uncertain) हैं। (७) परमाणु पुद्गल स्वय न गलता है, न भिन्न ही होता है, न विखरता है और न गलन होकर, भिन्न होकर, विखर कर पूरण होता है, मिलता है। लेकिन दूसरे परमाणु या परमाणुओ के साथ मिलकर-समवाय को प्राप्त होकर-फिर भिन्न होता है, उस स्कन्धत्व को छोडकर अलग होता है। परमाणु पुद्गल आत्मभूत रूप मे गलन-मिलनकारी नहीं है लेकिन परमाणुओ का दल वन्धन-भेद को प्राप्त होता है। अत समवाय रूप में गलन-मिलनकारी है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल (८) परमाणु पुद्गल परिणामी है। अगुरुलघु-भाव में यह स्वय परिणामी है। यह अगुरुलघु परिणमन परमाणु पुद्गल के वर्ण , रस, गन्ध, स्पर्श के गुणाशो में होता है। एक परमाणु पुद्गल दूसरे परमाणु पुद्गल के साथ वन्धन को प्राप्त होकर पिछले परमाणु के द्वारा परिणमित किया जा सकता है। (९) परमाणु अनन्त है। (१०) परमाणु की गति प्रति चपल' होने पर भी यह आलोक में जाने में असमर्थ है। लोक में सर्वत्र इसकी गति है तथा लोक में यह सर्वत्र है। अत परमाणु पुद्गल लोक-प्रमाण कहा जाता है। । (११) परमाणु पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण नही किया जा सकता है' क्योकि यह अतिसूक्ष्म है। अत आत्मभूत अवस्था में परमाणु पुद्गल जीव का कोई भी उपकार नहीं करता है और न जीव के परियोग में आता है। १-भगवतीसूत्र २५ • ४ ३८ २-एक समया लोकान्त प्रापिण । --भगवतीसूत्र १ ३-भगवतीसत्र २० ५ १३ का ४॥ ४-भगवतीसूत्र १८ ४ ६ ६ ८ - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय विभिन्न अपेक्षाओं से परमाणु पुद्गल नाम-अपेक्षा-परमाणु-पुद्गन को केवल "परमाणु" या "द्रव्य परमाणु" भी कहा जाता है। द्रव्य-अपेक्षा परना-शुद्गल "द्रव्य" है, क्योकि परमाणु पुद्गल के गृण तथा पर्याय दोनों होते हैं। क्षेत्र अपेक्षा-परमाण-पुदगल अलोक क्षेत्र में नहीं है और न जा सकता है। लोक क्षेत्र में नवंत्र है। स्वयं व्यक्ति भाव ने (Individually) एक्क्षेत्र प्रदेश में है। व्यक्तिगत वह एकत्र प्रदेश ही रोकता है, दो या अधिक क्षेत्रप्रदेश नहीं रोक सकता है। एकक्षेत्र प्रदेश में दूसरे परमाणु-पुद्गली के साथ मिलकर भी रह सस्ता है। माल-अपेक्षा-परमाणु-पुदगल त्रिकालवर्ती है। अनन्त मृतकाल में था, वर्तमानकाल में भी है, तथा अनागत भविप्यतकाल में रहेगा। भाव-अपेक्षा परमाण-सुद्गल में वर्ण, रन, गन्ध, तथा स्पा होते हैं। वर्ण, रस, गन्ध, तया स्पर्ग यह चारो परमाण-पुदगल के मात्र कहे गये हैं। नित्यानित्य-अपेक्षा-परमाणु-पुद्गल नित्य है, अनित्य नहीं है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल यह नप्ट विनष्ट नहीं होता। जितने परमाण-पुदुगल है, उतने ही रहेगे, उनमें से एक भी, किसी भी कारण से, कम नहीं होगा और न किमीके द्वारा नष्ट हो सकेगा। वे जितने हैं, उतने ही रहेंगे। अवस्थित-अपेक्षा--कोई नवीन परमाणु-पुद्गल न स्वत बनेगा, न किसीके बनाये बनेगा। जितने परमाण-पुद्गल है, उस सख्या में एक भी वृद्धि, किसी भी कारण से, नही होगी। भूतकाल में भी कोई नया परमाणु नही बना था, वर्तमानकाल में भी कोई नया परमाणु नही बनता है और न भविष्यत् काल में कोई नया परमाणु वन सकेगा। अस्ति-अपेक्षा-परमाणु-पुद्गल "उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्त सत्" इस नियम का प्रतिपालक है, अतएव सत्-अस्ति है। केवल कल्पना नहीं है। परमाणु-पुद्गल विद्यमान है। रूप-अपेक्षा--परमाणु-पुद्गल रूपी है, अरूपी नहीं है, क्योकि इसमें वर्ण, रस, गन्ध तथा स्पर्श के भाव होते है तथा अन्य परमाणु के साथ बन्धन को प्राप्त होकर वह सस्थान भाव भी ग्रहण कर सकता है । वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान से ही रूप प्रस्फुटित होता है। ____ आकार-अपेक्षा-परमाणु-पुद्गल आकाररहित है, लेकिन निराकार व अरुपी नही है। यह मात्र माण्डलिक विन्दु ही कहा जा सकता है। ६ सस्थानो में, परमाणु-पुद्गल का कोई भी सस्थान नही होता है। परन्तु अन्य परमाणु या परमाणु के साथ सघवत होकर आकार का उत्पादक है। दो परमाणु मिलकर आयत आकार धारण कर सकते है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम अध्याय .विभिन्न अपेक्षामो से परमाणु पदगल ६१ परिणाम-अपेक्षा-परमाणु-पुद्गल परिणामी है। वर्ण, रस, गन्ध, तया स्पर्म के भावों में परिणामी है। परमाणु-पुद्गल में केवल चार वर्ण, रस, गन्व, स्पर्श के परिणाम होते है। मस्थान का परिणमन परमाणु की व्यक्तिगत स्वतन्त्र अवस्था में नहीं होता है, क्योंकि यह आकाररहित है तथा व्यक्तिगत अवस्था में कोई प्राकार ग्रहण नहीं करता है। व्यक्तिगत अवस्था में परमाणपुद्गल भावां के गुणो की वृद्धि हानि-रूप परिणमन करता है, लेक्नि अन्य परमाण के माय बन्धन को प्राप्त होकर भावो के त्पभेदो में भी परिणमन करता है। स्व अवम्या में परमाणु में क्वल विन्नमा परिणमन ही होता है। अगुरु-लघु-अपेक्षा-(क) परमाणु-युद्गल काय अपेक्षा अगुरुलघु है। पिण्डहीन तथा प्रदेगहीन है। इसने लधु यानी छोटा या हल्का और कोई नहीं है। यह अगर अर्थात किमी से वडा या भारी नहीं है। (ब) परमाणु-पुद्गल भाव-अपना अपने भाव-गुणो में व्यक्तिगत अवस्या में अगुरु-लघु है अर्थात् इनके भाव-गुणो की शक्तियों में पट् परिणाम में हानि-वृद्धि होती है। परमाणु-पुद्गल अकेला रहकर भी अपने भाव-गुणों में पट् परिणाम से परिणमन करता है। उदाहरण-एक परमाणु पुद्गल एक-गुण काला है। वह अपने अगुरु-लघु गुण मे अनन्त गुण काला हो सकता है तथा १-भगवतीसूत्र ८ . १० ४ Page #80 --------------------------------------------------------------------------  Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम अध्याय विभिन्न अपेक्षाओं से परमाणु पुद्गल ६३ परमाणु-पुद्गल में नहीं रह सकता है, अत परमाणु-पुद्गल सचित्त नहीं हो सकता है। लेकिन जीव और परमाणु-मुद्गल एकक्षेत्र प्रदेश में एक साथ रह सकते हैं। श्रात्मा-अपेक्षा-परमाणु-पुद्गल के प्रात्मा होती है। इस 'आत्मा' शब्द का अर्थ जीवात्मा नहीं है। परमाणु का अपना निज का एक व्यक्तित्व होता है। इसी व्यक्तित्व को यहाँ आत्मा कहा गया है। यह व्यक्तित्व परमाणु-पुद्गल के भावो में प्रस्फुटित होता है। कहा जा सकता है कि परमाणु-पुद्गल का निज का स्वतन्त्र स्वभाव होता है, जो किसी दूसरे परमाणु-पुद्गल से भिन्न होता है। परमाणु-पुद्गल एक आत्मा है। प्रदेश-अपेक्षा-परमाणु-पुद्गल द्रव्यदेश से अप्रदेशी है। अत क्षेत्रदेश से वह नियम से अप्रदेशी है, काल देश मे स्यात् अप्रदेशी है, स्यात् सप्रदेशी है, भाव-देश से भी स्यात् अप्रदेशी है, स्यात् सप्रदेशी है। क्षेत्रप्रदेश-अपेक्षा-परमाणु-पुद्गल क्षेत्रप्रदेश अपेक्षा अप्रदेशी है अर्थात् एक ही क्षेत्रप्रदेश को रोकता है। व्यक्तिगत अवस्था में तो एक क्षेत्रप्रदेश रोकता है तथा दूसरे परमाणु के साथ सघवद्ध होकर भी स्वय एक ही क्षेत्रप्रदेश रोकता है, लेकिन समीप के दूसरे १-भगवतीसूत्र १२ १० १६ २-भगवतीसूत्र ५ ७ • ६ ३-भगवतीसूत्र ५ • ८ २ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल क्षेत्र-प्रदेश में स्थित परमाणु के साथ वन्धन प्राप्त होकर रह सकता है। स्कन्ध में वद्ध परमाणु भी स्वय एक ही क्षेत्रप्रदेश रोकता है, एक से अधिक नहीं रोक सकता है। क्षेत्र अवस्थान में सगी--जहाँ एक परमाणु पुद्गल है, वहाँ धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश है, अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश है, आकाश का एक प्रदेश है। जीव के अनन्त प्रदेश हो सकते है,पुद्गलास्तिकाय के भी अनन्त प्रदेश हो सकते है , अद्धा समय का स्यात् अवगाह होता है, स्यात् नही। यदि स्यात् अवगाह हो तो अनन्त श्रद्धा समय का अवगाह होता है। जेयत्व-अपेक्षा--परमाणु-पुद्गल को छद्मस्थ मनुष्यो में कोई जानता है, देखता नहीं है, कोई जानता भी नहीं है, देखता भी नही है। छमस्थ मनुष्य परमाणु को देख नही सकता। अवधिज्ञानी जीवो में कोई जानता है, देखता नही है, कोई जानता भी नही है, देखता भी नही है। अवधिज्ञानी जीव भी परमाणु-पुद्गल को देख नही सकता है। परमावधि ज्ञानी तथा केवलज्ञानी जीव परमाणु-पुद्गल को जानता भी है, देखता भी है, लेकिन जिस समय जानता है उस समय देखता नही, जिस समय देखता है उस समय जानता नहीं है। परमाणु-पुद्गल अति सूक्ष्म है, साधारण जीव के लिए अनुमेय कहा गया है। वर्ण-अपेक्षा-परमाणु पुद्गल में पाँच वर्गों में (लाल, पीला, १-भगवतीसूत्र १८ ८ •७ और १०, ११, १२ Page #83 --------------------------------------------------------------------------  Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल ६६ परमाणुत्रो के साथ बन्धन होने से सुगन्ध वाला दुर्गन्ध में, दुर्गन्ध वाला सुगन्ध में परिणमन कर सकता है । वन्धन भेद से भेद होने पर अपनी स्वाभाविक गन्ध में परिणमन कर लेता है । वन्धन अवस्था में परमाणु की स्वाभाविक गन्ध का विनाश या विलोप नही होता है । स्पर्श-पेक्षा- परमाणु-पुद्गल में उष्ण, शीत, रूक्ष, तथा स्निग्धइन चार स्पर्शो में से कोई दो अविरोवी स्पर्श होते है । श्रत. परमाणु-पुद्गल या तो (१) उष्ण- रूक्ष, या (२) उष्णस्निग्ध, या (३) शीत-रूक्ष या (४) शीत-स्निग्ध होगा । परमाणुपुद्गल में हलका- भारी स्पर्श नही होता, क्योकि यह अगुरु-लघु होता है और न परमाणु- पुद्गल में कठोर नरम स्पर्श होता है, क्योकि ये दोनो स्थूल स्कन्ध में ही सम्भव है । उष्ण, शीत, रूक्ष, तथा स्निग्ध की शक्ति एक गुण से श्रनन्तगुण तक की हो सकती है। जाति-अपेक्षा -- परमाणु- पुद्गलो की, भावगुणो की विभिन्नता के कारण, अनेक जातियाँ होती है । ५x५x२x४२०० मूल जातियाँ होगी तथा भावगुणो के शक्ति- गुणो की तारतम्यता से अनन्तानन्त जाति भेद होगे। पहला उदाहरण -- एक परमाणुपुद्गल काला है, सुगन्धवाला है, मीठा है, उष्ण तथा रूक्ष है । दूसरा परमाणु-पुद्गल लाल है, लेकिन अवशेप ऊपरवाले परमाणु की तरह है । पहले परमाणु जैसे भाव गुणवाले अनेक परमाणु १ - तत्त्वार्थ राजवत्तिकम् । Page #85 --------------------------------------------------------------------------  Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल कल्पना भी नही हो सकती। परमाणु-पुद्गल दो प्रदेशी पुद्गलस्कन्ध को ७वें या हवें भागे से स्पर्श करता है। परमाणु-पुद्गल तीन प्रदेशीय पुद्गल-स्कन्ध को ७३, ८वे या हवें भागे से स्पर्श करता है। जिस प्रकार तीन प्रदेशीय स्कन्ध को स्पर्ण करता है, उमी प्रकार ४, ५, यावत् अनन्त-प्रदेशीय स्कन्व को उसी ७वें, या वें नियम से स्पर्श करता है। द्रव्य-स्पर्शता-अपेक्षा---एक परमाणु-पुद्गल को अन्य द्रव्यो के कितने प्रदेश स्पर्श कर सकते है, या यो कहिये, परमाणु पुद्गल अन्य द्रव्यो के कितने प्रदेशो को स्पर्श कर सकता है? एक परमाणुपुद्गल अधर्मास्तिकाय के जघन्य पद मे ४ तथा उत्कृष्ट पद में ७ प्रदेशो को स्पर्श करता है। अर्थात-एक परमाणु-पुद्गल जिस क्षेत्र-प्रदेश में है, वहां अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश होता है तथा एक परमाणु-पुद्गल के ६ तरफ (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व तथा अघोदिशाओ में) ६ अधर्मास्तिकाय के प्रदेश हो सकते है। अत परमाणु-पुद्गल उत्कृष्ट में अधर्मास्तिकाय के ७ प्रदेशो को स्पर्श कर सकता है। लेकिन लोकाकाश के कोने में परमाणुपुद्गल के तीन ही तरफ अधर्मास्तिकाय के प्रदेश हो सकते हैं, इसलिए जघन्य में परमाणु-पुद्गल को अधर्मास्तिकाय के चार प्रदेश स्पर्श कर सकते है। एक क्षेत्र-प्रदेश में साथ में अवगाह करनेवाले अधर्मास्तिकाय के प्रदेश को परमाणु-पुद्गल उपर्युक्त हवें भागे ११-भगवतीसूत्र ५ ७ १३ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम अध्याय विभिन्न अपेक्षालो से परमाणु पुद्गल ६६ से स्पर्श करता है। लेकिन अपने ६ तरफ ६ दिशाओ में अवस्थित अवर्मास्तिकाय के प्रदेशो को किस भागे से स्पर्श करता है, यह ठीक ममझ में नहीं आता। एक क्षेत्र-प्रदेश तथा अन्य क्षेत्र-प्रदेश के मध्य में कोई खालीपन या फांक या अन्तर नही होता है। इसलिए सलग्न में अवस्थित दो विन्दुनो में जो स्पर्श होता है, वही स्पर्श मलग्न अवस्थित अधर्मास्तिकाय के प्रदेश के साथ परमाणु-पुद्गल का होना चाहिए। निराशी में प्रश या देश की कल्पना करना व्यर्थ है। इसी तरह परमाणु-पुद्गल धर्मास्तिकाय के जघन्य पद में ४ तथा उत्कृष्ट पद में ७ प्रदेशो को स्पर्श करता है। वह प्राकागास्तिकाय के जघन्य या उत्कृष्ट दोनो मे ७ ही प्रदेशो को स्पर्श करता है, क्योकि आकाशास्तिकाय सर्वत्र है। वह जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेशो को स्पर्श करता है, क्योकि एक क्षेत्र-प्रदेश में जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेश अवगाहन कर सकते है। यदि परमाणु-पुद्गल श्रद्धा समय के माथ स्पर्श करे, तो अनन्त अद्धा समय के साथ स्पर्श करता है। क्रिम तथा गति-अपेक्षा--परमाणु-पुद्गल क्रियावान् है तथा गतिशील है। मर्वदा ही क्रियावान या गतिशील है, ऐसी वात नही है। कभी क्रिया करता है, कभी नही भी करता। इसकी १-भगवतीसूत्र १३ ४ २३ २-भगवतीसूत्र १३ ४ ३६ ३-भगवतीसूत्र ५ ७ १ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्य-विज्ञान में पुद्गल क्रियायें आकस्मिक होती है। परमाणु-पुद्गल की क्रियायें अनेक प्रकार की होती है। भगवती सूत्र ५७१ मे "कभी कम्पन करता है, कभी विविध कम्पन करता है" पद के वाद यावत् परिणमन (क्रिया) करता है, इस प्रकार लिखा है (सिय एयति सिय वेयति जाव परिणमति)।"जाव" शब्द के व्यवहार से स्पष्ट है कि परमाणुपुद्गल "एयति" "वेयति" के सिवा अन्य क्रियाएँ भी करता है। क्रियामो के भेद सूत्रो में विस्तार से नहीं मिलते है। टीकाकार अभयदेव सूरिने भी "क्रिया" के भेदो को खोज कर सग्रह करने को कहा है-(भगवती ३१३ की टीका)। परमाणु-पुद्गल एक क्षेत्र प्रदेश में जाने की देशान्तरगामी क्रिया भी कर सकता है। परमाणु-पुद्गल कम्पन-क्रिया करते-करते देशान्तरगामी क्रिया भी कर सकता है। देशान्तरगामी क्रिया कम्पन आदि अन्य क्रियायो के ताय हो सकती है। अब प्रश्न उठता है कि एक ही क्षेत्रप्रदेश में अवगाहन करता हुआ परमाणु-पुद्गल कैसी कम्पन-क्रिया कर सकता है। प्रचलित में कम्पन शब्द का जो अर्थ लिया जाता है, वह अर्थ धूजना यहाँ काम्य नहीं हो सकता है, क्योकि उसमे क्षेत्रप्रदेश से चलन होता है। अत एक क्षेत्र-प्रदेश में ही रहते हुए परमाणु-पुद्गल आवर्तन-क्रिया ही कर सकता है, लेकिन यह आवर्तन धुरीहीन होना चाहिए, क्योकि परमाणु मे धुरी की कल्पना नहीं १-भगवतीसूत्र ५ . ७ पर अभयवेव सूरि टीका। २-भगवतीसूत्र ५ : ७ • १७ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम अध्याय विभिन्न अपेक्षानो से परमाणु पुदगल ७१ हो मक्ती है। "पद्रव्यम्पर्मता" में परमाणु-युद्गल की दिशायें न्यापित की गयी है, क्या उमी तरह धुरी की स्थापना की जा सकती है। इन विषय में विगेप लोज की पावश्यकता है। परमाणु मुद्गल की कम्पन आदि क्रिया ममित (नमिय) नया अनियमित भी हो सकती है। यहाँ यह नियमितता या अनियमितता क्षेप-नमय मापेस है। परमाणु-पुद्गल में निण्या या गति म्वत (विनमा) हो मक्ती है अयवा अन्य परमाणु-पुद्गल या वन्य-पुद्गल के मयोग में हो माती है। एक पुद्गल में दूसरे पुद्गल के मयोग-प्रयोग ने जिन ग्न्यिा एव गति की उत्पत्ति होती है, उसे विनमा क्त है । जीव के निमिन में जीनिवाार गति पृद्गन में होनी है, उने प्रायोगिर प्रिन्या व गति कहते है। लेकिन परमाणु-पुद्गल में जीव के निमित्त से कोई किया और गति नहीं हो सकती, क्योकि परमाणु-पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण नहीं दिया जा मक्ता नया पुद्गल को ग्रहण क्येि विना पुद्ग में परिणमन कराने की शक्ति जीव में नहीं है। प्रत परमाण-पुद्गन में जो किया व गति होती है, वह विस्रमा ही होती परमाणु-पुद्गन की मिन्या और गति की तेजी कितनी होती है? कम्पन आदि मियानी की चाल के सम्बन्ध में कोई उल्लेख मूत्रा में अभी तक दप्टिगोचर नहीं हुआ है, लेकिन देशान्तरगामिनी निया यानी गति-क्रिया के सम्बन्ध में भगवतीनूत्र (१६ ८ ७) में कहा है कि परमाणु-पुद्गल लोक के पूर्व चरमान्त से पश्चिम चरमान्त, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल पश्चिम से पूर्व चन्ति, उत्तर से दक्षिण, दक्षिण से उत्तर, ऊर्ध्व चरमान्त से आयोचरमान्त तक एक समय में जा सकता है। यह हुई परमाणु-पुद्गल की उत्कृष्ट गति। उसकी जघन्य गति होगी एक समय में एक आकाश-प्रदेश से मलग्न अन्य आकाश-प्रदेश में जाना। परमाणु-पुद्गल की गति अणु-श्रेणी की होती है, अणु-श्रेणी अर्थात् मरल-रेखा। एक समय (काल की इकाई) में जितना देशान्तर हो, चाहे वह एक लोकान्त से दूसरे विपरीत लोकान्त तक का ही क्यो न हो, सरल रेखा मे ही होगा (तत्त्वार्थसूत्र भाष्य)। वियह होने से, एक से अधिक समय लगेगा। विग्रह पर प्रयोग से ही होता है-(तत्त्वार्थसूत्र २ २७ पर सिद्धिसेन गणि टीका)। क्रिया व गति अपेक्षा-परमाणु-पुद्गल की क्रिया व गति कितनी ही अपेक्षाओ से नियत है तथा कितनी ही अपेक्षामो से अनियत है। लेकिन मुख्य रूप से अनियत है, इसीलिए तत्त्वार्थ राजवार्तिककार ने परमाणु की गति को अनियत कहा है (परमाणोगति अनियता)। नियत नियम(१) देशान्तरगति सरल रेखा में होगी। (२) विग्रह होने से अर्थात् गति में वक्रता होने से अन्य पुद्गल का प्रयोग आवश्यक है। (३) परमाणु की गति में जीव प्रत्यक्ष कारण नही हो सकता। (४) जघन्य चाल एक समय में एक प्रदेश का देशान्तर, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम अध्याय विभिन्न अपेक्षाओं मे परमाणु पुद्गल ७३ उत्कृष्ट चाल, एक समय में एक लोकान्न ने विपरीत लोकान्त तक का देशान्तर है। (५) गति व क्रियान्वन भी कर सकता है तथा अन्य पुद्गल के प्रयोग ने भी कर सकता है। अनियत नियम (१) स्थिर - निष्किय-परमाणु-पुद्गल क्विनमय तिव रिया आरम्भ करेगा - यह अनिश्चित है। एक ममय में लेकर श्रमन्येव नमय के भीतर किनी नमय में भी किया व गति प्रारम्भ कर सकता है। लेकिन धमन्यात् नमन के उपरान्त निश्चय ही गति व किया प्रारम्भ करेगा । Cand (२) तिमानयि परमाणु-पुद्गल कब गति व किना बन्द करेगा यह अनियन है। एक समय ने लेकर ग्रावलिका के अस्यात् भाग समय के भीतर किनी नमय भी क्रिया व गति बन्द कर सकता है । लेकिन श्रावनिका के श्रमख्यात् भाग नमय के उपरान्त निश्चय ही गति व क्रिया बन्द करेगा | (३) देशान्तर गति आरम्भ करने ने यह किन दिया में गति प्रारम्भ करेगा, यह अनियत है । स्वत गति थारम्न करने में यह किमी भी दिशा में गति कर नकता है। पर पुद्गल - प्रयोग से पति करने मे किस दिशा में गति करेगा, इनके नियम अभीतक हमको उपलब्ध नही Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल हुए है। (४) गति व क्रिया प्रारम्भ करने से यह किस प्रकार की गति व क्रिया करेगा यह भी अनियत है। यह कम्पन करेगा, आवर्तन करेगा, या देशान्तर करेगा, या कम्पन तथा देशान्तर एक साथ करेगा यह अनियत है। (५) गति व क्रिया आरम्भ करने से कितनी मन्द या तेज चाल से गति करेगा, यह भी अनिश्चित है। एक समय में एक प्रदेश की देशान्तरवाली चाल ग्रहण करेगा या एक समय में लोकान्तप्रापीणि चाल ग्रहण करेगा या इनकी मध्यवर्ती कोई चाल ग्रहण करेगा, यह भी अनियत है। उपर्युक्त ५ अनियतो के सम्बन्ध मे सूत्रो में या सिद्धान्त-ग्रन्थो में हमें कोई विशद विवेचन नजर नही आया, खोज जारी है। प्रतिघाती-अप्रतिघाती अपेक्षा-परमाणु-पुद्गल अप्रतिघाती है। अप्रतिघाती अर्थात् जिसको कोई प्रतिहत नही कर सकता है, बाधा नहीं दे सकता है, तथा रोक नही सकता है। अप्रतिघातित्व के चार रुपक हो सकते है(१) देशान्तर गति में रुकावट न होना, (२) जहाँ अन्य हो, वहां जाकर अनके साथ अवस्थान कर सकना, (३) जहाँ अन्य हो, वहाँ रह कर उन अन्यो से निरपेक्ष Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम अध्याय विभिन्न अपेक्षाओ से परमाणु पुद्गल ७५ क्रिया कर सकना श्रीर (४) ग्रन्यो के साथ अवस्थान करते हुए वहाँ में बिना किसी रुकावट के देशान्तर कर सकना । परमाणु-पुद्गल में ये चारो रुपक सम्भव है । ग्रत परमाणुपुद्गल अप्रतिघाती है। गतिमान या क्रियावान परमाणु- पुद्गल किसी अन्य पुद्गल, किमी जीव, किसी अन्य द्रव्य से रोका नही जा सकता है। गतिमान परमाणु- पुद्गल मवके भीतर से गति करता हुआ निकल जाता है । जहाँ ग्रन्य पुद्गल या जीव या अन्य द्रव्य है, उमी श्राकाश-प्रदेश में जाकर वह श्रवगाह कर सकता है। परमाणु-पुद्गल अन्यो के साथ श्रवगाह करता हुश्रा, निरपेक्ष भाव से कम्पन आदि क्रिया कर सकता है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख कही नही मिला है। लेकिन ऐसा होना सम्भव है । पूर्ण स्वतन्त्रता और अप्रतिघातित्व परमाणु- पुद्गल निज में श्रप्रतिधाती है तथा दूसरो के प्रति भी प्रतिघाती है अर्थात् दूमरो को भी प्रतिहत नही करता है । इस प्रकार परमाणु- पुद्गल पूर्ण स्वतन्त्र है, जब जो इच्छा हुई, सो की, उसे कोई रोकने वाला नही है । लेकिन पूर्णता मे नजर लगने का डर रहता है, इसलिए परमाणु- पुद्गल ने अपनी स्वतन्त्रता में, अपने प्रतिघातित्व में, तीन अपवाद लगा रखे है अर्थात् तीन अवस्थानी में परमाणु-पुद्गल ने प्रतिहत होना स्वीकार कर रखा है। निम्नलिखित तीन अवस्था में परमाणु-पुद्गल Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल प्रतिहत होता है। सिद्धिसेनतत्वार्थ टीका - (१) धर्मास्तिकाय के अलोक में नहीं होने से, उपकार के अभाव में, लोकान्त में जाकर परमाणु-पुद्गल प्रतिहत हो जाता है, अलोक में नही जा सकता है। (२) अन्य परमाणु-पुद्गल या स्कन्ध-पुद्गल के साथ सघात को प्राप्त होकर स्निग्धता, रूक्षता नियमो के अनुसार उन परमाणु-पुद्गलो या स्कन्ध-पुद्गल के साथ बन्धन को प्राप्त होकर, प्रतिहत होता है, अपनी स्वतन्त्रता, नियत् काल के लिए, खो देता है। (३) विस्रसा परिणाम से वेग से गति करते हुए परमाणु पुद्गल का यदि किसी दूसरे विस्रमा परिणाम से वेग से गति करते हुए परमाणु-पुद्गल से आयतन सयोग हो, तो वह परमाणु-पुद्गल निज में भी प्रतिहत हो सकता है तथा दूसरे परमाणु को भी प्रतिहत कर सकता है। अटकावेगा ही या अटकेगा ही, ऐसा नियम नही मालूम होता है। उपर्युक्त प्रतिघातो के क्रम से ये तीन नाम है-(१) उपकाराभाव-प्रतिघात, (२) वन्धन-परिणाम-प्रतिघात, और (३) गतिवेग-प्रतिघात। प्रतिघातो का विवेचन परमाणु-पुद्गल की गति मे धर्मास्तिकाय अवलम्बनात् उपकारी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम अध्याय . विभिन्न अपेक्षामो से परमाणु पुद्गल ७७ है। परमाणु-पुद्गल को क्रिया या गति करने में धर्मास्तिकाय का अवलम्बन लेना होता है। इस अवलम्वन के विना गति व क्रिया करने की सामर्थ्य रहते हुए भी परमाणु-पुद्गल गति व क्रिया नही कर सकता है। धर्मास्तिकाय लोकक्षेत्र में ही है, अलोकक्षेत्र में नहीं है, निष्क्रिय तथा अचल होने से लोक से अलोक में नहीं जा सकती है। अत परमाणु-पुद्गल परमवेग की एक समया लोकान्तप्रापिणी गति करते हुए भी लोकान्त में प्राकर प्रतिहत हो जाता है, एक जाता है। (२) सघात से बन्धनप्राप्त परमाणु-पुद्गल अन्य परमाणु या परमाणुप्रो के साथ समवाय मे रहता है तथा समवाय में ही गति व क्रिया करता है। इस प्रकार अपनी स्वतन्त्र अवस्था से प्रतिहत होता है। परमाणु की यह प्रतिहतता ही जगत की दृश्यमान विचित्रता का कारण है। (३) वेग प्रतिघात के सम्बन्ध में विशेष विवरण अभी तक कही पर नजर नहीं आया है। इस विपय में निम्नलिखित प्रश्न अवस्थापित होते है --- (१) प्रतिहत होने लायक वेग की शक्ति कितनी होनी चाहिए? (२) क्या जघन्य वेग में प्रतिघात होता है ? (३) क्या दोनो परमाणुमो की वेग-शक्ति का समान होना आवश्यक है? (४) क्या गति में विग्रह होना प्रतिघात माना जा सकता है? (५) क्या असमान वेग-शक्ति होने से एक परमाणु प्रतिहत होगा तथा दूसरा अधिक वेग-शक्तिवाला गति करता ही Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैन पदार्थ विज्ञान में पुद्गल रहेगा, या दोनो ही गतिहीन हो जायँगे, या दोनो ही गतिवेग- ह्रास करके गति करते रहेंगे और यह गतिहास प्रतिघात होना माना जायगा ? (६) वेग से गतिमान परमाणु- पुद्गल आयतन सयोग होने पर छिटक कर सयोग क्षेत्र से दूर जाकर रुकेंगे या सयोगक्षेत्र में ही प्रतिहत होकर रहेंगे । शायद और भी प्रश्न श्रवस्थापित हो सकते है । इस वेगप्रतिघात से निम्नोक्त नियम निकलता है " गतिमान परमाणु- पुद्गल को यदि गति करते हुए कोई वेग से गतिमान परमाणु- पुद्गल या पुद्गल नही मिले, तो वह प्रतिहत नही होता है ।" इस प्रकार परमाणु- पुद्गल में प्रतिघाती - प्रतिघाती परस्परविरोधी भावो का होना माना गया है। आधुनिक विज्ञान ने भी पदार्थ (Matter) में इस प्रकार के प्रतिघाती अप्रतिघाती विरोधी भाव होने माने तथा दिखलाये है । उदाहरण स्वरूप - एक्सरे की किरणें अनेक प्रकार के स्थूल पदार्थों से अप्रतिघाती है, रुकती नही है, लेकिन शीशे की मोटी चादर से प्रतिहत हो जाती हैं । यह प्रशिक तुलनात्मक उदाहरण है । साइक्लोट्रन यन्त्र में होनेवाली क्रियाओ में शायद पूर्ण तुलनात्मक उदाहरण मिल सके । ---- -- geyhbig Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्टम अध्याय परिभाषा के सूत्र * १ - पूरणाद्गलनाद्पुद्गल इति सज्ञा । २ - पुगिलानाद्वा । * ३ - पुद्गल द्रव्यम् । (क) गुणपर्यायवद् ब्रव्यम् । (ख) द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा । (ग) भावान्तर सज्ञान्तर च पर्याय । * (घ) सहभाविनो धर्मा गुणा । * (च) क्रमभाविनो धर्मापर्याय । ४ - नित्यावस्थिता अजीवा । तदुद्भावाव्ययम् नित्यम् । न न्यूनाधिकमवस्थितम् । --राजवर्तकम् -- तत्त्वार्थसूत्र --तत्त्वार्यसूत्र तत्त्वार्यसूत्र भाष्य --तत्त्वार्थसूत्र (क) * ( ख ) * ( ग ) अनाद्यनिधन च । (घ) जीवादन्योऽजीव । --सिद्धिसेन गणि तत्त्वार्य टीका । (च) जीवो न भवतीत्यजीव । -- सिद्धिसेन गणि तत्त्वार्य टीका * जहाँ इस तरह के स्टार चिह्न है, वे सूत्र लेखक के स्व-निर्मित हैं। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन पदार्थ - विज्ञान नें पुद्गल *५ -सदस्तिकायाश्च । (क) उत्पादव्यय धौव्ययुक्त सत् । (च) कालत्रयाभिधायी प्रस्ति । - तत्त्वार्थसूत्र -- प्रभयदेव सूरि भगवती टोका (ग) काय प्रदेशराशय । - - श्रभयदेव सूरि भगवती टीका --तत्त्वार्यसूत्र ६ - रूपिण पुद्गला । : ( क ) न वर्णमात्र रूपम् । * (ख) स्पर्शरसगधवर्णसमवायात् रूपम् । ७- मूर्ताश्च । (क) वर्णादिसस्थानपरिणामो मूर्ति । ८- श्ररूपा पुद्गला न भवन्ति । १२ - सामर्थ्यात् सक्रियो । १३- परिणामिनौ जीवपुद्गलौ । -- सिद्धिसेन गणि तत्त्वार्थ टीका -तत्त्वार्थसूत्र E - स्पर्शरसगधवर्णवन्त पुद्गला । *१० - पूर्यन्ते गलन्ति च पुद्गला । ११ - पुद्गलजीवास्तु क्रियावन्त । (क) परिस्पन्द लक्षणा क्रिया । — राजवार्तिकम् - तस्वार्थसूत्र भाष्य - प्रवचनसार प्रदीपकावृति -तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकम् -- द्रव्यसंग्रह टीका Page #99 -------------------------------------------------------------------------- _