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जैन पदार्थ-विज्ञान में पुद्गल
वियोग घटने से जीवात्मा "अपरिस्पन्दात्मक निष्क्रिय" हो जाता है। कार्माण शरीर विमुक्त-अशरीरी-जीवात्मा के स्वाभाविक ऊर्ध्व गति होती है। उसीसे जीवात्मा सिद्ध स्थान में पहुंचती है। सक्रिय जीवात्मा को मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती है। मुक्त जीवो में प्रदेश सकोच श्रादि जो परिस्पन्दात्मक-क्रिया होती है उसे पूर्व प्रयोग से उत्पन्न कहा जाता है। मुक्त जीवो में अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अचिन्त्य सुखानुभव का अर्थ पर्याय रूप उत्पाद-व्यय तो प्रति समय होता ही है। जब तक जीवात्मा सक्रिय है तब तक वह मोक्ष नही पा सकती क्योकि जब तक जीवात्मा क्रिया करती रहती है तब तक जीवात्मा के कर्म का पुद्गल के माथ बन्धन होता रहता है।
(६) क्रिया को परिस्पन्दन लक्षणवाली कहा गया है। परिस्पन्दन पुद्गल का स्वभाव है। परिस्पन्दन स्वभाव से ही पुद्गल मे क्रिया होती है। परिस्पन्दन शक्ति (गुण) से ही पुद्गल क्रिया में समर्थ है । अत पुद्गल क्रियावन्त है। पुद्गल स्वसामर्थ्य से
१-भगवतीसूत्र २-जाव चरण भते! अय जीवे एयात वेयति चलति फदति ताव
चरण णाणावरणिज्जण जाव अतराएण वझवित्ति? हता गोयमा॥ ३-परिस्पदन लक्षणा क्रिया--प्रवचनसार २ • ३७ की प्रदीपिका
वृति। ४-प्रवचनसार २ ३७ की प्रदीपिका वृति।