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जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल
इस लोक में जो जीव है वे प्रसिद्ध कहलाते है। वे अपने शुद्ध स्वरूप में नहीं होते, विकृत होते है। विकृत का अर्थ यह है कि वे स्वतत्र नहीं होते। चैतन्य होने पर भी जड पुद्गल से बचे हुए होते है। इन जीवो के आत्मप्रदेशो में पुद्गल वैसे ही भरे रहते है जिस तरह कुप्पी में काजल। इसका परिणाम यह होता है कि जीव का शुद्ध सम्पूर्ण चैतन्य प्रस्फुटित नहीं होता
और अपनी मलिनता के कारण जीव को ससार-भ्रमण करना पडता है-वार-बार जन्म-मरण करना पड़ता है। जीव तभी शुद्ध चैतन्य रूप में प्रगट होता है जब आत्म-प्रदेशो के साथ वधे हुए कर्म-पुद्गलो से उसका पूर्णत छुटकारा होता है। कर्मपुद्गल से यह मुक्ति ही जैन धर्म में मोक्ष कहा गया है ।
सासारिक प्राणी पुद्गलो के वधन के कारण उसी प्रकार रागद्वेप के भावो से तरगित होता रहता है जिस तरह समुद्र का जल उसमें ककड फेंकने से तरगित होता है। राग-द्वेप भाव से तरगित आत्मा नये कर्म-पुद्गलो को ग्रहण करती रहती है। और इन तरह ममार बढता जाता है। नया वधन रोक देने पर ससार नही वढता। पुराने वधन को तपादि से दूर कर देने पर आत्मा क्रमश कर्मों से मुक्त होती है।
जीव और पुद्गल गतिशील द्रव्य हैं। उनमे गति की क्षमता या सामर्थ्य है। अवशेप द्रव्यो में गति-सामर्थ्य या गति नहीं होती। गतिशील द्रव्य जीव और पुद्गल जव गमन करते है तव स्पिर धर्मास्तिकाय उनकी गति में उदासीन सहायक रूप से