SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्मका भूगोल और खगोल । अङ्क १२ ] खगोलविषयक वर्णनको — जो हमारे साहित्यका एक मुख्य अंग होकर उसके बहुत बड़े भागको रोके हुए हैं-पढ़ते सुनते हैं, उस समय हमारे हृदयमें अनेक प्रकारकी शंकातरंगें उच्छ्रसित होने लगती हैं । हमारे ग्रंथोंमें इस . विषय में जितनी बातें कही गई हैं, उनमेंसे एक भी बात ऐसी नहीं है, जो अनेकानेक प्रमाणों और साधनों द्वारा निश्चित किये गये आधुनिक भौगोलिक और खगोलिक विचारोंसे- जिनमेंकी मोटी मोटी बातों से हमारा प्रत्येक बालक बचपनहीसे स्कूलों में परिचित हो जाता है-मेल रखती हों | जो विद्यार्थी स्कूलों को छोड़ कर कालेजोंके कमरोंमें भी कुछ काल तक बैठ आते हैं, वे तो हमारे ग्रंथोंकी इन बातोंको सुनकर आदरान्वित आश्चर्यके बदले वैसा ही आश्चर्य करते हैं जैसा कि हमारे श्रद्धालु और विचारशील जैन हिन्दुओंके पुराणोंकी अमानुषिक बातोंको सुनकर करते हैं । बहुतसे विद्यार्थी तो यहाँतक विश्वास कर लेते हैं— चाहे वे फिर किसी भय या शंका कारण उसे स्पष्ट भले ही प्रकट न कर सकें- कि जैनग्रन्थकार इन बातोंकी निर्मूल कल्पनायें करने में पुराणकारोंसे भी बढ़े चढ़े हैं ! जैनधर्मके पण्डितों और जानकारोंके सामने भी अब इस विषयकी चर्चा उपस्थित होने लगी है; परन्तु उनके पास इसका केवल एक उत्तर है और वह यह कि ऐसे लोगोंके विचार या विश्वास अज्ञानजन्य हैं, अथवा नास्तिकता के फल हैं; परंतु इस अज्ञानता या नास्तिकता के निवारण करनेका उनकी ओरसे कोई भी प्रयत्न नहीं किया जाता; उलटा इस प्रकारके निर्बलतासूचक उद्गारोंद्वारा शंकितोंको अपने विचारोंमें और भी दृढ बननेका कारण उपस्थित किया जाता है । इन पंक्तियोंके जिज्ञासु लेखकने अपनी बुद्धिके अनुसार जैनधर्मके भूगोल -खगोलका - ५५५ जो कि तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि टीकाओंमें और त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति त्रैलोक्यसार, आदि ग्रंथोंमें लिखा है और साथ ही आधुनिक विज्ञानद्वारा संशोधित भूगोल - खगोलका, इस तरह दोनोंका ही थोड़ासा अध्ययन किया है और दोनोंका परस्पर मिलान करके देखा है कि किसी तरहसे भी इनकी संगति मिल सकती है या नहीं । परन्तु इसे ( लेखकको ) संगतिके बदले विरोध ही एकान्तरूपसे नजर आया है । विरोधके होनेमें कोई आश्चर्य नहीं है; परंतु विरोध विरोधमें अन्तर होता है । एक विरोधका परिहार किया जा सकता है और दूसरा अपरिहार्य होता है । यह विरोध मुझे अपरिहार्य ही मालूम हुआ और सो भी प्रत्यक्ष प्रमाणोंसे । जैनशास्त्रोंमें पृथ्वीको कुम्हारके चक्रकी तरह या झल्लरीके समान चिपटी और गोल बतलाया है । उसपर असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं । वे एक दूसरेसे दूने दूने विस्तारवाले हैं और बलयके आकार एक दूसरोको घेरे हुए हैं । उन सबमें मध्यवर्ती एक लक्ष योजनका लंबा चौड़ा जंबूद्वीप है । इस द्वीपके दक्षिण भागान्तमें भरतखण्ड नामका क्षेत्र है, जिसमें हम रहते हैं । स्वर्गीय स्याद्वादवारिधि पण्डित गोपालदासजी बरैया ने अपने ' जैन जागरफी ' नामक निबन्धके अंतमें लिखा है (C आज कल हम लोगोंका निवास मध्यलोकके जम्बूद्वीपसंबंधी दक्षिणदिशावर्ती भरतक्षेत्रके आर्यखण्डमें हैं । इस आर्यखण्डके उत्तर में विजयार्द्ध पर्वत है । दक्षिणमें लवणसमुद्र, पूर्वमें महागंगा और उत्तरमें महासिन्धु नदी है । भरतक्षेत्रकी चौड़ाई ५२६१ योजन है । इसके बिलकुल बीचमें विजयार्द्ध पर्वत पड़ा हुआ है, जिससे भरतक्षेत्र के दो खण्ड हो गये हैं । तथा महागंगा और महासिन्धु हिमवत् पर्वत
SR No.522838
Book TitleJain Hiteshi 1917 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1917
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy