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जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल
का प्रदेश वन्य आठ प्रकार का होता है-यथा-(१) नाम प्रत्यय, (२) मर्वत , (३) योग विशेपात्, (४) सूक्ष्म, (५) एकक्षेत्र अवगाढ, (६) स्थित, (७) सर्वात्मप्रदेशी तथा (८) अनन्तानन्त प्रदेशी।
जिस नाम की कर्म प्रकृति का प्रदेश वन्वन हो वह उस नाम का प्रदेश वन्वन होता है। ऊर्ध्व-अध -तिर्यक् सर्व दिशाओ से जीव पुद्गल को ग्रहण करता है। अत इस अपेक्षा से जीव पुद्गल के प्रदेश बन्धन को सर्वत प्रदेश वन्धन कहते है। मन, वचन, काय के निमित्त से आत्मा के प्रदेशो का परिस्पन्दन होता है, इसे योग कहते है। इस योग की विशेष चेष्टा तथा तीव्र-मन्द आदिक परिणाम से जो प्रदेश बन्धन होता है उसे योग विशेपात् प्रदेश वन्धन कहते है। सूक्ष्म परिणामवाले कर्मयोग्य पुद्गलो का ही जीवात्मा के प्रदेशो के साथ वन्वन होता है। इस अपेक्षा से सूक्ष्म प्रदेश वन्वन कहा जाता है। एक आकाश प्रदेश में अवस्थित पुद्गलो तथा जीव का वन्धन होता है तथा वन्वन होकर जीव पुद्गल एक ही क्षेत्र में अवगाह करनेवाले होते है । अत इस अपेक्षा से एक क्षेत्र अवगाह प्रदेश वन्वन कहा जाता है। स्थित पुद्गल कर्म-नोकर्मवर्गणाओ के साथ ही जीव का वन्वन होता है। गतिमान पुद्गलो के साथ जीव का वन्धन नही होता है । इस अपेक्षा से स्थित प्रदेश वन्वन होता है। सर्वात्म प्रदेश से सर्व प्रकृति के पुद्गलो का आत्मा के सर्व प्रदेशो से बन्धन होता है इस अपेक्षासे सर्वात्मप्रदेशी प्रदेश वन्वन कहते है। अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कन्ध ऐसे अनन्त स्कन्धो