Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 12
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग १३ । प्राप्त प्राप्त श्रीवर्द्धमानाय नमः । जैनहितैषी । दिसम्बर १९१७। विषय-सूची । ---- ५१५ ५१६ ५२२ ... ५२५ १ प्रभातोदय ( कविता ) । ले० पं० रामचरित उपाध्याय २ कल्कि अवतारकी ऐतिहासिकता (अनुवाद ) । ३ गुप्तराजाओंका काल, मिहिरकुल और कल्कि । ... ४ लोकविभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति । ५ बाबाजीका स्वप्न ( कविता ) । ले० बाबू ठाकुरदास जैन... ५३५ ६ श्वेताम्बर -ग्रन्थों में कल्किका वर्णन । ले० मुनिजिनविजयजी ५३५ ७ स्वराज्य-सोपान ( कविता ) । ले० पं० रामचरित उपाध्याय ५३९ ८ द्रव्यसंग्रह (समालोचना ) । ले०, बाबू जुगलकिशारे मुख्तार ९ विचित्र व्याह ( काव्य ) । ले०, पं० रामवरित उपाध्याय ... १० जैनधर्मको भूगोल और खगोल । ले० श्रीयुत जिज्ञासु ११ पुस्तक-परिचय ५४१ *** ५५० ५५४ ५५९ नई जैन पुस्तकें | ग्रन्थपरीक्षा प्रथम भाग मूल्य 1), द्वितीयभाग मू० । ], दर्शनसार विवेचनासहित मू० 1 ], मोक्षमार्ग की कहानियाँ मू० ], बच्चोंके सुधारने के उपाय मू० ॥], सन्तानपालन -]|, सर्वार्थसिद्धि मूल संस्कृत २], बुधजन सतसई 1-], आचारसार ( आचार्य वीरनन्दिकृत ) माणिकचन्द जैनग्रन्थमालाका ग्यारहवाँ ग्रन्थ, मूल्य० 15] संपादक - नाथूराम प्रेमी । मुं प्रेस. मैनेजर, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई ! अंक १२ । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थनायें। रागोंका इलाज आदि अच्छे २ लेख प्रकाशित होते १. जनहितैषी किसी स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर निजी हैं। इसकी वार्षिक फीस केवल १) रु. मात्र है। लाभके लिए नहीं निकाला जाता है। इसमें जो समय नमूना मुफ्त मंगाकर देखिये। और शक्तिका व्यय किया जाता है वह केवल अच्छे पता-वैद्य शङ्करलाल हरिशङ्कर विचारोंके प्रचार के लिए। अतः इसकी उन्नतिमें आयुर्वेदोद्धारक-औषधालय, मुरादाबाद। हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए। २. जिन महाशयोंको इसका कोई लेख अच्छा मालूम हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको जितने मित्रोंको आढ़तका काम । वे पढ़कर सुना सकें अवश्य सुना दिया करें। बंबईसे हरकिस्मका माल मँगानेका सुभीता ३. यदि कोई लेख अच्छा न मालूम हो अथवा विरुद्ध हमारे यहांसे बंबईका हरकिस्मका माल मालम हो तो केवल उसी के कारण लेखक या किफायतके साथ भेजा जाता है। तां व पीतसम्पादकसे द्वेष भाव न धारण करनेके लिए सविनय निवेदन है। लकी चद्दरें, सब तरहकी मशीनें, हारमोनियम, ४. लेख भेजनेके लिए सभी सम्प्रदायके लेखकोंको ग्रामोफोन, टोपी, बनियान, मोजे, छत्री, जर्मनआमंत्रण है। -सम्पादक। सिलवर और अलूमिनियमके बर्तन, सब तरहका साबुन, हरप्रकारके इत्र व सुगन्धी तेल, छोटी भारतविख्यात ! हजारों प्रंशसापत्र प्राप्त ! बड़ी घड़ियाँ, कटलरीका सब प्रकारका सामान, पेन्सिल कागज, स्याही, हेण्डल, कोरी कापी, अस्सी प्रकारके बात रोगोंकी एकमात्र औषधि स्लेट, स्याहीसोख, ड्राइंगका सामान, हरप्रकारकी महानारायण तैल। देशी और विलायती दवाइयाँ, काँचकी छोटी हमारा महानारायण तेल सब प्रकारकी वाय- बड़ी शीशियोंकी पेटियाँ, हरप्रका का देशी की पीड़ा, पक्षाघात, (लकवा, फालिज ) गठिया विलायती रेशमी कपड़ा, सुपारी, इलायची, मेवा, सुन्नवात, कंपवात, हाथ पांव आदि अंगोंका कपूर आदि सब तरहका किराना, बंबईकी और जकड़ जाना, कमर और पीठकी भयानक पीडा, बाहरकी हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी पुस्तकें, जैन परानीसे परानी सजन. चोट. हड़ी या रगका पुस्तकें, अगरबत्ता, दशांगधूप, केशर, चंदन दबजाना, पिचजाना या टेढी तिरछी होजाना आदि मंदिरोपयोगी चीजें, तरह तरहकी छोटी और सब प्रकारकी अंगोंकी दुर्बलता आदिमें बड़ी रंगीन तसबीरें, अपने नामकी अथवा बहुत बार उपयोगी साबित होचुका है। अपनी दुकानके नामकी मुहरें, कार्ड, चिट्ठी, मूल्य २० तोलेकी शीशीका दो रुपया। नोटपेपर, मुहूर्त्तकी चिट्टियाँ ( कंकुपत्रिका) आदि, हरकिस्मका माल होशयारीके साथ वी. डा० म० ॥) आना। पी. से रवाना किया जाता है। एक बार व्यवहार वैद्य। करके दोखिये । आपको किसी तरहका धोका सर्वोपयोगी मासिक पत्र । न होगा। यह पत्र प्रतिमास प्रत्येक घरमें उपस्थित होकर हमारा सुरमा और नमकसुलेमानी एक वैद्य या डाक्टरका काम करता है। इसमें स्वास्थ्य अवश्य मँगाइए । बहुत बढ़िया हैं। रक्षाके सुलभ उपाय, आरोग्य शास्त्रके नियम. _पता-पूरणचंद नन्हेलाल जैन। प्राचीन और अर्वाचीन वैद्यकके सिद्धान्त, भारतीयco जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, वनौषधिय का अन्वेषण, स्त्र और बालकोंके कठिन पो० गिरगांव, बम्बई Printed by Chintaman Sakharam Deole, at the Bombay Vaibhav Press, Servants of India Society's Building, Sandh'irst Road, Girgaon, Bombay. Published by Nathuram Premi, Proprietor, Jain-Granth-Ratnakar Karyalaya, Hirabag, Bombay. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ भाग । अंक १२ हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । suranc जैनहितैषी BUTE न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी हितैषी ॥ प्रभातोदय । ( ले० - पण्डित रामचरित उपाध्याय । ) ( १ ) जगो भारत, सुनी बातें, पड़े हो व्यर्थ क्यों बेगम । मागशीर्ष २४४४. दिसम्बर १९१७. जो इस मंत्र को मनमें, 'हमारे तुम तुम्हारे हम' । ( २ ) मही निर्गन्ध हो, नभ भी-कभी निःशब्द हो जाये, तदपि हम तुम रहें हँसते, मिलाये हाथ को हरदम । ( ३ ) . पढ़ो इतिहास यदि अपने, खुलें तो आपकी आँखें, तुरत यह ज्ञान सच्चा हो, किसीसे भी न हम थे कम । ( ४ ) कभी निःस्वत्व या दुर्बल न समझो आप अपनेको, अविद्या प्रस्त होने से, वृथा कुछ हो गया है भ्रम । ( ५ ) -करो उद्योग निर्भय हो, निराशा कौन चिड़िया है ? हम उनके वंशधारी हैं, कि जिनसे काँपता था यम । ( ६ ) करोड़ों मिट गये तारे, हवा चलती प्रभाती है, न सोनेका समय यह है, जगत से हृढ चला है तम । ( प्रतापसे उद्धृत । ) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ जैनहितैषी [भाग १३ कल्कि अवतारकी ऐतिहा प्रमाणं वै तथा चोक्तं महापद्मान्तरं च यत् । अनन्तरं तच्छतान्यष्टौ षट्त्रिंशच समाः स्मृताः॥ सिकता। एतत्कालान्तरं भाव्या अन्ध्रान्ता ये प्रकीर्तिताः॥ [श्रीयुक्त बाबू काशीप्रसाद जायसवाल बैरिस्टर एट. (अथवा 'अन्धान्ते अन्वयाः स्मृताः ।') ला. के बंगलाभाषामें प्रकाशित हुए लेखका अनुवाद।] -वायु, ब्रह्माण्ड, मत्स्य आदि । हिन्दुओंके पुराणग्रन्थोंमें कलिकालके बहुतसे उक्त वचनोंके अनुसार परीक्षितका जन्म राजाओंके राज्यकालका और कार्यकलापोंका महापद्मके अभिषेकके १०५० वर्ष पहले हुआ. भविष्यत्कथनके रूपमें वर्णन मिलता है । इन है। महापद्मने ३७४ से ३३८ ( ईस्वी सनसे भविष्यत्के राजाओंके वर्णनमें अजातशत्रु, पूर्व ) तक राज्य किया है, इस बातको हम उदयी, चन्द्रगुप्त, चाणक्य, अशोक आदि इति- अपने अन्यलेखमें बतला चके हैं + । अतएव हासप्रसिद्ध व्यक्तियोंके जन्म, कर्म आदिके ३७४ से पीछेकी ओर गणना करके जिक्रके साथ साथ कल्किके भी कामोंका उल्लेख ( ३७४+१०५०) ईस्वी सन्से १४२४ है। पुराणकारोंने भविष्यराजाओंके वर्णनप्रसङ्गमें वर्ष पूर्वमें परीक्षितका जन्म हुआ, ऐसा मानना अन्धराजाओंके अनन्तर, भारतवर्षके भिन्न भिन्न पड़ेगा । महापद्मके मृत्युकाल (ईस्वी सन् वंशोंके राजाओंके नामोंके साथ प्रबल और पर्व ३३८ ) से सम्मुखकी ओर ८३६ वर्ष गिअत्याचारपरायण म्लेच्छ राजाओंका वर्णन ननेसे ( ८३६-३३८) ४९८ ईस्वी सन् होता किया है और अन्तमें कहा है कि कल्कि इन है। इसी समय तक 'अन्ध्राताः', अथवा सब अधर्मी म्लेच्छोंका नाश करेंगेः- 'अन्ध्रान्ते अन्वयाः' अर्थात् अन्ध्रोंके परवर्ती करिकनोपहताः सर्वे म्लेच्छा यास्यन्ति सर्वशः। आर्य और म्लेच्छ राजाओंने राज्य किया अधार्मिकाश्च तेऽत्यर्थं पाषण्डाश्चैव सर्वशः ॥ था। इस वर्ष के बाद और किसी भी राजाका -वायुपुराण अ० ३७, श्लोक ३९०। परिचय पुराणों में नहीं पाया जाता-इसी जगह मत्स्यपुराणमें कहा है कि, वे कल्किके द्वारा आकर भविष्य राजाओंका वंशपरिचय समाप्त मारे गये थेः हो गया है। अतएव पूर्ववर्णित अन्धोंके परकहिकनानुहताः सर्वे आर्या म्लेच्छाश्च सर्वतः। वर्ती म्लेच्छ और आर्य राजाओंको 'अन्ध्रान्ताः' अधार्मिकाश्च तेऽत्यर्थं पाषण्डाश्चैव सर्वशः ॥ कहा है, इस विषयमें कोई सन्देह नहीं है । इन ___-मत्स्य अ० २७२, श्लो० २७ । अन्ध्रान्त राजाओंका राज्य ४९८ ईस्वी में समाप्त हो कल्किके बाद और किसी भविष्य राजाका गया है । अतएव इनके बाद ईस्वीसन् ४९९ का वर्णन पुराणों में नहीं किया गया है। वर्ष कल्किके अभ्युदयका समय सिद्ध होता है । पुराणमें राजाओंका जो कालपरिमाण दिया। पहले कहा जा चुका है कि एक ही प्रसङ्गम गया है, उससे ईस्वी सन् ४९८ के अन्तमें यह बात कही गई है कि चन्द्रगुप्त, पुष्यमित्र अथवा ४९९ के प्रारंभमें कल्किके अभ्युत्था- आदि अन्यान्य इतिहासविदित पुरुषों के साथ नका समय मालूम होता है । राजाओंका समयपरिमाण संक्षेपमें इस प्रकार है:-- कल्किके कार्यकलाप भी भविष्यत्कालमें घटित महापद्माभिषेकात्तु यावजन्म परीक्षितः । होंगे, अतएव कल्किकी ऐतिहासकतामें कोई भी एवं वर्षसहस्रं तु शेयं पञ्चाशदुत्तरम् ॥ +J. B.O. R.S. Vol 1, pp. 111-116. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] कल्कि अवतारकी ऐतिहासिकता। Ananww बाधा नहीं आती । राजवंशोंके वर्णनके समय वह देव अन्तर्धान हो गया था ('ततः काले अन्यान्य राजाओंके समान कल्किके भी कीर्ति- व्यतीते तु स देवोऽन्तरधीयत'--मत्स्य ४७ २५५)। कलापोंका वर्णन किया गया है । उसके प्रति इस तरह भविष्यत्कालके साथ भूतकी क्रियादेवत्त्वका आरोप नहीं किया गया, किन्तु वह ओंका मिश्रण रहने से साफ साफ समझमें आ एक साधारण व्यक्तिके रूपमें ही उल्लिखित जाता है कि, पुराणोंके लेखक कल्किसम्बन्धी किया गया है । इसके सिवाय कल्किकी ऐति- घटनाओंको जानते तो थे भूतकालकी ही घटना. हासिकता सिद्ध करनेके लिए केवल साधारण ओंके रूपमें; परन्तु पुराणों के साधारण नियमके भविष्यत्कालके वर्णन पर ही निर्भर नहीं रहना अनुसार उन्हें भविष्यत्कालकी घटनाओंके रूपमें पड़ता । पुराणोंमें, अनेक जगह कल्किके सम्ब- लिखने के लिए लाचार होना पड़ा था। कल्किके न्धमें सुस्पष्ट भूतकालकी क्रियाओंके भी प्रयोग जन्मस्थान और वंश आदिका परिचय एवं पाये जाते हैं । वायुपुराण कहता है कि पराशर- उसकी की हुई दिग्विजयका सिलसिलेबार वर्णन वंशीय विष्णुयशा नामक कल्किने (' कल्कि- आदि बातें ऐसी नहीं मालूम होतीं, जो बिलकुल विष्णुयशा नाम पाराशर्यः प्रतापवान् '-वायु कल्पनाप्रसूत कही जा सकें । और फिर जब ३६,१०४ ) साधारण मनुष्यके रूपमें जन्म पुराणोंमें जगह जगह कल्किके वर्णनमें भूतग्रहण किया था ('मानवः स तु संजज्ञे पारा- कालकी क्रियाओंका प्रयोग हुआ है, तब तो शर्य्यः प्रतापवान्-' वायु ३६,११० ) और वे यह अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है कि उसकी कलियुगके पूर्ण होनेपर उत्पन्न हुए थे ('पूर्णे कलि- ऐतिहासिकता अन्य व्यक्तियोंकी अपेक्षा सुदृढ युगे भवत् '-वायु ३६, १११) । ब्रह्माण्डपुराण भित्ति पर प्रतिष्ठित है। भी ठीक इसी प्रकार कहता है कि पराशर- इस बातके भी प्रमाण मिलते हैं कि, कल्किके वंशीय विष्णुयशा नामक कल्किने ('कल्कि- कीर्तिकलापोंका वर्णन आभिनव है और वह विष्णुयशा नाम पाराशयः प्रतापवान्'-ब्र०७३, पीछेसे जोड़ा गया है । ४९८ ईस्वी सनके बाद १०४) मनुष्य होकर बुद्धिवान् देवसेनके पुत्रके जिन सब पुराणों के अन्तिम संस्करण हुए हैं रूप में जन्मग्रहण किया था ('मानवः सतु संजज्ञे उन्हींमें यह कल्किका विवरण पाया जाता है। देवसेनस्य धीमतः'-ब्र० ७३, ११०) और गार्गीसंहिताके अन्तर्गत युगपुराणमें लिखा है कलियुगके पूर्ण होने पर अवतार लिया था ('पूर्णे कि यवन अर्थात् ग्रीक लोगोंके ध्वंसकालके कलियुगेऽभवत्'-ब०७३, १११) । मत्स्यपुराण ( ईस्वी सन्से लगभग १८८ वर्ष पूर्व ) साथ ही कहता है-बुद्धने नवें अवतारके रूपमें जन्म कलिकालकी समाप्ति हो गई । उसमें कलियुगके ग्रहण किया था ('बुद्धो नवमको जज्ञे'-मत्स्य वर्णनमें कल्कि का उल्लेख नहीं है । ४७, २४७ ) और कल्कि विष्णुयशा (विष्णु- मनुसंहिता ( अध्याय १, श्लो०६९-७०), यशसः १) पराशरवंशवालोंका नेता दशवाँ विष्णुपुराण ( अंश ४, श्लो० २४-२६ ) और अवतार होगा ('...... भविष्यति । कल्की तु भागवतपुराण (स्कं० १२, श्लो०.२-२९ ) के विष्णुयशसः पाराशर्य्यपुरःसरः ॥ दशमः' अनुसार कलियुग १२०० वर्षका होता है । ' इत्यादि-मत्स्य ४७, २४८)। इसके बाद उक्त जिस दिन श्रीकृष्णका देहान्त हुआ, उसी -पुराण छः श्लोकोंमें कल्किके दिग्विजयका वर्णन दिनसे ( पुराणानुसार ) कलियुगकी गणना करके कहता है कि कितने ही काल बीतने पर आरंभ होती है और वह समय ईस्वी सनसे १३८८ .. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ जैनहितैषी - वर्ष पहले है, यह हम अपने अन्य लेखमें प्रमा णित कर चुके हैं। अतएव मनुसंहिता और पुराणमें पहले कलियुगका जो परिमाण दिया था उसके अनुसार ईस्वी सन्से १८८ वर्ष पहले कलियुगका अन्त होता है। इसी समय सुङ्गवंशीय पुष्यमित्रके द्वारा यवन राजाओंका ध्वंस और सनातनधर्मका अभ्युत्थान हुआ । यह देखकर उस समय के पुराणकारोंने समझ लिया कि कलियुग समाप्त हो गया । इसीसे उन्होंने प्रकाशित कर दिया कि, कलियुगका अन्त हो गया* ● और युगपुराण के समान जो जो पुराण इसके बाद फिरसे संस्कृत तथा परिवर्धित नहीं हुए, उनमें वही वर्णन रह गया, उनमें कल्किकी और कोई भी बात नहीं जोड़ी गई । किन्तु पछेिके पौराणिकोंने जब देखा कि यवनोंके नाश हो जाने पर भी प्रजा पहले ही समान दुर्दशाग्रस्त हो रही है। तब उन्होंने कलियुगका परिमाण बढ़ा दिया और वे पञ्चम शताब्दि के प्रारंभ में कल्किका अभ्युदयकाल ले गये । कल्किके द्वारा म्लेच्छवंशका ध्वंस हो कलियुग पूरा हो गया और सारे दुःखोंका अन्त आ गया, इस प्रकारकी आशा उनके हृदयों में उठी; परन्तु उन्होंने देखा कि, दुःखोंका अन्त नहीं हुआ । युगपुराण में यवनोंके नष्ट होने के समय कलिके अन्तमें प्रजाकी जिस प्रकारकी दुर्दशा बतलाई गई है + ठीक उसी [ भाग १३ प्रकारकी भाषामें कल्किकृत म्लेच्छध्वंस के बाद भी प्रजाकी शोचनीय अवस्था वर्णित हुई है---- " ततो व्यतीत कल्कौ तु.... परस्पर हताश्व निराक्रन्दा सुदुःखिताः” * इत्यादि भाषामें पौराणिकोंने प्रजाओंके दुःखकी कहानीका वर्णन किया और कलियुगका स्थितिकाल एक अनिदिष्ट भविष्यत् तक बढ़ा दिया । कलियुग स्थितिकाल के सम्बन्धमें हमने अन्य लेखमें पुराण और ज्योतिषशास्त्र के आधारसे विस्तृत आलोचना की है । भविष्यन्तीह यवना धर्मतः कामतोऽर्थतः । नैव मूर्द्धाभिषिक्तास्ते भविष्यन्ति नराधिपाः । युगदोषदुराचाराः भविष्यन्ति नृपास्तु ते । स्त्रीणां नालबधेनैव हत्वा चैव परस्परम् ॥ + + + अभीतक जो कुछ कहा गया उससे प्रमाणित हो गया कि, पुराणोक्त कल्कि एक ऐतिहासिक व्यक्ति है; और वह पञ्चम शताब्दि के अन्तिम भागमें उत्पन्न हुआ था । अब यह बतलाया जाता है कि वह कौन था । पुराणों में कल्किके विषयमें जो विवरण मिलता है वह यह है : १ कल्किका परिचित नाम विष्णुयशस् अथवा विष्णुयशस है- ( ' कल्कि र्विष्णुयशा नाम ' - वायु ३६, १०४ और ब्रह्माण्ड ७३, 1 ' कल्कि तु विष्णुयशसः - मत्स्य १०४ ४७, २४८ । ) २ उनका जन्म सम्भल ग्राममें हुआ था( भागवत १२ स्कन्द, २ अध्याय, १८ श्लोक विष्णुपुराण चतुर्थांश, २४ अ०, २६ श्लो०)। भोक्ष्यन्ति कलिशेषे तु वसुधाम् । * भविष्यन्तीह यवना धर्मतः कामतोऽर्थतः । भोक्ष्यन्ति कलिशेषे तु वसुधाम् ॥ इत्यादि + + + ---- + युगपुराणमें यवनोंके सम्बन्ध में इस प्रकार शूद्रा कलियुगस्यान्ते भविष्यति न संशयः । यवनाः क्ष्यपयिष्यन्ति न शचेयं ( ? ) च पार्थिवः । लिखा है:मध्यदेशे न स्थास्यन्ति यवना युद्धदुर्मदाः । तेषामन्योन्यसंभावाः भविष्यन्ति न संशयः ॥ आत्मचक्रोत्थितं घोरं युद्धं परमदारुणम् । ततो युगवशात्तेषां यवनानां परिक्षयम् ॥ * वायुपुराण ३६ अ०, ११७ श्लो०, और ब्रह्माण्ड ७३ अ० श्लो०, ११८ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] कल्कि अवतारकी ऐतिहासिकता। ५१९ यह संभल ग्राम राजपूतानेकी शाकम्भरी नगरी अधार्मिक वृषलोंको नष्ट किया था और म्लेच्छों है, ऐसा अनेक शिलालेखों तथा पृथ्वीराजवि- तथा दस्युओंको मारकर नष्टप्राय आर्यधर्मका जय आदि ग्रन्थोंसे निश्चय होता है। उद्धार किया था * । . ३ उन्होंने एक साधारण मनुष्यके रूपमें ८ उनका यह दिग्विजय क्रूरकर्म ('क्रूरेण जन्म लिया था, और वे देवसेन नामक एक कर्मणा '-वायु० ३६,११४) होने पर भी पराशरगोत्रीय अथवा याज्ञवल्क्यगोत्रीय ब्राह्मण- धर्मकी रक्षा और लोकके हितके लिए किया. के पुत्र थे। गया था ('धर्मत्राणाय लोकाहतार्थाय-' ४ उनके शरीरकी कान्ति चन्द्रमाके समान वायु ३६,१०३।) थी-( ' गात्रेण वै चन्द्रसमः' -वायु, ३६ अ० ९ अपना कार्य समाप्त करके उन्होंने गंगा१११ श्लो० ।) यमुनाके मध्यवर्ती भागमें देहत्याग किया । __ ५ वे बड़े भारी वीर थे और उन्होंने दिग्विजय यथा, वायुपुराण अ० ३६:किया था-( भागवत १२ स्कं० २ अ० १९ ततः स वै तदा कल्किश्चरितार्थः ससैनिकः । ११५ श्लो७ और भविष्यपुराण ३ अंश २६ अ०, + + + . + . + १ श्लो०।) गङ्गायमुनयोर्मध्ये निष्ठां प्राप्स्यति सानुगः । ११७ -, ६ उन्होंने बहुत जल्दी चतुरंग-सेनायुक्त १० उन्हें इस दिग्विजयकार्यमें २५ वर्ष होकर समग्र भारतवर्षको जीत लिया था। लगे थे। यथाःवायुपुराणके ३६ वें अध्यायमें उन देशोंके नाम 'पञ्चविंशोत्थिते कल्पे पञ्चविंशति वै समाः । दिये हैं जिन्हें कल्किने जीता था: विनिघ्नन् सर्वभूतानि मानुषानेव सर्वशः ॥ ११३ उदींच्यान् मध्यदेशांश्च तथा बिन्ध्यापरान्तिकान् १०६ तथैव दाक्षिणात्यांश्च द्रविडान् सिंहलैः सह । -वायु, १० २६ । गान्धारान्पारदांश्चैव पलवान्यवनान्शकान् ॥ १०७॥ अब यह प्रश्न होता है कि ये स्वदेशरक्षक. तुषाराम्बरांश्चैव पुलिन्दान्दरदान्खसान। स्वधर्मपालक, और लोकहितैषी महात्मा कौन लम्पकानन्धकान् रुद्रान्किरातांश्चैव स प्रभुः १०८। थे। पुराणवर्णित युगके शेष अंशमें कल्किके ___ + + + + + समान और कोई भी राजा इतना यशस्वी नहीं प्रवृत्तचक्रो बलवान् म्लेच्छानामन्तकृबली १०९॥ हो सका । उनकी महिमा सबसे अधिक गाई इनमेंसे ब्रह्माण्ड-पुराणमें रुद्रोंके बदले पौण्ढ़ गई है। - गई है। और बर्बरीके बदले शबर आदि कई उनके सम्बन्धमें हम जानते हैं कि उनका पाठभेद हैं । इन समस्त देशोंको जीतकर नाम विष्णुयशस् था, उनका जन्म राजपूताकल्किने साम्राज्यकी प्रतिष्ठा की। नेमें संभवतः पाँचवीं शताब्दिके शेष भागमें ____७ यह दिग्विजय केवल राज्यविजय ही हुआ था, और उनकी दिग्विजय दक्षिणमें नहीं थी, धर्मविजय भी थी। पुराणोंमें लिखा द्रविड देशसे लेकर उत्तरापथ पर्यन्त और पश्चिहै कि, कल्किने नपनामधारी म्लेच्छराजाओंको मसमुद्रसे खसोंके देश आसाम तक हुई थी। नष्ट किया था, धर्मद्वेषी पाषण्डोंको शस्त्रधारी * मत्स्य ४७, २४९-५० । वायुपुराण ३६, ब्राह्मणोंद्वारा परिवृत होकर मारा था, प्रायः १०५-६ । भागवत १२ स्कन्द, २ अ., २०श्लोक। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० - जैनहितैषी [भाग १ ___ इन सब विषयोंकी आलोचना करके हम ये सब बातें पुराणवर्णित विष्णुयशाके कार्योंके विद्वानोंके सामने इस सिद्धान्तको निःसन्देह साथ मिल जाती हैं । बल्कि हमारी समझमें तो होकर रखते हैं कि ये पुराणोक्त विष्णुयशाः इस राजाकी 'विष्णु' आख्या और अपरिमित और मालवाधिपति विष्णुवर्द्धन यशोधर्मन् एक वीरकीर्तिका विचार करके ही संभवतः पुराणही व्यक्ति हैं । 'विष्णुवर्द्धन' और 'यशोध-, कारोंने उसे भगवान् विष्णुका अंशसंभूत मान मन् ' इन दोनों नामोंके आद्य अंश 'विष्णु' लिया था। और 'यशस्' मिलाकर पुराणकारोंने 'विष्णु- विष्णुयशोधर्मन और विष्णुयशस् इन दोनोंयशस् । नाम बनाया है । 'विष्णुवर्द्धन' का का जन्मस्थान एक ही है। मन्दसोर ग्राममें यशो'वर्द्धन' शब्द नाम नहीं है; यह सम्राटोंकी धर्मदेवका जो जयस्तम्भ मिला है, उसमें इस वीरत्वज्ञापक उपाधिमात्र है । जैसे अशोकका दिग्विजयी राजाके जन्मस्थानका उल्लेख है। नाम अशोकवर्द्धन, हर्षका हर्षवर्द्धन, आदि । *- दोनोंके जीते हुए देशोंके वर्णनमें भी बहुत संभवतः दिग्विजयके बाद राज्यविजय और धर्म- एकता है । विष्णुयशोधर्माने लोहित्य अर्थात् विजय इन दो प्रकारके कार्योंके परिचायक ब्रह्मपुत्रनदके उपकण्ठसे लेकर महेन्द्रगिरिके विष्णुवर्द्धन और यशोधर्मन ये दो नाम ग्रहण नीचेतक और हिमालयसे लेकर पश्चिमसागर. किये गये थे। तककी भूमिको जीता था। यह वर्णन विष्णुविष्णुयशोधर्ममने अपने शिलालेखमें प्रकट यशाके जीते हुए देशोंके वर्णनके साथ किया है कि, उन्होंने उस युगके निन्द्य आचार- मिलता है। वाले राजाओंके हाथसे देशका उद्धार किया है। दोनोंका अभ्युदयकाल भी मिलता है। उन्होंने लोकके हितके लिए दिग्विजयकार्य विष्णुयशोधर्माने हूणराजा मिहिरकुलको परास्त । आरंभ किया था-(लोकोपकारव्रतः)। वे अपने किया था । मिहिरकुलके पिता तोरमाणका समसामायिक राजाओंके साथ सम्बन्ध नहीं रखते राज्यकाल बुधगुप्तके कुछ ही पीछे है. और थे और उन्होंने मनु, भरत, अलर्क, मान्धाता बुधगुप्तका समय ईस्वी सन् ४८४-८५ है । * आदि राजाओंका काल उपस्थित कर दिया था। मिहिरकुल यशोधर्माके द्वारा काश्मीर देशमें वे अपने जीवितकालमें ही अधर्मध्वंसकर्ता और पराजित हुआ था । काश्मीर जानेके पहले धर्मके निकेतन गिने जाने लगे थे। उनके मिहिरकुलने लगभग पन्द्रह वर्ष भाब्राह्मण प्रतिनिधि भी इस बातके लिए प्रसिद्ध रतमें बिताये थे, यह बात, ग्वालियरके शिला • हैं कि, उन्होंने राज्यमें 'सतयुग' ला दिया है । लेखसे मालूम होती है। अतः यशोधर्माके - द्वारा मिहिरकुलका पराजय ईस्वी सन् ४९९ के _* कितने ही सिक्कोंमें 'विष्णु' नाम खुदा हुआ बाद और ५३३-३४ में मन्दसोरके विजय. है। डा० हानलीके मतसे ये सब सिक्के यशोधर्मा स्तंभ स्थापित होनेके पूर्व हुआ था। इसके साथ विष्णुवर्द्धनके हैं । Hoernle J. R. A. S. पुराणवर्णित कल्किके अभ्युदयकाल (४९९ 1903 p. 352; Ibid, p.p. 133-134. ईस्वी) की एकता है। __ + Fleet, gupta Inscriptions. p.p. 146-147. * Fleet, G. I., p. 159. XIbid. p. 154. 'कृत इव कृतमेतद् येन x Gwalior Stone Inscription, F. राज्यं निराधि ।' G. I., p. 161. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ ] शिलालेखों से मालूम होता है कि, विष्णुयशोधर्माने किसी सुविख्यात राजकुल में जन्म नहीं लिया था और पुराणों में विष्णुयशा भी एक साधारण आदमी के पुत्र बतलाये गये हैं । दोनों ने ही बड़े भारी साम्राज्यकी स्थापना की थी । कल्कि अवतारकी ऐतिहासिकता । इस तरह दोनों में सब बातों में इतनी एकता देखी जाती है कि फिर इन दोनोंके एक होने में कोई भी सन्देह बाकी नहीं रह जाता है । इस विषय में कुछ और भी प्रमाण मिले हैं जिनसे कल्किकी ऐतिहासिकता अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है : १ बंगाली कवि चण्डीदास के समयतक ( चौदहवीं शताब्दि ) इस तरहका विश्वास जम रहा था कि, बुद्ध और अन्यान्य अवतारोंके समान कल्कि भी भूतकालमें हो चुके हैं। यथा“ कल्किरूपे तोक्षे दलिले दुष्टजन " – ( बंगीय साहित्य परिषत् पुस्तकालय के चण्डीदासकृत हस्तलिखित ' कृष्णकीर्तन ' ग्रन्थसे ।) इससे जान पड़ता है कि कल्कि भविष्यतमें होनेवाले हैं, यह विश्वास बहुत प्राचीन नहीं है । २ तेरहवीं शताब्दि के जयदेवने भी कल्कि - को भूतकालका अवतार माना है । यथा“केशवधृतकल्किशरीर । " ३ कल्किपुराणके पाठसे मालूम होता है कि, उसमें कल्किकी जीवनकी सारी ही घटनायें भूतकाल के रूपमें वर्णन की गई हैं। जैसे कि कल्किके जन्मसम्बन्धमें कहा है પર ग्धरूपसे स्थापित होता है । जिनसेन नामके जैनाचार्यने शक संवत् ७०६ में ' हरिवंश ' नामक ग्रन्थ बनाया है । उसमें राजाओंके कालपरिमाणके समय में जो कुछ कहा है वह भारतवर्षके इतिहास में बहुत ही मूल्यवान् है: द्वादश्यां शुक्लपक्षस्य माधवे मासि माधवम् । जातं ददृशतुः पुत्रं पितरौ हृष्टमानसौ ॥ - अ० २ श्लो० १५ । ततः स ववृधे तत्र सुमत्या परिपालितः । अ० ३, श्लो० ३०॥ ४ इस चौथे प्रमाणके द्वारा कल्किकी ऐतिहासिकता और उनका आविर्भावकाल निःसन्दि वीरनिर्वाणकाले च पालकोऽत्राभिषिक्ष्यते । लोकेऽवन्तिसुतो राजा प्रजानां प्रतिपालकः ॥ षष्टिवर्षाणि तद्राज्यं ततो विजयभूभुजाम् । शतं च पञ्च पञ्चाशद्वर्षाणि तदुदीरितम् ॥ चत्वारिंशन्मुरुण्डानां भूमण्डलम खण्डितम् । त्रिंशत्तु पुष्यमित्राणां षष्टिर्वस्वग्निमित्रयोः ॥ शतं रासभराजानां नरवाहनमप्यतः । चत्वारिंशत्ततो द्वाभ्यां चत्वारिंशच्छतद्वयम् ॥ भवाणस्य तद्राज्यं गुप्तानां च शतद्वयम् । एकत्रिंशच्च वर्षाणि कालविद्भिरुदाहृतम् ॥ द्विचत्वारिंशदेवातः कल्किराजस्य राजता । ततोऽजितंजयो राजा स्यादिन्द्रपुरसंस्थितः ४८८ - ९३ - अध्याय ६० एक जगह जिनसेन शकाब्दकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें कहा है: वर्षाणां षट्शतीं त्यक्त्वा पञ्चा मासपञ्चकम् । मुक्ति गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥ इन सब श्लोकों से मालूम होगा कि जिनसेनकल्किराजाको गुप्त राजाओंके चालीस वर्ष बाद और महावीर स्वामीसे ९९० वर्ष बाद स्थापित किया है; अर्थात् उनकी गणनाके अनुसार कल्किका राज्यकाल शक संवत् ३८५ ( ई० सन् ४६३ ) से आरंभ होता है । इससे मेरा निश्चित किया हुआ पाँचवीं शताब्दीका शेष भाग ही कल्किका अभ्युदयकाल पाया जाता है और उक्त समयसे केवल ३०० वर्ष बादके एक ग्रन्थ में यह वर्णन मिलता है । गुप्त राजाओंके बाद ही कल्किका समय बतलानेसे जान पड़ता है कि ईस्वी सन ४६० के लगभग गुप्तसाम्राज्य के नष्ट होजाने Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ जैनहितैषी [भाग १३ पर उनका अभ्युदय हुआ। पुराणोंके उल्लेखोंकी चीन है और इसलिए ऐतिहासिक दृष्टिसे इसकी मैंने जैसी व्याख्या की है, उसके साथ यह गाथाओंकी प्रामाणिकता और भी अधिक है। जैनबात मिल जाती है। ग्रन्थोंमें कल्किका नाम चर्तुमुख, उसके पिताका नाम इन्द्र और पुत्रका नाम अजितंजय मिलता है। इस जिनसेनने कल्किको जैनौके प्रबल शत्रुके विषयमें सभी जैनग्रन्य एकमत है; परन्तु हिन्दु. रूपमें वर्णन किया है । कल्किपुराणमें भी इसी ओंके पुराणग्रन्थों में उसका नाम विष्णुयशः और प्रकार लिखा है। उसके पिताका नाम देवसेन मिलता है । पुत्रका इस लेखमें हमने दो बातोंको सिद्ध किया है- उल्लेख नहीं है । मृत्युसम्बन्धी घटनाके विषयमें भी एक तो यह कि पुराणवर्णित कल्कि एक ऐति- मतभेद है । इधर प्रो० पाठकने मिहिरकुलको हासिक व्यक्ति है और दूसरी यह कि वह संभ- कल्कि सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। पाठक महावतः विष्णुवर्द्धन यशोधर्मा है। दूसरी बातके शयके लेखका सारांश आगे दिया जाता है। श्वेतासम्बन्धमें सन्देह रह सकता है। परन्त पहली म्बर ग्रन्थाम कल्किके सम्बन्धमें कुछ और ही लिखा है। वह भी उपस्थित है। आशा है कि श्रीयुत जायबातमें कोई भी सन्देह नहीं है। हम समझते हैं, सवाल महाशय और दूसरे पुरातत्त्वज्ञ इन सब बातोंभारतके इतिहासमै कल्किका स्थान चन्द्रगुप्तका पर विचार करनेका कष्ट उठायँगे। सम्पादक , अपेक्षा नीचा नहीं है । धर्म और समाजकी - दृष्टिसे कल्किका स्थान बहुत ही ऊँचा है । गुप्तसाम्राज्यके नष्ट होने पर जब अनेक प्रकारके गुप्त राजाओंका काल. मिहिरविदेशी म्लेच्छ राजा भारतकी सभ्यता और कल और ति। कुल और कल्कि। . धर्मको उच्छेद करनेके लिए उद्यत हो गये, उस .. समय कल्कि नष्टप्राय जातीय सभ्यताका पुनरुद्धार करनेके लिए उठा और भारतके अनेक अभी कुछ समय पहले भाण्डारकर इन्स्टिराजाओंको एकतासूत्रमें बाँधकर ( कल्किपुराण ट्यूटकी स्थापनाके समय डा० भाण्डारकरको अध्याय २ का तीसरा अंश ) उसने धर्मद्रोहि- एक ऐतिहासिक ग्रन्थ अर्पण किया गया था. योंका नाश किया। वह एक तरफसे मेजिनी था उसमें श्रीयुत पं० काशीनाथ बापूजी पाठक और दूसरी ओरसे नेपोलियन । अबतक भारत- बी. ए. का एक महत्त्वका लेख प्रकाशित हुआ वर्षका छट्ठी शताब्दिका इतिहास जिस अन्धका- है, जिसका सारांश हिन्दी चित्रमयजगत् ' रमें निमग्न था, वह कल्किके इतिहासके द्वारा परसे नीचे उद्धृत किया जाता है:बहुत कुछ दूर हो जायगा और कल्किके अम्यु. , प्राचीन कालमें उत्तर भारतमें गुप्तवंशके बड़े देयके परवर्ती कालके राष्ट्र, धर्म और समाजका शक्तिशाल शक्तिशाली राजा हो गये हैं। उन्होंने लगभग दो स्वरूप कल्किके इतिहासके द्वारा अधिक स्पष्ट सौ वर्ष राज्य किया था। राज्य करनेकी उनकी तासे समझा जा सकेगा। उत्तम थी, इस कारण उस समय भारत नोट । कल्किके सम्बन्धमें हरिवंशपुराणके जो देश बड़े वैभवके शिखर पर चढ़ा था । धनधान्यश्लोक उद्धृत किये गये हैं उनसे भी पुरानी गाथायें की खूब समृद्धिं थी, अतएव देशकी खब 'त्रिलोकप्रज्ञाप्ति' नामक ग्रन्थकी हैं जो हमने लोक- उन्नति हुई थी । उस समय प्रचलित धर्मों में विभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति' शीर्षक लेखमें उद्धृत की हिन्दूधर्म, बौद्धधर्म और जैनधर्म मुख्य थे। देशहैं। यह प्रन्थ हमारी समझमें हरिवंशपुराणसे प्रा. में शान्ति छाई हुई थी। इस कारण लोग खूब Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] गुप्त राजाओंका काल, मिहिरकुल और कल्कि। ५२३ सम्पन्न और सद्गुणी थे। उस समय चूंकि एक बड़ी भारी पुस्तक छपाई । यह पुस्तक लिखते बौद्ध धर्मका उत्कर्ष हो रहा था, इस कारण समय ग्वालियर राज्यके मन्दसौर नामक स्थान चीन देशसे अनेक यात्री बौद्धधर्मके तत्त्व सम- पर डा० फ्लीटको एक बड़ा भारी शिलालेख झनेके लिए, संस्कृत भाषाका अध्ययन करनेके मिला। उस शिलालेखसे जान पड़ता है कि मालवलिए और बौद्धोंके पवित्र स्थानोंका दर्शन कर- संवत् ४९३ में कुछ कोष्टी (कोरी) लोगोंने नेके लिए इस देशमें आया करते थे । इसी वहाँ एक सूर्यका मन्दिर बनवायाथा । उस समय समय कालिदासके समान प्रख्यात कवि और कुमारगुप्त नामक गुप्तवंशीय राजा राज्य करता दिङ्नागके समान प्रख्यात तत्त्ववेत्ता हो गये। था। इसके ३६ वर्ष बाद जब कि उसी मन्दिगुप्त राजाओं के अनेक ताम्रपट और शिलालेख का जीर्णोद्धार किया गया. उस समय मालव. मिले हैं। उनमें उन राजाओंने अपना कालनिर्देश संवत् ५२९ था। इस शिलालेखके विषयमें भी किया है । परन्तु उन्होंने जो अपना संवत्. फ्लीट साहबने अपना यह मत दिया कि दिया है उसका आरम्भ कहाँसे समझा जावे, मालवसंवत् विक्रमसंवत् ही है। और यह इस विषयमें विद्वान् लोगोंमें अनेक वर्षों से चर्चा प्रतिपादन किया कि गुप्तशक और शालिवाहो रही है । लेकिन उसका विश्वासयोग्य हन शकमें दो सौ बयालीस वर्षका अन्तर है। निर्णय नहीं हुआ। इस विषयमें अनेक विद्वानों- अन्य विद्वान् लोगोंको यह मत पसन्द नहीं मे बड़े बड़े निबन्ध लिखे हैं । जिन विद्वानोंने आया । इसका परिणाम यह हुआ कि फ्लीट इसका निर्णय करने के लिए प्रयत्न किया है वे बड़े साहबका ग्रन्थ निकल जाने पर भी गुप्तकालके बड़े प्रसिद्ध विद्वान थे और हैं । कुछ विद्वानोंने इस विषयमें वादविवाद जारी ही रहा। विषयका विवेचन करते हुए अल्बरूनीके ग्रन्थका . इतनेमें जैन ग्रन्थों में इस विषयमें बहुत अच्छा आधार लिया है । गजनीके महमूद बादशाहने वृत्तान्त मिल गया है। ईस्वी सनकी ग्यारहवीं सदीमें भारतवर्ष इन जैनग्रन्थों में पहला ग्रन्थ जिनसेन आचापर चढ़ाई की, तब उसके साथ अलबरूनी र्यक्रत हरिवंश है । यह ग्रन्थ शक संवत् ७०५ में नामक विख्यात अरब जातिका पंडित आया लिखा गया है। दूसरा ग्रन्थ उक्त जिनसेन आचार्यके था । उसने अपने ग्रन्थमें गुप्त राजाओं और * शिष्य गुणभद्राचार्यका रचा हुआ उत्तरबल्लभी राजाओंका वृत्तान्त दिया है । उसका पराण है। तीसरा ग्रन्थ नेमिचन्द्राचार्यकृत कथन है कि शक संवत् दो सौ एकतासलीसवें मार है। ये ग्रन्थकार कहते हैं कि वर्षमें गुप्तकाल शुरू हुआ और गुप्तकालको ही महावीर स्वामीके निर्वाणके ६०५ वर्ष ५ बल्लभी. काल कहते थे । गुप्तकाल, गुप्तरा• महीने बाद शक राजा उत्पन्न हुआ । शक राजाजाओंका विस्तृत राज्य लय हो जाने पर प्रारम्भ के ३९४ वर्ष सात महीने बाद चतुर्मुख कल्कि हुआ । परन्तु कई कारणों से उसका यह कथन नामक दुष्ट राजा हुआ। अर्थात् महावीर स्वामीके विद्वानों को मान्य नहीं हुआ । अन्तमें भारतसरकारने इस बातका निर्णय करने के लिए सन् श्रीयुत पाठक महाशय अभीतक हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेनको और आदिपुराणके कर्ता ( गुण१८८४ के लगभग डा० फ्लीटकी नियुक्ति की। भद्रके गुरु ) को शायद एक ही समझ रहे हैं। पर यह डा० फ्लीटने उस समय तक उपलब्ध होनेवाले भ्रम है । विद्वद्रत्नमालामें हम इस बातको अच्छी तरह सारे शिलालेखों और ताम्रपटोंको एकत्र करके सिद्ध कर चुके हैं। -सम्पादक। - - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ जैनहितैषी - - [भाग १३ निर्वाणके ठीक १००० वर्ष बाद कल्कि राजा- विक्रमसंवत् ४९३, गुप्तसंवत् ११७ और शक का जन्म हुआ। उस वर्ष माघ संवत्सर था। ३५८ में राज्य करता था। - इससे ऐसा जान पड़ता है कि, शकराजाके. इससे यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि, मुप्तसंवत् बाद ३९४ वें वर्षमें माघ संवत्वर था । इसके और विक्रमसंवत्में ३७६ वर्ष का अन्तर है । मार बिरावलमें एक शिलालेख मिला है उस में विक्रम तीन वर्ष बाद वैशाख संवत्सर प्राप्त हुआ । । वैशाख संवत्सरके रहते हुए १५६ वाँ गुप्तवर्ष था। स. संवत् १३२० और वल्लभीसंवत् ९४५ आषाढ़ उस समय परिवाजक महाराज हस्ती नामक । कृष्ण त्रयोदशी रविवारका कालनिर्देश किया गया है । गणित करनेसे ऐसा जान पड़ता है कि, इस मांडलिक राजा राज्य करता था । चूंकि यह . शिलालेखमें दिया हुआ संवत् कार्तिकादि है । राजा गुप्त राजाओंका मांडलिक था, इस कारण : इससे ऐसा सिद्ध होता है कि, उस समय चैत्रादि गुप्त राजाओंका वर्चस्व इसने अपने ताम्रपटमें विक्रमसंवत् १३२१ था। अर्थात् शक संवत् स्वीकार किया है । इसके समयमें गुप्त राजा राज्य करते थे और उस समय गुप्त ... ११८६, चैत्रादि विक्रम १३२१ और वल्लभी वर्ष ९४५ बराबर होते हैं। वर्ष १५६ वाँ था। शक ३९४ में तीन वर्ष शक विक्रम वल्लभी जोड़नसे ३९७ होते हैं । इस लिए वैशाख ११८६ = १३२१ = ९४५ संवत्सर रहते हुए ३९७ शकवर्ष था; और ३५८ = ४९३ = ११७ १५६ गुप्त वर्ष था । इससे जान पड़ता है कि २ २ ८२८ गत वर्ष में २४१ वर्ष मिलानेसे शकवर्ष आता अर्थात् पहले अंकोंसे दूसरे अंकोंको घटा है। अथवा शकवर्ष और गुप्तवर्षमें ठीक २४१ देनेसे ८२८ बाकी बचते हैं । इससे यह सिद्ध वर्षका अन्तर होता है । इस लिए जब कि यह होता है कि, वल्लभी नाम गुप्तशकका ही है कहा है कि कल्कि राजाका जन्म ३९४ वें शक- और मालव नाम चैत्रादि विक्रमसंवत्का है। बर्षमें हुआ तब फिर उसमेंसे २४१ वर्ष घटा और इसी लिए ९४५ बल्लभी वर्षमें २४१ देनेसे यह सिद्ध होता है कि १५३ वें गुप्त , मिलानेसे ११८६ आते हैं। इसकी सिद्धि दो वर्षमें कल्कि राजा उत्पन्न हुआ । अब शक संवत् रीतियोंसे होती है । पहले माध संवत्सरका ३९४ में यदि १३५ मिलाये जायें तो ५२९ हमने उल्लेख किया है; और फिर बिरावलके मालवसंवत् आता है । अर्थात् मालवसे तात्पर्य शिलालेखके अंकोंका उपयोग किया है। इस तरह विक्रम सिद्ध होता है । क्योंकि किसी भी शक- जैन लोगोंके दिये हुए वृत्तान्तसे आज लगभग वर्षमें १३५ जोड़नेसे विक्रमसंवत् आता है। ७८ वर्षके वादविवादका निर्णय हुआ है। यह बात सुप्रसिद्ध है । मन्दसौर-शिलालेखमें ।। यहाँ, इस समय एक बातका और भी उल्लेख ५२९ मालव वर्ष आनेका उल्लेख ऊपर हो चुका करना चाहिए कि, इस समय जिस प्रकार प्रभवहै । यह वर्ष मन्दिरके जीर्णोद्धार करनेका है। विभवादि साठ संवत्सर जारी हैं, उसी प्रकार ईस्वी ऊपर यह भी कहा जा चुका है कि, मालव सन्की पाँचवीं शताब्दिमें माघ वैशाखादि द्वादश सैवत् ४९३ में कोष्टी लोगोंके द्वारा इस मन्दि- संवत्सर जारी थे। रके बनाये जानेका उक्त शिलालेखमें उल्लेख है। जैनग्रन्थकार यह भी कहते हैं कि, कल्कि इससे यह सिद्ध होता है कि कुमारगुप्त राजा राजाने शक ४३४ में गुप्तोंका विस्तृत राज्य । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] . लोकविभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति । ५२५ विध्वंस किया। यह राजा बड़ा दुष्ट था, इसने द्वीपसमुद्र, काल, तिर्यग्लोक, भवनवासिलाक, जैनियों के निर्यन्थ साधुओंको बहुत ही सताया। गति, मध्यलोक, व्यन्तरलोक, स्वर्ग और मोक्ष शिलालेखोंसे मालूम होता है कि गुप्तोंके राज्यका विभाग नामके ११ अधिकार या अध्याय हैं । लंय करनेवाला मिहिरकुल नामक बलाढ्य राजा- संक्षेपमें यह त्रैलोक्यसारके ढंगका ग्रन्थ है। हो गया है । इस मिहिरकुल राजाका सविस्तर इसका मंगलाचरण यह है:वर्णन हुएनसंग नामक प्रख्यात चीनी यात्रीने अपने लोकालोकविभागज्ञान् भक्त्या स्तुत्वा जिनेश्वरान् । प्रवासवर्णनमें दिया है। इसके सिवाय, इस राजा. व्याख्यास्यामि समासेन लोकतत्त्वमनेकधा ॥ १॥ की दृष्ट कृतिके विषयमें राजतरंगिणी नामक अन्तिम प्रशस्तिके श्लोक ये हैं:संस्कृत ग्रन्थमें भी विशेष वृत्तान्त आया है । यह भवे (व्ये) भ्यः सरमानुषोरुसदसि श्रीवर्द्धमानार्हता दुष्ट राजा गुप्तोंके बाद उनका राज्य आंधकृत यत्प्रोक्तं जगतो विधानमखिलं ज्ञातं सुधर्मादिभिः । करके चालीस वर्ष राज्य करता रहा और ७० आचार्यावलिकागतं विरचितं तरिसहसरर्षिणा वर्षकी अवस्थामें मरा । यह स्पष्ट है कि, इसीका भाषायाः परिवर्तनेन निपुणः सम्मानिता (तं) नाम चतुर्मुख कल्कि था । साधुभिः॥ वैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे, लोकविभाग और त्रिलोक- राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे । .। प्रज्ञप्ति । प्रामे च पाटलि ( क ) नामनि पाणराष्ट्र, - शास्त्रं पुरा लिखितवान मुनिसर्वनन्दिः ॥ २ ॥ [ दो प्राचीन ग्रन्थ।] संवत्सरे तु द्वाविंशे कांचीशसिंहवर्मणः। अशीत्यग्रे शकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये ॥ ३ ॥ लोकविभाग नामक ग्रन्थके विषय में हम बहत पादासतानि षटिंठात्यधिकानि वै। दिनोंसे सुन रहे थे कि यह बहुत प्राचीन ग्रन्थ शास्त्रस्य संग्रहस्त्विदं छन्दसानुष्टुभेन च ॥ ४ ॥ है । श्रीयुत विन्सेंट ए. स्मिथने अपने सुप्रसिद्ध इति लोकविभागे मोक्षविभागो नाम एकादश इतिहास ( अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया) के प्रकरणं समाप्त । पृष्ठ ४७१ में इसका उल्लेख किया है और इसे ' प्रशस्तिके उक्त श्लोकोंका अर्थ इस प्रकार शककी चौथी शताब्दिका बतलाया है । होता हैखोज करने पर हमें इसकी एक प्रति स्वर्गीय “ देवों और मनुष्योंकी सभामें भगवान् विद्याप्रेमी सेठ माणिकचन्दजीके सरस्वतीभण्डारसे वर्द्धमान् अरहंतने भव्य जनोंके लिए जो जगत्का प्राप्त हो गई। इसकी श्लोकसंख्या २२३० और सारा स्वरूप कहा था और जिसे सुधर्मा स्वामी पत्रसंख्या ७१ है । भट्टारक भुवनकीर्तिके आदि गणधरोंने जाना था, वह आचार्योंकी शिष्य ज्ञानभूषण भट्टारकके उपदेशसे 'नागद्रा परम्पराद्वारा चला आया और उसे सिंहसूरिने साहवाघ्र' नामके किसी लेखकने इसे लिखा है। भाषाका परिवर्तन करके रचा । निपुण साधुओंने अतएव यह विक्रमकी सोलहवीं शताब्दिकी इसका सम्मान किया ॥ १ ॥ लिखी हुई है। ज्ञानभूषण इसी शताब्दिमें हुए हैं। " जिस समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र में शनिश्चर, - अन्धकी भाषा संस्कृत और छन्द अनुष्टुप् वृषराशिमें बृहस्पति और उत्तरा फाल्गुनीमें चन्द्रहै । इसमें जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, मा था, तथा शुक्लपक्ष था ( अर्थात् फाल्गुन Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [ भाग १३ शुक्ला पूर्णिमा थी ) उस समय पण्णराष्ट्रके तब हमारी उक्त प्रसन्नता हवा हो गई । क्योंकि पाटलि ( पटना ! ) ग्राममें इस शास्त्रको पहले त्रैलोक्यसार विक्रमकी ११ वीं शताब्दिका बना सर्वनन्दि नामक मुनिने लिखा ॥ २॥ हुआ ग्रन्थ है, और यह सुनिश्चित है। क्योंकि कांचीके राजा सिंहवर्माके २२ संवत्सरमें त्रैलोक्यसारकी संस्कृतटीकामें पं० माधवचन्द्र और शकके ३८० वें वर्षमें यह ग्रन्थ समाप्त विद्यदेव-जो त्रैलोक्यसारके कर्ता नेमिचन्द्रके हुआ ॥ ३॥ शिष्य थे-स्पष्ट शब्दोंमें लिखते हैं कि यह ग्रन्थ ___“यह शास्त्रका संग्रह १५२६ अनुष्टुप मंत्रिवर चामुण्डरायके प्रतिबोधके लिए बनाया छन्दोंमें समाप्त हुआ है।" गया है और चामुण्डरायके बनाये हुए त्रिषष्टिलक्षण महापुराणमें उसके बननेका समय शक संवत् प्रशस्तिके इन श्लोकोंको पढ़कर हमें इस ग्रन्थकी प्राचीनताके विषयमें बड़ा कुतूहल हुआ । क्यों ९०० ( बि० सं० १०३५ ) लिखा हुआ है । कनड़ीके और भी कई ग्रन्थोंसे चामुण्डराय कि शक संवत्का इससे पुराना उल्लेख अबतक कहीं भी नहीं मिला है । यद्यपि ग्रन्थकी प्राची और नेमिचन्द्रका समय यही निश्चित होता है । नताके विषयमें सन्देह करनेका कोई कारण नहीं लोकविभागमें त्रैलोक्यसारकी गाथा देते था, फिर भी हमें ग्रन्थको एक बार अच्छी समय स्पष्ट शब्दोंमें 'उक्तं च त्रैलोक्यसारे ' इस तरह देख जानेकी आवश्यकता मालम हई। प्रकार लिखा है । इस कारण यह सन्देह भी हमने देखा कि, इसमें ग्रन्थान्तरोंसे भी कुछ नहीं हो सकता कि, वे गाथायें किसी अन्य प्राश्लोक उद्धृत किये गये हैं। सबसे पहले हमारी चीन ग्रन्थकी होंगी और उससे लोकविभागके दृष्टि त्रिलोकप्रज्ञप्ति पर पड़ी । इस ग्रन्थकी समान त्रैलोक्यसारमें भी ले ली गई होंगी, क्योंकि पचासों गाथायें लोकविभागमें उद्धत हैं। हम त्रैलोक्यसार संग्रहग्रन्थ है । अतः सिद्ध हुआ कि अकलंकसरस्वतीभवन काशीके मंत्री पं० उम- लोकविभाग त्रैलोक्यसारसे पीछेका, ग्यारहवीं रावसिंहजीके और पं० इन्द्रलालजी साहित्य- शताब्दिके बादका, ग्रन्थ है। . शास्त्रीके बहुत ही कृतज्ञ हैं, कि हमारे लिखनेसे लोकविभागमें त्रैलोक्यसारकी जो गाथायें उक्त महाशयोंने त्रैलोक्यप्रज्ञप्तिकी दो हस्त उद्धृत की गई हैं, उनमेंसे दो ये हैं:लिखित प्रतियाँ हमारे पास तत्काल ही भेज दीं। वेलंधरभुजगविमाणाण सहस्साणि बाहिरे सिहरे । जब लोकविभागकी 'उक्तं च ' गाथायें त्रिलोक- अंते वावत्तरि अडवांसं वादालयं लवणे ॥ प्रज्ञप्तिमें मिल गई, तब हमें इस बातसे और भी दुतडादो सत्तसयं दुकोसअहियं च होइ सिहरादो। अधिक प्रसन्नता हुई कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति लोक- णयराणिहु गयणतले जोयण दसगुणसहस्स वासाणि । विभागसे भी पुराना ग्रन्थ है। ये त्रैलोक्यसारकी ८९८-९९ नम्बरकी परन्तु इसके बाद ही मालूम हुआ कि लोक- गाथायें हैं और लोकविभागमें ४२२ वें नम्बरके विभागमें त्रैलोक्यसारकी भी गाथायें मौजूद हैं, श्लोकके बाद उद्धृत की गई हैं। इसी प्रका१त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें पाण, शवर, पुलिंद आदिको रकी और भी चार पाँच गाथायें हैं । नीच जातियोंके भेदोमें गिनाया है। क्या पाणराष्ट त्रैलोक्यसंग्रह नामके एक और ग्रन्थकी भी. इन्हीं नीचोंमेंकी किसी जातिके राज्यको कहा होगा? कुछ गाथायें लोकविभागमें उद्धृत की गई हैं, . २ पाटलिपुत्र पटनाका पुराना नाम है। परन्तु यह ग्रन्थ हमें कहींसे प्राप्त नहीं हो सका। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकविभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति । अङ्क १२ ] अंत एव उसके विषयमें कुछ नहीं कहा जा सकता । जब लोकविभागके निर्माणसमय में सन्देह हो गया, तब और अधिक छान-बीन की आव. श्यकता मालूम हुई और अन्तमें यह निश्चय हो गया कि, वह अपेक्षाकृत आधुनिक ही " है - पुराना नहीं है । इसके पाँचवे अध्यायके ४२ वें श्लोकके बाद ' उक्तं चार्षे' लिखकर तीन श्लोक उद्धृत किये गये हैं । हम जानते हैं कि बहुतसे ग्रन्थकार जिनसेनस्वामी के आदिपुराणका ' आर्ष ' शब्दसे उल्लेख करते हैं । अतएव हमें आशा हुई कि ये इलोक आदिपुराणमें मिल • जायेंगे और अन्तमें हमारी आशा सफल भी हुई । आदिपुराणके तीसरे पर्व में हमें ये श्लोक मिल गये: , ततस्तृतीय कालेऽस्मिन्व्यतिक्रामत्यनुक्रमात् । पस्योपमाष्टभागस्तु यदास्मिन्परिशिष्यते ॥ कल्पानोकवीर्याणां क्रमादेव परिच्युतौ । ज्योतिरंगास्तदा वृक्षा गता मन्दप्रकाशतां ॥ पुष्पदन्तावथाषाढ्यां पौर्णमास्यां स्फुरत्प्रभो । सायाह्ने प्रादुरास्तां तौ गगनोभयभागयोः ॥ आदिपुराणमें इनका नम्बर ५५-५६-५७ है। आदिपुराण विक्रमकी नौवीं शताब्दि के अन्तमें बना है, अतएव यह कहना होगा कि लोगविभाग उससे पीछे का है, शक संवत् ३८० का नहीं । तब ग्रन्थके अन्तमें जो समय लिखा है वह क्या जाली है ? लोगों को धोखा देनेके लिए लिखा गया है ? प्रशस्तिके श्लोकों को बहुत बारीकीके साथ समझसे इस प्रश्नका उत्तर मिल जाता । पहले श्लोक के ‘भाषायाः परिवर्तनेन सिंहसूरर्षिणा विरचितं' पद और दूसरे श्लोक 'शास्त्रं पुरा लिखितवान् मुनि सर्वनन्दि: पदसे मालूम होता है कि इस ग्रन्थको पहले प्राकृत भाषा में सर्वनन्दि नामक ५२७ मुनिने बनाया था, पीछे उसे भाषाका परिवर्तन करके सिंहसूरिने संस्कृतमें बनाया है । अतः शक संवत् ३८० ( वि० सं० ५१२ ) पहले प्राकृत, ग्रन्थके बनने का समय है, इस संस्कृत ग्रन्थके बननेका नहीं है । इसके बननेका समय या तो लिखा ही नहीं गया है, या लेखकोंकी गलती छूट गया है I गरज यह कि उपलब्ध 'लोकविभाग ' जो कि संस्कृतमें है, बहुत प्राचीन ग्रन्थ नहीं है । प्राचीनतासे उसका इतना ही सम्बन्ध है वह एक बहुत पुराने - शक संवत् ३८० के बने हुए- ग्रन्थसे अनुवाद किया गया है। इस बातका निश्चय नहीं हो सका कि यह त्रैलोक्य सारसे कितने समय पीछे बना है । यदि इसके कर्ता सिंहरिके बनाये हुए किसी अन्य ग्रन्थका पता लगता, तो उससे शायद इसका निश्चय हो जाता । . कुछ अब त्रिलोकप्रज्ञप्तिको लीजिए । इसका तिलोयपण्णत्ति ' हैं । बहुत बड़ा प्राकृत नाम ग्रन्थ है । इसकी श्लोकसंख्या आठ हजार है । ग्रन्थका अधिकांश प्राकृत गाथाबद्ध है । कुछ अंश गद्यमें भी है । संस्कृतच्छाया या टीका भी साथ नहीं है। इस कारण इसका अभिप्राय समझने में बड़ी कठिनाईका सामना करना पड़ता है । अप्रचलित और दुर्लभ होने के कारण अभीतक इसकी कोई भाषाटीका या वचनिका भी नहीं हुई है। इसका विषय इसके नामसे ही प्रकट है । त्रैलोक्यसारसे इसमें यह विशेषता है कि जो बात उसमें दश गाथाओंमें कही है, वह इसमें पंच्चीस पचास गाथाओं में लिखी गई है। सैकड़ों बातें ऐसी भी हैं, जो त्रैलोक्यसार में बिलकुल ही नहीं हैं । त्रैलोक्यसारकी गाथासंख्या एक हजार है, अतएव यह उससे अठगुणा बड़ा ग्रन्थ है । ऐसा मालूम होता है कि त्रैलोक्यसार इसी ग्रन्थका सार है और आश्चर्य नहीं जो वह 6 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ इसे ही सामने रख कर लिखा गया हो । इसमें * पेणमहजिशवरवसहं, गणहरवसहं तहेव गुणवसहं ।। 'सामान्य जगत्स्वरूप, नारकलोकस्वरूप, भवन- दहूण परिसवसह जदिवसहं धम्मसुत्तपाढए वसह॥८॥ वासी, मनुष्यलोक, तिर्यक्लोक, व्यन्तरलोक, चुण्णिसरूव छक्करणसरूवपमाण होदि किं जत्तं । ज्योतिर्लोक, सुरलोक और सिद्धलोक नामके ९ अहसहस्सपमाणं तिलोयपण्णत्तिणामाए ॥ ८१॥ महा अधिकार या अध्याय हैं। प्रत्येक अध्यायके । एवं आइरियपरंपरागय तिलोयपण्णात्तिए सिद्धोभीतर छोटे छोटे और भी अनेक अध्याय हैं। लोयसरूवनिरूवणपण्णत्तीणाम णवमो महाहियारो सम्मत्तं । - इस ग्रन्थकी प्रारंभिक गाथा यह है मग्गप्पभावणठं पवयणभत्तिपबोधिदेण मया। अविहकम्मवियला णिट्ठियकज्जा पणइसंसारा। भणिदं गंथं पवरं सोहंतु बहुस्सुदाइरिया ॥ दिवसयलहसारा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥१॥ - तिलोयपण्णत्ती सम्मत्ता। इसके बाद चार गाथाओंमें अरहंत, आचार्य, इनमेंसे पहली माथासे हमें यह मालूम होता उपाध्याय और साधुओंको नमस्कार किया है। है कि यह ग्रन्थ यतिवृषभाचार्यका बनाया हुआ फिर एक बड़ी लम्बी पीठिकादी है, जिसमें मंगल, ह है। ये यतिवृषभ आंचार्य वही हैं, जिनका ' उल्लेख इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतारमें किया गया कारण, हेतु, आदि बातों पर खूब विस्तारसे में है और जिन्हें कषायप्राभूतनामक द्वितीय विचार किया है। उसके अन्तमें लिखा है: श्रुतस्कन्धके चूर्णिसूत्रोंका कर्ता बतलाया हैसासदपदमावण्णं पवाहरूवत्तणेण दोसेहिं । पार्श्वे तयोर्द्वयोरप्यधीत्य सूत्राणि तानि यतिवृषभः । णिस्सेसेहिं विमुकं आइरियअणुक्रमााद ॥ ८६ ॥ यतिवृषभनामधेयो बभूव शास्त्रार्थनिपुणमतिः ॥१५५॥ भव्वजणाणंदयरं वोच्छामि अहं तिलोयपण्णत्ती। तेन ततो यतिपतिना तद्गाथावृत्तिसूत्ररूपेण । णिज्जरभत्तिपसादिदवरगुणचरणाणुभावेण ॥ ८७॥ रचितानि षट्सहस्रग्रन्थान्यथ चूर्णिसूत्राणि ॥ १५६ ॥ इसमें त्रिलोकप्रज्ञप्तिको, भव्यजनानन्द- अर्थात् “ गुणधर आचार्यने कषायप्राभूत कारिणी. प्रवाहरूपसे शाश्वती. निःशेषदोष- सूत्रके व्याख्यानको जिन नागहस्ति और आर्यरहित और आचार्योंकी परम्पराद्वारा चली मेक्षु मुनियोंके लिए लिखा था, उन दोनोंके पास आई, ये विशेषण दिये हैं और कहा है कि यतिवृषभ नामके श्रेष्ठ यतिने उसे पढ़ा और फिर उसपर छह हजार श्लोकप्रमाण चूर्णि: इसे मैं देवपूज्य श्रेष्ठ गुरुओंके चरणोंके प्रभावसे सूत्र लिखे । " पूर्वोक्त गाथामें यतिवृषभको जो कहता हूँ। 'धर्मसूत्रपाठकवृषभं' (धर्मसूत्रोंके श्रेष्ठ पाठक) आगे ग्रन्थान्तमें कुन्थुनाथसे लेकर वर्द्धमान विशेषण दिया है, उससे भी इस बातकी पुष्टि तक आठ * तीर्थंकरोंको, पंचपरमेष्ठीको, और * संस्कृतछायाफिर चौवीस तीर्थंकरोंको नमस्कार करके नीचे प्रणमत जिनवरवृषभं गणधरवृषभं तथैव गुणवृषभं । लिखी गाथायें देकर ग्रन्थ समाप्त किया है:- दृष्ट्वा परिषवृषभं यतिवृषभं धर्मसूत्रपाठकवृषभं ॥८० --- चणिस्वरूपं षट्करणस्वरूपप्रमाणं भवति किं यत् तत् । * प्रारम्भके १६ तीर्थंकरोंका स्तवन पहले आठ अष्टसहस्रप्रमाणं त्रिलोकप्रज्ञप्तिनाम्न्यः ॥ ८१ ॥ अधिकारोंके प्रारंभ और अन्द्रमें क्रमानुसार किया मार्गप्रभावनार्थं प्रवचनभक्तिप्रबोधितेन मया । गया है। भणितं. ग्रन्थप्रवरं शोधयन्तु बहुश्रुताचार्याः ॥ ८२ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकविभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति । अङ्क १२ ] होती है कि वे धर्मसूत्र या सिद्धान्त ग्रन्थके कर्त्ता यतिवृषभ ही हैं । इसके सिवाय आगेकी गाथाका अर्थ यदि यह हो कि " चूर्णिस्वरूप और षट्करणस्वरूपके श्लोका जो (संयुक्त) प्रमाण है, वही आठ हजार श्लोक इस त्रिलोकप्रज्ञप्तिका प्रमाण है । "तो - यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है । यतिवृषभकी जो चूर्णिसूत्र नामक छः हजार श्लोक परिमित टीका हे, उक्त गाथाका 'चूर्णि - स्वरूप ' शब्द उसीके लिए आया जान पड़ता है। षट्करणस्वरूप ' नामका और भी कोई ग्रन्थ इन्हीं आचार्यका बनाया हुआ होगा और उसकी श्लोकसंख्या दो हजार होगी । वह ग्रन्थ बहुत करके गणितका होगा । करणसूत्र गणित के सूत्रों को कहते हैं । उक्त दोनों ग्रन्थोंके बनानेके बाद श्रीयतिवृषभने त्रिलोकप्रज्ञप्तिको बनाया होगा, इस लिए इसमें उनका यह लिखना आश्चर्य जनक नहीं कि हमारे पहले दो ग्रन्थोंकी एकत्रित श्लोकसंख्या जितनी है, उतनी इस ग्रन्थकी है । पाठक शंका करेंगे कि, पहली गाथामें जो ( यतिवृषभं ' शब्द है, वह श्रेष्ठ आचार्योंका बाचक भी तो हो सकता है। हम इस बातको मानते हैं; परन्तु साथ ही यह भी कहते हैं कि, ग्रन्थकत्तीने इसमें अपना नाम भी ध्वनित किया है । इस तरहके नमस्कारात्मक गाथा - श्लोक आदि और भी अनेक ग्रन्थोंमें मिलते हैं; जिनमें किसी तीर्थकर आदिको नमस्कार किया है और साथ ही अपना नाम भी ग्रन्थकर्त्ताओंने ध्वनित कर दिया है । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीका यह गाथार्ध सभीको याद होगा' विमलवरणेमिचंदं तिहुवणचंदं णमस्सामि । ' इसी तरह सोमदेव आचार्यने नीतिवाक्यामृतके प्रारंभ में लिखा है- 'सोमं सोमसमाकारं सोमाभं सोमसंभवं । सोमदेवमुनिं नत्वा नीतिवाक्यामृतं ।' इसकी टीका में यह बात स्पष्ट शब्दों में कह ५३९ दी गई है कि ग्रन्थकर्त्ता ने इसमें सोम अर्थात् चन्द्रप्रभका स्तवन किया है और साथ ही अपना नाम भी ध्वनित कर दिया है । गरज यह कि यतिवृषभं ' विशेषणमें ग्रन्थकर्त्ताने अपना नाम भी ध्वनित किया है । ( तीसरी गाथा में कहा है कि “ मैंने यह ग्रन्थ प्रवचनशक्तिसे प्रबुद्ध होकर धर्मकी प्रभावनाके लिए बनाया है । इसे बहुश्रुत आचार्य शुद्ध करें। " अपना नाम प्रकट न किया होता तो इस गाथामें यह न कहा जाता कि 'मैंने " इस ग्रन्थको बनाया है । इससे मालूम होता है कि इसके पहले ग्रन्थकर्त्ता अपना नाम प्रकट कर चुके हैं और वह नाम यतिवृषभ ही हो सकता है। 6 अब यह देखना चाहिए कि, यतिवृषभाचार्यका समय क्या है । इन्द्रनन्द्रिके ग्रन्थसे तो इसका कुछ निश्चय हो नहीं सकता है । क्योंकि / यतिवृषभने जिन गुणधर आचार्यक शिष्योंसे पढ़ा था, उनका समयादि इन्द्रनन्द्रिको मालूम ही नहीं था । वे इस बात को स्पष्ट शब्दोंमें स्वीकार करते हैं: गुणधरधरसेनान्वयगुर्वैः पूर्वापरक्रमोंऽस्माभिः । न ज्ञायते तदन्त्रय कथकागममुनिजनाभावात् ॥ ऐसी दशामें यतिवृषभका निश्चित समय मालूम करना बहुत कठिन है । साधारण दृष्टि से देखनेसे इसमें अन्य किसी ग्रन्थके' उक्तं च ' श्लोकादि भी नहीं मिले, जिससे समयनिर्णय में कुछ सहायता मिलती । हाँ यह बात अवश्य कही जा सकती है कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ संस्कृत लोकविभागसे पहलेका बना हुआ है। क्यों कि उसमें इसकी पचासों गाथायें उद्धत की गई हैं। पर प्राकृत लोकविभागसे पहलेका, अर्थात् शक संवत् ३८० के पूर्वका, यह ग्रन्थ कदापि नहीं हो सकती। क्योंकि इसमें जिस कल्कि - राजाका वर्णन है, वह इसी ग्रन्थके समयनिरू Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० जैनहितैषी [ भाग १३ mamirmanner Annann पणके अनुसार शक संवत् ३८० के बाद को पढ़ाया । भूतबलिने जिनपालितको हुआ है। का पढ़ाया। फिर एक गुणधर नामके आचार्य "इस ग्रन्थके अनुसार कल्किकी मृत्यु वीर- हुए । उनके शिष्य नागहस्ति आर्यमक्षुसे यति'निर्वाणके एक हजार वर्ष बाद हुई है और वृषभने पढ़ा । यदि इन सबके होनेमें ३२५ शकके ४६१ वर्ष पहले अथवा ६०५ वर्ष पहले वर्ष लगभग मान लिये जायँ तो (६८३+ वीरनिर्वाण हुआ है। यदि इन दो मतों से हम दूसरे ३२५= ) १०१८ वीरनिर्वाणके लगभग यतिमतको ठीक समझें, तो शक संवत् ३९५ में वृषभका समय ठीक हो सकता है । इन्द्रनन्दिकल्किकी मृत्यु माननी पड़ेगी। ऐसी दशामें को गुणधर और धरसेन आचार्यका पूर्वक्रम इस ग्रन्थको प्राकृत लोकविभागके पहलेका मालूम नहीं था, इसलिए ये आचार्य असंभव बना हुआ नहीं मान सकते। क्यों कि वह नहीं जो अंगज्ञानके नष्ट होनेके और अर्हदलि, शक ३८० में बना है। माघनन्दि आदिके बहुत बाद-लगभग ३०० कितने पीछे बना है, यह निश्चयपूर्वक नहीं वर्ष बाद-हुए हों। कहा जा सकता, पर ऐसा मालूम होता है कि यदि यह न भी माना जाय-यद्यपि न कल्किके दश बीस वर्षों के बाद ही यह बना माननेका कोई प्रबल कारण नहीं दिखलाई होगा । क्योंकि एक तो इसमें कल्किके बादके देता-तो भी इसमें तो सन्देह नहीं कि यह ग्रन्थ बहुत थोड़े ही समयका वर्णन है, और उसमें प्राचीन है। इसकी रचनाशैली ही निराली है । भी कल्किके पुत्र अजितंजयके दो वर्षतक धर्म- पिछले समयके ग्रन्थोंकी रचनाशैलीसे वह नहीं राज्य करनेका उल्लेख है । यदि यह दो वर्षतक मिलती,। हमें आशा है कि यदि इस ग्रन्थका धर्मराज्य करनेकी बात बहुत पुरानी होती, तो बारीकीसे. अध्ययन किया जायगा, जिसके उसे लोग भूल ही गये होते-ग्रन्थकर्ताको भी लिए अभी हमारे पास समय नहीं है, तो इसके उसका पता न चलता। दूसरे अजितंजयके भीतरसे ही ऐसे प्रमाण उपलब्ध हो सकेंगे, जिनसे बहुत पीछे यदि यह ग्रन्थ बना होता तो यह इसकी प्राचीनता और भी स्पष्ट हो जायगी । संभव नहीं जान पड़ता कि, इतने बड़े भारी आश्चर्य नहीं जो इसके बननेका ठीक समय भी ग्रन्थमें उसके बादके अन्य राजाओंका थोड़ा निर्णीत हो जाय। बहुत उल्लेख न किया जाता। इस ग्रन्थके अन्तमें जो कुन्थुनाथादि तीर्थइन्द्रनन्दिने यद्यपि यतिवृषभका समय नहीं करोंका स्तवन किया गया है, उसमें वीरभगवाबतलाया है, तथापि उन्होंने जिस क्रमसे वर्णन के स्तवनकी गाथा यह है:किया है, उससे कल्किके दश पाँच वर्ष पीछे एस सुरासुरमणुसिंदवंदियं धोदघादिकम्ममलं । यतिवृषभका समय होना, असंभव नहीं पणमामि वड्डमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं ॥ ७७ ॥ जान पड़ता । • उनके कथनानुसार बीरनिर्वाण पाठक यह जानकर आश्चर्य करेंगे कि यही संवत ६८३ तक अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही है। गाथा श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके सुप्रसिद्ध ग्रन्थ प्रवचनउसके बाद अहवाल आचार्य हुए। उनके कुछ सारकी प्रारंभक मंगलाचरणगाथा है। यदि समय बाद ( तत्काल ही नहीं ) माधनन्दि त्रिलोकप्रज्ञाप्तके कर्ता यतिवृषभ ही हैं, तो यह हुए। उनके स्वर्गवासी होने पर कुछ समय बाद मानना पड़ेगा कि, प्रवचनसारमें यह गाथा इसी धरसेन आचार्य हुए । इन्होंने भूतबलि पुष्पदन्त- ग्रन्थपरसे ले ली गई है। क्यों कि इन्द्रनन्दिके Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ लोकविभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति । ५३१ कथनानुसार कुन्दकुन्दाचार्य यतिवृषभसे पीछे कर्मों के नाश कर चुकने पर जम्बू केवला हुए । यतिवृषभके बाद ही उन्होंने सिद्धान्त- उनके बाद फिर कोई केवली नहीं हुआ। इन ग्रन्थोंकी टीका लिखी है। कन्दकन्दका समय गोतम आदि केवलियोंके धर्मप्रवर्तनका एकत्रित जो विक्रमकी पहली शताब्दिमें माना जा रहा समय ६२ वर्ष है ॥ ६६-६८ । है, वह हमारी समझमें भ्रम है। इस मानताकी कुण्डलगिरम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो। सत्यताके विषयमें : भट्टारकोंकी बे-सिरपैरकी चरणरिसीसु चरिमो सुपासचंदाभिधाणो य ॥६९॥ पट्टावलियोंके सिवाय और कोई प्रमाण नहीं पंणसमणेसु चरिमो वइरजसो णाम ओहिणाणिस्स । चरिमो सिरि णामो सुदविणयसुसीलादिसंपन्नो ॥७॥ दिया जा सकता । त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें यह गाथा - मउंडधरेसु चरिमो जिगदिक्खं धरदि चंदगुत्तों य । उद्धता नहीं जान पडती। क्योंकि वहाँ यह तत्तो मउडधरादो पव्वज्ज व गेहति ॥ ७ ॥ तीर्थकरोंके क्रमागत स्तवनमें कही गई है। अर्थ केवलज्ञानियोंमें सबसे आन्तम श्रीधर परन्तु इस विषयमें अधिक जोर देकर कोई भी हुए जो कुण्डलगिरिसे मुक्त हुए, और चारण बात नहीं कही जा सकती । क्योंकि प्रवच- ऋद्धिके धारक ऋषियोंमें - सबसे अन्तिम नसार और त्रिलोकप्रज्ञप्ति दोनोंकी ही रच- सुपार्श्वचन्द्र हुए । इसी तरह पाँच श्रमणोंमें नाका समय सन्दिग्ध है। सबसे अतिभः वज्रयश हुए और अवधिज्ञानियोंमें, हरिवंशपुराणमें पालक आदि राजाओंका जी श्रुतविनयशीलादिसम्पन्न श्रीनामके . मुनि । इतिहास दिया है, हमारी समझमें वह त्रिलोक- मुकुटधर, राजाओंमें सबसे अन्तिम चन्द्रगुप्तने प्रज्ञप्तिपरसे ही लिया गया है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति- जिनदीक्षा धारण की। इसके बाद किसी राजा. की वे गाथायें जिनसे पालक आदि राजाओंका न प्रवज्या या दाक्षा नहा ग्रहण का ॥६९-७१॥ इतिहास मालूम होता है, यहाँ उद्धृत की गंदी य णंदिमित्तो विदिओ अवराजिदं तई जाई। जाती हैं और उनका भावार्थ भी लिख दिया भी हिटिया गोवद्धणो चउत्थो पंचमओ रद्दवाहुत्ति ॥ ७२ ॥ जाता है । प्राचीन इतिहासके अन्वेषकोंके लिए पंच इमे पुरिसवरा चउदसपुषी जगनि विक्खाढा। ते वारसअंगधरा तित्थे सिरिवड्डमाणस्स ।। ७३ ॥ ये गाथायें बहुत उपयोगिनी सिद्ध होगी। पंचाणमेलिदाणं कालपमाणं हवेदि वाससदं । .. इन गाथाओंका सिलसिला महावीर भगवान्के वरिरामय पंचमए भरहे सुदकेवली णत्थि ॥ ७४ ।। निर्वाणके बादसे शुरू होता है। अर्थ-नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित,गर्विधन जादो सिद्धो वीरो तद्दिवसे गोदमो परमणाणी । १ भगवान महावीर के बाद केवल तीन ही केवल जादो तस्सि सिद्धे सुधम्मसामी तदो जादो॥६६॥ ज्ञानी हुए हैं, जिनमें जम्बूस्वामी अन्तिम थे । ऐसी • तमि कद कम्मणासे जंबसामित्ति केवली जादो। दशामें यह समझ में नहीं आता कि यहाँ श्रीधरको क्यों तत्व वि सिद्धपवणे, केवलिणो णत्थि अणुवद्धा ६७ अन्तिम केवली बतलाया, और ये कौन थे तथा कब वासही वासाणि गोदमपहृदोण णाणवंताणं । हुए हैं । शायद ये अन्तःकृत केवली हों। २ मूलमें पंण -धम्मपयणकाले परिमाणं पिण्डरूण ६४॥ समण' शब्द है। मालूम नहीं, इसका क्या अर्थ है। ये कोई विशेष प्रकारके मुनि जान पड़ते हैं। ३ यदि अर्थ-जिस दिन श्रीवीर भगवान्का यह ग्रन्थ छठी शताब्दिका बना हुआ हो, तो कहना मोक्ष हुआ, उसी दिन गोतम गणधरको परम होगा कि सम्राट चन्द्रगुप्तके जैन होनेके जो प्रमाण ज्ञान या केवलज्ञान हुआ और उनके सिद्ध उपलब्ध हैं उनमें यह सबसे पुराना है । ४ श्रुतावतारमें होने पर सुधर्मा स्वामी केवली हुए। उनके कृत- न न्दिके स्थानमें विष्णु नाम लिखा है। - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ जैनहितैषी [ भाग १३ और भद्रबाहु ये पाँच पुरुषश्रेष्ठ चतुर्दशपूर्वधारी लोह ये चार आचार्य आचारांगके धारक हुए । कहलाये। ये द्वादशांगके ज्ञाता थे। इन पाँचोंका शेष कुछ आचार्य ग्यारह अंग चौदह पूर्वके एकत्रित समय एक सौ वर्ष होता है। इनके बाद एक अंशके ज्ञाता थे। ये सब ११८ वर्षमें भरतक्षेत्रमें इस पंचम कालमें और कोई श्रुतकेवली हुए । * इनके बाद भरतक्षेत्रमें कोई आचारांनहीं हुआ ॥ ७२-७४॥ वा गधारी नहीं हुआ। गोतमगणधरके बाद यहाँ पढमो विसाह णामो पुहिलो खत्तिओ जओ णागो। तक ६८३ वर्ष हुए। यथा:सिद्धत्थो धिदिसणो विजओ बुद्धिल्ल गंगदेवा य॥७५॥ ६२ वर्षमें ३ केवलज्ञानी एक्करसो य सुधम्मो दसपुव्वधरा इमे सुविक्खादा । १००"" ५ श्रुतकेवली पारंपरिउवगमदो तेसीदिसदं च ताणवासाणि ॥ ७६॥ १८३ " " ११ ग्यारह अंग और दशपूर्वधारी सव्वे सु वि कालवसा तेसु अदीदेसु भरहखेत्तमि । २२० "" ५ ग्यारह अंगके धारी वियसंतभव्वकमला ण संति दसपुव्विदिवसयरा ॥७७॥ ११८॥" ४ आचारांगके धारी अर्थ-विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव और ६८३ छः सौ तिरासी वर्ष । सुधर्म ये ग्यारह आचार्य दशपूर्वके धारी विख्यात वीस सहस्सं ति सदा सत्तारस वच्छराणि सुदतित्थं । हुए। ये सब एकके बाद एक १८३ वर्षमें हए। धम्मपयट्टणहेदू वेच्छिस्सदि कालदोसेण ॥ ८३ ॥ तेत्तियमेत्ते काले मिस्सदि चाउरणसंघाओ। इन सबके कालवश होनेपर भरतक्षत्रमें भव्य अविणीदुम्मेधाविय असूयको तहय पाएण ॥ ८४ ॥ रूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले दशपूर्व के सत्तभयअहमदेहि संजुत्ता सल्लगारववरेएहिं । . धारक सूर्य फिर नहीं हुए ॥ ७५-७७ ॥ कलहपिओ रागट्ठो कूरो कोहादुओ लोहो ॥ ८५ ॥ णक्खत्तो जयपालो पंडुअ धुवसेण कंस आइरिया । ण कस आइरियो । अर्थ-(पंचमकाल २१००० वर्षका है। एक्कारसंगधारी पंच इमे वीरतित्थम्मि ॥ ७८ ।। . इसमें ६१३ वर्ष तक श्रुतज्ञान रहा, अतएव शेषके) दोणिसया वीसजुदा वासाणं ताण पिंडपरिमाण । २०३१७ वर्ष तक धर्मप्रवृत्तिका हेतुभूत श्रुततेसु अतीदे णत्थि हु भरहे एक्कारसंगधरा ॥७९॥ । तीर्थ कालदोषसे विच्छिन्न रहेगा । इतने समय ___अर्थ-नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, और तक चातुर्वर्ण संघ ( मुनिसमूह ) में प्रायः अवि. कैस ये पाँच आचार्य ग्यारह अगाके धारक नीत, दुर्बद्धि, ईर्षाल, सात भय आठ मदों और हुए। इनके समयका एकत्र परिमाण २२० शल्यादिसे युक्त, कलहप्रिय, रागी, क्रूर, क्रोधी वर्ष होता है । इनके बाद ग्यारह अंगका धारक और लोभी मुनि उत्पन्न होंगे ॥ ८३-८५॥ और कोई नहीं हुआ। . * श्रुतावतार ( इन्द्रनन्दिकृत ) में सुभद्रादि चारों पढमो सुभद्दणामो जसमद्दो तह य होदि जसवाहू। . आचार्योंका ही समय ११८ वर्ष बतलाया है, उसमें तुरियो य लोयणामो एदे आयारअंगधरा ॥ ८॥ । ८०॥ अंग-पूर्वाशज्ञानियोंका समय शामिल नहीं मालूम सेसेक्करसंगाणि चोद्दस पुत्राणमेक्कदेसधरा। .. होता। पर यहाँ उनका समय शामिल बतलाया है। एक्कसय अद्वारस वासजुदं ताण परिमाणं ॥ ८१॥ श्रुतावतारमें अंशज्ञानियोंके विनयंधर, श्रीधर, शिवतेसु अदीदेसु तदा आचारधरा ण होति भरहंमि।। दत्त, अर्हद्दत्त ये चार नाम भी बतलाये हैं। पर गोदममुणि पहुदीणं वासाणं छस्सदाणि तेसीदी ॥४२॥ इनका समय जुदा नहीं दिया है। इससे जान पड़ता 'अर्थ-सुभद्, यशोभद्र, यशोबाहु, और ह कि इनका समय उन ११८ वर्षों में ही शामिल है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] लोकविभाग और त्रिलोकप्रज्ञप्ति । ५३३ वीरजिणं सिद्धिगदे चउसद इगिसहि वास परिमाणो। णिवाणगदे बारे चउसद इगिंसहि वासविच्छेद । कालंमि अदिक्कंते उप्पणो एत्थ सगराओ ॥८६॥ जादो च सगणरिंदो रज्जं वस्सस्स दुसय वादाला ९३ अहवा वीरोसिद्धे सहस्सणवकमि सगसयन्भहिये। पणसीदिमि यतीदे पणमासे सगणिओ जादा ॥८॥ दोणिसदा पणवण्णा गुत्ताणं चउमुहस्स वादालं । (पाठान्तरं वस्स होदि सहस्सं केई एवं परूवंति ॥ १४ ॥ चोइस सहस्स सग सय ते णउदी वासकालविच्छेदे । अर्थ-वीरनिर्वाणके ४६१ वर्ष बीतने पर वीरेसरसिद्धीदो उप्पण्णो समणिओ अहवा ॥ ८८ ॥ शक राजा हआ और इस वंशके राजानि (पाठान्तरं) ... २४२ वर्ष राज्य किया। उनके बाद गुप्तवंशके णिव्वाणे वीरजिणे छव्वास सदेसुपंचवरिसेसु। ... राजाओंका राज्य २५५ वर्षतक रहा और फिर , 'पणमासेसु गदेसुं संजादो सगणिओ अहवा ॥ ८९ ॥ चतुर्मुख ( काल्कि ) ने ४२ वर्ष राज्य किया। अर्थ-वीर भगवानके मोक्षके बाद जब कोई कोई लोग इस तरह (४६१+२४२+२५५ ४६१ वर्ष बीत गये, तब यहाँ पर शक नामका +४२=१०००) एक हजार वर्षे बतलाते हैं। राजा उत्पन्न हुआ। अथवा भगवानके मुक्त जं काले वीर जिणो णिस्सेयससंपर्य समावण्णो। होनेके बाद ९७८५ वर्ष ५ महीने बीतने पर शक राजा हुआ । (यह पाठान्तर है।) तक्काले अभिसित्तो पालयणामो अवंतिसुदो ॥९५॥ अथवा वीरेश्वरके सिद्ध होनेके १४७९३ वर्ष पालकरजं सहि इगिसय पणवण्ण विज पवंसभवा । बाद शक राजा हुआ।(यह पाठान्तर है।) अथवा चाले मुरुदयवसा तीसं वंसा सु पुस्समित्तंमि ॥५६॥ वीर भगवानके निर्वाणके ६०५ वर्ष और ५ वसुमित्त अग्निमित्ता सही गंधब्बया विसयमेक्कं । महीने बाद शक राजा हुआ ॥ ८६-८९ ॥ णरवाहणो य चालं ततो भच्छद्रणा जादा ॥ ९७ ॥ __ *इन गाथाओंसे मालम होगा कि इस समयसे भच्छ?णाण कालो दोणि सयाई हवंति वादाला । लगभग १२०० वर्ष पहले भी महावीर भगवानके तत्तो गुत्ता ताणं रजे दोणियसयाभि इगितीसा ॥९८ निर्वाणकालके विषयमें सन्देह था। एक मत था कि तत्तो कक्की जादो इंदसुदो तस्स चउमुहो णामो। उनका निर्वाण शकसे ४६१ वर्ष पहले हुआ है और दूसरा सत्तरि वरिसा आऊ विगुणिय-इगिवीस रज्जत्तों ॥ ९९ था कि नहीं ६०५ वर्ष पहले हुआ है । (त्रैलोक्यसार अर्थ-जिस समय वीर भगवानका मोक्ष और हरिवशपुराण आदिमें यह दूसरा मत ही माना गया है।) इनके सिवाय तीसरे और चौथे मत भी हुआ, ठीक उसी समय अवन्ति (चण्डप्रद्योत )थे जो बहुत ही विलक्षण थे। उनके विषयमें तो का पुत्र पालक नामक राजा अभिषिक्त हुआ कुछ कल्पना ही नहीं की जा सकती। उनके अनुसार उसने या उसके वंशने ६०वर्ष तक राज्य किया, शकसे हजार पाँचसौ नहीं, किन्त नौ हजार और चौदह उसके बाद १५५ वर्षतक विजयवंशके राजाओंने, हजार वर्ष पहले भगवानका निर्वाण हुआ था! और बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि यह बात उस समय एक यह बात हिन्दुओंके पुराणोंसे और जैनग्रन्थोंसे सिद्ध बड़े भारी ग्रन्थमें भी उल्लेख करने योग्य समझी जाती होती है। आश्चर्य नहीं जो उसीकी कृपासे जनथी। जो लोग उपलब्ध जैनग्रन्थोंको भगवानकी साक्षात् साहित्य नष्ट किया गया हो और जैनधर्मके मुख्य दिव्यध्वनिकी निधान्त 'कापी' समझते हैं और उनमें प्रदेशोंमेंसे जैनधर्म निर्वासित कर दिया गया हो। जरासा भी सन्देह करनेको स्थान नहीं पाते हैं, इसीसे तो जैनधर्मका छठी शताब्दिसे पहलेका साहित्य उन्हें इस मतभेद पर खास तौरसे ध्यान देना चाहिए। बहुत ही कम नाम मात्रको मिलता है। विद्वानोंको इस कल्कि राजा जैनधर्मका बहुत बड़ा शत्रु था। विषयमें कुछ अधिक प्रकाश डालना चाहिए। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ ४० वर्ष तक मुरुदय ( मौर्य ?) वंशने और अह साहियाण कक्को णियजोग्गो जणपदे पयत्तेण । ३० वर्षे तक पुष्यमित्रने राज्य किया । फिर सुक्कं जाचदि लुद्धो पिक्कं जावताव समणाओ ॥१०१॥ ६० वर्ष तक वसुमित्र अग्निमित्रने, १०९ दाऊणं पिंडग्गं समणा कालोय अंतराणं पि। वर्ष तक गन्धर्व राजाओंने और ४० वर्ष गच्छंति ओहिणाणं उजइ तेसु एकंपि ॥ १०२ ॥: तक नरवाहन या नहपान राजाने. राज्य अकोवि असुरदेवा ओहोदो मुणिगणाण उवसगं । किया। इसके बाद भ्रत्यान्ध्रराजा हुए। इन भ्रत्या- णादणं तरक्को मारेदिहु धम्मदोहिंति ॥ १०३ ॥ का राज्य २४२ वर्षे तक रहा । इनके बाद गु- कक्किसुतो अजिदजय णामो रक्खंति णमदि तच्चरणे । प्तोंका राज्य २३१ वर्ष तक रहा और तब कल्कि तं रक्खदि असुरदेओ धम्मे रज्जं करेजंति ॥ १०४॥ उत्पन्न हुआ। यह इन्द्रका पुत्र था और चतु- ततो दोबे वासो सम्मं धम्मो पयदि जणांणं । मख इसका नाम था। वह ७० वर्षे तक जिया कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हैं।एदे ।। १०५ ॥ और ४२ वर्ष तक उसमे राज्य किया। इस एवं वस्स सहस्से पुहकक्की हवेइ इक्क्के को। तरह भी सब मिलाकर (६०+१५५+४०+ पंचसयवच्छरेसु एकेको तहम उक्कक्की ॥१०६ ॥ ३०+६०+१००+४०+२४२+२३१+४२: अर्थ--जब कल्किने अपने योग्य देशोंको १०००)एक हजार वर्ष हात है । यत्नपर्वक जीत लिया, तब वह अतिशय लुब्ध आचारंगधरादो पणहत्तरिजुत्तदुसयवासेसुं । बनकर जिस तिस श्रमण ( जैनमुनि) से शुल्क बोलीणेसुं बद्धो पट्टो कक्कीस णरवइणो ॥ १०॥ या कर माँगने लगा। इस पर श्रमण अपना पहला अर्थ---आचरांगधारीके बाद २ ग्रास दे देकर भोजनमें अन्तराय हो जानेसे जाने तने पर कल्कि राजा पट्ट पर बैठा । आचारांग- लो। उन मनियों में से किसी एकको अवधिज्ञान धारीका अस्तित्व वीर नि० संवत् ६८३ तक हो गया । उधर कोई असुर-अवधिज्ञानसे यह था । उसमें २७५ जोड़नेसे ९५८ हुए। इसमें जानकर कि मुनियोंको उपसर्ग हो रहा है-आया ४२ वर्ष कल्किके राज्यके मिलानेसे पूरे १००० और उसने धर्मद्रोही कल्किको मार डाला। कल्किहो जाते हैं। का अजितंजय नामका पुत्र था, उसको असुरने ___१ ग्रन्थकर्ताको जान पड़ता है, यही मत मान्य बचा दिया और उससे धर्मराज्य कराया । इसके है कि शकसे ४६१ वर्ष पहले भगवान्का निर्वाण बाट दो वर्ष तक लोगोंमें धर्मकी प्रवृत्ति अच्छी हुआ था । २ हरिवंशपुराणमें जो इसी अभिप्रायके तरह होती रही; परन्तु फिर दिनों दिन कालके श्लोक हैं और जो हमारा विश्वास है कि, इसी ग्रन्थसे अनुवाद किये गये हैं, मुरुदयका अनवाद मरण्ड माहात्म्यस उसको हानता होने लगी। आगे इसी किया गया है । ३ सूलमें 'गन्धव' शब्द है तरह प्रत्येक एक एक हजार वर्ष में एक एक जिसकी छाया 'गन्धर्व' होती है, पर हरिवंशपुराणके कल्कि और प्रत्येक पाँच पाँच सौ वर्षमें. एक एक कर्त्ताने 'गदभ' मानकर इसके पर्यायवाची शब्द उपकल्कि होगा ।। १०१-१०६॥..... 'रासभ' को इन राजाओंके लिए प्रयुक्त किया है ! क्या ही अच्छा हो यदि यह प्राचीन ग्रन्थ १ हरिवंशपुराणमें ' भच्छहाणं ' का अनुवाद उपकर प्रकाशित हो जाय । यदि कोई धर्मात्मा 'भवाणस्य ' किया है; परन्तु वह ठोक नहीं मालूम सज्जन सहायता करें तो यह 'माणिकचन्द-ग्रन्थहोता । इस शब्दसे ग्रन्थकर्ताका मतलब आन्ध्रभृत्य राजाओंसे जान पड़ता है। ये बहुत प्रसिद्ध राजा माला' में निकाला जा सकता है। लगभग डेट हुए हैं। 'भच्छद्धाणं ' शब्द माननेसे उसका अनु- हजार रुपये में इस ग्रन्थका उद्धार हो सकता है। वाद ' भृत्यान्द्राणां' किया जा सकता है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ ] बाबाजीका स्वभ बाबाजीका स्वम | ( लेखक, श्रीयुत ठाकुरदासजी विद्यार्थी । ) (9) सन्ध्यासमय एक बाबाजी, सायं कृत्य समापन कर लुढ़क रहे निद्राभिभूत हो, एक कूपके तट ऊपर । लगे देखने स्वप्न हो गया ब्याह एक युवतीके संग; हुए व्यतीत बहुत दिन इस विधि, रहे रँगे रमणीके रंग । ( २ ) वर्द्धमान इस प्रणाय-वृक्षका, एक मधुर फल पुत्र हुआ; इस सुतसे विभक्त भी उनमें, प्रणय-वेग नित वृद्ध हुआ । शिशु जब दबने लेगा बीचमें, लेटे थे वे दोनों ओर; कहने लगी कान्तसे कान्ता-" जरा खिसक जाओ उस ओर " । ( ३ ) लेटे लेटे लगे खिसकने, वहाँ कूपमें पतित हुए; अस्थि-योग व्युच्छिन्न हुए सब, क्षणमें जीवनरहित हुए । 'प्रबल वासनायें मानवकी, सोतेमें भी पास रहें । करें अनिष्ट अनन्त, अन्तमें, उसका सत्यानाश करें ॥ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थोंमें / arooar वर्णन | ५३५ [ लेखक, श्रीयुत मुनि जिनविजयजी । ] कल्कि राजाके विषयमें दिगम्बर जैन ग्रंथों में जो 'कुछ लिखा हुआ है, उसका परिचय, पाठकोंको इसी अंक में प्रकाशित हुए श्रीयुत काशीप्रसादजी जायसवाल के लेख से और 'लोकविभाग तथा त्रिलोकप्रज्ञप्ति' शीर्षक संपादकीय - लेखसे हो जायगा । प्रेमीजीकी इच्छा हुई कि श्वेताम्बरसंप्रदायके ग्रन्थों में इस विषय में क्या लिखा गया है, सो भी पाठकों का मालूम हो जाना चाहिए, अतएव 'इस लेखके लिखनेकी आवश्यकता हुई। ८ कल्कि के वर्णनवाले जितने श्वेताम्बरीय ग्रंथ हमारे देखने में आये हैं, उनमें सबसे पुराना ग्रन्थ महावीरचरियं विक्रमसंवत् ११४१ का बना हुआ है । यह प्राकृत भाषामें है और इसके रचयिता अम्बदेव उपाध्यायके शिष्य नेमिचन्द्र आचार्य हैं । इसके अंतभागमें, गौतम गणधर के पूछने पर श्रमण भगवान् महावीरदेव पंचमकालका स्वरूप वर्णन करते हुए कहते हैं:छहिं वासाणसएहिं पंचहि वासेहिं पंचमासेहिं । मम निव्वणगयस्स उ उप्पज्जिएसइ सगो राया ॥ तेरसवाससहिएहिं नवुत्तरेहिं सगाउ कुसुमपुरे । होही ककी पन्ते कुलम्म केउव्व दुट्टप्पा ॥ अर्थात् - " हे गोतम, मेरे निर्वाणकाल बाद ६०५ वर्ष और ५ महीने बीतने पर राजा उत्पन्न होगा और उसके १३०९ वर्ष Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ . जैनहितैषी- [भाग १३ बाद ( महावीर निर्वाणसे १९१४ वर्ष बादं ) आहार, वसति और वस्त्रादिके लोभसे वहीं रह कुसुमपुर (पाटलीपुत्र-पटना ) में, प्रान्त जायेंगे और कहेंगे कि, कालके स्वभावसे और कर्मके (नीच ) कुलमें कल्कि नामका एक दुष्टात्मा प्रभावसे जो कुछ शुभ-अशुभ होना होगा, वह जन्म लेगा।” इसके बाद कल्किका बहुतसा अवश्य ही होगा, उसे कोन रोक सकता है ? वर्णन दिया है जिसका सार यह है कि कल्कि इसके बाद कल्कि तमाम धर्मोंके साधु-संन्यासिजन्मसे ही अतिशय क्रूर, निर्दय, घातक और योंसे कर वसल करेगा और अंतमें जैनसाधुओंसे लोभी होगा । उसके जन्मसमयमें. मथरामें भी कर माँगेगा। इस पर वे कहेंगे कि हे राजन् ! राम और कृष्णके मंदिर सहसा गिर प- हम तो केवल भिक्षावृत्तिसे अपना जीवननिर्वाह डेंगे ! देशमें सर्वत्र ही चोर, राजविरोध, करते हैं। हमारे पास ‘धर्मलाभ' के सिवाय राज्यभय, दुर्भिक्ष और अनावृष्टि आदि भयंकर और क्या चीज है, जो आपको दी जाय? इस पर उपद्रव मचेंगे । वह १८ वर्ष तक कुमारावस्थामें, भी जब वह कुछ ध्यान न देगा और उलटा रहेगा और उतने ही समयतक जनतामें क्रुद्ध होगा, तब नगर-देवता प्रकट होकर महामारी प्रचलित रहेगी। फिर वह प्रचण्ड राजा कहेगी; कि क्या तू मरना चाहता है, जो मुनि बनेगा । एक दिन वह शहरमें घूमता हआ योंको इस प्रकार सता रहा है ? इससे वह पाँचस्तूपोंको देखेगा और लोगोंसे उनका हाल बहुत भय-भीत होगा और मुनियोंके चरणोंमें पूछेगा । लोग कहेंगे कि, पूर्वमें यहाँपर नन्द पड़कर स्वकृत अपराधकी क्षमा माँगेगा । इसके नामका एक अत्यंत समृद्धिशाली राजा हो बाद.१७ दिनतक लगातार मूसल-धार जलवृष्टि गया है। उसके पास अनन्त सुवर्णराशि थी। होगी, जिससे गंगा और शोणनदके पूर आ ये स्तूप उसीके बनवाये हुए हैं । इनके भीतर जायेंगे और उनमें सारा ही नगर बह जावेगा । उसीकी गाढ़ी हुई सुवर्णराशि संरक्षित है। उसे एक प्रातिपद नामके आचार्य, कल्कि राजा, कोई निकाल नहीं सकता। यह सुनकर वह उन और थोड़ेसे नगर-निवासी लकड़ियोंके सहारे स्तूपोंको खदवा डालेगा और उनमेंसे उस सुवर्ण- तैरकर बच जायेंगे। इसके बाद नन्द राजाके राशिको निकाल लेगा । इसके बाद लोभके स्तूपोंमेंसे मिले हुए धनके द्वारा कल्कि फिर एक वशीभूत होकर वह और भी अनेक स्थानोंको नया नगर बसायगा और शान्तिके साथ नीति. खुदवायगा । अभिमानसे अन्धा होकर वह अन्य पूर्वक राज्य करने लगेगा, अनेक जैन मंदिर बन सब नृपतियोंको तृणवत् समझने लगेगा । कुछ जायँगे और साधु पूर्वकी ही तरह सर्वत्र सुखपूर्वक दिनोंके बाद जब वह अपने नगरकी जमीनको विचरने लगेंगे। धान्यका बहुत सुकाल हो खुदवाने लगेगा, तब उसमेंसे एक पाषाणकी गऊ जायगा। इस प्रकार वह ५० वर्ष तक सुराज्य, निकलेगी और वह भिक्षाके लिए जाते हुए जैन करेगा। परन्तु जब उसकी मृत्यु निकट आ जायगी साधुओंको अपने सींगों द्वारा मारनेको दौड़ेगी ! तब उसकी बुद्धि फिर बिगड़ेगी। पूर्वकी तरह फिर यह देखकर जो स्थविर साधु होंगे वे सोचेंगे कि भी वह सारे भिक्षुकोंसे कर माँगेगा । जैनमुनियोंसे भविष्यमें यहाँ पर बड़ा भारी जलोपसर्ग होगा, भी वह उनकी भिक्षाका षष्ठांश या छठा हिस्सा इस लिए इस प्रदेशको छोड़कर कहीं अन्यत्र चले करके रूपमें लेना चाहेगा । जब मुनि कर देनेसे जाना चाहिए । ऐसा विचार कर कितने ही साधु इन्कार करेंगे, तब वह उन्हें एक बाड़ेमें पशुतो अन्य प्रदेशोंमें चले जायेंगे और कितने ही ओंकी तरह बन्द कर देगा। मुनिजन इस Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थोंमें कल्किका वर्णन । अङ्क १२ ] संकटको देखकर शन्द्रका स्मरण करेंगे। तब शक्रका सिंहासन कंपित होगा, और इससे वह श्रमण संघका संकट जानकर एक वृद्ध ब्राह्मणके वेषमें कल्किके पास पहुँचेगा, और उसे श्रमणों को छोड़ देने के लिए तथा उनसे भिक्षाका षष्ठांश न माँगनेके लिए बहुत समझायगा । परन्तु अंतमें जब वह कुछ भी न सुनेगा, उलटा उसका ही तिरस्कार करनेके लिए उद्यत हो जायगा, तब शत्र उसे सिंहासन परसे नीचे पटक देगा और लातों तथा मुक्कोंसे मार मार कर मार डालेगा । इस प्रकार ८६ वर्षकी आयु पूरी करके वह नरकको प्रयाण करेगा । इसके बाद इन्द्र उसके दत्त नामक पुत्रको राजा बनाकर और जैनधर्मकी शिक्षा देकर स्वर्गलोकको चला जायगा । यह दत्त राजा नीतिपूर्वक राज्य करेगा, जैनधर्मकी प्रभावना करेगा और पृथ्वीको जैनमन्दिरोंसे मण्डित कर देगा। इसके बाद पाँचवें कालके अंततक धर्मकी निरंतर प्रवृत्ति रहेगी । हेमचन्दाचार्यकृत महावीरचरित्र में भी अक्षरशः इसी तरहका वर्णन है । इसमें भी कल्किका जन्मकाल महावीर - निर्वाणासे १९१४ वर्षबाद बतलाया है । विशेषमें उसके जन्मका महीना भी लिखा है, जो चैत्र है । इसके सिवाय उसके कल्कि, रुद्र और चतुर्मुख ये तीन नाम भी बतलाये हैं: मन्निर्वाणाद्द्वतेष्वब्दशतेऽत्रे कोनविंशतौ । चतुर्दशायां च म्लेच्छकुले चैत्राष्टमी दिने || विष्टौ भावी नृपः कल्की स रुद्रोऽथ चतुर्मुखः । नामत्रयेण विख्यातः पाटलीपुत्रपत्तने ॥ जिनप्रभसूरिने अपने ‘विविध तीर्थकरूप' के * अपापी कल्प' नामक प्रकरण में भी कल्किका १ महावीरचरित्र वि० संवत् १२२० में बना है । २ इसका रचना समय विक्रम संवत् १३८७ है । यह दक्षिणके देवगिरि ( दौलताबाद ) नगरमें बनाया गया था। ५३७ वर्णन लिखा है । इसमें ऊपरके दोनों चरित्रोंसे कहीं कहीं कुछ विशेषता है, पर जन्मकालमें कोई फर्क नहीं है। लिखा है, कि— "एगूणवीसासु ससुं चउद्दसाहिएसु वरिसेसु वकतेसु चउदससय बायाले विक्कमकाले पाडलिपुत्ते नयरे चित्तसुद्धहमीए अद्धरते विकिरणे मयर लग्गे वहमाणेसु मगह सेणाभिहाणस्स गि जसदेवीए उयरे चंडालकुले कक्विरायस्स जम्मो भविस्सइ । एगे एव मासु वीराओ इगुणवीसं सएहिं वरिसाण अट्टावीसाए । पंचमासेहिं होही चंडाल कुलंमि काक निवो ॥ "" इस अवतरण में महावीरनिर्वाणके १९१४ वर्ष के साथ विक्रमकाल १४४२ का भी स्पष्ट उल्लेख किया गया गया है, तथा कल्किके मातापिताका नाम भी क्रमसे जसदेवी और मगहसेण लिखा है, जो पूर्वोक्त चरित्रोंमें नहीं है । इस कल्प में यह भी लिखा है कि कल्कि अपने राज्यके ३६ वें वर्ष में भरतक्षेत्रके तीन खण्डों का स्वामी बनेगा । (इनका 'स्वामी, जैनग्रन्थोंके अनुसार, वासुदेव और प्रतिवासुदेव के सिवाय, और कोई नहीं हो सकता । ) कल्किके खजाने के धनका और सैन्यका परिमाण भी इसमें विशेष दिया हुआ है । यथा 66 'तस्स य भंडारे नवनवइ सुत्रण कोडाकोडीओ, चउदस सहस्सा गयाणं, सत्तासी लक्खा अस्साणं, पंचकोडीओ पाइक्काणं हिंदु-तुरुक्क - काफराणं । " * अर्थात् - कल्किके पास ९९ कोटाकोटी मुहरें, १४ हजार हाथी, २७ लाख घोड़े तथा हिंदू, तुरुष्क और काफिरों (?) की- ५ करोड़ पैदल सेना थी ! * प्रचलित मतसे महावीरनिर्वाण संवत् १९१४ में विक्रम संवत् १४४४ होते हैं, पर यहाँ पर १४४२ लिखे हैं | मालूम नहीं यह २ वर्षका अंतर क्यों है । - लेखक । पड़ता Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैनहितैषी [भाग १३ कल्किके बादके वर्णनमें लिखा है कि- पर साथ ही हम देखते हैं कि जब दिगम्बरीय " दत्तो य राया बावत्तरि वरिसाउ पडिदिणे कथनमें बहुत कुछ ऐतिहासिक तत्त्व मौजूद जिणचेइयमंत्यिं मही काही . लोगं च सुहियं है-जैसा कि श्रीयुत जायसवालजीने और प्रो० काहि त्ति । दत्तस्स पुत्तो जियसत्तू तस्स वि के. बी. पाठकने अपने लेखोंमें सिद्ध किया हैमेहघोसो । कक्कि अणंतर महानिसीहं न वट्ठि- तब श्वेताम्बरीय कथनमें कोई तत्त्व नजर नहीं स्सइ । दावाससहस्सटिइणो भासरासीगहस्स पीडाए आता। महावीरकी १०वीं शताब्दिकी अपेक्षा नियत्ताए य देवावि दंसणं दाहिति । विज्जा-२०वीं शताब्दि हमारे बहुत निकट है। मंता य अप्पेणवि जावाइणा पहावं दसिस्संति, ओहि- उसके ऊपर केवल ५ ही शताब्दियोंकी तहें णाणं जाइसरणाइ भावाय किंचि पयहिस्सति ।". जमी हुई हैं और इन तहोंका हाल हमें बहुत अर्थात्-कल्किका पुत्र दत्त ७२ वर्षतक कुछ ज्ञात है, अतः इनके नीचे दबी हुई चीजोंको लगातार जैनमंदिर बनवाता रहेगा और लोगों- हम सुलभताके साथ देख सकते हैं, अथवा यों को सुखी करेगा । उसका पुत्र जितशत्रु होगा कहें तो भी चल सकता है कि इनके नीचे और उसका मेघघोष । कल्किके बाद ‘महा- ऐसी कोई मोटी चीज नहीं दबी हुई है जो निशीथसूत्र ' लुप्त हो जायगा । महावीरके नि- हमसे अज्ञात हो। ऐसी दशामें, यह कहना पड़ेगा वर्वाणकाल पर दो हजार वर्षकी स्थितिवाला कि श्वेताम्बरीय ग्रंथोंका भविष्यकथन सत्य नहीं ' भस्मरासी' नामका ग्रह है । उसके उतर निकला । और इसी प्रकार दिगम्बरीय कथनके जाने पर देव भी मनुष्योंको दर्शन देंगे, भी एक भागका वही हाल है । क्यों कि दिगविद्या-मंत्र आदि भी अपना प्रभाव दिखावेंगे, और म्बरग्रन्थोंके अनुसार पाँचवें कालके प्रत्येक अवधिज्ञान तथा जातिस्मरण आदि ज्ञानके भाव १००० वर्षोंके अंतमें एक एक कल्कि और भी कुछ कुछ मालूम पड़ेंगे। प्रत्येक ५०० वर्षोंके अंतमें एक एक उपकल्कि ____ इसी प्रकारका कथन और और ग्रंथों में भी होगा । पर यह भविष्यवाणी ठीक नहीं उतरी । है । दिगम्बरीय कथन और श्वेताम्बरीय कथनमें श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंमें कल्किका जो समय वर्ण्यवस्तुमें अधिक अन्तर न होने पर भी समय- दिया है वह दिगम्बरीय ग्रंथोंके हिसाबसे दूसरे कथनमें बहुत अन्तर है । दिगम्बरग्रंथकार कल्किका समय है । अतः दिगम्बरीय कथनके जब कल्किका आविर्भावमहावीर निर्वाणसे एक अनुसार भी महावीरकी २० वीं शताब्दिमें एक हजार वर्ष पीछे बताते हैं, तब श्वेताम्बर वीर- कल्कि होना चाहिए। निर्वाणकी २० वीं शताब्दी में । जिन जिन दिगम्बर ग्रंथकारोंने महावीर की १० वीं दिगम्बर ग्रन्थोंमें यह वर्णन है वे प्रायः महावीर- शताब्दिवाले जिस कल्किका वर्णन किया है, निर्वाणसे १००० वर्ष बादहीके बने हुए हैं, उसका जिक्र श्वेताम्बरोंने क्यों नहीं किया, यह अतः उनके कर्ताओंका विश्वास था कि कल्कि बात भी खास तौरसे विचारने लायक है। कल्किहो चुका । परंतु जिन श्वेताम्बरीय ग्रंथोंका का वर्णन करनेवाले, त्रिलोकप्रज्ञाप्ति, हरिवंशऊपर उल्लेख किया है, वे ग्रंथ महावीरकी २० वीं पुराण और उत्तरपुराण आदि दिगम्बरीय ग्रंथ, शताब्दिके पूर्वके बने हुए हैं, अतः उनके रच- महावीरचरित्र और तीर्थकल्प आदि श्वेताम्बयिताओंका विश्वास भविष्यत्के ऊपर अवलंबित रीय ग्रंथोंसे निश्चय ही पूर्व में बने हैं, तब क्या था। यह बात खास तौरसे ध्यान देने योग्य है। हेमचन्द्राचार्य और जिनप्रभसूरिको उन दिग Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] . स्वराज्य-सोपान। म्बरीय ग्रंथोंका पता न होगा, जो इस तरह आचार्योंको भी १० वीं शताब्दिके कल्किका उन्होंने महावीर-निर्वाणकी १० वीं शताब्दिके पता न लगा होगा और इस कारण उन्होंने उक्त भूतपूर्व कल्किको २० वीं शताब्दिवाले भविष्य- दिगम्बरीय कथमको अविश्वस्त समझ कर कालमें ले जानेका प्रयत्न किया? इस विषयमें कल्किके जन्मकी मर्यादाको १००० वर्ष और हमने दो बातें सोची हैं; एक तो यह कि या तो आगे बढ़ा कर उसे भविष्यके लिए रख छोड़ा होगा। दिगम्बरीय कथनका हाल श्वेताम्बरोंको मालूम मैंने एक ग्रन्थ ऐसा भी देखा है जिसमें कल्किके ही नहीं था, और दूसरी यह कि मालूम होने जन्मको वीरनिर्वाण १९१४ से उठाकर विक्रम पर भी उन्होंने ऐसा लिखा हो तो, इसमें यह संवत् १९१४ में फेंक दिया गया है ! और इस कारण हो सकता है कि वह १० वीं शताब्दि- समय यदि यह क्यों' और 'क्या' का युग न वाला काल उन आचार्योके उतने ही निकट उपस्थित हो जाता, तो उसकी मर्यादा और भी था जितना कि हमें २० वीं शताब्दिवाला है। हजार पाँचसौ वर्ष बढ़ा दी जाती; परंतु अब जिस तरह हमें २० वीं शताब्दिके कल्किका . तो लोग या तो कल्किका पता ही लगा लेना कोई पता नहीं लगता और इस कारण उक्त चाहते हैं, या उसके अस्तित्वको आकाशकुसुम कथन पर विश्वास नहीं आता, उसी तरह उन ही बना देना चाहते हैं। खराज्य-सोपान । (लेखक, पं० रामचरित उपाध्याय ।) .... क्या स्वराज्य है खेल तमाशा ? उसको समझो देढ़ी खीर, पर तो भी वह मिल जावेगा, मनमें होना नहीं अधीर । उसका पूरा मूल्य आपने, क्योंकि अभी तक दिया नहीं, या कि आपने समुचित उसका, यत्न अभी तक किया नहीं॥१॥ करके पूर्ण विचार-पर्वको, अब उद्योग-पर्व पढ़िए, • कच्छप-गतिको छोड़ सिंहकी गतिसे झट आगे बढ़िए । क्षुद्र विन्न-पशु तुरत मार्गसे देख तुम्हें हट जावेंगे, सुखके साधन सभी तुम्हारे, सम्मुख दौड़े आवेंगे ॥२॥ जो भारतको योग्य न कहते, वे करते हैं भारी भूल, . ---- या उनकी मंति पर बैठी है, गाढ़ स्वार्थकी गन्दी धूल। राज-काजका सूत्र कभी क्या, हाथ हमारे रहा नहीं? ... .... क्या आर्योका रक्त, पसीना देश-विदेशों बहा नहीं ? ॥ ३॥ मोह-विवश जो मतिके अन्धे, करते हैं भारत-उपहास.. ... .. . मनो उन्होंने नहीं पढ़ा है, कभी हमारा कुछ इतिहास । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० जैनहितैषी - विविध विदेशोंके रक्षक थे, शिक्षक भी सबके थे हम, दुखी दीन या पराधीन भी, कहिए तो कबके थे हम ? ॥ ४ ॥ सब कहते हैं हाथ उठाकर, अपने प्रिय स्वराज्यके हेतु जो कुछ हो पर नहीं हटेंगे, नभमें भी बाँधेंगे सेतु । कभी प्रकृतिकी धारा चलकर, बीच मार्गमें रुकी नहीं, कभी आगकी लपट प्रकट हो, नीचे मुखका झुकी नहीं ॥ ५ ॥ दृढ़ आशा है बहुत शीघ्र ही, हम सबकी पूजेगी चाह, पा स्वराज्यको भारत-मनकी, तुरंत दूर होवेगी दाह । काली घटा उठी विघ्नोंकी, तितर बितर हो जावेगी, देश-विनाशक अज्ञोंकी भी, विकृति बुद्धि खो जावेगी ॥ ६ ॥ न्याय तुला पर तुल जावेगा, भारत भी सन्देह नहीं, किसी भाँति निःसीम निरन्तर रहती है अन्धेर कहीं ? | जलमें अनल, उपल पर कैरव, कालचक्र उपजाता है, अचला चलती है, मारुतका चलना भी रुक जाता है ॥ ७ ॥ यदि स्वराज्यका रिपु स्वराज्य ही, हो जावे परवाह नहीं, जो चाहे सो मोह नींदमें, सो जावे परवाह नहीं । ग्रीष्म दिवाकर उदित हुआ है, तारे नहीं रहे तो क्या ? सिंह- समूह बना है यदि, मृग सारे नहीं रहे तो क्या ? ॥ ८ ॥ अपनी वस्तु चाहते हम हैं कौन टोकनेवाला है ? जैसे होगा उसको लेंगे, कौन रोकनेवाला है ? | भिक्षा नहीं माँगते हम हैं जा कर कभी किसीके पास, न्याय चाहते हैं हम दृढ़ हो, हो सकते हैं नहीं हताश ॥ ९ ॥ हम भी मानव हैं मानवता हममें भी है भरी हुई, इसी लिए ही चाह हमारी अभी नहीं है मरी हुई, क्यों स्वराज्य या राज्य प्राप्त कर, सभी मनुज आनन्द करें ? विफलमनोरथ हो हम ही क्यों, जलती जलती आह भरें ? ॥१०॥ क्यों अनीतिको करें कभी हम अन्यायी क्यों कहलावें ? धर्म-नीति के लिए भले ही सुख पावें या मर जावें । क्यों स्वराज्य हमको न मिलेगा, क्यों न सत्य विजयी होगा ? स्वाधीना देवीका जगमें कौन नहीं प्रणयी होगा ? ॥ ११ ॥ स्वावलम्बके रंग-मच पर ताण्डवनृत्य दिखावेंगे, हम भारतको स्वर्ग बनाना सीखेंगे सिखलायेंगे । फिर स्वराज्य तो स्वयं हमारे चरणों पर गिर जावेगा, सत्साहस कर कौन जगतमें अपनी वस्तु न पावेगा ? ॥ १२ ॥ जननी जन्मभूमिमें किसको प्रेम नहीं है अपरम्पार ? कर्मवीरके लिए कौनसा कर्म हुआ है अगम अपार ? सोते थे पर जग बैठे हम अब फिर कभी न सोचेंगे, [ भाग १३ चाहे कुछ हो, निज स्वत्वोंको जीते कभी न खोवेंगे ॥ १३ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ ] द्रव्यसंग्रह | विद्यासे, बलसे, वैभवसे, विमल बुद्धिसे सहितविवेक, कर्मयोगको सिद्ध करेंगे, मनमें नहीं डरेंगे नेक । आ स्वतन्त्रते मिल जा हमसे, सभी भाँति अब हैं तैयार, चाहे प्रथम परीक्षा कर ले, हम न हटेंगे किसी प्रकार ॥ १४ ॥ जिससे दैन्य दूर होता है वही हमें मिल गई जड़ी, जो मृतक जीवित करती है, निकट खड़ी है वही घड़ी । क्यों मुख मोड़ें? हम स्वराज्यको प्राप्त करेंगे जैसे हो, तन मन से हम जिसे करें वह काम नहीं फिर कैसे हो ? ॥ १५ ॥ द्रव्य संग्रह । (समालोचना । ) ५४१ ले० -श्रीयुत बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार । ) आरा से श्रीयुत कुमार देवेंद्र प्रसादजीके आधिपत्यमें ' दि सैक्रेड बुक्स आफ दि जैन्स' अर्थात् ' जैनियोंके पवित्र ग्रंथः ' नामकी एक ग्रंथमाला निकलनी आरंभ हुई है, जिसके जनरल एडीटर या प्रधान संपादक श्रीयुत प्रोफेसर शरचन्द्र घोशाल एम. ए. बी. एल., सरस्वती, काव्यतीर्थ, विद्याभूषण, भारती नामके एक बंगाली विद्वान हैं । इस ग्रंथमालाका पहला ग्रंथ ' द्रव्यसंग्रह ' जो अभी हाल में प्रकाशित हुआ हैं, हमारे सामने उपस्थित है । द्रव्यसंग्रह, श्रीनेमिचंद्राचार्यका बनाया हुआ जैनियोंका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है, जिसमें कुल ५८ पद्य हैं और जिस पर ब्रह्मदेवकी बनाई हुई एक विस्तृत संस्कृत टीका भी पाई जाती है। अनेक वार यह मूलग्रंथ हिन्दी तथा मराठी अनुवादसहित और एकबार उक्त संस्कृतटीका और उसके हिन्दी अनुवादसहित छपकर प्रकाशित हो चुका है। इस तरह पर इस ग्रंथ के कई संस्करण निकल चुके हैं । परंतु अभीतक अँगरेजी संसारके लिए इस ग्रंथका दरवाजा बंद था वह प्रायः इसके लाभोंसे वंचित ही था । उक्त ग्रंथमाला के उत्साही कार्यकर्ताओं की कृपासे अब वह दरवाजा उक्त संसारके लिए भी खुल गया हैं, यह बड़े ही संतोष और हर्ष की बात है । ग्रंथके उपोद्घात ( preface ) में, उक्त ग्रंथमालाके प्रकाशित करनेका उद्देश्य और अभिप्राय प्रगट करते हुए, लिखा है कि इस " ग्रंथमाला में जैनियोंके उन संपूर्ण पवित्र ग्रंथों को प्रकाशित करनेका विचार है जिन्हें जैनियोंके सभी सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं और उन्हें भी जो जैनियोंके किसी खास सम्प्रदाय द्वारा प्रमाण माने गये हैं । " साथ ही यह भी सूचित किया गया है कि “ इस ग्रंथमाला में सभी जैनसम्प्रदायोंके पवित्र विना किसी तरफदारी य पक्षपातके समान आदरके पात्र बनेंगे । इस तरह पर, इस ग्रंथमाला के द्वारा जैनियों के संपूर्ण उत्तम और प्रामाणिक ग्रंथोंको ( प्राचीन संस्कृतटीकाओं तथा अँगरेजी अनुवादादि सहित प्रकाशित करके जैन अजैन सभी के लिए पक्षपातरहित अनुसंधान करनेके वास्ते, एक विशाल क्षेत्र तैयार करनेका अनुष्ठान किया गया है; जिससे अजैन लोक जैनियोंके तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप जानकर और जैनी भाई अपने अपने संप्रदाय के वास्तविक भेदों तथा उनके कारणों को पहचानकर परस्परका अज्ञानजन्य मनोमालिन्य ग्रंथ ." Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी . [भाग १३ विक सहधर्मिणी बनने लगें तो देशका बहुत कुछ अनुराग रखते हैं, ऐसा इस ग्रंथके शुरूमें प्रका. उद्धार हो सकता है । अस्तु । ग्रंथमें एक १८ शकद्वारा सूचित किया गया है। पेजका परिशष्ट भी लगा हुआ है जिसमें इस प्रकार ग्रंथका साधारण परिचय देने (A) जिन और जिनेश्वर, ( B ) जैन देवता, अथवा सामान्यालोचनाके बाद अब कुछ विशेष (C) द्वीपायनकी कथा, (D) शब्द, (E) समालोचना की जाती है, जिससे इस ग्रंथमालाके धर्म और अधर्मास्तिकाय, (F) ध्यान, इन सब द्वारा भविष्यमें जो ग्रंथ निकलें उनके प्रकाशित बातोंके सम्बन्धमें कुछ जरूरी सूचनायें दी। करने में विशेष सावधानी रखी जाय और इस गई हैं । इस प्रकार द्रव्यसंग्रहके इस संस्का ग्रंथमें जो ख़ास ख़ास भूलें हुई हैं उनका निरारणको एक उत्तम और उपयोगी संस्करण बना करण और सुधार हो सकेःनेकी हर तरहसे चेष्टा की गई है। इसके तैयार . १ पथके अन्तमें एक पेजका शुद्धिपत्र लगा करने में जो परिश्रम किया गया है वह निःसन्देह हुआ है । इसमें बिन्दु-विसर्ग और मात्रातककी बहुत प्रशंसनीय है। और यह कहनेमें हमें कोई जिन अशुद्धियोंको शुद्ध किया गया है उनके संकोच नहीं हो सकता कि हिन्दीमें अभीतक देखनेसे मालूम होता है कि ग्रंथका संशोधन इसकी जोड़का कोई संस्करण प्रकाशित नहीं बड़ी सूक्ष्म दृष्टिके साथ हुआ है और इस लिए हुआ। सब मिलाकर इस संस्करणकी पृष्ठसंख्या उसमें कोई अशुद्धि नहीं रहनी चाहिए। परन्त ३१८ है ( ३८१ नहीं, जैसा कि पहली तो भी संस्कृत प्राकृतके पाठोंमें उस प्रकारकी सूचीके अन्तमें सूचित किया गया है.)। मूल्य अनेक अशुद्धियाँ पाई जाती हैं । अगरेजीमें सूत्रइस संस्करणका, पृष्ठ-नोटिससे साढे पाँच कृताङ्गको ‘सूत्रक्रिताङ्ग । विष्णुवर्धनको विरुपये मालूम होता है; परन्तु किसी नोटिसमें 'नुवर्धन,' संज्ञाको 'सङ्गा' भुवनवासीको. हमने साढ़े चार रुपये भी देखा है। यह ग्रंथ 'भुवनबासी, ' अनुप्रवेशको " अनुप्रबेश" एक दूसरे मोटे किन्तु हलके कागज पर भी और आभ्यंतरको ‘आव्यंतर ' गलत लिखा छपा है । शायद वह मूल्य उसका हो । अस्तु । है । इस प्रकारकी साधारण अशुद्धियों को छोड़कर इस ग्रंथके प्रकाशित करने में जो अर्थ व्यय हुआ कुछ मोटी अशुद्धियाँ भी देखने में आती हैं । है, उसका छठा भाग रायसाहब बाबू प्यारे लालजी, जैसे पृष्ठ २ पर प्रमेयरत्नमालाके स्थानमें 'परीवकील, चीफकोर्ट, देहलीने अपने पुत्र आदी- क्षामुख,' पृ० ३८ पर अप्रत्याख्यानकी जगह श्वरलालके विवाहोत्सवकी खशीमें प्रदान किया 'प्रत्याख्यान' और प्रत्याख्यानकी जगह 'अप्रत्या है और दूसरा छठा भाग करनालके रईस लाला ख्यान,'पु०४८ पर अजीवविषयको 'जीवविषय' मन्शीलालजीकी धर्मपत्नी, अर्थात् देहरादनके गलत लिखा है । पृ.XXXIII पर पेज नं. x सरकारी खज़ानची ला० अजितप्रसादकी हवाला गलत दिया गया, पृ० XLV पर द्रव्यधर्मपत्नी श्रीमती चमेली देवीकी माताकी संग्रहकी कुछ गाथाओंके नम्बर ठीक नहीं. ओरस दिया गया है । इन उदार व्यक्ति. लिख गये और पु० XLI पर गोम्मटसारके ओरसे दिया गया है । इन उदार व्यक्तियोंकी तरफसे यह ग्रंथ ओरियंटल लायबेरियों 'जीवकांड' का संपादन पं० मनोहरलाल और उन विद्वानोंको भेटस्वरूप दिया जाता है । • देखो पृष्ठ नं. XII, XXVIII, XL, जो जैनफिलासोफ़ी और जैनसाहित्यसे विशेष LIV, 57, 87..... Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ ] जीके द्वारा सन १९१४ में, होना लिखा है जो ठीक नहीं; उसका संपादन पं० खूबचंदजीने सन् १९१६ में किया है । इन सब बातोंके सिवाय शुद्धिपत्र में पृष्ठ XLV का जो संशोधन दिया है उसके द्वारा शुद्ध पाठको उलटा अशुद्ध बनाया गया है। क्योंकि द्रव्य - संग्रह के द्वितीय भाग में पुण्य पापकी जगह जीव, अजीवका कथन नहीं है । इतना होने पर भी संपूर्ण ग्रन्थ अपेक्षाकृत बहुत शुद्ध और साफ़ छपा है, यह कहने में कोई संकोच नहीं हो संकता । द्रव्यसंग्रह | ५४५ लिखा है । परंतु बिना किसी प्रमाणके ऐसा लिखना ठीक नहीं । कुंदकुंदका अस्तित्व सिद्धसेनादिकसे पहले माना जाता है । २ ग्रंथके उपोदघातमें दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार चार अनुयोगोंके नाम क्रमशः चरणानुयोग, गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग और द्रव्यानुयोग दिये हैं और लिखा है कि “चरणानुयोगको प्रथमानुयोग भी कहते हैं, क्योंकि वह अनुयोगों की सूची में सबसे पहले आता है । " परन्तु यह लिखना बिलकुल प्रमाणरहित है । चरणानुयोगको प्रथमानुयोग नहीं कहते और न दिगम्बर संप्रदाय में उपर्युक्त क्रमसे चार अनुयोग माने ही गये हैं । रत्नकरंड श्रावकाचारादि ग्रंथोंसे प्रथमानुयोग और चरणानुयोगका स्पष्ट भेद पाया जाता है । उनमें प्रथमानुयोगसे अभिप्राय धर्मकथानुयोगसे है और चरणानुयोगको तीसरे नम्बर पर रक्खा है। इसी उपोद्घातमें ' चंद्र प्रज्ञप्ति ' को द्वादशांग में से एक अंग सूचित किया है, जो अंग न होकर एक ग्रंथका नाम है, अथवा वाद नामके अंगका एक अंश विशेष है । ४ प्रस्तावना, नेमिचंद्राचार्य के ‘त्रिलोसार' का परिचय देते हुए, लिखा है कि 22 इस ग्रंथ में पृथ्वी के घूमनेसे दिन और रात कैसे होते हैं, इस बातका कथन किया गया हैं ": "Aud there is a mention how night and day are caused by the motion of the earth." परंतु त्रिलोकसार में पृथ्वी के घूमने आदिका कोई कथन नहीं है । उसमें सूर्यादिककी गतिसे दिन और रातका होना बतलाया है। अतः इस लिखनेको लेखक महाशयकी निरी कल्पना अथवा पश्चिमी संस्कारों का फल कहना चाहिए । ५ चामुंडरायने गोम्मटसार पर जो अपने कर्णाटकदेशकी भाषा में टीका लिखी थी उसका नाम, इस ग्रंथकी प्रस्तावना में, 'वीरमार्तंडी ' बतलाया कया । साथ ही यह भी लिखा है कि "" चामुंडरायकी उपाधियोंमेंसे एक उपाधि 'वीरमार्तंड' होनेसे उसने अपनी उस टीकाका नाम वीरमार्तडी ' रक्खा है, जिसका अर्थ है वीर मार्तंडके द्वारा रची हुई । " परंतु इसके कोई खास प्रमाण नहीं दिया गया । गोम्मटसारके कर्मकांडकी जिस अन्तिम गाथा ( नं० ९ ९७२) परसे यह सारी कल्पना की गई हैं उससे इसका भले प्रकार समर्थन नहीं होता । उसके ' सो राओ चिरकालं णामेण य वीर मत्तंडी ' इस वाक्यमें 'वीरमार्तडी ' चामुंड रायका विशेषण है, जिसका अर्थ होता है 'वीरमार्तंड ' नामकी उपाधिका धारक । श्रीयुत पण्डित मनोहरलालजीने भी अपनी टीका में, जिसे उन्होंने संस्कृतादि टीकाओं के आधार ८ ३ उपोद्घात में एक स्थान पर श्रीकुंदकुंदाचार्य के प्रवचनसारादि ग्रंथोंको उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र और सिद्धसेन के. सम्मतिप्रकरणसे बनाया है, ऐसा ही अर्थ सूचित किया है। पछि के बने हुए ग्रंथ ( Later works ) ६ इस ग्रंथ के सम्पादक शरचंद्रजी Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ घोशालने अपने एक पत्र में जो सन् १९१६ के तया घटित होते हों। परन्तु ईस्वी सन् ९८० जैनहितैषीके छठे अंकमें मदित हआ है, चाम- शक संवत् ९०२ के बराबर है। ज्योतिषडराय और नेमिचंद्रका समय ईसाकी. ११ वी शास्त्रानुसार शक संवत्में १२ जोड़कर ६० का शताब्दि प्रगट किया था, और गोम्मटेश्वरकी भाग देनेसे जो शेष रहता है उससे प्रभव-विभमर्तिके प्रतिष्ठित होनेका समय ईस्वी सनु वादि संवतोंका क्रमशः नाम मालूम क्रिया १०७४ बतलाया था। इसके प्रत्युत्तरमें हमने-जाता है। यथाःकुछ प्रमाणोंके साथ उक्त समयको इसाकी "शकेन्द्रकालोऽयुतः कृत्वा शून्यरसैः हृतः ।। १० वीं शताब्दि सूचित करते हुए प्रोफेसर शेषाः संवत्सरा ज्ञेयाः प्रभवाद्या बुधैः क्रमात् ॥" साहबसे यह निवेदन किया था कि वे उस पर ... फिरसे विचार करें । यद्यपि प्रोफ़ेसर साहबने इस हिसाबसे, शक संवत् ९०२ में १२ इस हिसाबस, उक्त लेखका कोई उत्तर नहीं दिया, परन्तु - जोड़कर ६० का भाग देनेसे अवशेष १४ रहते इस ग्रंथकी प्रस्तावनासे मालूम होता है कि ह आर १४ वा सवत् विक्रम' है, जिससे शक उन्होंने उस पर विचार जरूर किया है । और संवत् ९०२ का नाम 'विक्रम '.. होता है, इसी लिए उन्होंने अपने पूर्वविचारको बदल कर 'विभव ' नहीं । ‘विभव ' संवत् दूसरे नम्बरहमारी उस सचनाके अनुसार चामंडरायका पर है जैसा कि, ज्योतिषशास्त्रों में कहे हुए, समय वही इसाकी १० वीं शताब्दि, इस प्रभवा विभवः शुक्लः' इत्यादि संवतोंके नाम. प्रस्तावनामें, स्थिर किया है ! साथ ही इतना सूचक पद्योंसे पाया जाता है । ऐसी हालतमें, विशेष और लिखा है कि गोम्मटेश्वरकी मूर्ति, जब ईस्वी सन् ९८० में — विभव' संवत्सर ही ईस्वी सन् ९८० में, २ री अप्रैलको प्रति- नहीं बनता, तब गणित करके अन्य योगोंके ष्ठित हुई है । आपके लेखानुसार इस तारीख जाँच करने की जरूरत नहीं है । और इस लिए ( २ अप्रैल ९८० ) में ज्योतिषशास्त्रानुसार वे जबतक ज्योतिषशास्त्रके वे. खास नियम प्रकट सब योग पूरी तौरसे घटित होते हैं जो 'बाहुबलि- न किये जायँ जिनके आधार पर शक सं० चरित्रके 'कल्क्यब् षट्शताख्ये...' इत्यादि ९०२ का नाम 'विभव' बन सके तथा अन्य पद्यमें वर्णित हैं । अर्थात् दूसरी अप्रैल सन् योग भी घटित हो सकें, तब तक मिस्टर ले९८० को विभव' संवत्सर, । चैत्र शुक्र विस राइस आदि विद्वानों के कथनानसार यही पंचशी' तिथि, रविवारका दिन, सौभाग्य योग मानना ठीक होगा कि गोमटेश्वरकी मूर्ति ईस्वी और मृगशिरा नक्षत्र था। उसी दिन कुंभ लग्न- सन् ९७८ और ९८४ के मध्यवर्ती किसी समयमें में यह प्रतिष्ठा हुई है। रही कल्कि संवत् ६०२ प्रतिष्ठित हुई है। की बात, सो उसके संबंधमें आपने यह कल्पना ७ प्रस्तावनामें, ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकाका उपस्थित की है कि 'कल्क्यब्दे षट्शताख्ये' का . अर्थ कल्कि संवत् ६०० के स्थानमें कल्किकी . परिचय देते हुए, लिखा है कि, यह टीका द्रव्यछठी शताब्दी ' किया जाय, जिसके संग्रहके कर्ता नेमिचंद्रसे कई शताब्दी बादकी अनसार कल्कि संवत ५०८ उक्त ईवी बनी हुई है । परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं सन् ९८० के बराबर होता है। कल्पना दिया गया । सिर्फ, विक्रमकी १७ वीं शताब्दिमें अच्छी की गई है और इसके मानने में कोई बनी हुई स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीकामें इस हानि नहीं, यदि अन्य प्रकारसे सब योग पूर्ण- टीकाके कुछ अंश उदधृत किये गये हैं, इतने Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ ] परसे ही उक्त निश्चय दृढ़ किया गया है, जो ठीक नहीं है। ऐसा करना तर्कपद्धतिसे बिलकुल गिरा हुआ है। इसके लिए कुछ विशेष अनुसंधानोंकी जरूरत है । अस्तु । ब्रह्मदेवने अपनी इस टीकाकी प्रस्तावना में लिखा है कि, "यह द्रव्यसंग्रह नेमिचंद्रसिद्धान्तिदेवके द्वारा, भाण्डागारादि अनेक नियोगों के अधिकारी सोम नामके राजश्रेष्ठिके निमित्त, आश्रमनाम नगरके मुनिसुव्रत चैत्याल - यमें रचा गया है, और वह नगर उस समय धाराधीश महाराज भोजदेव कलिकाल चक्रवर्तिसंबंधी श्रीपाल मंडलेश्वरके अधिकार में था । " साथ ही यह भी सूचित किया हैं कि “ पहले २६ गाथा प्रमाण लघु द्रव्यसंग्रहकी रचना की गई थी, पीछेसे, विशेष तत्त्वपरिज्ञानार्थ, उसे बढ़ाकर यह बृहद्रव्यसंग्रह बनाया गया है । प्रोफेसर साहबने ब्रह्मदेवके इस कथनको अस्वीकार किया है और उसके दो कारण बतलाये हैं – एक यह कि, खुद द्रव्यसंग्रहमें इस विषयका कोई उल्लेख नहीं है, तथा ग्रंथके अन्तिम पद्यमें ग्रंथका नाम ' बृहद्रव्यसंग्रह ' न देकर ' द्रव्यसंग्रह ' दिया है । और दूसरा यह कि, यदि इस कथन के अनुसार नेमिचन्द्रका अस्तित्व मालवा के राजा भोजके राजत्वकालमें माना जाय तो नेमिचंद्र का समय उस समयसे पीछे हो जाता है जो कि शिलालेखों और दूसरे प्रमाणोंके आधार पर इससे पहले सिद्ध किया जा चुका है ( अर्थात् ईसाकी १० वीं शताब्दि के स्थानमें ११ वीं शताब्दि हो जाता है ) । इन दोनों कारणों में से पहला कारण बहुत साधारण है और उससे कुछ भी साध्यकी सिद्धि नहीं हो सकती । ग्रंथकर्ता के लिए ग्रंथमें इस प्रकारका उल्लेख करना कोई जरूरी नहीं है, खासकर ऐसे ग्रंथमें जो सूत्ररूपसे लिखा गया हो । लघु और बृहत् ये संज्ञायें एक नामके दो ग्रंथोंमें परस्पर अपेक्षा होती हैं, परन्तु जब एक ग्रंथकार अपनी ५-६ द्रव्यसंग्रह | ५४७ उसी कृतिमें कुछ वृद्धि करता है तो उसे उसका नाम बदलने या उसमें बृहत् शब्द लगाने की जरूरत नहीं है। हाँ, ब्रह्मदेवकी तरह दूसरा व्यक्ति उसकी सूचना कर सकता है । रहा दूसरा कारण, वह तभी उपस्थित किया जासकता है, जब पहले यह सिद्ध हो जाय कि यह द्रव्यसंग्रह ग्रंथ उन्हीं नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका बनाया हुआ है जो गोम्मटसार ग्रंथ के कर्ता हैं । प्रोफेसर साहबने द्रव्यसंग्रहको उक्त नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की कृति मानकर ही यह दूसरा कारण उपस्थित किया है | परंतु ग्रंथभरमें इस बात के सिद्ध करने की कोई चेष्टा नहीं की गई ( जिसकी बहुत बड़ी जरूरत थी ) कि यह ग्रंथ वास्तवमें उक्त सिद्धान्तचक्रवर्तीका ही बनाया हुआ है । कोई भी ऐसा प्राचीन ग्रंथप्रमाण नहीं दिया गया, जिसमें यह ग्रंथ गोम्मटसारके कर्ता की कृतिरूपसे स्वीकृत हुआ हो, और न यह बतलाया गया कि द्रव्यसंग्रह कर्ताका समय कुछ पीछे मान लेने से कौनसी बाधा उपस्थित होती है । ऐसी हालत में ब्रह्मदेवके उक्त कथनको सहसा अप्रमाण या असत्य नहीं ठहराया जा सकता । ब्रह्मदेवका वह कथन ऐसे ढंगसे और ऐसी तफसील के साथ लिखा गया है कि, उसे पढ़ते समय यह खयाल आये बिना नहीं रहता कि या तो ब्रह्मदेवजी उस समय मैजूद थे; जब कि द्रव्यसंग्रह बनकर तयार हुआ था, अथवा उन्हें दूसरे किसी ख़ास मार्गसे इन सब बातोंका ज्ञान प्राप्त हुआ है। द्रव्यसंग्रहकी माथाओंपर से भी उसके पहले लघु और फिर बृहत् बनने की कुछ कल्पना जरूर उत्पन्न होती है । इसके सिवाय संस्कृतटीकामें अनेक स्थानों पर नेमिचंद्र का सिद्धान्ति देव नामसे उल्लेख किया गया है, सिद्धान्तचक्रवर्ती' नामसे नहीं, और गोम्मटसारके कर्ता नेमिचंद्र ' सिद्धान्तचक्रवर्ती ' कहलाते हैं । " Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ जैनहितैषी [भाग १३ उन्होंने कर्मकांडकी एक गाथा (नंबर ३९७ ) तक प्रोफेसर साहबकी उक्त ३० पेजकी सारी में स्वयं अपनेको चक्रवर्ती प्रगट भी किया है। प्रस्तावना प्रायः व्यर्थ और असंबंधित ही रहेगी । साथ ही, एक बात और भी नोट किये जानेके क्योंकि वह बहुधा गोम्मटसारके कर्ता नेमिचंद्र योग्य है और वह यह है कि द्रव्यसंग्रहके कर्ता- और उनके शिष्य चामुंडसयको लक्ष्य करके ही ने भावास्रवके भेदोंमें 'प्रमाद ' को भी वर्णन लिखी गई है। किया है और अविरतके पाँच तथा कषायके ८ ग्रंथभरमें, यद्यपि, अनुवादकार्य आमतौरसे चार भेद ग्रहण किये हैं । परंतु गोम्मटसारके अच्छा हुआ है, परंतु कहीं कहीं उसमें भूलें भी कर्ताने 'प्रमाद ' को भावास्रवके भेदोंमें नहीं की गई हैं, जिनके कुछ नमूने इस प्रकार हैं:माना और अविरतके (दूसरे ही प्रकारके) बारह (क ) सम्यग्दर्शनादिकका अनुवाद करते तथा कषायके पच्चीस भेद स्वीकार किये हैं, ह, हुए 'सम्यक् ' शब्दका अनुवाद Right आदि - जैसा कि दोनों ग्रंथोंके निम्न वाक्योंसे प्रगट है:- की जगह Perfect अर्थात् 'पूर्ण' किया है, मिच्छताविरदिपमादजोगकोहादओ थ विष्णेया। और इस तरह पर पूर्ण श्रद्धान, *पुर्णज्ञान, पण पण पणदह तिय चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स ॥ (केवलज्ञान ) और पूर्णचारित्रहीको मोक्षकी -द्रव्यसंग्रह, पद्य ३० । प्राप्तिका उपाय बतलाया है। परन्तु श्रद्धानादि. मिच्छत्तमविरमणं कसायजोगा य आसवा होति। ककी यह पूर्णता कौनसे गुणस्थानमें जाकर पण वारस पणवीसं पण्णरसा होति तब्भया ॥ होती है और उससे पहलेके गुणस्थानोंमें सम्य -गोम्मटसार, कर्मकांड पद्य ॥ ७८६ ॥ ग्दर्शनादिकका अस्तित्व माना गया है या कि एक ही विषय पर, दोनों ग्रंथों के इन विभिन्न नहीं, साथ ही, इसी ग्रंथकी मूल गाथाओं में रत्नकथनोंसे ग्रंथकर्ताओंकी विभिन्नताका बहुत कुछ त्रयका जो स्वरूप दिया है उससे उक्त कथनका बोध होता है । इन सब बातोंके मौजूद होते हुए कितना विरोध आता है, इन सब बातों पर कोई आश्चर्य नहीं कि द्रव्यसंग्रहके कर्ता अनुवादक महाशयने कुछ भी ध्यान नहीं दिया। गोम्मटसारके कर्तासे भिन्न कोई दूसरे ही नेमिचंद्र इस लिए यह अनुवाद ठीक नहीं हुआ। हों। जैनसमाजमें नेमिचंद्र नामके धारक अनेक (ख ) पृष्ठ ११४ पर, दर्शनावरणी कर्मके विद्वान् आचार्य हो गये हैं। एक नेमिचंद्र ईसाकी क्षयसे उत्पन्न होनेवाले अनंत दर्शनका अनुवाद ग्यारहवीं शताब्दिमें भी हुए हैं जो वसुनंदि-. Perfeet faith अर्थात् 'पूर्ण श्रद्धान ' अथवा सैद्धान्तिकके गुरु थे और जिन्हें वसनंदि सम्यक् श्रद्धान किया है, जो जैनदृष्टि से बिलश्रावकाचारमें 'जिनागमरूपी समुद्रकी वेला- कुल गिरा हुआ है । इस अनुवादके द्वारा मोहतरंगोंसे धूयमान और संपूर्ण जगत्में विख्यात' नीय कर्मके उपशमादिकसे सम्बंध रखनेवाले लिखा है। बहुत संभव है कि, यही नेमिचन्द्र सम्यग्दर्शनको और दर्शनावरणीय कर्मके क्षयोद्रव्यसंग्रहके कर्ता हों। परंतु हमारी रायमें अभीतक पशमादिकसे उत्पन्न होनेवाले दर्शनको एक कर यह असिद्ध है कि, द्रव्यसंग्रह कौनसे नेमिचंद्रा- दिया गया है !! चार्यका बनाया हुआ है, और जबतक यह * देखो इसी ग्रंथका पृ० ११४, जहां Perfect सिद्ध न हो जाय कि द्रव्यसंग्रह तथा गोम्मट- Knowledge ( पूर्ण ज्ञान ) उस ज्ञानको बतलाया सारके कर्ता दोनों एक ही व्यक्ति थे उस समय है जो ज्ञानावरणी कर्मके क्षयसे उत्पन्न होता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ द्रव्यसंग्रह। ५४९ (ग) पृष्ठ ५ पर 'माण्डलिक ग्रंथकार' का (क) पृष्ठ १२ पर गणधरोंको केवलज्ञानी अर्थ 'अन्य समस्त ग्रंथकार' ( all other लिखा है, जो ठीक नहीं। गणधर अपनी उस writers ) किया है जो ठीक नहीं है । मांडः अवस्थामें सिर्फ चार ज्ञानके धारक होते हैं। लिकसे अभिप्राय वहाँ मतविशेषसे है। (ख ) पृष्ठ १५ पर 'प्रत्यभिज्ञान ' और (घ) प्रस्तावनामें एक स्थान पर, 'सुयोगे हिन्दूफिलासोफीके 'उपमान प्रमाण' को सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटित भगणे ) का एक बतलाया है । परंतु स्वरूपसे ऐसा नहीं है। अनुवाद दिया है-When the auspicious प्रत्यभिज्ञानका सिर्फ एक भेद, जिसे सादृश्य Mrigsira star was visible है-अर्थात, प्रत्यभिज्ञान कहते हैं, उपमान प्रमाणके बराबर जिस सभय शुभ मृगशिरा नक्षत्र प्रकाशित था। हो सकता है। इस अनुवादमें 'सुयोगे सौभाग्ये' का कोई (ग) पृष्ठ ३६ पर यह सूचित किया है ठीक अर्थ नहीं किया गया । मालूम होता है कि, जो जीव एक बार निगोदसे निकल कि इन पदोंमें ज्योतिषशास्त्रविहित ‘सौभाग्य' जाता है-उन्नति करना प्रारंभ कर देता है-वह नामके जिस योगका उल्लेख था, उसे अनुवादक फिर कभी उस निगोददशाको प्राप्त नहीं होता; महाशयने नहीं समझा और इसी लिए 'सौभाग्य' उसके पतनका फिर कोई अवसर नहीं रहता। परंतु का ansplions ( शुभ) अर्थ करके उसे यह कथन जैनशासनके विरुद्ध है । जैनधर्मकी मृगशिराका विशेषण बना दिया है । इस शिक्षाके अनुसार निगोदसे निकला हुआ जीव प्रकारकी भूलोंके सिवाय अनुवादही तर- फिर भी निगोदमें जा सकता है और उन्नतिकी तीब ( रचना) में भी कुछ भूलें हुई हैं, जिनसे चरम सीमाको पहुँचनेके पहले जो उत्थान होता मूल आशयमें कुछ गड़बड़ी पड़ गई है। जैसे है उसका पतन भी कथंचित् हो सकता है। कि गाथा नं. ४५ का अनुवाद । इस (घ) गाथा नं०३० की टीकामें पंचप्रकाअनुवादमें दूसरा वाक्य इस ढंगसे रक्खा रके मिथ्यात्वोंका जो स्वरूप लिखा है वह प्रायः गया है, जिससे यह मालूम होता है कि शास्त्र सम्मत मालम नहीं होता । जैसे विपति. पहले वाक्यमें चारित्रका जो स्वरूप कहा गया मिथ्यात्व उसे बतलाया है “ जिसमें यह खयाल है, वह व्यवहारनयको छोड़कर किसी दूसरी किया जाता है कि यह या वे दोनों सत्य हो ही नयविवक्षासे कथन किया गया है । परंतु सकते हैं" और अज्ञान मिथ्यात्व उसे, "जिसमें वास्तवमें मूलका ऐसा अभिप्राय नहीं है । इसी श्रद्धानका सर्वथा अभाव होता है अर्थात् किसी तरह २१ वें नम्बरकी गाथाका अनुवाद करते प्रकारका कोई श्रद्धान नहीं होता।" इस प्रकारके हुए निश्चय और व्यवहार कालके स्वरूपमें परस्पर स्वरूपका तत्त्वार्थसार और तत्त्वार्थ राजवार्ति गड़बडी की गई है । ४४.वीं गाथाके अनुवादकी कादि ग्रंथोंसे मेल नहीं मिलता। भी ऐसी ही दशा है। (५) गाथा नं० ४४ की टीकामें ज्ञानावर- अब ग्रंथकी अँगरेजी टीकामें जो दूसरे शास्त्र- णोंय कर्मके उपशमसे 'ज्ञान' और दर्शनावरविरुद्ध कथन पाये जाते हैं, उनके भी दो चार णीय कर्मके उपशमसे 'दर्शनका' उत्पन्न होना नमूने दिखलाकर यह समालोचना पूरी की लिखा है; और इस तरह पर ज्ञान तथा दर्शनको जाती है: .... औपशामिक : भी प्रगट किया है, जो जैन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mawariM 15 १५० जैनहितैषी [भाग १३ सिद्धान्तकी दृधिसे बिलकुल गिरा हुआ है। महान बीड़ा उठाया है । साथ ही, उनसे यह क्योंकि ज्ञान तथा दर्शन 'क्षायिक' और प्रार्थना भी करते हैं कि, वे भविष्यमें इस बातका "क्षायोपशमिक' इस तरह दो प्रकारका होता है। पूरा खयाल रक्खें कि उनके यहाँसे प्रकाशित इसी प्रकार, ग्रंथके परिशिष्टमें, जो यह लिखा हुए ग्रंथों में इस प्रकारकी भूले न रहने पायें; है कि केवलज्ञानीको कर्मोंका कोई आस्रव नहीं और इस तरह पर उनकी ग्रंथमाला एक आदर्श होता, वह भी जैनसिद्धान्तकी दृष्टिसे ठीक नहीं ग्रंथमाला बनकर अपने उस उद्देश्यको पूरा करे है । क्योंकि सयोगकेवलीके योग विद्यमान जिसको लेकर वह अवतरित हुई है । * होनेसे कर्मोंका आस्रव जरूर होता है। ता० ३-१-१८ अन्तमें हम अपने मित्र श्रीयुत कुमार देवेन्द्रप्रसादजीको हृदयसे धन्यवाद देते हैं, जिन्हान यह समालोचना संपादक जैनहितैषीकी प्रेरणा नग्रथाका इस प्रकार टाकानटप्पणादि- तथा कमार देवेन्द्रप्रसाद के भी इच्छा प्रकट करने सहित, उत्तमताके साथ प्रकाशित करनेका यह पर जनहितैषीके लिए लिखी गई। -लेखक । อมสินสินบนนะสินสินสินบนะ ई विचित्र ब्याह । storrerrariranranraParragenerrermela ( लेखक, पं० रामचरित उपाध्याय।) [गतांकसे आगे] सप्तम सर्ग। एक दिवस माताने सुतसे सकल ब्याह-वृत्तान्त कहा, ____ ध्यानसहित सुनकर उसको वह, बहुत देर तक मौन रहा। फिर सतर्क बोला अति दृढ़ हो, माता, मैं न करूँगा ब्याह, गृह-बन्धनमें फँसनेकी है, मुझमें नहीं तनिक भी चाह ॥१॥ सत्याग्रहसे रह कर मुझको, करना है भारत-उद्धार, मेरे सिर पर लाद न माता, पराधीनताका दुख-भार । यदि अबलाके लिए न चिन्ता, प्रबला होने पावेगी, जन्मभूमि फिर मेरे रहते, कैसे रोने पावेगी ॥२॥ यदि वनिता, सुत, सुता न होवें, तो फिर दुःख सहेगा कौन ? ____ 'हाँ हुजूर' भी अपने मुखसे, खलको हाय कहेगा कौन ? । देवराजसे बढ़कर वह है, पराधीनता जिसे न हो, . देश, जातिका गर्व चित्तमें, मानव होते किसे न हो ? ॥ ३॥ सफल जन्म है उसी मनुजका, जिसने किया देशउपकार, . स्वार्थ-लीन ही रहा सदा जो, उसके जीवनको धिक्कार । सदा स्वतंत्र रहूँगा जगमें, जननी, मैं बस इसी लिए, सत्य मान तू नहीं करूँगा, ब्याह कभी भी किसी लिए ॥४॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ विचित्र व्याह । देश मात्रका मैं हूँ, मेरा देश मात्र है मन्त्र यही मैंने स्थिर कर लिया अम्बिके, इसमें है भ्रम-लेश नहीं । कोटि अनाथा स्त्रियाँ पड़ी हैं, भारतमें अति दीन मलीन, जीवन भर तन मनसे उनकी, सेवामें होऊँगा लीन ॥ ५ ॥ निःसहाय बहु बालक भी हैं, शिक्षा उन्हें दिलाऊँगा, सोते हुए देशको अपने, करके यत्न जगाऊँगा । वह क्यों अच्छा हो सकता है, जिसने किया न अच्छा काम, और कीर्तिकारक अवनी पर, जिसने किया न अपना नाम ॥ ६ ॥ ५५१ विना दुःख भोगे कैसे दुख, जन्मभूमिका होगा दूर, प्रतिपल हाय, हिन्दका शोणित, चूस रहे हैं मानव क्रूर । इसी लिए मैं प्राणप्रणसे दैशिक व्रतको पालूँगा, करके यत्न अविद्या-तमको शीघ्र यहाँसे टालूँगा ॥ ७ ॥ विषय-वासनासे सुन जननी, मिलता है सुख-लेश नहीं, कभी भोगनेसे इच्छायें, हो सकतीं निःशेष नहीं । इसी लिए कौमार-व्रत भी करना मैंने ठाना है, जगमें मैंने सबसे अच्छा परोपकृतिको माना है ॥ ८ ॥ प्रतिदिन हा अवनति खन्दकमें, गिरता जाता है यह देश, प्रथम सुखी था यथा आज त्यों, मोह-विवश पाता है क्लेश । ऐसे समय विषयमें फँसना, बुद्धिमानका काम नहीं, सुनकर जन्मभूमि- कन्दनको, मिल सकता आराम नहीं ॥ ९ ॥ देश-निवासी दुखसे रोवें, मैं कैसे सुख सोऊँगा, जान बूझकर अपना जीवन, नहीं अकारथ खोऊँगा । निज- समाज के दैन्य देख भी, जिनमें उगती दया नहीं, उनका जीना मरना सम है, जिनमें कुछ भी हया नहीं ॥ १० ॥ क्षमा करो माताजी, मुझको, प्रेमसहित दे दो वरदान, देष- हितैषीके संकटमें, स्वयं सहायक हैं भगवान । शपथसहित सच कहता हूँ, यदि तेरी आज्ञा पाऊँगा, तो फिर धर्म- मर्म मानवके, करके कर्म दिखाऊँगा ॥ ११ ॥ भाग्यमती है जगमें नारी, जननी, है सुतवती वही, सती वही, मतिमती वही है, और सुखी गुणवती वही । जिसका तनय विनय से नयसे, देश- वृद्धि के लिए सदा उद्यत रहता तन, मन, धनसे, स्वत्व - सिद्धिके लिए सदा ॥ १२ ॥ जीते रहो सत्य कहते हो, हरिसेवक, मेरे प्यारे, देशभक्ति हो अटल तुम्हारी, मेरे नयनोंके तारे । पर मेरी बातोंको मानो, परम पूज्य मुझको मानो, मेरे कहनेको निज मनमें, शिशुका खेल नहीं जानो ॥ १३ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ जैनहितैषी - प्राणीका कर्तव्य प्रथम है, निजकुलको विस्तृत करना, कभी स्वप्न में भी विघ्नोंसे, नहीं चाहिए सुप्त, डरना । अपने संकल्पित कामोंको, जो करते हैं बूझ विचार, सभी अवस्थाओं में उनके, हो जाते हैं बेड़े पार ॥ १४ ॥ जलमें जलज बना रहता है, पर रखता संपर्क नहीं, वैसे सुधी गृही बनते हैं, व्यर्थ करो तुम तर्क नहीं । अपने कार्य किसे सौंपोगे, यदि होगी सन्तान नहीं, विना ब्याह किये तुम्हारा, सुत, होगा कल्याण नहीं ॥ १५ ॥ जैसे होगा ब्याह तुम्हारा, अपनी आँखों देखूँगी, पुत्रवधू पाकर अपनेको, पुत्रवती मैं लेखूँगी । जीते होते पिता तुम्हारे, तब होता यदि ब्याह नहीं, हरिसेवक, तो मेरे मनमें, कुछ भी होती दाह नहीं ॥ १६ ॥ सभी कहेंगे पितृ-हीनका, क्यों कर हो सकता है ब्याह, ऐसी बातें सुन कर बेटा, प्रतिपल भरा करूँगी आह । इसी लिए मेरे कहनेसे, हर्षित हो निज ब्याह करो, देशभक्ति में नहीं रुकावट होगी, मनमें नहीं डरो ॥ १७ ॥ नहीं नहीं मा, भूल रही हो, मेरी बात जाइए मान, धर्म-विरुद्ध कार्य मत करिए, कहिए कहाँ गया है ज्ञान ? धन देकर यदि कन्या लोगी, तो वह दासी होवेगी, फिर उससे जो सन्तति होगी, दोनों कुलको खोवेगी ॥ १८ ॥ दासीसे या दासी - सुतसे, माता, क्या होगा उपकार ? अपने कुलको स्वयं कलंकित, नहीं कीजिए बूझ विचार । क्वाँरे रहे भीष्म पर तो भी, 'बाबा' बोले जाते थे । सबसे बढ़कर सबसे पहले, जगमें आदर पाते थे । १९ ॥ रुपये मत फेंको, मुझको दो, उनसे करूँ विविध व्यापार, द्रव्य बढ़ाकर सुख भी भोगू, और करूँ जगका उपकार । धन दे करके पाप कमाना, बुद्धिमानका काम नहीं, विद्या - विभव व्यर्थ हैं उसके, जिसका भू पर नाम नहीं ॥ २० ॥ पशुओंसा नरका भी जगमें, जन्म गवाँना ठीक नहीं, विषय- लीन हो, पराधीन हो, दुःख उठाना ठीक नहीं । 'कार्य दक्ष जो विपुलवक्ष हो, देश-पक्षमें रहे खड़ा, वही तनुज है, वही मनुज है, वही विबुध है वही बड़ा ॥ २१ ॥ ब्रह्मचर्य का पालन जिसने किया, किया उसने कुछ काम, जो नर हो सुख दायक जगको, हुआ उसीका जन्म ललाम । • बालब्रह्मचारी मैं रहकर, भारत-दुःख मिटाऊँगा, दीन भारतीयोंके कारण, मैं भी मर मिट जाऊँगा ॥ २२ ॥ [ भाग १३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचित्र व्याह । मेरी बातोंसे तुम जननी, मनमें तनिक न होना रुष्ट, केवल स्त्री-धन, अशन, वसनमें, पामर नर रहते हैं तुष्ट । पर-हित में नित रत रहते हैं, जिनका उर है उच्च उदार, अपने सुखसे सुखी रहे जो, वही मनुज है भूका भार ॥ २३ ॥ कृपा कसे मा, इसी लिए मैं, ब्याह करूँगा अभी नहीं, जन्मभूमि- हित जीवन दूँगा, व्यर्थ मरूँगा कभी नहीं । नश्वर है यह देह खेहकी, अजर अमर है पर उपकार, जैसे तैसे प्राणप्रणसे, क्यों न करूँ फिर देशोद्धार ॥ २४ ॥ कहा सुशीलाने फिर सुतसे, बेटा, तूने ठीक कहा, पर ऐसा करने से मेरे, मनमें होगा दुःख महा । इसी लिए तुम मेरा कहना मानो, आना कानी छोड़, कभी लड़कपनके वश होकर, मुझसे करो न नातातोड़ ॥ २५ ॥ किस कठिनाई से सुत, तुमको, पोसा पाला है मैंने, क्या न तुम्हारे लिए जगत में, सहा कसाला है मैंनें । मेरी बात मौन हो मानो, उससे करो नहीं इन्कार, मातृ-भक्ति सबसे बढ़कर है, रख लो मेरा प्यार दुलार ॥ २६ ॥ जिसने माता और पिताका, कहना माना नहीं कभी, उसने धर्मयुक्त हो जगमें, रहना जाना नहीं कभी । निज करनीसे मेरे मनको, साहस करके मत तोड़ो, अविनयमय हो, तनय, नहीं तुम, मुझे बुढ़ापे में छोड़ो ॥ २७ ॥ यदि मा मुझको मान रहे हो, तो तुम मानो मेरी बात, ब्याह करो मेरे कहनेसे, वाद करो मत, मेरे तात । जो करती हूँ प्रेम दृष्टिसे, उसको तुम देखो चुपचाप, यदि बोलोगे तो जीवन भर, मुझको होवेगा सन्ताप ॥ २८ ॥ कुछ नहीं हरिसेवकने कहा, वह नितान्त मिरुत्तर हो रहा । पग गई जननी अति मोदमें, तनयको भरके निज गोदमं ॥ २९ ॥ [ असमाप्त । ] अङ्क १२ ] ५५३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [भाग १३ जैनधर्मका भूगोल और प्रत्यक्ष कर रहा है-वह बात नहीं रही । अब - श्रद्धाका साम्राज्य नष्ट हो रहा है और उसके खगोल । स्थानमें बुद्धिकी प्रतिष्ठा हो रही है । अब पुराने शास्त्रोंमें कही हुई वे ही बातें श्रद्धाके ___ [ लेखक,-श्रीयुक्त जिज्ञासु।]... सहारे "येन केन प्रकारेण ' स्वीकृत की जा यों तो पृथ्वीके प्रायः सभी धर्मोके साहित्य- सकती हैं जो सर्वथा परोक्ष हैं और जिनका में भूगोल और खगोलके विषयमें कुछ न कुछ ज्ञान करानेके लिए सिवा धर्मशास्त्रके और कोई लिखा हुआ है; पर उनमें हिन्दू और जैनधर्मका साधन नहीं है । प्रत्यक्ष पदार्थों के बारेमें अब साहित्य खास तौरसे उल्लेखयोग्य है । हिन्दु- धर्मशास्त्रोंके कथनका जैसा चाहिए वैसा आदर ओंके पुराणों और ज्योतिषग्रन्थोंमें, इस विष- नहीं किया जाता । कारण यह है कि ऐसी यमें बहुत कुछ लिखा गया है; परंतु जैनसाहि- अनेक बातें वैज्ञानिक परीक्षाओंके सामने निर्मूल त्यमें जिस क्रमसे और सूक्ष्मताके साथ यह ठहर चुकी हैं जिनका वर्णन पुराने ग्रंथोंमें बड़े विषय लिखा गया है, वैसा हिन्दूसाहित्यमें नहीं। विस्तारके साथ और बड़े उत्साहके साथ लिखा हिन्दू ग्रन्थकार इस विषयमें एकमत भी नहीं हैं- गया है। भूगोल और खगोल विषयक बातें उनमेंसे कोई कुछ लिखता है और कोई कुछ; भी उन्हींमेंसे हैं। , परंतु जैनसाहित्यमें वह बात नहीं । जैन- ऊपर लिखा जा चुका है कि, जैनधर्मकी धर्मकी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों शाखा- पुस्तकोंमें इन दोनों विषयोंका बहुत ही सूक्ष्म ओंका साहित्य इस बारेमें पूरी पूरी एकता और बहुत विस्तारयुक्त वर्णन किया है और रखता है। . इस सूक्ष्मता और विस्तृतताके कारण ही अभी परंत, जबसे आधनिक वैज्ञानिक युगका आ- तक जैन विद्वान् अपने धर्मशास्त्रोंको अभिमारंभ हुआ है, तबसे इन प्राचीन धर्मग्रन्थोंमें लिखी नके साथ सर्वज्ञप्रणीत अतएव सर्वथा सत्यहुइ बातोंकी प्रामाणिकताके ऊपर बहुत ही प्रतिपादित करते आये हैं। परंतु अब वह भयानक उपद्रव होना शुरू हुआ है। प्राचीन समय नहीं रहा कि केवल बुद्धिको चकरा देनेकालमें भूगोल और खगोलविषयक पदार्थोके वाले बड़े बड़े लम्बे चौड़े वर्णनोंको देखकर परीक्षण या निरीक्षण करनेके लिए उपयुक्त ही लोग उनकी सत्यताका स्वीकार कर लें। साधन न थे, इस कारण उस समय प्रत्येक अब तो मनुष्यकी बुद्धि प्रत्येक कथनका मूल धर्मावलम्बीको अपने अपने धर्मग्रंथोंमें लिखी और क्रमविकास सप्रमाण पछना चाहती है। हुई बातोंको केवल श्रद्धाके सामर्थ्यसे ही प्रत्यक्षके साथ संबंध रखनेवाले प्रायः सब ही सत्य मानना पड़ता था । एक तो उन कथनोंमें पदार्थोके कार्यकारण भावोंका सांगोपांग निरीशंका करनेके कारण ही कम थे, और कदाचित् क्षण करनेके बाद ही लोग उनकी सत्यासशंकायें होती भी थीं, तो उनके निवारण कर- त्यता स्वीकार करते हैं। केवल सर्वज्ञकथित नेके विशेष साधन नहीं थे। परंतु इस वैज्ञानिक कह देनेस ही अब काम नहीं चलता। प्रमाणोंघुगमें-जब कि आकाश पाताल एक किया जा द्वारा युक्तियुक्त या बुद्धिगम्य करने-कराने हा है और मनुष्य प्रकृतिके गूढ़से गूढ़ पटलों- पर ही अब कार्यसिद्धि अवलम्बित है । को अपनी, शक्तिद्वारा बाहर लाकर सर्व- जिस समय हम अपने साहित्योक्त भूगोल Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मका भूगोल और खगोल । अङ्क १२ ] खगोलविषयक वर्णनको — जो हमारे साहित्यका एक मुख्य अंग होकर उसके बहुत बड़े भागको रोके हुए हैं-पढ़ते सुनते हैं, उस समय हमारे हृदयमें अनेक प्रकारकी शंकातरंगें उच्छ्रसित होने लगती हैं । हमारे ग्रंथोंमें इस . विषय में जितनी बातें कही गई हैं, उनमेंसे एक भी बात ऐसी नहीं है, जो अनेकानेक प्रमाणों और साधनों द्वारा निश्चित किये गये आधुनिक भौगोलिक और खगोलिक विचारोंसे- जिनमेंकी मोटी मोटी बातों से हमारा प्रत्येक बालक बचपनहीसे स्कूलों में परिचित हो जाता है-मेल रखती हों | जो विद्यार्थी स्कूलों को छोड़ कर कालेजोंके कमरोंमें भी कुछ काल तक बैठ आते हैं, वे तो हमारे ग्रंथोंकी इन बातोंको सुनकर आदरान्वित आश्चर्यके बदले वैसा ही आश्चर्य करते हैं जैसा कि हमारे श्रद्धालु और विचारशील जैन हिन्दुओंके पुराणोंकी अमानुषिक बातोंको सुनकर करते हैं । बहुतसे विद्यार्थी तो यहाँतक विश्वास कर लेते हैं— चाहे वे फिर किसी भय या शंका कारण उसे स्पष्ट भले ही प्रकट न कर सकें- कि जैनग्रन्थकार इन बातोंकी निर्मूल कल्पनायें करने में पुराणकारोंसे भी बढ़े चढ़े हैं ! जैनधर्मके पण्डितों और जानकारोंके सामने भी अब इस विषयकी चर्चा उपस्थित होने लगी है; परन्तु उनके पास इसका केवल एक उत्तर है और वह यह कि ऐसे लोगोंके विचार या विश्वास अज्ञानजन्य हैं, अथवा नास्तिकता के फल हैं; परंतु इस अज्ञानता या नास्तिकता के निवारण करनेका उनकी ओरसे कोई भी प्रयत्न नहीं किया जाता; उलटा इस प्रकारके निर्बलतासूचक उद्गारोंद्वारा शंकितोंको अपने विचारोंमें और भी दृढ बननेका कारण उपस्थित किया जाता है । इन पंक्तियोंके जिज्ञासु लेखकने अपनी बुद्धिके अनुसार जैनधर्मके भूगोल -खगोलका - ५५५ जो कि तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि टीकाओंमें और त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति त्रैलोक्यसार, आदि ग्रंथोंमें लिखा है और साथ ही आधुनिक विज्ञानद्वारा संशोधित भूगोल - खगोलका, इस तरह दोनोंका ही थोड़ासा अध्ययन किया है और दोनोंका परस्पर मिलान करके देखा है कि किसी तरहसे भी इनकी संगति मिल सकती है या नहीं । परन्तु इसे ( लेखकको ) संगतिके बदले विरोध ही एकान्तरूपसे नजर आया है । विरोधके होनेमें कोई आश्चर्य नहीं है; परंतु विरोध विरोधमें अन्तर होता है । एक विरोधका परिहार किया जा सकता है और दूसरा अपरिहार्य होता है । यह विरोध मुझे अपरिहार्य ही मालूम हुआ और सो भी प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे । जैनशास्त्रोंमें पृथ्वीको कुम्हारके चक्रकी तरह या झल्लरीके समान चिपटी और गोल बतलाया है । उसपर असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं । वे एक दूसरेसे दूने दूने विस्तारवाले हैं और बलयके आकार एक दूसरोको घेरे हुए हैं । उन सबमें मध्यवर्ती एक लक्ष योजनका लंबा चौड़ा जंबूद्वीप है । इस द्वीपके दक्षिण भागान्तमें भरतखण्ड नामका क्षेत्र है, जिसमें हम रहते हैं । स्वर्गीय स्याद्वादवारिधि पण्डित गोपालदासजी बरैया ने अपने ' जैन जागरफी ' नामक निबन्धके अंतमें लिखा है (C आज कल हम लोगोंका निवास मध्यलोकके जम्बूद्वीपसंबंधी दक्षिणदिशावर्ती भरतक्षेत्रके आर्यखण्डमें हैं । इस आर्यखण्डके उत्तर में विजयार्द्ध पर्वत है । दक्षिणमें लवणसमुद्र, पूर्वमें महागंगा और उत्तरमें महासिन्धु नदी है । भरतक्षेत्रकी चौड़ाई ५२६१ योजन है । इसके बिलकुल बीचमें विजयार्द्ध पर्वत पड़ा हुआ है, जिससे भरतक्षेत्र के दो खण्ड हो गये हैं । तथा महागंगा और महासिन्धु हिमवत् पर्वत Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी - ५५६ से निकलकर विजयार्द्धकी गुफाओंमें होती हुई पूर्व और पश्चिम समुद्रमें जा मिली हैं, जिनसे भरत क्षेत्र के छह खण्ड हो गये हैं । ) “ 'यह सब कथन प्रमाण योजनसे है । एक प्रमाण योजन वर्तमानके २००० ( दो हजार कोशके बराबर है । इससे पाठक समझ सकते हैं कि, आर्य खण्ड बहुत लम्बा चौड़ा है। चतुर्थ कालकी आदिमें इस आर्यखण्डमें उपसागरकी उत्पत्ति होती है, जो क्रमसे चारों तरफको फैलकर आर्यखण्डके बहुत भागको रोक लेता है । वर्तमानके एशिया, योरोप, आफ्रिका, अमेरिका और आस्ट्रेलिया ये पाँचों महाद्वीप इसी आर्यखण्डमें हैं । उपसागरने चारों ओर फैलकर ही इनको द्वीपाकार बना दिया है । केवल हिन्दु स्तानको ही आर्यखण्ड नहीं समझना चाहिए । वर्तमान गंगा सिन्धु महागंगा या महासिन्धु नहीं है । " यदि श्रद्धादेवीको सन्तुष्ट रखनेके लिए यह सब कथन किसी तरह सत्य भी मान लिया जाय, तो भी काम नहीं चल सकता । इस कथनसे सम्बंध रखनेवाले जो और और कथन हैं, वे इस मानतासे तत्काल ही रुष्ट हो जाते हैं और मूलकोही नाश करनेके लिए उद्यत हो जाते हैं । जैनधर्मका खगोल ज्ञान कहता है, कि इस लक्षयोजनप्रमाण जम्बूद्वीपमें दो चन्द्र और दो सूर्य अविश्रान्त रूपसे निरंतर परिभ्रमण करते रहते हैं। जम्बूद्वीपके मध्यभागमें जो लक्ष योजन ऊँचा मेरु पर्वत है, उसीके चारों ओर ये चंद्र सूर्य परिक्रमण किया करते हैं । जब एक सूर्य मेरुपर्वतकी दक्षिण ओरको प्रकाशित करता है तब दूसरा उत्तरकी ओरको, और दोनों चंद्र क्रमशः पूर्व और पश्चिम भागमें रहते हैं । अर्थात् प्रत्येक चन्द्र और सूर्य मेरु पर्वत एक ओरका सारा भूभाग प्रकाशित करता है । जो सूर्य या चन्द्र मेरुके [ भाग १३ दक्षिणकी तरफ परिक्रमण करता है, वह अकेले . भरतको ही नहीं, किन्तु उसके समान विस्तार-वाले जम्बूद्वीपके अन्य ६२ भूखण्डों को भी आलोकित करता है । ऐसी दशामें वर्तमानमें जो एशिया, यूरोप, अमेरिका और आस्ट्रेलियादिक भूभागों में (जो जैनधर्मशास्त्रोंके अनुसार भरतखण्डके ही अन्तर्गत हैं ) भिन्न भिन्न का प्रतीत होता है वह कभी घटित नहीं हो सकता । यह तो सर्वप्रत्यक्ष और सर्वथा असंदिग्ध बात है कि जब भारत के बम्बई शहर में दिन के बारह बजते हैं, तब अमेरिकाके न्यूयार्क नगर में रात के बारह बजने की तैयारी होती है ! न्यूज़ीलैंड में जब शामके ६ बजते हैं और रात होने लग हैं, तब इंग्लेंडमें प्रातः कालके ६ बजते हैं और सूर्योदयका समय होता है ! अकेले भरतक्षेत्रहीमें यह दिन रातोंका महान अंतर जैनशास्त्रानुसार कैसे प्रमाणित किया जा सकता है ? उत्तरीय ध्रुवका समीपवर्ती प्रदेश जब ग्रीष्म ऋतुमें लगातार ६ महीने तक सूर्यसे आलोकत रहता है, तब दक्षिणीय ध्रुव उसी तरह अन्धकारनिमग्न रहता है- इन दोनों स्थानों पर क्रमशः ६ महीनेकी रात और ६ महीनेका दिन होता है ! यह बात जैनशास्त्रोंसे कदापि सिद्ध नहीं हो सकती । पृथ्वीको गेंदकी तरह गोल माने बिना इस शंकाका समाधान नहीं हो सकता । शीतकालमें भारतमें रात १३ || घंटेकी और दिन १० ॥ घंटेका हो जाता है । इससे अधिक फर्क कभी नहीं पड़ता । किन्तु इंग्लेण्डमें रात १८ घंटेकी और दिन केवल ६ ही घंटेका रह जाता है ! इस विषमताका कारण कोई जैनग्रंथ नहीं बतला सकता । दूरकी बात जाने दीजिए, हमारे हिन्दुस्थानही की एक बात ले लीजिए । यह तो सभी जानते हैं कि, जिस समय मदरासमें सूर्योदय होता है, उसके ३९ मिनिट बाद बम्बई में सूर्योदय होता है ( कलकत्ता, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] जैनधर्मका भूगोल और खगोल। ५५७ कराँची आदि नगरोंके बीचमें भी इसी प्रकारका भी आर्यभट्टके इस पृथ्वीभ्रमण सिद्धान्तका फर्क है)। अब बतलाइए. कि इस विलम्बका उल्लेख मिलता है । यथास्या कारण है ? जैनग्रंथोंके देखनेसे तो मालूम "भगोल: केषाचिन्मतेन नित्यं चलनेवास्ते, आदिहोता है कि सूर्यकी कमसे कम गति एक मुहूतेम. त्यस्तु व्यवस्थित एव । तत्रादित्यमण्डलं दूरत्वाचे (४८ मिनिटमें ) लगभग ५२५१ योजनकी पूर्वतः पश्यन्ति तेषामादित्योदयः । आदित्यमण्डलाधोबतलाई गई है । (देखो, तत्त्वार्थराजवार्तिक, व्यवस्थिताना मध्याह्नः। ये तु दूरातिकान्तत्वान्न पश्यन्ति पृष्ठ १५७ ।) इस हिसाबसे सूर्यका प्रकाश तेषामस्तमित इति ।" एक मुहूर्तमें सब ही भूखण्डोंमें व्याप्त हो जाना - पृथ्वीका गोलाकार होना तो प्रायः सभी चाहिए, पर हम देखते हैं कि मदरास और प्रसिद्ध विद्वानोंने स्वीकृत किया है और चपटी बम्बईके बीचके केवल पाव योजनके ही लग- माननेवालोंका अनेक युक्तियों द्वारा खण्डन भग अन्तरमें उसे फैलते ३९ मिनट लग जाते किया है। लल्लसिद्धान्तमें लिखा है कि- - हैं ! बिना पृथ्वीके गोल और गतिमती माने, समता यदि विद्यते भुवस्तरवस्तालनिभा बहूच्छ्रयाः । संसारका कोई भी भौगोलिक इसका उत्तर नहीं . कथमेव न दृष्टिगोचरं नुरहो यान्ति सुदूरसंस्थिताः ॥ दे सकता। . ___ भास्कराचार्यने भी यही सिद्धान्त प्रतिपादित - हिन्दओंके पराणग्रंथोंमें भी भूगोल-खगो- किया है । पाठक प्रश्न कर सकते हैं कि जब लका वर्णन उसी ढंगसे लिखा है जैसा जैनग्रंथोंमें हिन्दओंके प्रसिद्ध ज्योतिर्विदोंने पृथ्वीको गेंदकी है, परंतु ज्योतिषशास्त्रके प्रतिष्ठित ग्रंथोंमें, तरह गोल माना है, तो फिर हिन्दू पुराणकारोंने जिनमें आर्यप्रजाकी अलौकिक बुद्धिका जाज्व- और उनकी ही तरह जैनग्रन्थकारोंने उसे ल्यमान प्रकाश प्रदीप्त है, ठीक वैसा ही कथन : । कुम्भकारके चक्रकी तरह चिपटी क्यों माना मिलता है जैसा आधुनिक पाश्चात्य भौगोलि- है ? इसके समाधानमें बहुतसे विद्वान् कहते हैं कोंने प्रयोगों द्वारा निश्चित किया है । यद्यपि कि साधारण दृष्टिसे देखने पर पृथ्वी हमको श्रीपति, लल्ल और भास्कराचार्य आदि पिछले : ल सर्वत्र सम ( चपटी ) ही दिखाई देती हैसमर्थ ज्योतिषियोंने पृथ्वीका भ्रमण स्वीकार गोलाकार नहीं प्रतीत होती । इसी कारण नहीं किया है, तो भी आर्यभट्ट नामके सुप्रसिद्ध । ६ पुराणकारोंने, जिनका उद्देश्य केवल कल्पित विद्वानने आजसे १५०० वर्ष पहले ही इस बातों द्वारा सामान्य जनताको यत्किञ्चित् ज्ञान सिद्धान्तका प्रतिपादन कर दिया था । सर करा -- करानेका था, लोगोंकी समझमें आने योग्य रमेशचन्द्र दत्त अपने सुप्रसिद्ध भारतीय इति- मी माटा वर्णन लिखा है। पर ज्योतिषियोंका हासमें लिखते हैं-" आर्यभट्ट कहता है कि, सस उद्देश्य कुछ और ही था; उन्हें भूगोल जिस प्रकार किसी नौकामें बैठा हुआ मनुष्य और खगोलके रहस्योंका पता लगाना था, आगे बढ़ता हुआ स्थिर वस्तुओंको पीछेकी गणितके सिद्धान्तों द्वारा सृष्टिकी मुख्य मुख्य मिटा ओर चलती हुई देखता है, उसी प्रकार तार घटनाओंका कार्यकारणभाव जानना था, इस लिए भी यद्यपि वे अचल हैं तथापि नित्य चलते उन्हें पृथ्वी और उसके ग्रहों-उपग्रहोंका खूब हुए दिखाई पड़ते हैं।” तीक्ष्ण दृष्टिसे निरीक्षण करके अपने विचार श्वेताम्बरसम्प्रदायके आचाराङ्गसत्रकी टीकामें निश्चित करने पड़े थे। अब रही जैनग्रन्थकारों Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [ भाग १३ की बात, सो.उन्होंने अनेक बातोंमें हिन्दू वनाओंमें देखना चाहिए। जैनदर्शनके दिवाकर पुराणोंहीका अनुकरण किया है। हिन्दू पुराणोंमें भी जिस साहित्यके विषयमें बहुत ही बुरी जो कुछ लिखा हुआ था, उसीको इन्होंने चतु- सम्मति देते हैं, वह साहित्य सर्वज्ञोक्त नहीं हो राईसे अच्छी तरह काटछाँटकर, उनकी परस्पर सकता । उसे सर्वज्ञकथित कह कर सर्वज्ञको विरोधिता और असंगतताको निकाल कर सुसं- कलंकित करना है । सर्वज्ञकथित वह स्याद्वाद कलित रूपमें अपने ग्रंथों में उल्लिखित कर दिया। सिद्धान्त है, जिसका कुछ कुछ दर्शन हमें हमारा विद्यमान साहित्य लगभग ४ थी ५ वीं भगवान कन्दकन्द और समन्तभद्रके ग्रन्थोंमें शताब्दिके बादका बना हुआ है और वह समय मिलता है। और यों तो धष्ट ग्रन्थकारोंने भद्रहिन्दुओंके पुराणोंकी लोकप्रियताका था । हिन्दू बाहसंहिता जैसे ग्रन्थोंको भी सर्वज्ञके सिर पर जनतामें पुराणोंका अत्यधिक आदर देखकर मढ़ देनेमें कोई कसर नहीं रक्खी है। अब वह जैन विद्वानोंने भी उन्हींका अनुकरण किया। समय आ गया है कि साहित्यके प्रत्येक अंगकी हिन्दुओंके और जैनोंके पुराणग्रन्थोंका तुल- और प्रत्येक विचारकी अच्छी तरहसे आलोनात्मक दृष्टिसे परस्पर मिलान करनेसे इस चना होनी चाहिए। नहीं तो काचके टुकड़ोंके कथनकी सत्यता विदित हो जायगी । हमें यह साथ बहमल्य मणि भी फेंक दिये जायेंगे और भी न भल जाना चाहिए कि, विद्यमान जैन- जगतकी एक सर्वोत्तम विचारश्रेणी अयुक्तकी धर्मका ढाँचा ठीक वैसा ही नहीं है जैसा भग- संगतिसे उपेक्षित हो जायगी। वान् महावीरदेवने अपने जीवनकालमें स्थिर किया था । इस इतने लम्बे और विपत्तिसंकुल हम कभी पाठकोंको, जैनग्रन्थोंहीके कुछ ढाई हजार वर्ष परिमित कालमें किसी भी धर्म, अवतरणोंसे यह दिखायँगे कि भरतखण्ड उतना राष्ट्र और समाजके स्वरूपमें परिवर्तन न हो, ही है जितनेको कि हम आजकल हिन्दुस्थान यह प्रकृतिके नियमसे सर्वथा असम्भव है। या भारतवर्ष कहते हैं । पृथ्वीके यूरोप, अमेजैनधर्मके मूलस्वरूपका जो धुंधला चित्र वर्त- रिकादि दृश्यमान खण्डोंकी गणना भरतखण्डमें मान जैनसाहित्यसमुद्र में गहरा गोता लगानेसे नहीं की जा सकती । विद्यमान गंगा सिन्धु दिखाई देता है, उसमें हम इन विचारोंका आभा- नदियोंके सिवा और कोई महागंगा महासिन्धु सपा सकते हैं। इन कारणोंसे हमारा अनुमान नदियाँ नहीं हैं, जैसा कि ऊपर दिये गये होता है कि, जो भौगोलिक सिद्धान्त जैनग्रंथोंमें स्वर्गीय बरैयाजीके लेखमें लिखा हुआ है । लिखे हैं, वे सर्वज्ञप्रणीत न होकर पुराणकल्पित भारतीय समुद्र ही लवणसमुद्र है और हिमाहैं । क्यों कि यह सुनिश्चित है कि, सर्वानुभूत लय पर्वत ही हिमवान् है । इनके अतिरिक्त प्रत्यक्ष प्रमाणसे सर्वज्ञका वचन कभी बाधित और कोई नदी, समुद्र पर्वतादि नहीं हैं । नहीं हो सकता । डा. हरमन जेकोबी जो योजनोंके परिमाणमें और संख्याकी गणनामें कुछ समय पहले ‘जैनदर्शनदिवाकर' की भ्रम हो जानेसे ये सब अनाप-शनाप कल्पनायें महती उपाधिसे विभूषित हो चुके हैं-जैनग्र- पैदा हुई हैं । यह भ्रम पुरातनकालके विद्वान्थोक्त ज्योतिषके बारेमें अपनी क्या सम्मति नोंको भी विदित हो चुका था; परंत किसी देते हैं उसे जैनविद्वानोंको 'प्राच्यदेशीय पवित्र कारणवश वे इस भ्रमका निराकरण न कर ग्रंथमाला' द्वारा प्रकाशित जैनसूत्रोंकी प्रस्ता- पाये । पर अब इस बीसवीं शताब्दिके विज्ञान Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२ ] प्रस्थापित साम्राज्य में यह भ्रम बहुत दिनोंतक नहीं टिक सकेगा । हमारे बहुतसे पुराणप्रिय पण्डितवर्य्य और धर्ममूर्ति पत्रसम्पादकगण कहा तो करते हैं कि हमारे पास आधुनिक भूगोलसिद्धान्तोंके खण्डनार्थ और जैनभूगोलके मण्डनार्थ अनेकानेक अकाट्य युक्तियाँ मौजूद है; परंतु उन्हें प्रकट आजतक किसीने नहीं किया । हमारी उन महाशयोंसे सविनय प्रार्थना है कि वे अब कृपाकर अपनी उन युक्तियोंके भाण्डागारको जैनत्व और जनता के हितार्थ उदार भावसे खोल दें । पर युक्तियों के नामसे अपने ऊटपटाँग विचारोंको प्रकट करनेकी कृपा न करें । उन्हें शास्त्रीय प्रमाणोंके साथ वर्तमानिक परिस्थितिकी सब ही अवस्थाओंका यथायोग्य विचार करना चाहिए । यह विषय उपेक्षा करने के लायक नहीं है। जैनधर्मकी प्रमाणिकताका इसके ऊपर बड़ा भारी आधार रहा हुआ है । इस एक अवयव निर्मूल सिद्ध होनेसे सारा ही विद्यमान जैनसाहित्य भयंकर स्थितिमें जा पड़ता है । उसकी ऐसी विचित्र रचना है कि उसमेंका एक भी विचार निकाल देने से समग्र शृंखला टूट जाती है। जैनतत्त्वज्ञानका एक दूसरे विचारके साथ 'व्याप्तिज्ञान ' के समान अविनाभावि सम्बन्ध है । इसकी जो विशेषता है वह यही है और यही विशेषता आजतक इसे जीवित रख रही है। पुस्तक- परिचय | ५५३ विषयमें हम अपनी विस्तृत सम्मति देना चाहते थे; परन्तु समय अभावसे ऐसा नहीं किया जा सका। इसके लिए हम लेखक और प्रकाशक महाशयोंसे क्षमा चाहते हैं । पुस्तक- परिचय | : इस अंकमें अब तककी समालोचनार्थ आई हुईं तमाम पुस्तकका संक्षिप्त परिचय दे दिया जाता है। इनमें से बहुतसी पुस्तकें ऐसी हैं, जो हमारे पास वर्षो से रक्खी हुई हैं और जिनके १. मोहिनी अर्थात् बिगड़ेका सुधार और पतितका उद्धार | श्रीयुत दत्तात्रय भीमाजी रण दिवेके लिखे हुए ' रूपसुन्दरी' नामक मराठी उपन्यासके गुजराती अनुवादका हिन्दी अनुवाद | अनुवादक बाबू भैयालाल जैन । आकार डबल क्राउन १६ पेजी । पृष्ठसंख्या ९० । मूल्य आठ आने । २ सच्चा विश्वास । ( त्रिलोकमोहिनी मालाका चौथा पुष्प | ) बंगालके सुप्रसिद्ध महा-त्मा केशवचन्द्रसेन के एक छोटेसे लेखका अनुवाद | अनुवादक बाबू श्यामसुन्दरलाल गुप्त । आकार डबल क्राऊन ३२ पेजी । पृष्ठ संख्या ४८ । मूल्य दो आने । ३ बालिका विनय । ( त्रिलोकमोहिनी मालाका तीसरा पुष्प | ) सम्पादिका एक जै महिला । आकार, पृष्ठसंख्या और मूल्य पूर्वपुस्तक के समान । ४ रत्नकरण्ड श्रावकाचार, Or the House halder's Dharma 1 समन्तभद्रस्वामीकृत रत्नकरण्डका अगरेजी अनुवाद, लगभग ४२ पेजके इन्ट्रोडक्शनके सहित। अनुवादक, बाबू चम्पतरायजी बैरिष्टर एट. ला. हरदोई । डबल क्राऊन सोलह पेजी आकारके १२० पृष्ठ | मूल्य बारह आने । इन चारों पुस्तककोंके प्रकाशक श्रीयुत कुमारदेवेन्द्रप्रसाद जैन, आरा हैं । इनकी छपाई, सफाई आदि सभी बातें दर्शनीय हैं । ५ The Study of Jainism. श्वेताम्बरचार्य आत्मानन्दजीके 'जैनतत्त्वादर्श' कर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनहितैषी [ भाग १३ अँगरेजी अनुवाद । पृष्ठसंख्या १०२ । मूल्य सतीशचन्द्र विद्याभूषणके सभापतित्वमें जोधबारह आने । पुरमें जो जैनसाहित्यसम्मेलन हुआ था, ६ Saptbhangi naya (सप्तभंगीनय)। उसका यह कार्यविवरण अभी थोड़े ही दिन जैनहितैषीके भाग १३ अंक १ में प्रकाशित हुए पहले प्रकाशित हुआ है। इसके एक भागमें लेखका अँगरेजी रूप । इसके प्रारंभमें श्रीयुत सम्मेलनकी रिपोर्ट है और दूसरे भागमें सम्मेमुनि जिनविजयजीकी लिखी हुई एक छोटीसी लनमें उपस्थित हुए गुजराती, हिन्दी और भूमिका भी दी हुई है। पृष्ठ ३० । मूल्य छह आने । अँगरेजी लेखोंका संग्रह है। आकार रायल ७ Lord Krishna's message । पृष्ठ- अठपेजी । पृष्ठसंख्या लगभग २६० । मूल्य संख्या २४ । मूल्य चार आने। एक रुपया। ८ व्याकरणबोध । हिन्दी भाषाका सुगम . १२ देहली शास्त्रार्थ ! (ईश्वरकर्तृत्वऔर संक्षिप्त व्याकरण । पृष्ठसंख्या २८। मूल्य तीर्थकरसर्वज्ञत्वखण्डनमण्डनविषयक ।') न्यायाढाई आना। लङ्कार पं० मक्खनलाल शास्त्री ( जैन ) ९ साहित्य-संगीत-निरूपण । पृष्ठसंख्या और पं० नरसिंहदेव शास्त्री दर्शनाचार्य (आर्य१३० । मूल्य दश आने । समाजी ) के शास्त्रार्थका विवरण । पृष्ठसंख्या १० उपनिषदू-रहस्य । नौ मुख्य मुख्य ६८ । मूल्य चार आने । प्रकाशक, मंत्री जैनउपनिषदोंके चुने हुए वाक्योंका संग्रह, उनका मित्रमण्डल, धरमपुरा देहली। हिन्दी अनुवाद और अँगरेजी अर्थ । आकार १४ सोऽहं तत्त्व । श्रीयुत ' सोहं स्वामी' डिमाई अठपेजी । पृष्ठसंख्या ४८ । मूल्य की बंगला पुस्तकका हिन्दी अनुवाद । अनुवाढाई आने । दक और प्रकाशक पं० ज्वालादत्त शर्मा, किस ___ उपर्युक्त छहों पुस्तकोंके लेखक धौलपुर स्टेटके रोल, मुरादाबाद । पृष्ठसंख्या १०४ । मूल्य सेशनजज श्रीयुत लाला कन्नोमलजी एम. ए. आठ आने । और प्रकाशक 'आत्मानन्द जैनपुस्तकप्रचा- १५ विवाहप्रबन्ध । लेखक, श्रीयुत रक मण्डल, रोशन मोहल्ला, आगरा' हैं। मुकुन्दीलाल, प्रकाशक, गढ़वाली प्रेस, देहरा ११ अहिंसा परमोधर्मः । इसमें महात्मा दून । डिमाई अठपेजी साइजके ३२ पृष्ठ । गाँधीका लिखा हुआ .' अहिंसा' और किसी मूल्य तीन आने । अहिींसस्ट' नामधारी महाशयका 'जैन अहिंसा', १६ शाही लकड़हारा । महात्मा शिवइस तरह दो अँगरेजी लेख हैं । ये दोनों लेख व्रतलाल वर्मा एम. ए. की उर्दू पुस्तकका अनुसुप्रसिद्ध अँगरेजी पत्र ‘माडर्नरिव्यू' में प्रका वाद । अनुवादक, बाबू गौरीशंकरलाल अख्तर । शित हुए थे । डबल क्राउन ३२ पेजी साइजके प्रकाशक, बाबू दयाचन्द गोयलीय बी. ए., ३२ पृष्ठ । मूल्य एक आना । भारतजैनम हा हिन्दीसाहित्यमण्डार, लखनऊ । आकार डबल मण्डलके जीवदयाविभागके मंत्री बाबू दया-- क्राउन सोलहपेजी । पृष्ठसंख्या २५२ । मूल्य -चन्दजी गोयलीय , बी. ए. लखनऊ इसके एक रुपया । .. प्रकाशक हैं। - १७ सदाचार-सोपान । प्रतिभा आदि १२ जैनसाहित्यसम्मेलनका कार्य विव- उपन्यासोंके लेखक बाबू अविनाशचन्द्र दास रण । सन् १९१४ के मार्च महीनेमें डा० एम. ए. बी. एल. की सुकथा नामक बंगला Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अङ्क १२] पुस्तक-परिचय । पुस्तकका अनुवाद । अनुवादक और प्रकाशक, डिमाई अठपेजी आकारके ८० पृष्ट । मूल्य दशरथ बलबन्त जादव, देवरी ( सागर,) सी. दश आने। पी. । पृष्ठसंख्या ४४, मूल्य चार आने । . २३ महाकवि गालिब और उनका १८ महादेव गोविन्द रानडे । लेखक, काव्य । २४ उस्ताद जौक और उनका श्रीयुत भारतीय। प्रकाशक, दीक्षित और काव्य । उर्दूके प्रसिद्ध कवियोंका और उनकी द्विवेदी, दारागंज प्रयाग । पृष्ठसंख्या २००। रचनाका परिचय। दोनों पुस्तकोंके लेखक, मूल्य दश आने। पं० ज्वालादत्त शमां और प्रकाशक. हरिदास १९ जीवरक्षादर्पण। लेखक और प्रकाशक, एण्ड कम्पनी नं० २०१ हरिसन रोड, कल. लाला पारसदासजी खजांची, देहली । पृष्ठसंख्या कत्ता । मूल्य छह छह आने । डिमाई अठपेजी साइजकी ८० । मूल्य चार आने । सम्पादकीय कार्यसे एक २० दिव्य जीवन । डा. स्विट् मार्सडनकी वर्षकी छड़ी। एक अँगरेजी पुस्तकका अनुवाद। अनुवादक, अवकाशकी कमी, लगातार अत्यधिक परिबाबू सुखसम्पत्तिराय भण्डारी । प्रकाशक, जीत- श्रमसे उत्पन्न हुई शारीरिक और मानमल लुणिया, इन्दौर । पृष्ठसंख्या १३६ । मूल्य सिक अस्वस्थता, आदि अनेक कारणोंसे मैं तेरह आने। जैनहितैषकि कार्यसे एक वर्षके लिए छुट्टी ___ २१ आत्मावबोध । राजशेखरसूरिके सस्कृत लेता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे काम न ग्रन्थके पं० लालनकत गुजराती अनुवाद और करने पर भी जैनहितैषी जारी रहे; इसके लिए विस्तृत विवेचनका हिन्दी अनुवाद । अनुवादक, मैं प्रयत्न भी कर रहा हूँ और आशा है कि पं० उदयलालजी काशलीवाल । प्रकाशक, मेरे मित्रोंमेंसे एक सज्जन इसके सम्पादन कार्यको मुकुन्ददास मोतीलाल मुणोत और आनन्दराम स्वीकार कर लेंगे। उनसे पत्रव्यवहार हो रहा केसरचन्द बाँठिया, पनवेल (बम्बईके नजदीक) है । यदि उन्होंने स्वीकार कर लिया तो इसकी पृष्ठसंख्या १४८ । मूल्य आत्मलीनता। सूचना यथासमय प्रकाशित कर दी जायगी। __२२ सदाचारिणी । सामाजिक उपन्यास। इस नये प्रबन्धमें कुछ विलम्ब होगा और इस लेखिका 'जननी'-सम्पादिका श्रीमती कुमुद- कारण अब हितैषीका नया वर्ष चैत्र सुदी १ से बाला देवी । प्रकाशक, हरिश्चन्द्र भट्ट, जननी शुरू किया जायगा। सम्पादक। आफिस, तनसुखलाइन, शिवठाकुर गली । नीचे लिखी पुस्तकें हालही बिक्रीके लिए आई हैं। इन्हें मँगाइए और पढिए:-. . १लड़ाईकी लहर, ठाकुर गदाधरसिंह कृत, मूल्य ।), संसारसुखसाधन, पं० गंगाप्रसाद आमिहोत्रीकृत, मूल्य ।), कथा-कहानी बाबू नारायणप्रसाद बी. ए. कृत, मूल्य ।), महाराष्ट्र केसरी ,पं० ताराचन्द आग्निहोत्री बी.ए. कृत, मू०॥०), भारतीय राष्ट्रनिर्माता, लाल, बाल, पाल, बांसेंट, गोखले आदि देशभक्तोंके जीवनचरित, मूल्य दश माने । रा. ब. जस्टिस महादेव गोविन्द रानडे, लेखक बाबू रामचन्द्र वर्मा । मू० ॥) मैनेजर, हिन्दीग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, हीराबाग पो. गिरगाव, बम्बई । . नई पुस्तकें Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितैषी-औषधालय-इटावहकी पवित्र-सस्ती-औषधियाँ। नमक सुलेमानी। दवा सफेद दागोंकी। जगत्प्रसिद्ध असली २० वर्षका आजमदा हा- इससे शरीरमें जो सफेद २ दाग पड़जाते जमेकी अक्सीर दवा । की० ॥) तीन हैं वह दूर हो जाते हैं । की० १) सी० १) श्वास-कुठार। धातु संजीवन । यह स्वास दमें की शर्तिया दवा है । की० १) संपूर्ण धातु विकारको नष्ट कर नया वीर्य गोली दस्तबंदकी। पैदा होकर शरीर हृष्ट-पुष्ट होजाता है । की०१) रक्त, आम, आदि अतिसार तथा संग्रहणी प्रदरान्तक-चूर्ण। आदिको शीघ्र दूर करती है । की० ॥) दवा खांसीकी। स्त्रियोंके श्वेत, लाल आदि प्रदरोंको शर्तिया सूखी या तर खांसीको और कफको दूर कघर कर ताकत बढ़ाता और गर्भस्थिति करता है रने वाली आजमदा दवा है । की०॥) की०१). ... नयनामृत-सुरमा। अर्क कपूर। । हैजेकी अक्सीर दवा । की.) . - सम्पूर्ण विकारोंको दूरकर नेत्रोंकी ज्योति । १० बढ़ाता और तरावट पैदा करता है । की. १) " . चंद्रकला । - यह गोरे व खूबसूरतीकी दवा है। की० ॥); ___ दन्त-कुसुमाकर। दाँतोंके सब रोग दूर होकर दांतोंकी चमक नैन-सुधा-अञ्जन । बढ़ाता और मजबूत करता है । की०) इससे आँखका जाला धुन्ध फुली माड़ा आदि ___ सब अच्छे होते हैं । की० ॥) दद्रु-दमन । दवा पेटके दर्दकी। यह खुशबूदार मरहम विना कष्टके दादके दादाको तगादा कर भगाती है । की।) .. चाहे कैसा पेट दर्द हो फौरन दूर होता है । ____ की० ॥) केश-बिहार-तैल। ताम्बूल रंजन । अत्यन्त सुगन्धिसे चित्त प्रसन्न कर केश और पानके साथ खानेका बढ़िया मसाला । की।). मस्तकके रोगोंको दूर करता है । की० ॥) शिरदर्द-हर तैल । की०।) नारायण-तैल। कर्ण-रोग-हर तैल । की।) शरदी आदिसे उत्पन्न हुए दर्द, गठिया, प- खुजली-नाशक तैल । की।) क्षाघात आदि सर्व वात रोगोंकी शर्तिया दवा बाल उड़ानेका साबुन । की०।) हैं। की० १) कोकिल-कण्ठ-बटिका । की०१) पता-चन्द्रसेन जैन वैद्य, चन्द्राश्रम, इटावह U. P.. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३) हमारी ग्रन्थमालाकी लिखा है । इसमें एकसे एक बढ़कर सुन्दर और भावपूर्ण ९ गल्पे हैं । इनके जोड़की गल्ये आपने नई पुस्तकें । शायद ही कभी पढ़ी हों। मूल्य एक रुपया ताराबाई । यह आपके पूर्वपरिचित स्वर्गीय दो आने । सादीका ॥) द्विजेन्द्रलाल रायके बंगला नाटकका अनुवाद है। नूरजहाँ । स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल रायके प्रसिद्ध अभी तक आपने इनके जितने नाटक पढ़े हैं, वे सब नाटकका अनुवाद। इसके विषयमें अधिक लिखनेकी गद्यमें थे, पर यह पद्यमें है । अनुवाद भी खड़ी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती । शाहजहाँ और बोलीकेतुकान्तहीन पद्योंमें कराया गया है। नूरजहाँ उनके सर्वश्रेष्ठ नाटक गिने जाते हैं। मूल्य एक अनुवादक है-सुकवि पं० रूपनारायण पाण्डेय । हिन्दीमें रुपया दो आने । राजसंस्करण १॥) यह बिलकुल नई चीज है । ऐतिहासिक नाटक है । राष्ट्रीय ग्रन्थ। यह बढ़िया 'इमिटेशन आर्ट' कागज पर छपाया गया है । मूल्य एक रुपया छह आने । सादेका १) स्वराज्य । गुरुकुल काँगड़ीके अर्थशास्त्रके देश-दर्शन । इसके तैयार होनेकी सूचना वर्षोंसे प्रोफेसर श्रीयुत बालकृष्ण एम. ए. इसके लेखक निकल रही है। बड़ी मुश्किलसे यह अब तैयार हुआ हैं। इस विषयका अपने ढंगका यह निराला ही है । इसके लेखक ठाकुर शिवनन्दनसिहजी बी. ए. हैं ग्रन्थ है। पृष्ठसंख्या ३०० । मूल्य सवा रुपया । अँगरेजीके पचासों ग्रन्थोंके आधारसे यह लिखा गय अर्थशास्त्र । अर्थात् धनकी उत्पत्ति तथा है। इसमें देशकी भीतरी दशाआका आपको दर्शन होगा । यहाँकी घोरदरिद्रताका, आयुकी भयंकर घटीका, वृद्धि । लेखक, उपर्युक्त प्रो० बालकृष्ण एम. ए. मृत्युसंख्याकी बढ़ती हुई भीषणताका अल्पजीवी पृष्ठसख्या ५५० । मू०१॥) । बच्चोंकी अधिक जन्मसंख्याका और इनके साथ बढ़े पालेमेण्ट । लेखक, श्रीयुत बाबू सुपार्श्वदास हुए व्याभिचारका, नशेबाजीका, चरित्रहीनताका वर्णन गुप्त बी. ए. । हिन्दीमें यह इस विषयकी सबसे पढ़कर आप अवाक् हो जायँगे । शिक्षाकी कमी, पहली पस्तक है । जिस ब्रिटिश पार्लमेण्टके व्यापारकी दुर्दशा, विदेशियोंकी सत्ता, किसानोंकी बुरी शासनमें हम रहते हैं उसका शुरूसे लेकर अब हालत, बालविवाह, वृद्धविवाह, अयोग्यविवाह, विवाहका तकका इतिहास. उसका क्रमविकाश. उसका इतिहास, उत्तम संतान उत्पन्न करनेके सिद्धान्त, सन्तान तान शासनपद्धति और उसके गुणदोष आदि बातोंका कम उत्पन्न करनेकी आवश्यकता आदि और भी अनेक विषयोंके सम्बन्धमें आपको इसमें सैकड़ों नई बातें खूब विस्तार के साथ इसमें निरूपण किया गया मालूम होंगी । कई चित्र और नकशे भी इसमें दिये है । पृष्ठसंख्या २७५ । मूल्य एक रुपया दो गये हैं । पृष्ठसंख्या पौने पाँचसौके लगभग । मूल्य आने । सादीका चौदह आने । तीन रुपया। महादेव गोविंद रानड़े। लेखक, श्रीयुत हृदयकी परख । जो लोग इस बातकी शिकायत भारतीय । बम्बई हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज, करते हैं, कि हिन्दीमें स्वतंत्र उपन्यास नहीं है उन्हें इस प्रसिद्ध सधारक और देशभक्त महात्मा का जीवनभावपूर्ण उपन्यासको पढकर बहुत सन्तोष होगा। चरित । यह अनेक ग्रन्थोंके आधारसे बहुत इसके लेखक आयुर्वेदाचार्य पं० चतुरसेन शास्त्री हैं। इस पुस्तकमें हमने एक नामी चित्रकारसे पाँच नवीन अच्छे ढंगसे लिखा गया है। पृष्ठसंख्या २०० । चित्र बनवाकर छपवायें हैं, जिससे पुस्तक और भी मूल्य ) सुन्दर हो गई है । मूल्य एक रुपया दो आने। देवी जोन अर्थात् स्वतंत्रताकी मूर्ति । अपने सादीका ।।।) जीवनका बलि देकर फ्रान्सको पराधीनतासे मुक्त नवनिधि । इस ग्रन्थको उर्दूके प्रसिद्ध गल्पलेखक करनेवाली 'जौन आफ आर्क' नामक प्रसिद्ध श्रीयुत प्रेमचदजीने स्वयं अपनी कलमसे हिन्दीमें वीरांगनाका देशभक्तिपूर्ण अपूर्व जीवनचरित । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 लेखिका, श्रीमती बालाजी / पृष्ठसंख्या 100 से लिए बहुत ही उपयोगी हैं / यह गुजरातीके ऊपर / मूल्य आठ आने / प्रसिद्ध लेखक श्रीयुत अमृतलाल पढ़ियारकी स्वराज्यकी योग्यता / 'माडर्न रिव्यू 'के पुस्तकका अनुवाद है / मूल्य छह आने। सम्पादक श्रीयुत बाबू रामानन्द चट्टोपाध्यायकेशाही लकडहारा। उईके सुप्रसिद्ध लिखे हुए सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'टूवडू होमरूल' लेखक लाला शिवव्रतलाल वर्मा एम. ए. की का हिन्दी अनुवाद / ( प्रथम भाग।) इस विष- दिलचस्प पुस्तकका हिन्दी अनुवाद / मूल्य एक यका यह अद्वितीय ग्रन्थ है / बड़ी ही अकाट्य रुपया। युक्तियोंसे 'भारत स्वराज्यके योग्य नहीं है। सुख और सफलताके मूल सिद्धान्त / इस प्रवादका खण्डन किया गया है / प्रत्येक सुप्रसिद्ध अंगरेजी लेखक जेम्स एलनकी देशभक्तके पढ़नेकी चीज है / पृष्ठसंख्या 220 / / 1 'फोन्डेशन स्टोन्स टू हेप्पीनेस एण्ड सक्सेस' मूल्य सवा रुपया। नामक पुस्तकका अनुवाद / मूल्य ढाई आना / स्वराज्यकी पात्रता। मल्य पाँच आने / सुखकी प्राप्तिका मार्ग / जेम्स एलनकी राष्ट्रीय शिक्षा | मि० अरण्डल के व्याख्यानका अनुवाद / मू०) 'पाथ आफ प्रोसपेरिटी' का अनुवाद / स्वराज्यकी पात्रताके प्रमाण और अनुवादक, बाबू दयाचन्द गोयलीय बी. ए. पृष्ठसंख्या 80 / मूल्य :-) कार्य / मूल्य-)॥ देवी वसन्तका संदेशा -) // किशोरावस्था / लेखक, श्रीयुत गोपाल राष्ट्रनिर्माण शरणसिंह बी. ए. / जिन्होंने युवावस्थामें प्रवेश स्थानिक स्वराज्य - किया है, उन्हें अवश्य पढ़ना चाहिए। बड़ी धर्म और राजनीति -) अच्छी पुस्तक है / मूल्य // ) स्वराज्य क्यों चाहिए ) ज्योतिष शास्त्र। लेखक, श्रीयुत बाबू दुर्गास्वराज्यविचार प्रसाद खेतान एम. ए. कृत / अनेक चित्रोंसे हिन्दुस्थान की मांग युक्त / मूल्य दश आने / राष्ट्रीय स्वराज्य कर्मक्षेत्र / श्रीशशिभूषणसेनकृत बंगला हमारा भीषण ह्रास, लेखक-पं० मन्नन द्विवेदी पुस्तकका हिन्दी अनुवाद / इसमें निरुद्यमी, बी. ए. मू० ) उत्साहहीन और हतभाग्य भारतवासियोंको अन्यान्य विषयोंके ग्रन्थ। उत्साहित करके कर्मवीर बनाने का प्रयत्न किया सदाचार-सोपान / प्रतिभा. शान्ति की गया है। भारतवर्ष के अनेक महापुरुषों के चरित्र आदिके लेखक, श्रीयुत बाबू अविनाशचन्द्रदास / देकर इन बातोंको पुष्ट किया है / पृष्ठसंख्या एम. ए. बी.एल. की बंगला पुस्तकका अनुवाद / / 200 / मू० सादीका चौदह आने / सजिबहुत ही अच्छी शिवाप्रद पुस्तक है। मल्य।) ल्दक 13) राजा और रानी / इसमें सम्राट पंचम मिलनेका पताजार्ज और महाराणी मेरीके चरित्रसे मिलनेवाली व्यवस्थापक-हिन्दी-ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय शिक्षाऑपर विचार किया गया है। विद्यार्थियों के हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई। (इस अंकके निकलनेकी ता० 20-1-1918 ई०)