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जैनहितैषी
[भाग १३ जैनधर्मका भूगोल और प्रत्यक्ष कर रहा है-वह बात नहीं रही । अब
- श्रद्धाका साम्राज्य नष्ट हो रहा है और उसके खगोल । स्थानमें बुद्धिकी प्रतिष्ठा हो रही है । अब
पुराने शास्त्रोंमें कही हुई वे ही बातें श्रद्धाके ___ [ लेखक,-श्रीयुक्त जिज्ञासु।]...
सहारे "येन केन प्रकारेण ' स्वीकृत की जा यों तो पृथ्वीके प्रायः सभी धर्मोके साहित्य- सकती हैं जो सर्वथा परोक्ष हैं और जिनका में भूगोल और खगोलके विषयमें कुछ न कुछ ज्ञान करानेके लिए सिवा धर्मशास्त्रके और कोई लिखा हुआ है; पर उनमें हिन्दू और जैनधर्मका साधन नहीं है । प्रत्यक्ष पदार्थों के बारेमें अब साहित्य खास तौरसे उल्लेखयोग्य है । हिन्दु- धर्मशास्त्रोंके कथनका जैसा चाहिए वैसा आदर ओंके पुराणों और ज्योतिषग्रन्थोंमें, इस विष- नहीं किया जाता । कारण यह है कि ऐसी यमें बहुत कुछ लिखा गया है; परंतु जैनसाहि- अनेक बातें वैज्ञानिक परीक्षाओंके सामने निर्मूल त्यमें जिस क्रमसे और सूक्ष्मताके साथ यह ठहर चुकी हैं जिनका वर्णन पुराने ग्रंथोंमें बड़े विषय लिखा गया है, वैसा हिन्दूसाहित्यमें नहीं। विस्तारके साथ और बड़े उत्साहके साथ लिखा हिन्दू ग्रन्थकार इस विषयमें एकमत भी नहीं हैं- गया है। भूगोल और खगोल विषयक बातें उनमेंसे कोई कुछ लिखता है और कोई कुछ; भी उन्हींमेंसे हैं। , परंतु जैनसाहित्यमें वह बात नहीं । जैन- ऊपर लिखा जा चुका है कि, जैनधर्मकी धर्मकी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों शाखा- पुस्तकोंमें इन दोनों विषयोंका बहुत ही सूक्ष्म
ओंका साहित्य इस बारेमें पूरी पूरी एकता और बहुत विस्तारयुक्त वर्णन किया है और रखता है।
. इस सूक्ष्मता और विस्तृतताके कारण ही अभी परंत, जबसे आधनिक वैज्ञानिक युगका आ- तक जैन विद्वान् अपने धर्मशास्त्रोंको अभिमारंभ हुआ है, तबसे इन प्राचीन धर्मग्रन्थोंमें लिखी नके साथ सर्वज्ञप्रणीत अतएव सर्वथा सत्यहुइ बातोंकी प्रामाणिकताके ऊपर बहुत ही प्रतिपादित करते आये हैं। परंतु अब वह भयानक उपद्रव होना शुरू हुआ है। प्राचीन समय नहीं रहा कि केवल बुद्धिको चकरा देनेकालमें भूगोल और खगोलविषयक पदार्थोके वाले बड़े बड़े लम्बे चौड़े वर्णनोंको देखकर परीक्षण या निरीक्षण करनेके लिए उपयुक्त ही लोग उनकी सत्यताका स्वीकार कर लें। साधन न थे, इस कारण उस समय प्रत्येक अब तो मनुष्यकी बुद्धि प्रत्येक कथनका मूल धर्मावलम्बीको अपने अपने धर्मग्रंथोंमें लिखी और क्रमविकास सप्रमाण पछना चाहती है। हुई बातोंको केवल श्रद्धाके सामर्थ्यसे ही प्रत्यक्षके साथ संबंध रखनेवाले प्रायः सब ही सत्य मानना पड़ता था । एक तो उन कथनोंमें पदार्थोके कार्यकारण भावोंका सांगोपांग निरीशंका करनेके कारण ही कम थे, और कदाचित् क्षण करनेके बाद ही लोग उनकी सत्यासशंकायें होती भी थीं, तो उनके निवारण कर- त्यता स्वीकार करते हैं। केवल सर्वज्ञकथित नेके विशेष साधन नहीं थे। परंतु इस वैज्ञानिक कह देनेस ही अब काम नहीं चलता। प्रमाणोंघुगमें-जब कि आकाश पाताल एक किया जा द्वारा युक्तियुक्त या बुद्धिगम्य करने-कराने हा है और मनुष्य प्रकृतिके गूढ़से गूढ़ पटलों- पर ही अब कार्यसिद्धि अवलम्बित है । को अपनी, शक्तिद्वारा बाहर लाकर सर्व- जिस समय हम अपने साहित्योक्त भूगोल